(अनुष्टुभ्)
एष ज्ञानघनो नित्यमात्मा सिद्धिमभीप्सुभिः ।
साध्यसाधकभावेन द्विधैकः समुपास्यताम् ।।१५।।
दंसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं ।
ताणि पुण जाण तिण्णि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो ।।१६।।
दर्शनज्ञानचरित्राणि सेवितव्यानि साधुना नित्यम् ।
तानि पुनर्जानीहि त्रीण्यप्यात्मानं चैव निश्चयतः ।।१६।।
येनैव हि भावेनात्मा साध्यः साधनं च स्यात्तेनैवायं नित्यमुपास्य इति स्वयमाकूय परेषां
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
भावार्थ : — आचार्यदेवने प्रार्थना की है कि यह ज्ञानानन्दमय एकाकार स्वरूपज्योति हमें
सदा प्राप्त रहो ।१४।
अब, आगेकी गाथाकी सूचनारूप श्लोक कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [एषः ज्ञानघनः आत्मा ] यह (पूर्वकथित) ज्ञानस्वरूप आत्मा, [सिद्ध्मि्
अभीप्सुभिः ] स्वरूपकी प्राप्तिके इच्छुक पुरुषोंको [साध्यसाधकभावेन ] साध्यसाधकभावके भेदसे
[द्विधा ] दो प्रकारसे, [एकः ] एक ही [नित्यम् समुपास्यताम् ] नित्य सेवन करने योग्य है; उसका
सेवन करो ।
भावार्थ : — आत्मा तो ज्ञानस्वरूप एक ही है, परन्तु उसका पूर्णरूप साध्यभाव है और
अपूर्णरूप साधकभाव है; ऐसे भावभेदसे दो प्रकारसे एकका ही सेवन करना चाहिए ।१५।
अब, दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप साधकभाव है यह इस गाथामें कहते हैं : —
दर्शनसहित नित ज्ञान अरु, चारित्र साधु सेइये ।
पर ये तीनों आत्मा हि केवल, जान निश्चयदृष्टिमें ।।१६।।
गाथार्थ : — [साधुना ] साधु पुरुषको [दर्शनज्ञानचारित्राणि ] दर्शन, ज्ञान और चारित्र
[नित्यम् ] सदा [सेवितव्यानि ] सेवन करने योग्य हैं; [पुनः ] और [तानि त्रीणि अपि ] उन
तीनोंको [निश्चयतः ] निश्चयनयसे [आत्मानं च एव ] एक आत्मा ही [जानीहि ] जानो ।
टीका : — यह आत्मा जिस भावसे साध्य तथा साधन हो उस भावसे ही नित्य