(मालिनी)
अयि कथमपि मृत्वा तत्त्वकौतूहली सन्
अनुभव भव मूर्तेः पार्श्ववर्ती मुहूर्तम् ।
पृथगथ विलसन्तं स्वं समालोक्य येन
त्यजसि झगिति मूर्त्या साकमेकत्वमोहम् ।।२३।।
अथाहाप्रतिबुद्धः —
जदि जीवो ण सरीरं तित्थयरायरियसंथुदी चेव ।
सव्वा वि हवदि मिच्छा तेण दु आदा हवदि देहो ।।२६।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]
पूर्वरंग
६१
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [अयि ] ‘अयि’ यह कोमल सम्बोधनका सूचक अव्यय है ।
आचार्यदेव कोमल सम्बोधनसे कहते हैं कि हे भाई ! तू [कथम् अपि ] किसीप्रकार महा
कष्टसे अथवा [मृत्वा ] मरकर भी [तत्त्वकौतूहली सन् ] तत्त्वोंका कौतूहली होकर [मूर्तेः
मुहूर्तम् पार्श्ववर्ती भव ] इस शरीरादि मूर्त द्रव्यका एक मुहूर्त (दो घड़ी) पड़ौसी होकर
[अनुभव ] आत्माका अनुभव कर [अथ येन ] कि जिससे [स्वं विलसन्तं ] अपने आत्माको
विलासरूप, [पृथक् ] सर्व परद्रव्योंसे भिन्न [समालोक्य ] देखकर [मूर्त्या साकम् ] इस
शरीरादि मूर्तिक पुद्गलद्रव्यके साथ [एकत्वमोहम् ] एकत्वके मोहको [झगिति त्यजसि ] तू
शीघ्र ही छोड़ देगा
।
भावार्थ : — यदि यह आत्मा दो घड़ी पुद्गलद्रव्यसे भिन्न अपने शुद्ध स्वरूपका
अनुभव करे (उसमें लीन हो), परीषहके आने पर भी डिगे नहीं, तो घातियाकर्मका नाश
करके, केवलज्ञान उत्पन्न करके, मोक्षको प्राप्त हो । आत्मानुभवकी ऐसी महिमा है तब
मिथ्यात्वका नाश करके सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होना तो सुगम है; इसलिये श्री गुरुओंने
प्रधानतासे यही उपदेश दिया है ।२३।
अब अप्रतिबुद्ध जीव कहता है उसकी गाथा कहते हैं : —
जो जीव होय न देह तो आचार्य वा तीर्थेशकी
मिथ्या बने स्तवना सभी, सो एकता जीवदेहकी ! ।।२६।।