Samyak Darshan Part 7 8-Gujarati (Devanagari transliteration). Swanubhuti Prakash; Front Cover; First Page; Prapti Sthan; Gurudev Arpan; Index; Nivedan; Lekhak no Parichay; Samyagdarshan Bhag 7-8; Mangal Vandna; Aatmane Sadhvano Sacho Utsah Kyare Ave?; Samyaktvpipasu Jivne Sanbodhan; Bhagwan Rushabhdevni Aatmakatha; Sinhmathi Sarvagna.

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सम्यग्दर्शन : भाग ७ – ८
(स्वानुभूति – प्रकाश)
पू. श्री कानजी स्वामीनां प्रवचनो – चर्चाओ,
तेमज स्वानुभव – युक्ति – आगमना
दोहनमांथी सम्यग्दर्शन संबंधी
उत्तम लेखोनो संग्रह
लेखक : संपादक
ब्र. हरिलाल जैन, सोनगढ

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प्रकाशक
श्री कहानस्मृति – प्रकाशन
संतसान्निध्य
सोनगढ
मुद्रक
स्मृति अॉफसेट
सोनगढ ()
मो. ९८२४९४४४०१
(१) ब्र. ताराबेन – मेनाबेन
कहान रश्मि
सोनगढ -
मो. ९९७८००७८८१
(२) श्री प्रकाशभाई महेता
‘नवकार’, १७, पंचनाथ प्लोट
राजकोट
मो. ९४२८०३६६६७
(३)
Shri Neilay Dedhia
62, Herbert Terrace,
West Orange,
New Jersey - 07052, USA
Mo : +91 9870105478 (whatsapp)
001-551-221-7811
site: samyakdarshan.org
email : neilaydedhia@gmail.com
(४) कु. पन्नाबेन महेता
ए-३०२, गुरुप्रभाव
सोनगढ-
मो. ९९६९१९४२८८
(५) श्री जितेशभाई महेता
८, गोकुलधाम, रवापर रोड
मोरबी - ३६३६४१
मो. ९४२६७८६०५६
(६) श्री महेशभाई महेता
एफ-१५, कृपानगर,
ईर्ला-पार्ला, मुंबई-४०००५६
मो. ९८६९१९७२८२
(७)
अखिल भारतीय जैन युवा फेडरेशन
महावीर चोक,
खेरागढ-४९१८८१
मो. ९४२४१११४८८
प्राप्तिस्थान
वीर सं. २५१३
अषाड
प्रथम आवृत्ति
प्रत सवा हजार
इ.स.
1987
JULY
वीर सं. २५४४
अषाड वद ७
द्वितिय आवृत्ति
प्रत एक हजार
इ.स.
2018
August
आ पुस्तकना लाभार्थी
सम्यग्दर्शन प्रत्येनी भक्तिभावनापूर्वक आ पुस्तकना प्रकाशनमां
श्री निलयभाई देढियानी श्रुतभावना बदल धन्यवाद....
तेओनी सम्यक्त्व भावना शीघ्र सफळ थाओ एवी शुभेच्छा साथे.
आ पुस्तक
site: samyakdarshan.org
उपर उपलब्ध छे.

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ॐ आशीर्वाद
पू. श्री कहानगुरुए ४० वर्ष पहेलां लेखित
‘आशीर्वाद’ आप्या हता...स्वहस्ते लखेला आशीर्वाद
जीवनमां तेओश्रीए ब्र. हरिभाईने ज आपेला छे... अने
परम प्रसन्नता साथे ते सफळ थया छे. – धन्य गुरुउपकार.
सम्यक्दर्शन श्रेष्ठ छे त्रण जगतनी मांय,
सर्व प्रकार उद्यम वडे सेवो ए सुखदाय.
सम्यक् – रत्न उपासवा धर्मात्मानो संग,
आराधन करतां अहो! लागे आतम रंग.
चैतन्य – रत्न ज सार छे श्रुतसमुद्र मोझार,
आनंदथी अनुभव करी शीघ्र लहो भवपार.
श्री गुरुओना प्रसादथी प्राप्त सम्यक्त्वना भावोने
आ पुस्तकरुपे गूंथीने साधर्मी जनोना हाथमां
प्रसन्नतापूर्वक अर्पण करुं छुं.
(अषाड वद : ७) – हरि

