नात्मानं साधयतीति साध्यसिद्धेरन्यथानुपपत्तिः ।
अपतितमिदमात्मज्योतिरुद्गच्छदच्छम् ।
न खलु न खलु यस्मादन्यथा साध्यसिद्धिः ।।२०।।
अज्ञातका श्रद्धान गधेके सींगके श्रद्धान समान है इसलिए, श्रद्धान भी उदित नहीं होता तब
समस्त अन्यभावोंके भेदसे आत्मामें निःशंक स्थिर होनेकी असमर्थताके कारण आत्माका आचरण
उदित न होनेसे आत्माको नहीं साध सकता । इसप्रकार साध्य आत्माकी सिद्धिकी अन्यथा
भावार्थ : — साध्य आत्माकी सिद्धि दर्शन-ज्ञान-चारित्रसे ही है, अन्य प्रकारसे नहीं । क्योंकि : — पहले तो आत्माको जाने कि यह जो जाननेवाला अनुभवमें आता है सो मैं हूँ । इसके बाद उसकी प्रतीतिरूप श्रद्धान होता है; क्योंकि जाने बिना किसका श्रद्धान करेगा ? तत्पश्चात् समस्त अन्यभावोंसे भेद करके अपनेमें स्थिर हो । — इसप्रकार सिद्धि होती है । किन्तु यदि जाने ही नहीं, तो श्रद्धान भी नहीं हो सकता; और ऐसी स्थितिमें स्थिरता कहाँ करेगा ? इसलिये यह निश्चय है कि अन्य प्रकारसे सिद्धि नहीं होती ।।१७-१८।।
श्लोकार्थ : — आचार्य कहते हैं कि — [अनन्तचैतन्यचिह्नं ] अनन्त (अविनश्वर) चैतन्य जिसका चिह्न है ऐसी [इदम् आत्मज्योतिः ] इस आत्मज्योतिका [सततम् अनुभवामः ] हम निरन्तर अनुभव करते हैं, [यस्मात् ] क्योंकि [अन्यथा साध्यसिद्धिः न खलु न खलु ] उसके अनुभवके बिना अन्य प्रकारसे साध्य आत्माकी सिद्धि नहीं होती । वह आत्मज्योति ऐसी है कि [कथम् अपि समुपात्तत्रित्वम् अपि एकतायाः अपतितम् ] जिसने किसी प्रकारसे त्रित्व अङ्गीकार