विश्वैकज्योतिषा सर्वज्ञज्ञानेन स्फु टीकृतं किल नित्योपयोगलक्षणं जीवद्रव्यं तत्कथं पुद्गलद्रव्यीभूतं
येन पुद्गलद्रव्यं ममेदमित्यनुभवसि, यतो यदि कथंचनापि जीवद्रव्यं पुद्गलद्रव्यीभूतं स्यात्
पुद्गलद्रव्यं च जीवद्रव्यीभूतं स्यात् तदैव लवणस्योदकमिव ममेदं पुद्गलद्रव्यमित्यनुभूतिः किल
घटेत, तत्तु न कथंचनापि स्यात् । तथा हि — यथा क्षारत्वलक्षणं लवणमुदकीभवत्
द्रवत्वलक्षणमुदकं च लवणीभवत् क्षारत्वद्रवत्वसहवृत्त्यविरोधादनुभूयते, न तथा नित्योपयोगलक्षणं
जीवद्रव्यं पुद्गलद्रव्यीभवत् नित्यानुपयोगलक्षणं पुद्गलद्रव्यं च जीवद्रव्यीभवत् उपयोगानुपयोगयोः
प्रकाशतमसोरिव सहवृत्तिविरोधादनुभूयते । तत्सर्वथा प्रसीद, विबुध्यस्व, स्वद्रव्यं ममेदमित्यनुभव ।
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समयसार
[ भगवानश्रीकुन्दकुन्द-
हाथी आदि पशु सुन्दर आहारको तृण सहित खा जाते हैं उसीप्रकार खानेके स्वभावको तू छोड़,
छोड़ । जिसने समस्त संदेह, विपर्यय, अनध्यवसाय दूर कर दिये हैं और जो विश्वको (समस्त
वस्तुओंको) प्रकाशित करनेके लिए एक अद्वितीय ज्योति है ऐसे सर्वज्ञज्ञानसे स्फु ट (प्रगट) किया
गया जो नित्य उपयोगस्वभावरूप जीवद्रव्य वह पुद्गलद्रव्यरूप कैसे हो गया कि जिससे तू यह
अनुभव करता है कि ‘यह पुद्गलद्रव्य मेरा है’ ? क्योंकि यदि किसी भी प्रकारसे जीवद्रव्य
पुद्गलद्रव्यरूप हो और पुद्गलद्रव्य जीवद्रव्यरूप हो तभी ‘नमकका पानी’ इसप्रकारके अनुभवकी
भांति ऐसी अनुभूति वास्तवमें ठीक हो सकती है कि ‘यह पुद्गलद्रव्य मेरा है’; किन्तु ऐसा तो
किसी भी प्रकारसे नहीं बनता
।
दृष्टान्त देकर इसी बातको स्पष्ट करते हैं : — जैसे खारापन जिसका लक्षण है ऐसा नमक
पानीरूप होता हुआ दिखाई देता है और द्रवत्व (प्रवाहीपन) जिसका लक्षण है ऐसा पानी नमकरूप
होता दिखाई देता है, क्योंकि खारेपन और द्रवत्वका एक साथ रहनेमें अविरोध है, अर्थात् उसमें
कोई बाधा नहीं आती, इसप्रकार नित्य उपयोगलक्षणवाला जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्य होता हुआ दिखाई
नहीं देता और नित्य अनुपयोग (जड़) लक्षणवाला पुद्गलद्रव्य जीवद्रव्य होता हुआ देखनेमें नहीं
आता, क्योंकि प्रकाश और अन्धकारकी भाँति उपयोग और अनुपयोगका एक ही साथ रहनेमें
विरोध है; जड़ और चेतन कभी भी एक नहीं हो सकते । इसलिये तू सर्व प्रकारसे प्रसन्न हो, (अपने
चित्तको उज्जवल करके) सावधान हो और स्वद्रव्यको ही ‘यह मेरा है’ इसप्रकार अनुभव कर ।
(इसप्रकार श्री गुरुओंका उपदेश है ।)
भावार्थ : — यह अज्ञानी जीव पुद्गलद्रव्यको अपना मानता है; उसे उपदेश देकर सावधान
किया है कि जड़ और चेतनद्रव्य — दोनों सर्वथा भिन्न-भिन्न हैं, कभी भी किसी भी प्रकारसे
एकरूप नहीं होते ऐसा सर्वज्ञ भगवानने देखा है; इसलिये हे अज्ञानी ! तू परद्रव्यको एकरूप मानना
छोड़ दे; व्यर्थकी मान्यतासे बस कर ।।२३-२४-२५।।