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सम्यग्दर्शन – स्वानुभव
(विषयसूचि)
मंगलवंदना..... .................................................................. १
आत्माने साधवानो साचो उत्साह क्यारे आवे
?........................... २
सम्यक्त्वपिपासु जीवने संबोधन..... ......................................... ३
भगवान ऋषभदेवनी आत्मकथा तथा रंगीन चित्र..... .................. ४
एक सम्यग्द्रष्टि सिंहनी आत्मकथा तथा रंगीनचित्र..... ................. ७
सम्यग्द्रष्टि गजराजनी आत्मकथा ........................................... ११
बधा आत्मामां प्रभुता छे (राजकोट जेलमां प्रवचन)... .............. १६
स्वानुभवनी भावना (साधकनुं सौन्दर्य)..... .............................. १९
जिज्ञासुने आमंत्रण.....चैतन्यनगरी तरफ पांच पगलां..... ..... २१-२२
गृहस्थने आत्मदर्शन (प्रवचन : योगसार दोहा १८).................. २९
शार्दूलबच्चाने जगाडवा सिद्धपणाना सिंहनाद..... ............. ३४ – ३५
(स्वानुभव – प्रसाद : स्वभावरसघोलन.....३७ थी १००)
(अनुभवप्रकाशना आधारे सुंदर संकलन.....)
चिदानंद राजाने क्यां गोतवो? (चित्रसहित.....) ........................ ४२
चांपाभाईना द्रष्टांते जीवाभाईनी ओळखाण....(चित्रसहित). ........ ५१
वीतरागी संतो बोलावे छे.....(१० बोल)................................ ५५
हे जीव! तुं मरणियो था..... ............................................... ५७
‘हुं मरी गयो!’ (भ्रमणा.....) .............................................. ५८
मोक्षमहेलनो महाराजा (चित्रसहित)..... ................................. ६१
देव – शास्त्र – गुरुप्रत्ये भक्तिभावना..... ............................... ६५
बळवान ‘उपयोग’ आत्माने साधे छे.....राग नहि.... ................. ६८
त्रण प्रकारना ‘शुभ उपयोग’ तेमां सातिशयता..... ..................... ६८
स्वानुभव : तेनो काळ : तेनी ओळखाण..... ............................ ७३
‘तने चेतनवस्तु बतावुं छुं’..... ............................................. ७६
अरिहंतदेवना दर्शन करतां................................................... ७९
स्व – परनां विभाग वडे शुद्धात्मानी उपलब्धि..... .................... ८२
( ४ )

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साधक....तेनी ज्ञानचेतना.....केवळज्ञानने साधे छे..... .................. ८६
सर्वज्ञनो स्वीकार इन्द्रियज्ञानवडे थतो नथी..... .......................... ८८
हे जिज्ञासु
! जेने तुं शोधे छे ते तुं ज छो..... ........................... ८९
(जिज्ञासु तथा माछलानुं द्रष्टांत अने चित्र)..... ......................... ९०
मारे निजानंदने भेटवुं छे (ते – रुप थवुं छे)..... ...................... ९१
मार्गमां झडपथी चाली रह्या छीए..... .................................... ९२
अभेदमांथी भेद उपज्यो छे, ते अभेदने सिद्ध करे छे : ..... ....... ९३
श्री गुरु चैतन्यअमृत पीवडावे छे.....पीओ..... ......................... ९४
भेदज्ञान प्रगट करवाना विचार..... ........................................ ९५
‘जागो.....चैतन्यप्रभु
! झट जागो’ (सचित्र)..... ......................... ९७
शाबाशी छे ते शिष्यने.....जेणे स्वानुभूति करी..... ................... १००
परमात्माना पंथे.....(आत्महित माटे मुमुक्षुनो निरधार)............. १०१
श्री मुनिभगवंतनी साथे (एक सुंदर निबंध)..... ..................... १०२
पक्षातिक्रांत.....समयसार (तेना अनुभवनी प्रेरणा)..... .............. १०९
स्वानुभूतिनो अपार महिमा..... ......................................... ११०
साचो मार्ग ले.....तो फळ आवे (छ महिनानी अंदर)..... .......... १११
मुमुक्षुने उपयोगी विविध चर्चाओ..... ................................... ११३
स्वानुभवनी परंपरा..... ................................................... १२०
मारी माताए मने शुं आप्युं
?..... ....................................... १२४
स्वानुभूति-प्रकाश (४७-पद भावार्थसहित) १२५ – २०८
(आ काव्यमां स्वानुभवदशानी पूर्व तैयारी,
ज्ञानीओनो उपकार, स्वानुभूतिनो प्रयत्न,
स्वानुभूतिनुं वेदन, त्यारपछीनी विशेषता,
वगेरेनुं आनंदकारी स्वोपज्ञ वर्णन छे.)
परमार्थरुप आत्मा (‘अलिंगग्रहण’ना २० अर्थ)..... ................ २०९
हे भव्य
! तुं आत्मानी अनुभूति कर..... ............................... २१४
‘आत्मवस्तु – स्तवन’ (अलिंगग्रहण आत्माने जाण)................ २१६
आत्महित माटे स्वानुभवना आठ प्रयोग; तथा संबोधन..... ....... २१७
( ५ )

