मचलितमनुभूतिं ये स्वतो वान्यतो वा ।
र्मुकुरवदविकाराः सन्ततं स्युस्त एव ।।२१।।
भावार्थ : — जैसे स्पर्शादिमें पुदगलका और पुद्गलमें स्पर्शादिका अनुभव होता है अर्थात् दोनों एकरूप अनुभवमें आते हैं, उसीप्रकार जब तक आत्माको, कर्म-नोकर्ममें आत्माकी और आत्मामें कर्म-नोकर्मकी भ्रान्ति होती है अर्थात् दोनों एकरूप भासित होते हैं, तब तक तो वह अप्रतिबुद्ध है : और जब वह यह जानता है कि आत्मा तो ज्ञाता ही है और कर्म-नोकर्म पुद्गलके ही हैं तभी वह प्रतिबुद्ध होता है । जैसे दर्पणमें अग्निकी ज्वाला दिखाई देती है वहां यह ज्ञात होता है कि ‘‘ज्वाला तो अग्निमें ही है, वह दर्पणमें प्रविष्ट नहीं है, और जो दर्पणमें दिखाई दे रही है वह दर्पणकी स्वच्छता ही है’’; इसीप्रकार ‘‘कर्म-नोकर्म अपने आत्मामें प्रविष्ट नहीं हैं; आत्माकी ज्ञान-स्वच्छता ऐसी ही है कि जिसमें ज्ञेयका प्रतिबिम्ब दिखाई दे; इसीप्रकार कर्म-नोकर्म ज्ञेय हैं, इसलिये वे प्रतिभासित होते हैं’’ — ऐसा भेदज्ञानरूप अनुभव आत्माको या तो स्वयमेव हो अथवा उपदेशसे हो तभी वह प्रतिबुद्ध होता है ।।१९।।
श्लोकार्थ : — [ये ] जो पुरुष [स्वतः वा अन्यतः वा ] अपनेसे ही अथवा परके उपदेशसे [कथम् अपि हि ] किसी भी प्रकारसे [भेदविज्ञानमूलाम् ] भेदविज्ञान जिसका मूल उत्पत्तिकारण है ऐसी अपने आत्माकी [अचलितम् ] अविचल [अनुभूतिम् ] अनुभूतिको [लभन्ते ] प्राप्त करते हैं, [ते एव ] वे ही पुरुष [मुकुरवत् ] दर्पणकी भांति [प्रतिफलन- निमग्न-अनन्त-भाव-स्वभावैः ] अपनेमें प्रतिबिम्बित हुए अनन्त भावोंके स्वभावोंसे [सन्ततं ] निरन्तर [अविकाराः ] विकाररहित [स्युः ] होते हैं, — ज्ञानमें जो ज्ञेयोंके आकार प्रतिभासित होते हैं उनसे रागादि विकारको प्राप्त नहीं होते ।२१।
अब शिष्य प्रश्न करता है कि अप्रतिबुद्धको कैसे पहिचाना जा सकता है उसका चिह्न बताइये; उसके उत्तररूप गाथा कहते हैं : —