येन पुद्गलद्रव्यं ममेदमित्यनुभवसि, यतो यदि कथंचनापि जीवद्रव्यं पुद्गलद्रव्यीभूतं स्यात्
छोड़ । जिसने समस्त संदेह, विपर्यय, अनध्यवसाय दूर कर दिये हैं और जो विश्वको (समस्त
गया जो नित्य उपयोगस्वभावरूप जीवद्रव्य वह पुद्गलद्रव्यरूप कैसे हो गया कि जिससे तू यह
अनुभव करता है कि ‘यह पुद्गलद्रव्य मेरा है’ ? क्योंकि यदि किसी भी प्रकारसे जीवद्रव्य
पुद्गलद्रव्यरूप हो और पुद्गलद्रव्य जीवद्रव्यरूप हो तभी ‘नमकका पानी’ इसप्रकारके अनुभवकी
भांति ऐसी अनुभूति वास्तवमें ठीक हो सकती है कि ‘यह पुद्गलद्रव्य मेरा है’; किन्तु ऐसा तो
किसी भी प्रकारसे नहीं बनता
दृष्टान्त देकर इसी बातको स्पष्ट करते हैं : — जैसे खारापन जिसका लक्षण है ऐसा नमक पानीरूप होता हुआ दिखाई देता है और द्रवत्व (प्रवाहीपन) जिसका लक्षण है ऐसा पानी नमकरूप होता दिखाई देता है, क्योंकि खारेपन और द्रवत्वका एक साथ रहनेमें अविरोध है, अर्थात् उसमें कोई बाधा नहीं आती, इसप्रकार नित्य उपयोगलक्षणवाला जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्य होता हुआ दिखाई नहीं देता और नित्य अनुपयोग (जड़) लक्षणवाला पुद्गलद्रव्य जीवद्रव्य होता हुआ देखनेमें नहीं आता, क्योंकि प्रकाश और अन्धकारकी भाँति उपयोग और अनुपयोगका एक ही साथ रहनेमें विरोध है; जड़ और चेतन कभी भी एक नहीं हो सकते । इसलिये तू सर्व प्रकारसे प्रसन्न हो, (अपने चित्तको उज्जवल करके) सावधान हो और स्वद्रव्यको ही ‘यह मेरा है’ इसप्रकार अनुभव कर । (इसप्रकार श्री गुरुओंका उपदेश है ।)
भावार्थ : — यह अज्ञानी जीव पुद्गलद्रव्यको अपना मानता है; उसे उपदेश देकर सावधान किया है कि जड़ और चेतनद्रव्य — दोनों सर्वथा भिन्न-भिन्न हैं, कभी भी किसी भी प्रकारसे एकरूप नहीं होते ऐसा सर्वज्ञ भगवानने देखा है; इसलिये हे अज्ञानी ! तू परद्रव्यको एकरूप मानना छोड़ दे; व्यर्थकी मान्यतासे बस कर ।।२३-२४-२५।।