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निवेदन
आत्मानुं अपूर्व कल्याणकारी सम्यग्दर्शन.....तेनो अपार
महिमा समजावीने, ते प्रगट करवानो उपाय बतावतुं, अने तेनी
प्रेरणा आपतुं ‘सम्यग्दर्शन – श्रेणी’नुं आ सातमुं – आठमुं
(संयुक्त) पुस्तक साधर्मीजनोना हाथमां मूकतां आनंद थाय छे.
भगवान महावीर – निर्वाणना २५०० मां वर्षमां सम्यग्दर्शननुं
छठ्ठुं पुस्तक प्रगट थयुं हतुं, त्यारपछी १२ वर्ष बाद प्रभु
गौतमस्वामीना निर्वाणना अढी हजारमां वर्षमां आ पुस्तक प्रगट
थाय छे....जे महावीर – गौतमनी परंपराने स्पष्ट करीने, अनेक
जिज्ञासु जीवोने साचुं मार्गदर्शन आपशे, अने तेओनी सम्यक्त्व
– पिपासाने तृप्त करवामां सहायरुप थशे.
वीरशासनमां आपणने पू. श्री कहानगुरु मळ्या; तेओश्रीए
सम्यक्त्वनो अपार महिमा समजावीने हजारो – लाखो
भव्यजीवोने तेनी प्रेरणा आपी. तेमना प्रतापे आ काळे
सम्यक्त्वनो मार्ग खुल्लो थयो; अनेक जीवो सम्यक्त्वरुप
थया.....ने ते सम्यक्त्वनी रीत आ पुस्तकश्रेणी द्वारा प्रगट थाय छे.
आ पुस्तकना संकलनमां जिज्ञासुताना पोषक लेखो उपरांत
स्वानुभूतिनुं सीधुं वर्णन छे; सीधा आत्मानी अनुभूतिने टच थाय
एवा लेखो नवीन शैलिमां आप्या छे.....जेनुं घोलन तीव्र
मुमुक्षुओने एकदम अनुभूतिना ऊंडाणमां ठेठ चैतन्यप्रभुनी पासे
लई जशे.....ने जो खरी तैयारी हशे – तो तेने आत्मअनुभूति
करावशे. स्वानुभूति माटे अंदर केवो प्रयोग ने केवो प्रयत्न थाय छे
तेनुं मार्गदर्शन वधु स्पष्टताथी ने वधु ऊंडाणथी आ पुस्तकमां
आपेल छे.
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आमां पृ. २२१ थी स्वानुभवना प्रयोगो आपेला छे; ते
बाबत महत्त्वनी वात ध्यानमां राखवी के आ प्रयोगना ऊंडा भावो
ज्ञानीना सीधा समागमे समज्या पछी ज तेनी सफळता थाय छे.
बीजुं, स्वानुभवना प्रयोग माटेनुं मार्गदर्शन अनेक शैलीथी थई
शके छे, तेमांनी एक शैली अहीं आपी छे. भले विविध शैली होय
पण ते बधीये आत्मस्वभावना ऊंडाणमां लई जनारी होय छे, ने
चैतन्यनो परम रस जगाडीने तेमां ज सन्मुखता करावे छे. आ
प्रयोग करनारने पूर्व तैयारीमां ज्ञानीनो संग, आत्मानो रंग अने
स्पष्ट तत्त्वनिर्णय होय छे.
आ पुस्तकमां आपेल स्वानुभूतिनुं लखाण छपाया पहेलां
कोई कोई जिज्ञासु – साधर्मीओना वांचवामां आव्युं : जेणे जेणे
वांच्यु ते खूब प्रसन्न थया, कोईए तेनी नकल ऊतारी लीधी, तो
केटलाये ते छपाववा आग्रह कर्यो; तेथी जिज्ञासुओना हितनुं कारण
समजीने आ पुस्तकमां ते प्रसिद्ध कर्युं छे. मारा जीवनमां में घणुं
घणुं धर्मसाहित्य निर्माण कर्युं छे, तेमांथी १५० जेटला पुस्तको
छपाई गया छे, तेमां आ स्वानुभूतिप्रकाश पुस्तक सौथी श्रेष्ठ
छे.....जे सीधुं स्वानुभवने स्पर्शे छे. रंगबेरंगी अनेक चित्रोवडे
आ पुस्तकने वधु सुंदर बनावेल छे.
अगाउना छ भाग तो पू. श्री कहानगुरुनी उपस्थितिमां
प्रगट थया हता ने तेओश्रीना सुहस्ते मुमुक्षुओने अपाया हता;
तेमना वियोगमां प्रसिद्ध थता आ पुस्तकमां पानेपाने ने शब्देशब्दे
तेओश्रीना स्मरणो जागी ऊठे छे. गुरुदेव केटलीयेवार प्रवचनमां
‘सम्यग्दर्शन’ पुस्तकनो उल्लेख करीने प्रमोदथी कहेता : आजना
मुनि पण आ पुस्तक वांचीने अहीं आकर्षाया हता. अनेक विद्वानो
ने जिज्ञासुओ होंशथी तेनी स्वाध्याय करे छे. दश पुस्तकोनी आ
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श्रेणीनुं पहेलुं पुस्तक आजथी ४० वर्ष पहेलां छपायुं हतुं. – जेनी
अनेक आवृत्ति गुजराती तेमज हिदीमां पण प्रगट थई चूकी छे.
हवे आ श्रेणीना अंतिम बे पुस्तक छापवा बाकी छे, जेने माटे
अवनवो सुंदर संग्रह तैयार छे; परंतु मारुं स्वास्थ्य तेमज देश –
काळ अनुसार ते क्यारे छपाय.....ते कही शकातुं नथी.
गुरुदेवनी मुख्य भावना हती के, अध्यात्मतत्त्वज्ञानना
संस्कार आपनारा आवा पुस्तको खूब छपाय ने जिज्ञासु लोकोने
एकदम सस्ती किंमते मळे. गुरुदेवनी आ भावना अनुसार सरल,
सस्ता अने सुंदर साहित्य द्वारा जैनधर्मना तत्त्वज्ञानना संस्कार
समाजमां घरेघरे फेलाय, वृद्ध – युवान के बाळक सौ कोई होंशथी
ते वांचे, – ते हेतु ध्यानमां राखीने, गुरुदेवना विरहमां
‘श्री कहानस्मृति – प्रकाशन’ द्वारा अमे सस्तुं – सारुं ने सहेलुं
साहित्य प्रसिद्ध करी रह्या छीए – जेमां आ लगभग पच्चीसमुं
पुस्तक आपना हाथमां छे. आ साहित्य ओछी किंमते आपवामां
सहकार आपीने घणाय जिज्ञासु भाई – बहेनोए तत्त्वप्रचारनो
लाभ लीधो छे, ते सौने धन्यवाद छे.
आत्मज्ञानी धर्मात्माओ द्वारा सम्यग्दर्शन सदाय प्रकाशमान
रहो अने मुमुक्षु जीवो तेनी प्राप्ति वडे पोतानुं कल्याण करो.
सोनगढ : अषाढ सुद ६
– ब्र. हरिलाल जैन
वीर सं. २५१३
(आ पुस्तकना पूंठा उपर छापेल ‘आत्मवैभव’ सहित
गुरुदेवनुं सुंदर रंगीन चित्र, ‘आत्मवैभव’ पुस्तकमां छापवा माटे
करावेल; तेनो उपयोग पहेली ज वार आ पुस्तकमां थयो छे.)
( ८ )

