(शार्दूलविक्रीडित)
भूतं भान्तमभूतमेव रभसान्निर्भिद्य बन्धं सुधी-
र्यद्यन्तः किल कोऽप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात् ।
आत्मात्मानुभवैकगम्यमहिमा व्यक्तोऽयमास्ते ध्रुवं
नित्यं कर्मकलंक पंक विकलो देवः स्वयं शाश्वतः ।।१२।।
(वसंततिलका)
आत्मानुभूतिरिति शुद्धनयात्मिका या
ज्ञानानुभूतिरियमेव किलेति बुद्धवा ।
आत्मानमात्मनि निवेश्य सुनिष्प्रकम्प-
मेकोऽस्ति नित्यमवबोधघनः समन्तात् ।।१३।।
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
स्वभावका, मोह रहित होकर जगत अनुभव करो; क्योंकि मोहकर्मके उदयसे उत्पन्न मिथ्यात्वरूप
अज्ञान जहां तक रहता है वहां तक यह अनुभव यथार्थ नहीं होता ।
भावार्थ : — यहां यह उपदेश है कि शुद्धनयके विषयरूप आत्माका अनुभव करो ।११।
अब, इसी अर्थका सूचक कलशरूप काव्य पुनः कहते हैं, जिसमें यह कहा गया है कि
ऐसा अनुभव करने पर आत्मदेव प्रगट प्रतिभासमान होता है : —
श्लोकार्थ : — [यदि ] यदि [कः अपि सुधीः ] कोई सुबुद्धि (सम्यग्दृष्टि) जीव [भूतं
भान्तम् अभूतम् एव बन्धं ] भूत, वर्तमान और भविष्य — तीनों कालके कर्मबन्धको अपने आत्मासे
[रभसात् ] तत्काल – शीघ्र [निर्भिद्य ] भिन्न करके तथा [मोहं ] उस कर्मोदयके निमित्तसे होनेवाले
मिथ्यात्व (अज्ञान) को [हठात् ] अपने बलसे (पुरुषार्थसे) [व्याहत्य ] रोककर अथवा नाश
करके [अन्तः ] अन्तरङ्गमें [किल अहो कलयति ] अभ्यास करे — देखे तो [अयम् आत्मा ] यह
आत्मा [आत्म-अनुभव-एक-गम्य महिमा ] अपने अनुभवसे ही जानने योग्य जिसकी प्रगट
महिमा है ऐसा [व्यक्त : ] व्यक्त (अनुभवगोचर), [ध्रुवं ] निश्चल, [शाश्वतः ] शाश्वत, [नित्यं
कर्म-कलङ्क-पङ्क-विकलः ] नित्य कर्मकलङ्क-कर्दमसे रहित — [स्वयं देवः ] ऐसा स्वयं स्तुति
करने योग्य देव [आस्ते ] विराजमान है ।
भावार्थ : — शुद्धनयकी दृष्टिसे देखा जाये तो सर्व कर्मोंसे रहित चैतन्यमात्र देव अविनाशी
आत्मा अन्तरङ्गमें स्वयं विराजमान है । यह प्राणी — पर्यायबुद्धि बहिरात्मा — उसे बाहर ढूँढ़ता है यह
महा अज्ञान है ।१२।