कहानजैनशास्त्रमाळा ]
जीवस्वरूपनो अनुभव थाय छे. आवो अनुभव सम्यक्त्व छे. केवो छे बोध? ‘‘स्वरसरभसकृष्टः’’ (स्वरस) ज्ञानस्वभावनो (रभस) उत्कर्ष — अतिशय समर्थपणुं तेनाथी (कृष्टः) पूज्य छे. वळी केवो छे? ‘‘प्रस्फु टन्’’ प्रगटपणे छे. वळी केवो छे? ‘‘एकः एव’’ निश्चयथी चैतन्यरूप छे. २८.
दनवमपरभावत्यागद्रष्टान्तद्रष्टिः ।
स्वयमियमनुभूतिस्तावदाविर्बभूव ।।२९।।
खंडान्वय सहित अर्थः — ‘‘इयम् अनुभूतिः तावत् झटिति स्वयम् आविर्बभूव’’ (इयम्) आ विद्यमान (अनुभूतिः) अनुभूति अर्थात् शुद्धचैतन्यवस्तुनुं प्रत्यक्षपणे जाणपणुं (तावत्) तेटला काळ सुधी (झटिति) ते ज समये (स्वयम्) सहज ज पोताना ज परिणमनरूप (आविर्बभूव) प्रगट थई. केवी छे ते अनुभूति? ‘‘अन्यदीयैः सकलभावैः विमुक्ता’’ (अन्यदीयैः) शुद्धचैतन्यस्वरूपथी अत्यंत भिन्न एवां द्रव्यकर्म- भावकर्म-नोकर्मसंबंधी (सकलभावैः) ‘सकळ’ अर्थात् जेटला छे गुणस्थान- मार्गणास्थानरूप राग-द्वेष-मोह इत्यादि अति घणा विकल्पो एवा जे ‘भाव’ अर्थात् विभावरूप परिणाम तेमनाथी (विमुक्ता) सर्वथा रहित छे. भावार्थ आम छे के जेटला पण विभावपरिणामस्वरूप विकल्पो छे अथवा मन-वचनथी उपचार करी द्रव्य-गुण-पर्यायभेदरूप अथवा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यभेदरूप विकल्पो छे तेमनाथी रहित शुद्धचेतनामात्रना आस्वादरूप ज्ञान तेनुं नाम अनुभव कहेवाय छे. ते अनुभव जे रीते थाय छे ते कहे छे — ‘‘यावत् अपरभावत्यागद्रष्टान्तद्रष्टिः अत्यन्तवेगात् अनवम् वृत्तिम् न अवतरति’’ (यावत्) जेटलो काळ, जे काळे (अपरभाव) शुद्धचैतन्यमात्रथी भिन्न द्रव्यकर्म, भावकर्म अने नोकर्मरूप जे समस्त भावो तेमना (त्याग) ‘आ भावो समस्त जूठा छे, जीवनुं स्वरूप नथी’ एवा प्रत्यक्षपणे आस्वादरूप ज्ञानना सूचक (द्रष्टान्त) उदाहरणनी माफक — [विवरण — जेवी रीते कोई पुरुषे धोबीना घरेथी पोताना वस्त्रना भ्रमथी बीजानुं वस्त्र आवतां ओळख्या विना पहेरीने पोतानुं