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प्रगट थई छे. जे नवी नवी आवृत्तिओ साथे आपणा ज्ञानभंडारने
समृद्ध करे छे.
ब्र. हरिभाई देशना उत्तमकक्षाना सिद्धहस्त लेखक हता. तेओ
दरेक प्रकारोना साहित्यमां सिद्धहस्त साहित्यकार हता. जे तेमनी
विभिन्न रचनाओथी खूब ज स्पष्ट जणाय छे. जेम के :
सम्यग्दर्शनार्थीओ माटे ‘सम्यग्दर्शन’, श्रावक माटे
‘श्रावकधर्मप्रकाश’, चारित्र धर्मोपासना माटे ‘भगवती आराधना’,
अहिंसा प्रेमीओ माटे ‘अहिंसा परमो धर्म’ (पांच भाषाओमां अनेक
आवृत्तिओ), नाटक प्रेमीओ माटे ‘अकलंक-निकलंक’, बाळको माटे ‘जैन
बाळपोथी’, उत्कृष्ट भक्ति माटे ‘भक्तामर स्तोत्र विवेचन’, उपकार–
अंजलिरुप ‘अभिनंदन ग्रंथ’, उत्तम प्रवचन संकलन ‘अध्यात्म संदेश’,
सुंदर अनुवाद ‘लघुतत्त्व स्फोट’, उत्तम कथा-वार्ता ‘दर्शनकथा’,
भाववाही आध्यात्मिक काव्यो, ‘स्वानुभूति-प्रकाशना ४७ पदो’ अने
All in One ‘चोवीस तीर्थंकरोनुं महापुराण’–आवुं महान वीतरागी
साहित्य रचीने ब्र. हरिभाईए मोटी युनिवर्सिटी जेवुं ज्ञान-प्रसारनुं
उत्तम कार्य करेल छे.
आध्यात्मिक जगतमां खूब ज प्रशंसा पामेल मासिक ‘आत्मधर्म’
गुजराती-हिन्दीनुं ३२ वर्ष सुधी लेखन-संपादन करी देश-विदेश, जैन-
जैनेतर, बाळ-युवान अने प्रौढवयना भव्यजीवोने आध्यात्मिकज्ञान
तरफ आकर्ष्या छे.
( ९ )लेखकनो परिचय
ब्र. हरिलाल जैन, जैन साहित्यना
‘कल्पवृक्ष’ समान हता. तेओश्री द्वारा
एकसो पचासथी पण अधिक पुस्तकोनी
रचना थई छे. आ रचनाओ खूब ज
सुंदर, सरळ, सचित्र अने लोकप्रिय
होवाने कारणे तेमांनी घणी बधी रचनाओ
गुजराती, हिन्दी तेमज अन्य भाषाओमां

