(अनुष्टुभ्)
दर्शनज्ञानचारित्रैस्त्रिभिः परिणतत्वतः ।
एकोऽपि त्रिस्वभावत्वाद्वयवहारेण मेचकः ।।१७।।
(अनुष्टुभ्)
परमार्थेन तु व्यक्तज्ञातृत्वज्योतिषैककः ।
सर्वभावान्तरध्वंसिस्वभावत्वादमेचकः ।।१८।।
(अनुष्टुभ्)
आत्मनश्चिन्तयैवालं मेचकामेचकत्वयोः ।
दर्शनज्ञानचारित्रैः साध्यसिद्धिर्न चान्यथा ।।१९।।
४८
समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
श्लोकार्थ : — [एकः अपि ] आत्मा एक है, तथापि [व्यवहारेण ] व्यवहारदृष्टिसे देखा
जाय तो [त्रिस्वभावत्वात् ] तीन-स्वभावरूपताके कारण [मेचकः ] अनेकाकाररूप (‘मेचक’)
है, [दर्शन-ज्ञान-चारित्रैः त्रिभिः परिणतत्वतः ] क्योंकि वह दर्शन, ज्ञान और चारित्र — इन तीन
भावोंरूप परिणमन करता है ।
भावार्थ : — शुद्धद्रव्यार्थिक नयसे आत्मा एक है; जब इस नयको प्रधान करके कहा जाता
है तब पर्यायार्थिक नय गौण हो जाता है, इसलिए एकको तीनरूप परिणमित होता हुआ कहना
सो व्यवहार हुआ, असत्यार्थ भी हुआ । इसप्रकार व्यवहारनयसे आत्माको दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप
परिणामोंके कारण ‘मेचक’ कहा है ।१७।
अब, परमार्थनयसे कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [परमार्थेन तु ] शुद्ध निश्चयनयसे देखा जाये तो [व्यक्त -ज्ञातृत्व-ज्योतिषा ]
प्रगट ज्ञायकत्वज्योतिमात्रसे [एककः ] आत्मा एकस्वरूप है, [सर्व-भावान्तर-ध्वंसि-स्वभावत्वात् ]
क्योंकि शुद्धद्रव्यार्थिक नयसे सर्व अन्यद्रव्यके स्वभाव तथा अन्यके निमित्तसे होनेवाले विभावोंको
दूर करनेरूप उसका स्वभाव है, इसलिये वह [अमेचकः ] ‘अमेचक’ है — शुद्ध एकाकार है ।
भावार्थ : — भेददृष्टिको गौण करके अभेददृष्टिसे देखा जाये तो आत्मा एकाकार ही है,
वही अमेचक है ।१८।
आत्माको प्रमाण-नयसे मेचक, अमेचक कहा है, उस चिन्ताको मिटाकर जैसे साध्यकी
सिद्धि हो वैसा करना चाहिए, यह आगेके श्लोकमें कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [आत्मनः ] यह आत्मा [मेचक-अमेचकत्वयोः ] मेचक है — भेदरूप