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छे एटले के केवळज्ञान, केवळदर्शन, केवळवीर्य अने केवळसुखरूपे बिराजमान प्रगट छे’ एम कहेतां – जाणतां – अनुभवतां केवळीनी गुणस्वरूप स्तुति थाय छे. आथी आ अर्थ निश्चित कर्यो के जीव अने कर्म एक नथी, भिन्न भिन्न छे. विवरण — जीव अने कर्म एक होत तो आटलो स्तुतिभेद केम होत? २७.
नयविभजनयुक्त्यात्यन्तमुच्छादितायाम् ।
स्वरसरभसकृष्टः प्रस्फु टन्नेक एव ।।२८।।
खंडान्वय सहित अर्थः — ‘‘इति कस्य बोधः बोधम् अद्य न अवतरति’’ (इति) आ प्रकारे भेद द्वारा समजावतां (कस्य) त्रण लोकमां एवो कयो जीव छे के जेने (बोधः) बोध अर्थात् ज्ञानशक्ति (बोधम्) स्वस्वरूपना प्रत्यक्ष अनुभवशीलपणे (अद्य) आज पण (न अवतरति) परिणमनशील न थाय? भावार्थ आम छे के जीव- कर्मनुं भिन्नपणुं अतिशय प्रगट करीने बताव्युं; ए सांभळतां जे जीवने ज्ञान ऊपजतुं नथी तेने ठपको दीधो छे. कया प्रकारे भेद द्वारा समजावतां? ते ज भेदप्रकार बतावे छे — ‘‘आत्मकायैकतायां परिचिततत्त्वैः नयविभजनयुक्त्या अत्यन्तम् उच्छादितायाम्’’ (आत्म) चेतनद्रव्य अने (काय) कर्मपिंडना (एकतायां) एकत्वपणाने, (भावार्थ आम छे के जीव-कर्म अनादिबंधपर्यायरूप एकपिंड छे तेने,) (परिचिततत्त्वैः) सर्वज्ञो द्वारा [विवरण — (परिचित) प्रत्यक्षपणे जाण्या छे (तत्त्वैः) जीवादि सकळ द्रव्योना गुण-पर्यायोने जेमणे एवा सर्वज्ञदेव द्वारा] (नय) द्रव्यार्थिक अने पर्यायार्थिकरूप पक्षपातना (विभजन) विभाग — भेदनिरूपण, (युक्त्या) भिन्नस्वरूप वस्तुने साधवी, तेना वडे (अत्यन्तं) अतिशय निःसंदेहपणे (उच्छादितायाम्) उच्छेदवामां आवे छे. जेम ढांकेलो निधि प्रगट करवामां आवे छे तेम जीवद्रव्य प्रगट ज छे, परन्तु कर्मसंयोगथी ढंकायेलुं होवाथी मरणने प्राप्त थई रह्युं हतुं; ते भ्रान्ति परमगुरु श्री तीर्थंकरनो उपदेश सांभळतां मटे छे, कर्मसंयोगथी भिन्न शुद्ध