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ब्र. हरिभाईए श्री जिनसेन अने श्री गुणभद्र आचार्य
भगवंतनुं महापुराण (आदिपुराण–उत्तर पुराण) वगेरे भिन्न-भिन्न
९० जेटला पुराणो तेमज एकासणानी तपस्या करीने षट्खंडागम,
धवला-जयधवला-महाधवला, गोम्मटसार आदि ६० जेटला विविध
शास्त्रोनोे गहन अभ्यास करेल. स्वानुभूतिना लक्षे, अंतरना ऊंडा
मंथनपूर्वक, समयसार शास्त्रनो स्वाध्याय करतां करतां ३५मी वखतना
स्वाध्याय वखते तेमने स्वानुभूतिनी प्राप्ति थई हती. तेमना जीवनमां
तेमणे समयसार शास्त्रनो स्वाध्याय गुरुगमे १०० वखत कर्यो हतो.
कषायपाहुडना पंदरमा भागनो स्वाध्याय पोताना जीवनना अंतिम
दिवसे साजे ४ वागे पूर्ण करेल अने सोळमा भागनुं प्रकाशन नहीं
थयेल होवाने कारणे तेओ उत्साहपूर्वक कहेता के ‘‘अरे ! स्वर्गमां
जईनेे त्यांथी गणधर भगवंत पासे पहोंची अंतर्मुहूर्तमां बारे अंगोनुं
श्रवण करीश.’’ आवुं सुंदर जिनवाणीमय तेमनुं जीवन हतुं.
तीर्थयात्रा तेमने खूब ज प्रिय हती. भारतवर्षना तीर्थधामोनी
पूज्य गुरुदेवश्री साथे खूब ज उल्लासपूर्वक यात्रा करी. ए तीर्थोनो
महिमा ‘मंगल तीर्थयात्रा’ ग्रंथमां सुंदर रीते वर्णव्यो छे. ए बदल ब्र.
हरिभाईने सुवर्णचंद्रक अर्पण थयेल. तीर्थभूमि, कल्याणकभूमिनी
स्पर्शना, दर्शन, पूजन माटेनां तेमना भक्तिभर्या उत्साह पासे पहाडोनी
दुर्गमता-खतरनाक द्रढता, भूख, तरस आदि कष्टो वामणा बनी जता.
तेमनी सर्वांग सुंदर अने सुविशुद्ध शास्त्रोक्त यात्रा देखी तेमना साथी
यात्रीओने तेमनी साथे वारंवार यात्रा करवाना भाव थता.
तेमनी तीर्थभक्ति जेवी ज गुरुभक्ति पण उत्कृष्ट हती. पूज्य
गुरुदेवश्रीनी तबियत छेल्ला वर्षोमां नादुरस्त रहेवाथी ब्र. हरिभाई
गुरुदेवश्री समक्ष दररोज बे कलाक स्वाध्याय करता. होस्पिटलमां
ज्यारे गुरुदेवश्रीनी तबियत विशेष नाजुक बनती त्यारे ‘समयसार’नी
गाथाओ गुरुदेवश्रीने संभळावी तेओनुं दर्द भूलावी देता ते जोई
मुमुक्षुओ ब्र. हरिभाईने धन्यवाद आपता. पूज्य गुरुदेवश्रीना अंतिम
( १० )

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श्वास सुधी ब्र. हरिभाईनो हाथ गुरुदेवश्रीना हाथमां ज हतो, आवी
आदर्श हती तेमनी गुरु वैयावच्च.
आ काळमां जेनी प्राप्ति सौथी उत्कृष्ट कहीए ते समाधिमरण
तेमना जीवनना चरित्रनुं एक सुवर्णपृष्ठ बने तेवुं भव्य हतुं. जे मात्र
शूरवीर साधकने ज प्राप्त थाय तेवुं मृत्यु, महा-महोत्सव बनी गयुं.
बाल ब्रह्मचारी हरिलाल जैन
जन्म: वीर संवत २४५१, पोष सुद पूनम,
जेतपर (मोरबी)
पिताजी : श्री अमृतलाल काशीदास महेता
(नित्य अभ्यासु–श्रीमद् सत्संग मोरबीना प्रवचनकार)
मातुश्री: अचरतमा
ब्रह्मचर्य व्रत: वीर संवत २४७३, फागण सुद १
स्वानुभूति दिन : वीर संवत २४९७, अषाढ वद ७
स्वर्गवास-
: वीर संवत २५१४, मागशर वद ३
(समाधिमरण) (ता. ८-१२-१९८७)
ब्र. हरिलाल जैन द्वारा रचित
वीतरागी जैन साहित्य
(१) जैन बाळपोथी
भाग-१, भाग-२
(२) वीतराग विज्ञान
(छढाळा प्रवचन)
(३) सम्यग्दर्शन भाग १–८
(४) आत्मभावना
(५) आत्मप्रसिद्धि
(६) आत्मवैभव
(७) जैनधर्मकी कहानियां
भाग-१ थी २१ (हिन्दी)
(८) बे सखी
(९) हनुमान चरित्र
(१०) महाराणी चेलणा
(११) चोवीस तीर्थंकर महापुराण
(१२) अकलंक–निकलंक
(१३) दर्शन प्रतिज्ञा
(१४) सम्यक्त्व कथा
(१५) भगवती आराधना
( ११ )

