जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठं अणण्णमविसेसं ।
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अपदेससंतमज्झं पस्सदि जिणसासणं सव्वं ।।१५।।
यः पश्यति आत्मानम् अबद्धस्पृष्टमनन्यमविशेषम् ।
अपदेशसान्तमध्यं पश्यति जिनशासनं सर्वम् ।।१५।।
येयमबद्धस्पृष्टस्यानन्यस्य नियतस्याविशेषस्यासंयुक्तस्य चात्मनोऽनुभूतिः सा खल्वखिलस्य
जिनशासनस्यानुभूतिः, श्रुतज्ञानस्य स्वयमात्मत्वात्; ततो ज्ञानानुभूतिरेवात्मानुभूतिः । किन्तु
कहानजैनशास्त्रमाला ]
पूर्वरंग
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अब, ‘शुद्धनयके विषयभूत आत्माकी अनुभूति ही ज्ञानकी अनुभूति है’ इसप्रकार आगेकी
गाथाकी सूचनाके अर्थरूप काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [इति ] इसप्रकार [या शुद्धनयात्मिका आत्म-अनुभूतिः ] जो पूर्वकथित
शुद्धनयस्वरूप आत्माकी अनुभूति है [इयम् एव किल ज्ञान-अनुभूतिः ] वही वास्तवमें ज्ञानकी
अनुभूति है [इति बुद्ध्वा ] यह जानकर तथा [आत्मनि आत्मानम् सुनिष्प्रकम्पम् निवेश्य ] आत्मामें
आत्माको निश्चल स्थापित करके, [नित्यम् समन्तात् एकः अवबोध-घनः अस्ति ] ‘सदा सर्व ओर
एक ज्ञानघन आत्मा है’ इसप्रकार देखना चाहिये ।
भावार्थ : — पहले सम्यग्दर्शनको प्रधान करके कहा था; अब ज्ञानको मुख्य करके कहते
हैं कि शुद्धनयके विषयस्वरूप आत्माकी अनुभूति ही सम्यग्ज्ञान है ।१३।
अब, इस अर्थरूप गाथा कहते हैं : —
अनबद्धस्पृष्ट, अनन्य, जो अविशेष देखे आत्मको,
वो द्रव्य और जु भाव, जिनशासन सकल देखे अहो ।।१५।।
गाथार्थ : — [यः ] जो पुरुष [आत्मानम् ] आत्माको [अबद्धस्पृष्टम् ] अबद्धस्पृष्ट,
[अनन्यम् ] अनन्य, [अविशेषम् ] अविशेष (तथा उपलक्षणसे नियत और असंयुक्त) [पश्यति ]
देखता है वह [सर्वम् जिनशासनं ] सर्व जिनशासनको [पश्यति ] देखता है, — कि जो जिनशासन
[१अपदेशसान्तमध्यं ] बाह्य द्रव्यश्रुत तथा अभ्यंतर ज्ञानरूप भावश्रुतवाला है ।
टीका : — जो यह अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त ऐसे पांच
भावस्वरूप आत्माकी अनुभूति है वह निश्चयसे समस्त जिनशासनकी अनुभूति है, क्योंकि श्रुतज्ञान
★ पाठान्तर : अपदेससुत्तमज्झं ।१ अपदेश=द्रव्यश्रुत; सान्त = ज्ञानरूप भावश्रुत ।