कहानजैनशास्त्रमाळा ]
द्वन्द्वं विप्रतिषिध्यते यदि तदा का कर्तृकर्मस्थितिः ।
ज्ञाता ज्ञातरि कर्म कर्मणि सदा व्यक्तेति वस्तुस्थिति-
र्नेपथ्ये बत नानटीति रभसा मोहस्तथाप्येष किम् ।।५३-९८।।
खंडान्वय सहित अर्थः — ‘‘कर्ता कर्मणि नियतं नास्ति’’ (कर्ता) मिथ्यात्व- रागादि अशुद्धपरिणामपरिणत जीव (कर्मणि) ज्ञानावरणादि पुद्गलपिंडमां (नियतं) निश्चयथी (नास्ति) नथी अर्थात् ए बंनेमां एकद्रव्यपणुं नथी; ‘‘तत् कर्म अपि कर्तरि नास्ति’’ (तत् कर्म अपि) ते ज्ञानावरणादि पुद्गलपिंड पण (कर्तरि) अशुद्धभावपरिणत मिथ्याद्रष्टि जीवमां (नास्ति) नथी अर्थात् ए बंनेमां एकद्रव्यपणुं नथी. ‘‘यदि द्वन्द्वं विप्रतिषिध्यते तदा कर्तृकर्मस्थितिः का’’ (यदि) जो (द्वन्द्वं) जीवद्रव्य अने पुद्गलद्रव्यना एकत्वपणानो (विप्रतिषिध्यते) निषेध कर्यो छे (तदा) तो (कर्तृकर्मस्थितिः का) ‘जीव कर्ता अने ज्ञानावरणादि कर्म’ एवी व्यवस्था क्यांथी घटे? अर्थात् न घटे. ‘‘ज्ञाता ज्ञातरि’’ जीवद्रव्य पोताना द्रव्य साथे एकत्वपणे छे; ‘‘सदा’’ बधाय काळे आवुं वस्तुनुं स्वरूप छे; ‘‘कर्म कर्मणि’’ ज्ञानावरणादि पुद्गलपिंड पोताना पुद्गलपिंडरूप छे; — ‘‘इति वस्तुस्थितिः व्यक्ता’’ (इति) आ रूपे (वस्तुस्थितिः) द्रव्यनुं स्वरूप (व्यक्ता) अनादिनिधनपणे प्रगट छे. ‘‘तथापि एषः मोहः नेपथ्ये बत कथं रभसा नानटीति’’ (तथापि) वस्तुनुं स्वरूप तो आवुं छे, जेवुं कह्युं तेवुं, तोपण (एषः मोहः) आ छे जे जीवद्रव्य-पुद्गलद्रव्यना एकत्वरूप बुद्धि ते (नेपथ्ये) मिथ्यामार्गमां, (बत) आ वातनो अचंबो छे के, (रभसा) निरन्तर (कथं नानटीति) केम प्रवर्ते छे? – आ प्रकारे वातनो विचार केम छे? भावार्थ आम छे के – जीवद्रव्य अने पुद्गलद्रव्य भिन्न भिन्न छे, मिथ्यात्वरूप परिणमेलो जीव एकरूप जाणे छे तेनो घणो अचंबो छे. ५३ – ९८.
हवे मिथ्याद्रष्टि एकरूप जाणो तोपण जीव-पुद्गल भिन्न भिन्न छे एम कहे छेः —