स एवानुचरितव्यश्च, साध्यसिद्धेस्तथान्यथोपपत्त्यनुपपत्तिभ्याम
श्रद्धानमुत्प्लवते तदा समस्तभावान्तरविवेकेन निःशंक मवस्थातुं शक्यत्वादात्मानुचरण-
मुत्प्लवमानमात्मानं साधयतीति साध्यसिद्धेस्तथोपपत्तिः
[तं प्रयत्नेन अनुचरति ] उसका प्रयत्नपूर्वक अनुचरण करता है अर्थात् उसकी सुन्दर रीतिसे सेवा
करता है, [एवं हि ] इसीप्रकार [मोक्षकामेन ] मोक्षके इच्छुकको [जीवराजः ] जीवरूपी राजाको
[ज्ञातव्यः ] जानना चाहिए, [पुनः च ] और फि र [तथा एव ] इसीप्रकार [श्रद्धातव्यः ] उसका
श्रद्धान करना चाहिए [तु च ] और तत्पश्चात् [ स एव अनुचरितव्यः ] उसीका अनुसरण करना
चाहिए अर्थात् अनुभवके द्वारा तन्मय हो जाना चाहिये
करनेसे अवश्य धनकी प्राप्ति होगी’ और तत्पश्चात् उसीका अनुचरण करे, सेवा करे, आज्ञामें
रहे, उसे प्रसन्न करे; इसीप्रकार मोक्षार्थी पुरुषको पहले तो आत्माको जानना चाहिए, और
फि र उसीका श्रद्धान करना चाहिये कि ‘यही आत्मा है, इसका आचरण करनेसे अवश्य
कर्मोंसे छूटा जा सकेगा’ और तत्पश्चात् उसीका अनुचरण करना चाहिए
सिद्धिकी इसीप्रकार उपपत्ति है, अन्यथा अनुपपत्ति है (अर्थात् इसीप्रकारसे साध्यकी सिद्धि
होती है, अन्य प्रकारसे नहीं)
अनुभूति है सो ही मैं हूँ’ ऐसे आत्मज्ञानसे प्राप्त होनेवाला, यह आत्मा जैसा जाना वैसा ही
है इसप्रकारकी प्रतीति जिसका लक्षण है ऐसा, श्रद्धान उदित होता है तब समस्त
अन्यभावोंका भेद होनेसे निःशंक स्थिर होनेमें समर्थ होनेसे आत्माका आचरण उदय होता
हुआ आत्माको साधता है