Samaysar (Hindi). Kalash: 14.

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त्मापि परद्रव्यसंयोगव्यवच्छेदेन केवल एवानुभूयमानः सर्वतोऽप्येकविज्ञानघनत्वात् ज्ञानत्वेन स्वदते
(पृथ्वी)
अखण्डितमनाकुलं ज्वलदनन्तमन्तर्बहि-
र्महः परममस्तु नः सहजमुद्विलासं सदा
चिदुच्छलननिर्भरं सकलकालमालम्बते
यदेकरसमुल्लसल्लवणखिल्यलीलायितम
।।१४।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
पूर्वरंग
४५
किये जाने पर, सर्वतः एक विज्ञानघनताके कारण ज्ञानरूपसे स्वादमें आता है
भावार्थ :यहाँ आत्माकी अनुभूतिको ही ज्ञानकी अनुभूति कहा गया है
अज्ञानीजन ज्ञेयोंमें हीइन्द्रियज्ञानके विषयोंमें हीलुब्ध हो रहे हैं; वे इन्द्रियज्ञानके विषयोंसे
अनेकाकार हुए ज्ञानको ही ज्ञेयमात्र आस्वादन करते हैं, परन्तु ज्ञेयोंसे भिन्न ज्ञानमात्रका
आस्वादन नहीं करते
और जो ज्ञानी हैं, ज्ञेयोंमें आसक्त नहीं हैं वे ज्ञेयोंसे भिन्न एकाकार
ज्ञानका ही आस्वाद लेते हैं,जैसे शाकोंसे भिन्न नमककी डलीका क्षारमात्र स्वाद आता
है, उसीप्रकार आस्वाद लेते हैं, क्योंकि जो ज्ञान है सो आत्मा है और जो आत्मा है सो
ज्ञान है
इसप्रकार गुणगुणीकी अभेद दृष्टिमें आनेवाला सर्व परद्रव्योंसे भिन्न, अपनी पर्यायोंमें
एकरूप, निश्चल, अपने गुणोंमें एकरूप, परनिमित्तसे उत्पन्न हुए भावोंसे भिन्न अपने स्वरूपका
अनुभव, ज्ञानका अनुभव है; और यह अनुभवन भावश्रुतज्ञानरूप जिनशासनका अनुभवन है
शुद्धनयसे इसमें कोई भेद नहीं है ।।१५।।
अब, इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :आचार्य कहते हैं कि [परमम् महः नः अस्तु ] हमें वह उत्कृष्ट तेज
-प्रकाश प्राप्त हो [यत् सकलकालम् चिद्-उच्छलन-निर्भरं ] कि जो तेज सदाकाल चैतन्यके
परिणमनसे परिपूर्ण है, [उल्लसत्-लवण-खिल्य-लीलायितम् ] जैसे नमककी डली एक
क्षाररसकी लीलाका आलम्बन करती है, उसीप्रकार जो तेज [एक-रसम् आलम्बते ] एक
ज्ञानरसस्वरूपका आलम्बन करता है; [अखण्डितम् ] जो तेज अखण्डित है
जो ज्ञेयोंके
आकाररूप खण्डित नहीं होता, [अनाकुलं ] जो अनाकुल हैजिसमें कर्मोंके निमित्तसे
होनेवाले रागादिसे उत्पन्न आकुलता नहीं है, [अनन्तम् अन्तः बहिः ज्वलत् ] जो
अविनाशीरूपसे अन्तरङ्गमें और बाहरमें प्रगट दैदीप्यमान है
जाननेमें आत्मा है, [सहजम् ]
जो स्वभावसे हुआ हैजिसे किसीने नहीं रचा और [सदा उद्विलासं ] सदा जिसका विलास
उदयरूप हैजो एकरूप प्रतिभासमान है