धामोद्दाममहस्विनां जनमनो मुष्णन्ति रूपेण ये ।
वन्द्यास्तेऽष्टसहस्रलक्षणधरास्तीर्थेश्वराः सूरयः ।।२४।।
— इत्यादिका तीर्थकराचार्यस्तुतिः समस्तापि मिथ्या स्यात् । ततो य एवात्मा तदेव शरीरं पुद्गलद्रव्यमिति ममैकान्तिकी प्रतिपत्तिः ।
गाथार्थ : — अप्रतिबुद्ध जीव कहता है कि — [यदि ] यदि [जीवः ] जीव [शरीरं न ] शरीर नहीं है तो [तीर्थकराचार्यसंस्तुतिः ] तीर्थंकर-आचार्योंकी जो स्तुति की गई है वह [सर्वा अपि ] सभी [मिथ्या भवति ] मिथ्या (झूठी) होती है; [तेन तु ] इसलिये हम समझते हैं कि [आत्मा ] जो आत्मा है वह [देहः च एव ] देह ही [भवति ] है ।
टीका : — जो आत्मा है वही पुद्गलद्रव्यस्वरूप यह शरीर है । यदि ऐसा न हो तो तीर्थंकर-आचार्योंकी जो स्तुति की गई है वह सब मिथ्या सिद्ध होगी । वह स्तुति इसप्रकार है : —
श्लोकार्थ : — [ते तीर्थेश्वराः सूरयः वन्द्याः ] वे तीर्थंकर-आचार्य वन्दनीय हैं । कैसे हैं वे ? [ये कान्त्या एव दशदिशः स्नपयन्ति ] अपने शरीरकी कान्तिसे दसों दिशाओंको धोते हैं — निर्मल करते हैं, [ये धाम्ना उद्दाम-महस्विनां धाम निरुन्धन्ति ] अपने तेजसे उत्कृष्ट तेजवाले सूर्यादिके तेजको ढक देते हैं, [ये रूपेण जनमनः मुष्णन्ति ] अपने रूपसे लोगोंके मनको हर लेते हैं, [दिव्येन ध्वनिना श्रवणयोः साक्षात् सुखं अमृतं क्षरन्तः ] दिव्यध्वनिसे (भव्योंके) कानोंमें साक्षात् सुखामृत बरसाते हैं और वे [अष्टसहस्रलक्षणधराः ] एक हजार आठ लक्षणोंके धारक हैं ।२४।
— इत्यादिरूपसे तीर्थंकर-आचार्योंकी जो स्तुति है वह सब ही मिथ्या सिद्ध होती है । इसलिये हमारा तो यही एकान्त निश्चय है कि जो आत्मा है वही शरीर है, पुद्गलद्रव्य है । इसप्रकार अप्रतिबुद्धने कहा ।।२६।।