जह णाम को वि पुरिसो रायाणं जाणिऊण सद्दहदि ।
तो तं अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पयत्तेण ।।१७।।
एवं हि जीवराया णादव्वो तह य सद्दहेदव्वो ।
अणुचरिदव्वो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण ।।१८।।
यथा नाम कोऽपि पुरुषो राजानं ज्ञात्वा श्रद्दधाति ।
ततस्तमनुचरति पुनरर्थार्थिकः प्रयत्नेन ।।१७।।
एवं हि जीवराजो ज्ञातव्यस्तथैव श्रद्धातव्यः ।
अनुचरितव्यश्च पुनः स चैव तु मोक्षकामेन ।।१८।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
पूर्वरंग
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अनेकाकार है तथा अमेचक है — अभेदरूप एकाकार है [चिन्तया एव अलं ] ऐसी चिन्तासे तो
बस हो । [साध्यसिद्धिः ] साध्य आत्माकी सिद्धि तो [दर्शन-ज्ञान-चारित्रैः ] दर्शन, ज्ञान और
चारित्र — इन तीन भावोंसे ही होती है, [ न च अन्यथा ] अन्य प्रकारसे नहीं (यह नियम है) ।
भावार्थ : — आत्माके शुद्ध स्वभावकी साक्षात् प्राप्ति अथवा सर्वथा मोक्ष वह साध्य है ।
आत्मा मेचक है या अमेचक, ऐसे विचार ही मात्र करते रहनेसे वह साध्य सिद्ध नहीं होता; परन्तु
दर्शन अर्थात् शुद्ध स्वभावका अवलोकन, ज्ञान अर्थात् शुद्ध स्वभावका प्रत्यक्ष जानना और चारित्र
अर्थात् शुद्ध स्वभावमें स्थिरतासे ही साध्यकी सिद्धि होती है । यही मोक्षमार्ग है, अन्य नहीं ।
व्यवहारीजन पर्यायमें – भेदमें समझते हैं, इसलिये यहां ज्ञान, दर्शन, चारित्रके भेदसे समझाया
है ।१९।
अब, इसी प्रयोजनको दो गाथाओंमें दृष्टान्तपूर्वक कहते हैं : —
ज्यों पुरुष कोई नृपतिको भी, जानकर श्रद्धा करे ।
फि र यत्नसे धन-अर्थ वो, अनुचरण राजाका करै ।।१७।।
जीवराजको यों जानना, फि र श्रद्धना इस रीतिसे ।
उसका ही करना अनुचरण, फि र मोक्ष-अर्थी यत्नसे ।।१८।।
गाथार्थ : — [यथा नाम ] जैसे [कः अपि ] कोई [अर्थार्थिकः पुरुषः ] धनका अर्थी