यदि स पुद्गलद्रव्यीभूतो जीवत्वमागतमितरत् ।
तच्छक्तो वक्तुं यन्ममेदं पुद्गलं द्रव्यम् ।।२५।।
युगपदनेकविधस्य बन्धनोपाधेः सन्निधानेन प्रधावितानामस्वभावभावानां संयोगवशाद्विचित्रो-
पाश्रयोपरक्तः स्फ टिकोपल इवात्यन्ततिरोहितस्वभावभावतया अस्तमितसमस्तविवेकज्योतिर्महता
स्वयमज्ञानेन विमोहितहृदयो भेदमकृ त्वा तानेवास्वभावभावान् स्वीकुर्वाणः पुद्गलद्रव्यं
ममेदमित्यनुभवति किलाप्रतिबुद्धो जीवः । अथायमेव प्रतिबोध्यते — रे दुरात्मन्, आत्मपंसन्,
जहीहि जहीहि परमाविवेकघस्मरसतृणाभ्यवहारित्वम् । दूरनिरस्तसमस्तसन्देहविपर्यासानध्यवसायेन
कहानजैनशास्त्रमाला ]
पूर्वरंग
५९
[भणति ] कहता है कि [इदं ] यह [बद्धम् तथा च अबद्धं ] शरीरादिक बद्ध तथा
धनधान्यादिक अबद्ध [पुद्गलं द्रव्यम् ] पुद्गलद्रव्य [मम ] मेरा है । आचार्य कहते हैं कि —
[सर्वज्ञज्ञानदृष्ट: ] सर्वज्ञके ज्ञान द्वारा देखा गया जो [नित्यम् ] सदा [उपयोगलक्षण: ]
उपयोगलक्षणवाला [जीवः ] जीव है [स: ] वह [पुद्गलद्रव्यीभूतः ] पुद्गलद्रव्यरूप [कथं ]
कैसे हो सकता है [यत् ] जिससे कि [भणसि ] तू कहता है कि [इदं मम ] यह पुद्गलद्रव्य
मेरा है ? [यदि ] यदिे [स: ] जीवद्रव्य [पुद्गलद्रव्यीभूत: ] पुद्गलद्रव्यरूप हो जाय और
[इतरत् ] पुद्गलद्रव्य [जीवत्वम् ] जीवत्वको [आगतम् ] प्राप्त करे [तत् ] तो [वक्तुं शक्त: ]
तू कह सकता है [यत् ] कि [इदं पुद्गलं द्रव्यम् ] यह पुद्गलद्रव्य [मम ] मेरा है । (किन्तु
ऐसा तो नहीं होता ।)
टीका : — एक ही साथ अनेक प्रकारकी बन्धनकी उपाधिकी अति निकटतासे वेगपूर्वक
बहते हुये अस्वभावभावोंके संयोगवश जो (अप्रतिबुद्ध – अज्ञानी जीव) अनेक प्रकारके वर्णवाले
१आश्रयकी निकटतासे रंगे हुए स्फ टिक पाषाण जैसा है, अत्यन्त तिरोभूत (ढँके हुये) अपने
स्वभावभावत्वसे जो जिसकी समस्त भेदज्ञानरूप ज्योति अस्त हो गई है ऐसा है, और महा अज्ञानसे
जिसका हृदय स्वयं स्वतः ही विमोहित है-ऐसा अप्रतिबुद्ध (-अज्ञानी) जीव स्व-परका भेद
न करके, उन अस्वभावभावोंको ही (जो अपने स्वभाव नहीं हैं ऐसे विभावोंको ही) अपना करता
हुआ, पुद्गलद्रव्यको ‘यह मेरा है’ इसप्रकार अनुभव करता है । (जैसे स्फ टिकपाषाणमें अनेक
प्रकारके वर्णोंकी निकटतासे अनेकवर्णरूपता दिखाई देती है, स्फ टिकका निज श्वेत-निर्मलभाव
दिखाई नहीं देता, इसीप्रकार अप्रतिबुद्धको कर्मकी उपाधिसे आत्माका शुद्ध स्वभाव आच्छादित
हो रहा है — दिखाई नहीं देता, इसलिए पुद्गलद्रव्यको अपना मानता है त्) ऐसे अप्रतिबुद्धको अब
समझाया जा रहा है कि : — रे दुरात्मन् ! आत्मघात करनेवाले ! जैसे परम अविवेकपूर्वक खानेवाले
१आश्रय = जिसमें स्फ टिकमणि रखा हुआ हो वह वस्तु ।