ननु ज्ञानतादात्म्यादात्मा ज्ञानं नित्यमुपास्त एव, कुतस्तदुपास्यत्वेनानुशास्यत इति चेत्,
तन्न, यतो न खल्वात्मा ज्ञानतादात्म्येऽपि क्षणमपि ज्ञानमुपास्ते, स्वयम्बुद्धबोधितबुद्धत्वकारण-
पूर्वकत्वेन ज्ञानस्योत्पत्तेः । तर्हि तत्कारणात्पूर्वमज्ञान एवात्मा नित्यमेवाप्रतिबुद्धत्वात् ? एवमेतत् ।
तर्हि कियन्तं कालमयमप्रतिबुद्धो भवतीत्यभिधीयताम् —
कम्मे णोकम्मम्हि य अहमिदि अहकं च कम्म णोकम्मं ।
जा एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव ।।१९।।
५२
समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
किया है तथापि जो एकत्वसे च्युत नहीं हुई और [अच्छम् उद्गच्छत् ] जो निर्मलतासे उदयको
प्राप्त हो रही है ।
भावार्थ : — आचार्य कहते हैं कि जिसे किसी प्रकार पर्यायदृष्टिसे त्रित्व प्राप्त है तथापि
शुद्धद्रव्यदृष्टिसे जो एकत्वसे रहित नहीं हुई तथा जो अनन्त चैतन्यस्वरूप निर्मल उदयको प्राप्त
हो रही है ऐसी आत्मज्योतिका हम निरन्तर अनुभव करते हैं । यह कहनेका आशय यह भी
जानना चाहिए कि जो सम्यग्दृष्टि पुरुष हैं वे, जैसा हम अनुभव करते हैं वैसा अनुभव करें ।२०।
टीका : — अब, कोई तर्क करे कि आत्मा तो ज्ञानके साथ तादात्म्यस्वरूप है, अलग
नहीं है, इसलिये वह ज्ञानका नित्य सेवन करता ही है; तब फि र उसे ज्ञानकी उपासना करनेकी
शिक्षा क्यों दी जाती है ? उसका समाधान यह है : — ऐसा नहीं है । यद्यपि आत्मा ज्ञानके साथ
तादात्म्यस्वरूप है तथापि वह एक क्षणमात्र भी ज्ञानका सेवन नहीं करता; क्योंकि स्वयंबुद्धत्व
(स्वयं स्वतः जानना) अथवा बोधितबुद्धत्व (दूसरेके बतानेसे जानना) — इन कारणपूर्वक
ज्ञानकी उत्पत्ति होती है । (या तो काललब्धि आये तब स्वयं ही जान ले अथवा कोई उपदेश
देनेवाला मिले तब जाने — जैसे सोया हुआ पुरुष या तो स्वयं ही जाग जाये अथवा कोई जगाये
तब जागे ।) यहां पुनः प्रश्न होता है कि यदि ऐसा है तो जाननेके कारणसे पूर्व क्या आत्मा
अज्ञानी ही है, क्योंकि उसे सदैव अप्रतिबुद्धत्व है ? उसका उत्तर : — ऐसा ही है, वह अज्ञानी
ही है ।
अब यहां पुनः पूछते हैं कि — यह आत्मा कितने समय तक (कहाँ तक) अप्रतिबुद्ध रहता
है वह कहो । उसके उत्तररूप गाथासूत्र कहते हैं : —
नोकर्म कर्म जु ‘ मैं ’ अवरु, ‘ मैं ’में कर्म-नोकर्म हैं ।
— यह बुद्धि जबतक जीवकी, अज्ञानी तबतक वो रहे ।।१९।।