भावाभ्याम्; अथ च यदेव विशेषाविर्भावेनानुभूयमानं लवणं तदेव सामान्याविर्भावेनापि । तथा
लुब्धानां स्वदते, न पुनरन्यसंयोगशून्यतोपजातसामान्यविशेषाविर्भावतिरोभावाभ्याम्; अथ च यदेव
ज्ञानमात्रका अनुभव किया जाता है तब ज्ञान प्रगट अनुभवमें आता है तथापि जो अज्ञानी हैं, ज्ञेयोंमें
आसक्त हैं उन्हें वह स्वादमें नहीं आता । यह प्रगट दृष्टान्तसे बतलाते हैं : —
जैसे — अनेक प्रकारके शाकादि भोजनोंके सम्बन्धसे उत्पन्न सामान्य लवणके तिरोभाव और विशेष लवणके आविर्भावसे अनुभवमें आनेवाला जो (सामान्यके तिरोभावरूप और शाकादिके स्वादभेदसे भेदरूप – विशेषरूप) लवण है उसका स्वाद अज्ञानी, शाक-लोलुप मनुष्योंको आता है, किन्तु अन्यकी सम्बन्धरहिततासे उत्पन्न सामान्यके आविर्भाव और विशेषके तिरोभावसे अनुभवमें आनेवाला जो एकाकार अभेदरूप लवण है उसका स्वाद नहीं आता; और परमार्थसे देखा जाये तो, विशेषके आविर्भावसे अनुभवमें आनेवाला (क्षाररसरूप) लवण ही सामान्यके आविर्भावसे अनुभवमें आनेवाला (क्षाररसरूप) लवण है । इसप्रकार — अनेक प्रकारके ज्ञेयोंके आकारोंके साथ मिश्ररूपतासे उत्पन्न सामान्यके तिरोभाव और विशेषके आविर्भावसे अनुभवमें आनेवाला जो (विशेषभावरूप, भेदरूप, अनेकाकाररूप) ज्ञान है वह अज्ञानी, ज्ञेय-लुब्ध जीवोंको स्वादमें आता है, किन्तु अन्यज्ञेयाकारकी संयोगरहिततासे उत्पन्न सामान्यके आविर्भाव और विशेषके तिरोभावसे अनुभवमें आनेवाला जो एकाकार अभेदरूप ज्ञान वह स्वादमें नहीं आता; और परमार्थसे विचार किया जाये तो, जो ज्ञान विशेषके आविर्भावसे अनुभवमें आता है वही ज्ञान सामान्यके आविर्भावसे अनुभवमें आता है । अलुब्ध ज्ञानियोंको तो, जैसे सैंधवकी डली, अन्यद्रव्यके संयोगका व्यवच्छेद करके केवल सैंधवका ही अनुभव किये जाने पर, सर्वतः एक क्षाररसत्वके कारण क्षाररूपसे स्वादमें आती है उसीप्रकार आत्मा भी, परद्रव्यके संयोगका व्यवच्छेद करके केवल आत्माका ही अनुभव