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(१६) भक्तामर स्तोत्रना प्रवचन
(गुजराती)
(१७) लघुतत्त्वस्फोट (गुजराती)
(१८) आत्मसंबोधन
(योगसारना प्रवचन)
(१९) अष्ट प्रवचन (तरणतारण-
स्वामीना ममलपाहुड वि.ना)
(हिन्दी)
(२०) सुवर्णसंदेश
(२१) आत्मधर्म (लगभग ३२ वर्ष
सुधीना)
(२२) अपूर्व अवसरना प्रवचनो
(२३) आराधना
(२४) अध्यात्मसंदेश
(२५) पूज्य गुरुदेवश्रीनुं जीवनचरित्र
(२६) कोयडा (१००)
(२७) ज्ञानचक्षु
(२८) वैराग्यवाणी
(२९) श्रावकनी धर्मसाधना
(३०) भाव परिवर्तन कथा
(३१) चेतन-काया संवाद
(३२) रत्नत्रय भावना
(पाहुड दोहा)
(३३) साधक शतकमाळा
(३४) आत्महितनी प्रेरणा
(३५) पंचकल्याणक महोत्सव
(३६) वीतरागविज्ञान प्रश्नोत्तर
(३७) अहिंसा परमोधर्म
(३८) दश धर्मना प्रवचनो
(३९) पंच परमागमोनी प्रसादी
(४०) रत्नसंग्रह भाग-१-२
(४१) मंगल तीर्थयात्रा
(४२) अभिनंदन ग्रंथ
(४३) कानजीस्वामीना वचनामृत
भाग-१-२
(४४) पंचकल्याणक प्रवचन
(४५) परमात्मप्रकाश (गुजराती)
(४६) वैराग्य भावना
(४७) श्रावकधर्मप्रकाश
(४८) मूळमां भूल
(४९) प्रवचनसागरना मोती
(५०) मुक्तिका मार्ग तथा
अमृत झरणा
(५१) बुधजनरचित छढाळा
(५२) हुं एक ज्ञायकभाव छुं
(५३) उपदेश सिद्धांत रत्नमाळा
(५४) मृत्यु महोत्सव
(शूरवीर साधक)
(५५) वस्तुविज्ञानसार
(५६) एक हतो वांदरो
(५७) एक हतुं देडकुं
(५८) सचित्र जैन लेखनमाळा
(५९) वैराग्य अनुप्रेक्षा
(६०) ज्ञानस्वभाव अने ज्ञेयस्वभाव
(६१) नाईरोबी प्रतिष्ठा निमित्ते
१–धन्य ते प्रसंग,
२–वीतराग विज्ञान,
३–तीर्थंकर प्रभुना
पंचकल्याणक
(६२) परमागम महोत्सव पत्रिका
(६४) बे राजकुमारोनो वैराग्य
(६५) अखंड आराधना
(६६) भगवान पारसनाथ
(६७) शासन प्रभाव–गुरुदेव
(संक्षिप्त परिचय)
(६८) भव्यामृत शतक
(गुजराती अनुवाद)
(६९) मंगल प्रार्थना
(वीर निर्वाण महोत्सव, पुष्प ३१)
(७०) एक हतो हाथी
( १२ )

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सम्यग्दर्शन : भाग ७ – ८
(स्वानुभूति – प्रकाश)
मंगल – वंदना
स्वानुभूति – प्रकाशी वीर जिनने वंदन
बधायथी जुदो पोतानो आत्मा अनंत आत्मवैभवथी
एकलो ज शोभे छे, ते ज सौथी सुंदर छे. सर्वज्ञमहावीर देवेे
पावापुरीथी मोक्ष पधारता पहेलां मुमुक्षुओने आवो सुंदर आत्मा
बतावीने एम धर्मोपदेश आप्यो के आत्मा पोते सुखस्वभाव छे.
ते उपदेश झीलीने अमारा जेवा घणाय जीवो अंतःवृत्तिथी
सुखस्वभावरुपे परिणम्या.
अहो महावीर देव! आपनुं शासन आनंदकारी छे;
आनंदमय आत्मतत्त्वनी प्राप्ति ए आपनी उपासनानुं सुफळ छे.
आपने नमस्कार हो.
महावीरशासन पामीने हे जीवो! तमे पण
आवी स्वानुभूतिनो प्रकाश करो.
।। णमो जिणाणं ।।

