भावार्थ : — आचार्यदेवने प्रार्थना की है कि यह ज्ञानानन्दमय एकाकार स्वरूपज्योति हमें सदा प्राप्त रहो ।१४।
श्लोकार्थ : — [एषः ज्ञानघनः आत्मा ] यह (पूर्वकथित) ज्ञानस्वरूप आत्मा, [सिद्ध्मि् अभीप्सुभिः ] स्वरूपकी प्राप्तिके इच्छुक पुरुषोंको [साध्यसाधकभावेन ] साध्यसाधकभावके भेदसे [द्विधा ] दो प्रकारसे, [एकः ] एक ही [नित्यम् समुपास्यताम् ] नित्य सेवन करने योग्य है; उसका सेवन करो ।
भावार्थ : — आत्मा तो ज्ञानस्वरूप एक ही है, परन्तु उसका पूर्णरूप साध्यभाव है और अपूर्णरूप साधकभाव है; ऐसे भावभेदसे दो प्रकारसे एकका ही सेवन करना चाहिए ।१५।
गाथार्थ : — [साधुना ] साधु पुरुषको [दर्शनज्ञानचारित्राणि ] दर्शन, ज्ञान और चारित्र [नित्यम् ] सदा [सेवितव्यानि ] सेवन करने योग्य हैं; [पुनः ] और [तानि त्रीणि अपि ] उन तीनोंको [निश्चयतः ] निश्चयनयसे [आत्मानं च एव ] एक आत्मा ही [जानीहि ] जानो ।