द्वितयतां गतमैक्यमुपानयन् ।
स्वयमुदेत्यवबोधसुधाप्लवः ।।१-१००।।
खंडान्वय सहित अर्थः — ‘‘अयं अवबोधसुधाप्लवः स्वयम् उदेति’’ (अयं) विद्यमान (अवबोध) शुद्धज्ञानप्रकाश, ते ज छे (सुधाप्लवः) चंद्रमा, ते (स्वयम् उदेति) जेवो छे तेवो पोताना तेजःपुंज वडे प्रगट थाय छे. केवो छे? ‘‘ग्लपितनिर्भरमोहरजा’’ (ग्लपित) दूर कर्यो छे (निर्भर) अतिशय गाढ (मोहरजा) मिथ्यात्व-अंधकार जेणे एवो छे. भावार्थ आम छे के – चंद्रमानो उदय थतां अंधकार मटे छे, शुद्धज्ञानप्रकाश थतां मिथ्यात्वपरिणमन मटे छे. शुं करतो थको ज्ञानचंद्रमा उदय पामे छे? ‘‘अथ तत् कर्म ऐक्यं उपानयन्’’ (अथ) अहींथी शरू करीने (तत् कर्म) रागादि अशुद्ध- चेतनापरिणामरूप अथवा ज्ञानावरणादि पुद्गलपिंडरूप कर्म, तेमनुं (ऐक्यम् उपानयन्) एकत्वपणुं साधतो थको. केवुं छे कर्म? ‘‘द्वितयतां गतम्’’ बे-पणुं करे छे. केवुं बे- पणुं? ‘‘शुभाशुभभेदतः’’ (शुभ) भलुं (अशुभ) बूरुं एवो (भेदतः) भेद करे छे. भावार्थ आम छे के — कोई मिथ्याद्रष्टि जीवनो अभिप्राय एवो छे के दया, व्रत, तप, शील, संयम आदिथी मांडीने जेटली छे शुभ क्रिया अने शुभ क्रियाने अनुसार छे ते-रूप जे शुभोपयोगपरिणाम तथा ते परिणामोना निमित्तथी बंधाय छे जे शाताकर्म- आदिथी मांडीने पुण्यरूप पुद्गलपिंड, ते भलां छे, जीवने सुखकारी छे; हिंसा- विषय-कषायरूप जेटली छे क्रिया, ते क्रियाने अनुसार अशुभोपयोगरूप