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२ : आत्मानो उत्साह )
( सम्यग्दर्शन
आत्माने साधवानो
साचो उत्साह क्यारे आवे ?
हे आ त्म चा ह क सा ध र्मी,
शास्त्रश्रवण, आत्मविचार, जिनगुणमहिमा –
एवा सर्व प्रसंगोमां शुं तमने तमारामां एकला मात्र
रागनी ज उत्पत्ति देखाय छे
? – के ते वखते राग
उपरांत बीजा कोई सारा भावनी उत्पत्ति तमने
तमारामां देखाय छे
? ते वखते ज विद्यमान ज्ञानादि
(राग वगरना) भावोनी उत्पत्ति तमारामां तमने देखाय
छे के नहीं
? ते ज्ञाननी उत्पत्तिने देखशो तो ज तमारा
शास्त्रश्रवण वगेरे बधां कार्यो सफळ थशे, ने तो ज तमने
तेमां साचो उत्साह आवशे.
जो ज्ञानने नहि देखो तो, ज्ञान वगरना ते बधा
तमने अचेतन जेवा नीरस लागशे, ने तमने क्यांय खरो
उत्साह नहि आवे; अथवा तो ते रागना रसमां ज तमे
रोकाई जशो.
माटे, दरेक कार्य वखते एकला रागनी उत्पत्तिने ज
न देखो. ज्ञानादिनी उत्पत्तिने पण दरेक वखते साथे ने
साथे देखो
! ए रीते सम्यक्पणे देखतां जरुर तमने
भेदज्ञान थशे.....ज्ञाननी अनुभूति थशे.....ने चैतन्यनी
शांतिनो स्वाद आवशे.
स्वानुभवनी आ रीत मने ज्ञानीए आपी.

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सम्यग्दर्शन )
( सम्यक्त्वपिपासु : ३
सम्यक्त्वपिपासु जीवने संबोधन
शांतिनगरीमां वसवा चाहतां हे मुमुक्षु!
तारुं जीवन केवुं होवुं जोईए? केमके अत्यारे तारुं
जे जीवन चाली रह्युं छे तेमां तने संतोष नथी. अरे, तुं
एक जैन छो एटले सर्वज्ञ जिनदेवनो, गुरुओनो अने
जिनवाणीनो उपासक छो; तेथी तारा जीवनमां पण
तेमना जेवो वीतरागी रस आववो ज जोईए.
वीतरागरसना स्वाद वगर तने चेन क्यांथी पडे
? हवे
जागृत थईने तारी जीवनदिशाने तुं पलटावी नांख.
अज्ञानमय जीवन तो साव रस वगरनुं नीरस छे,
– भले दुनियानी गमे तेटली विभूति मळे; चैतन्यनुं
ज्ञानमय जीवन ते ज सरस – सुंदर छे, – भले ते
माटे बहारमां दुनियानी गमे तेवी प्रतिकूळता सहन
करवी पडे.
दुनियामांथी तारी शांति क्यां आववानी छे? तारी
शांति तो तारा चैतन्यतत्त्वमां ज भरेली छे. – तो पछी
शा माटे तारा पोतामां ज एकलो – एकलो रहीने तारी
शांतिनो रस नथी लेतो
? अने जैनधर्मना प्रतापे आवो
शांतस्वभावी आत्मा तने लक्षगत पण थयो छे. बस,
हवे तो तेना अनुभवना प्रयोगमां ज बधुं जीवन लगाडी
देवानुं छे; अने एम करवाथी तने आ जीवनमां ज
आत्मानो स्वानुभव थशे.

