र्महः परममस्तु नः सहजमुद्विलासं सदा ।
यदेकरसमुल्लसल्लवणखिल्यलीलायितम् ।।१४।।
भावार्थ : — यहाँ आत्माकी अनुभूतिको ही ज्ञानकी अनुभूति कहा गया है । अज्ञानीजन ज्ञेयोंमें ही — इन्द्रियज्ञानके विषयोंमें ही — लुब्ध हो रहे हैं; वे इन्द्रियज्ञानके विषयोंसे अनेकाकार हुए ज्ञानको ही ज्ञेयमात्र आस्वादन करते हैं, परन्तु ज्ञेयोंसे भिन्न ज्ञानमात्रका आस्वादन नहीं करते । और जो ज्ञानी हैं, ज्ञेयोंमें आसक्त नहीं हैं वे ज्ञेयोंसे भिन्न एकाकार ज्ञानका ही आस्वाद लेते हैं, — जैसे शाकोंसे भिन्न नमककी डलीका क्षारमात्र स्वाद आता है, उसीप्रकार आस्वाद लेते हैं, क्योंकि जो ज्ञान है सो आत्मा है और जो आत्मा है सो ज्ञान है । इसप्रकार गुणगुणीकी अभेद दृष्टिमें आनेवाला सर्व परद्रव्योंसे भिन्न, अपनी पर्यायोंमें एकरूप, निश्चल, अपने गुणोंमें एकरूप, परनिमित्तसे उत्पन्न हुए भावोंसे भिन्न अपने स्वरूपका अनुभव, ज्ञानका अनुभव है; और यह अनुभवन भावश्रुतज्ञानरूप जिनशासनका अनुभवन है । शुद्धनयसे इसमें कोई भेद नहीं है ।।१५।।
श्लोकार्थ : — आचार्य कहते हैं कि [परमम् महः नः अस्तु ] हमें वह उत्कृष्ट तेज -प्रकाश प्राप्त हो [यत् सकलकालम् चिद्-उच्छलन-निर्भरं ] कि जो तेज सदाकाल चैतन्यके परिणमनसे परिपूर्ण है, [उल्लसत्-लवण-खिल्य-लीलायितम् ] जैसे नमककी डली एक क्षाररसकी लीलाका आलम्बन करती है, उसीप्रकार जो तेज [एक-रसम् आलम्बते ] एक ज्ञानरसस्वरूपका आलम्बन करता है; [अखण्डितम् ] जो तेज अखण्डित है — जो ज्ञेयोंके आकाररूप खण्डित नहीं होता, [अनाकुलं ] जो अनाकुल है — जिसमें कर्मोंके निमित्तसे होनेवाले रागादिसे उत्पन्न आकुलता नहीं है, [अनन्तम् अन्तः बहिः ज्वलत् ] जो अविनाशीरूपसे अन्तरङ्गमें और बाहरमें प्रगट दैदीप्यमान है — जाननेमें आत्मा है, [सहजम् ] जो स्वभावसे हुआ है — जिसे किसीने नहीं रचा और [सदा उद्विलासं ] सदा जिसका विलास उदयरूप है — जो एकरूप प्रतिभासमान है ।