यथा स्पर्शरसगन्धवर्णादिभावेषु पृथुबुध्नोदराद्याकारपरिणतपुद्गलस्कन्धेषु घटोऽयमिति, घटे च स्पर्शरसगन्धवर्णादिभावाः पृथुबुध्नोदराद्याकारपरिणतपुद्गलस्कन्धाश्चामी इति वस्त्वभेदेनानु- भूतिस्तथा कर्मणि मोहादिष्वन्तरंगेषु नोकर्मणि शरीरादिषु बहिरङ्गेषु चात्मतिरस्कारिषु पुद्गल- परिणामेष्वहमित्यात्मनि च कर्म मोहादयोऽन्तरंगा नोकर्म शरीरादयो बहिरङ्गाश्चात्मतिरस्कारिणः पुद्गलपरिणामा अमी इति वस्त्वभेदेन यावन्तं कालमनुभूतिस्तावन्तं कालमात्मा भवत्यप्रतिबुद्धः । यदा कदाचिद्यथा रूपिणो दर्पणस्य स्वपराकारावभासिनी स्वच्छतैव वह्नेरौष्ण्यं ज्वाला च तथा नीरूपस्यात्मनः स्वपराकारावभासिनी ज्ञातृतैव पुद्गलानां कर्म नोकर्म चेति स्वतः परतो वा भेदविज्ञानमूलानुभूतिरुत्पत्स्यते तदैव प्रतिबुद्धो भविष्यति ।
गाथार्थ : — [यावत् ] जब तक इस आत्माकी [कर्मणि ] ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, भावकर्म [च ] और [नोकर्मणि ] शरीरादि नोकर्ममें [अहं ] ‘यह मैं हूँ’ [च ] और [अहकं कर्म नोकर्म इति ] मुझमें (-आत्मामें) ‘यह कर्म-नोकर्म हैं’ — [एषा खलु बुद्धिः ] ऐसी बुद्धि है, [तावत् ] तब तक [अप्रतिबुद्धः ] यह आत्मा अप्रतिबुद्ध [भवति ] है ।
टीका : — जैसे स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि भावोंमें तथा चौड़ा तल, बड़ा उदर आदिके आकार परिणत हुये पुद्गलके स्कन्धोंमें ‘यह घट है’ इसप्रकार, और घड़ेमें ‘यह स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि भाव तथा चौड़ा तल, बड़ा उदर आदिके आकाररूप परिणत पुद्गल-स्कंध हैं ’ इसप्रकार वस्तुके अभेदसे अनुभूति होती है, इसीप्रकार कर्म – मोह आदि अन्तरङ्ग (परिणाम) तथा नोकर्म — शरीरादि बाह्य वस्तुयें — कि जो (सब) पुद्गलके परिणाम हैं और आत्माका तिरस्कार करनेवाले हैं — उनमें ‘यह मैं हूँ’ इसप्रकार और आत्मामें ‘यह कर्म — मोह आदि अन्तरङ्ग तथा नोकर्म — शरीरादि बहिरङ्ग, आत्म-तिरस्कारी (आत्माका तिरस्कार करनेवाले) पुद्गल-परिणाम हैं’ इसप्रकार वस्तुके अभेदसे जब तक अनुभूति है तब तक आत्मा अप्रतिबुद्ध है; और जब कभी, जैसे रूपी दर्पणकी स्व-परके आकारका प्रतिभास करनेवाली स्वच्छता ही है और उष्णता तथा ज्वाला अग्निकी है इसीप्रकार अरूपी आत्माकी तो अपनेको और परको जाननेवाली ज्ञातृता ही है और कर्म तथा नोकर्म पुद्गलके हैं, इसप्रकार स्वतः अथवा परोपदेशसे जिसका मूल भेदविज्ञान है ऐसी अनुभूति उत्पन्न होगी तब ही (आत्मा) प्रतिबुद्ध होगा