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४ : ऋषभदेवनी कथा )
( सम्यग्दर्शन
भगवान ऋषभदेवनी आत्मकथा
अत्यारे मोक्षपुरीमां बिराजमान भगवान ऋषभदेव पोतानी
सम्यक्त्व – प्राप्तिनी कथा कहे छे : पूर्वे दशमा भवे महाबल
विद्याधरना भवमां स्वयंबुद्ध – मंत्रीए मने जैनधर्मना संस्कार
आप्या; पण विषयोने वश हुं सम्यग्दर्शन न पाम्यो. त्यांथी
देवलोकमां जईने पछी हुं वज्रजंघराजा थयो ने बे मुनिवरोने
आहारदान दई भोगभूमिमां ऊपज्यो. त्यां हुं सम्यग्दर्शन
पाम्यो; तेनी मजानी वात सांभळो : –
एकवार ते भोगभूमिमां हुं आत्महितना विचारमां हतो,
त्यां मने जातिस्मरण थयुं. एवामां आकाशमार्गे बे मुनिवरो
आव्या ने मने आशीर्वाद आपीने कह्युं : हे आर्य
! हुं पूर्वना तारा
स्वयंबुद्ध – मंत्रीनो जीव छुं ने तने सम्यक्त्व पमाडवा विदेहथी
आव्यो छुं; माटे तुं हमणां ज सम्यक्त्वनुं ग्रहण कर.....अत्यारे ज
तेनी प्राप्तिनो अवसर छे.
अहा, मुनिराजना संबोधनथी मने अपार आनंद थयो;
मारो आत्मा जागी ऊठयो. ने मुनिराजना कहेवा प्रमाणे अंतर्मुख
थई, आत्माने लक्षगत करतां मने अपूर्व सम्यग्दर्शननी प्राप्ति
थई. अहो, धन्य श्रीगुरुनो उपकार!
त्यारपछी सम्यग्दर्शनना प्रतापे आत्मानी आराधना करतां
करतां हुं सर्वज्ञ थयो ने भरतक्षेत्रमां प्रथम तीर्थंकर थईने अत्यारे
मोक्षपुरीमां बिराजुं छुं. मारी आ कथा सांभळीने तमे पण
सम्यग्दर्शन पामजो ने वेलावेला मोक्षपुरीमां आवजो.
(जुओ : सामेनुं चित्र)

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सम्यग्दर्शन )
( ऋषभदेवनी कथा: ५
‘तुं हमणां ज सम्यक्त्वने ग्रहण कर’
पूर्वे सातमा भवे भोगभूमिमां भगवान ऋषभदेवनो जीव
सम्यक्त्व पामीने परम प्रसन्न थयो. ते प्रसंगनुं द्रश्य जोतां
मुमुक्षुने सम्यग्दर्शननी स्फूरणा थाय छे. सम्यक्त्वप्राप्तिना अति
रोमांचकारी आ प्रसंगनुं विस्तारथी वर्णन गुजराती
‘महापुराण’मां वांचो.

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६ : एक सिंहनी आत्मकथा )
( सम्यग्दर्शन
आत्मज्ञान पामीने सिंहमांथी जे सर्वज्ञ थई गयो,
ते जीव पोतानी आत्मकथा कहे छे :
एकवार हुं मांसभक्षी सिंह हतो; त्यारे
महाभाग्ये मने मुनिवरोनो समागम मळ्यो. तेमना
क्षणभरना समागमथी मारा क्रूरपरिणाम छूटीने
शांतपरिणाम थया.....अने तेमना उपदेशथी तत्काळ
आत्मज्ञान पामीने हुं परमात्म – पंथनो पथिक बन्यो.
मुनिवरोना समागमथी आत्मज्ञान थवानी मारी ए
सुंदर कथा हुं कहुं छुं, जे तमनेय आत्मज्ञाननी प्रेरणा
आपशे.
सिं ह मां थी.....स र्व ज्ञ

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सम्यग्दर्शन )
( एक सिंहनी आत्मकथा : ७
एक सिंहनी आत्मकथा
अनादि अज्ञानथी संसारमां रझडतो – रझडतो हुं एकवार
ऋषभदेवनो पौत्र (मरीचि) थयेलो. भगवाने कहेलुं के हुं
भविष्यमां तीर्थंकर थईश. ते सांभळीने मने हर्षनी साथे
अभिमान थयुं. अरेरे, त्यारे मारा दादाजीना धर्मदरबारमां पण
हुं आत्मज्ञान न पाम्यो, ने असंख्यभव सुधी नरक – निगोदमां
भटक्यो;
पछी एकवार हुं विश्वनंदी – राजकुमार थयो त्यारे
आत्मज्ञान पाम्यो हतो, पण अरेरे! पाछो विषय – कषायवश हुं
तेने भूली गयो ने नरक – तिर्यंचमां रखडयो.
एकवार हुं सिंह थयो; हरणने मारीने मांस खावानी तैयारी
करतो हतो; त्यां एकाएक बे मुनिराज आकाशमांथी ऊतर्या,
एमने जोतां ज हुं चकित थयो : शो अद्भुत एमनो देदार
! केवा
निर्भय! ने मुद्रामां केवी अपार शांति! अहा, केवा वात्सल्यथी
मारी सामे जोई रह्या छे!
– कोण छे आ महापुरुष! शा माटे अहीं पधार्या हशे!
मारा कोई हितस्वी होय एवा लागे छे. मारुं चित्त एमनामां एवुं
थंभी गयुं छे के हुं भूख्यो होवा छतां, अने नजीकमां मरेल हरण
पडयुं होवा छतां, ते खावानी वृत्ति ज सर्वथा छूटी गई छे. अरे,
क्यां मारी हिंसक वृत्ति
! ने क्यां आ मुनिवरोनी परम शांति!
एमनो संग मने बहु ज गमतो हतो. आश्चर्यद्रष्टि – द्वारा
में पूछ्युं – प्रभो! आप केम पधार्या छो? आपनी निकटतामां मने
कोई महान शांति थाय छे.