Samyak Darshan Part 7 8-Gujarati (Devanagari transliteration). Pashumathi Parmatma; 24 Tirthankar Puran Parichay; Badha Aatmama Prabhuta Bhari Chhe; Swanubhuti Bhavna; He Prathmik Jignasu Sadharmi; Aanadmay Chaitanyanagri Taraf Panch Pagla.

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८ : एक सिंहनी आत्मकथा )
( सम्यग्दर्शन
त्यारे श्री मुनिराजे वात्सल्यथी मने संबोधन कर्युं : –
सांभळ, हे भव्य! अमे भगवान पासेथी आव्या छीए ने तने
आत्मज्ञान पमाडीने तारो उद्धार करवा आव्या छीए.
‘अहा, केवी आनंदनी वात! आवा मोटा महात्मा
आकाशमार्गे मारो उद्धार करवा पधार्या.....ने ते पण परमेश्वर
पासेथी
! धन्य भाग्य!’ तेओ मने शुं कहे छे ते सांभळवा हुं
तलपापड बन्यो.
त्यां तो तेओश्रीना श्रीमुखथी अमृत वरस्युं : सांभळ! हवे
पछीना दशमा भवे तुं महावीर – तीर्थंकर थईश ने वीतरागी –
अहिंसा धर्मनो उपदेश आपीने लाखो – करोडो जीवोनुं कल्याण
करीश.
अरे, आ हुं शुं सांभळुं छुं! हुं तीर्थंकर थईश! अरे, मने
हवे आवा मांसाहारना परिणाम शोभे नहि; अरेरे, अत्यार सुधी
में शुं कर्युं
! एम हुं पश्चात्ताप करतो हतो. मने पूर्वभवोनुं
जातिस्मरण पण थयुं.
त्यां श्री मुनिराजे मने आश्वासनपूर्वक कह्युं : – हे वत्स!
चिन्ता छोड.....भय छोड. पूर्वे तुं त्रणखंडनो स्वामी वासुदेव थयो
ने सातमी नरके पण गयो; पाछो सिंह थयो, जीवोने मारी
मांसभक्षण कर्युं.....पण हवे एवा मांसभक्षणादि पापभावोने तुं
सर्वथा छोड. हवे भगवान थवानी तैयारी कर. तारो आत्मा राग
वगरनो, ज्ञानस्वरुप छे ने तेमां ज शांति छे, तेने तुं जाण. अमे
तने आत्मबोध पमाडवा आव्या छीए; माटे तुं अत्यारे ज तारा
आत्माने जाण ने अनुभव कर.
बस, ए सांभळ्युं ने हुं तो अंदर आत्मविचारमां ऊंडो ऊंडो
ऊतरी गयो.....केवो हशे आत्मा! राग वगरनो, हिंसा वगरनो,

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सम्यग्दर्शन )
( एक सिंहनी आत्मकथा : ९
शांत – शांत आत्मा केवो मजानो हशे? – एम अंदर तेने जोवा
लाग्यो. श्री मुनिराजनो संग मने महान उल्लास जगाडतो हतो,
ने तेमनुं शांतस्वरुप मने मारा आत्मस्वरुपनी प्रतीति उपजावतुं
हतुं.
मुनिवरोनो क्षणभरनो समागम पण मारा परिणामोमां
कोई महान आश्चर्यकारी परिवर्तन करी रह्यो हतो. ते मुनिराज
मने आत्मज्ञान पमाडवा बहु प्रेमथी कहेता हता के हे भव्य
!
अंदरमां देख.....आत्मा केवो सुंदर छे! पोतामां एकत्व ने परथी
विभक्तपणे ते केवो शोभी रह्यो छे? ने एनामां चैतन्यसुखनो केवो
वैभव भर्यो छे!!
में अंदर उपयोग मूकीने जोयुं : अहा,
अद्भुत.....आश्चर्यकारी! जेने देखतां मारा आनंदनो कोई पार
नथी. बस, मारा आत्माने देखतां ज मारुं अज्ञान मटी
गयुं.....आत्मा शांतरसना स्वादथी एकदम तृप्त थयो; क्रूर
कषायपरिणामो आत्मामांथी दूर थई गया.....ने कषाय वगरनुं
शांत परमात्मतत्त्व जाणीने हुं परमात्मपदनो पथिक बन्यो.....बस,
पछी तो थोडा ज भवमां आत्मसाधना पूरी करी, महावीर –
तीर्थंकर थईने अत्यारे हुं मोक्षपुरीमां वसी रह्यो छुं.
आ रीते क्षणभरना मुनिवरोना संगथी मने जे महान
आत्मलाभ थयो तेनी आ सुंदर मजानी कथा सांभळीने हे मित्रो!
तमे पण सत्संगनी अने आत्मज्ञाननी प्रेरणा लेजो.
महावीर भगवानना जीवे दश भवोमां करेली आराधनानुं
अति सुंदर – सचित्र वर्णन वांचवा माटे
‘चोवीस तीर्थंकर भगवंतोनुं महापुराण’ वांचो.

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१० : एक गजराजनी आत्मकथा )
( सम्यग्दर्शन
आ हाथी छे ते पारसनाथ भगवाननो जीव छे.
क्रोधथी अंध थईने ते हाथी अनेक मनुष्योनो कच्चरघाण
काढी नांखतो हतो. एवामां तेणे एक मुनिराजने देख्या.
मुनिराजना दर्शनथी तेने जातिस्मरण ज्ञान थयुं, एटलुं
ज नहि, तेमना उपदेशथी तेने सम्यग्दर्शन थयुं.....गांडो
हाथी, मुनिराजना संगे धर्मात्मा थईने परमात्मा बन्यो.
तेनी सुंदर कथा तेना ज मुखथी सांभळो : –
पशुमांथी.....परमात्मा

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सम्यग्दर्शन )
( एक गजराजनी आत्मकथा : ११
एक गजराजनी आत्मकथा
आ हाथीना भवमां हुं आत्मज्ञान पाम्यो. आना पहेलानां
भवमां हुं अरविंदराजानो मंत्री हतो. सामा चित्रमां जे मुनिराज
देखाय छे ते ज पोते अरविंद राजा हता. मारुं नाम हतुं मरुभूति.
मारा मोटाभाई कमठे मने मारी नांख्यो. हुं मरीने हाथी थयो, ने
कमठ मरीने सर्प थयो. अरविंद राजा दीक्षा लईने मुनि थया.
हाथीना आ भवमां मने क्यांय चेन पडतुं न हतुं. हुं बहु
क्रोधी ने विषयासक्त हतो; सम्मेदशिखर पासेना एक वनमां रहेतो
हतो. भविष्यमां ज्यांथी हुं मोक्ष पामवानो हतो एवा महान
सिद्धिधाम पासे रहेतो होवा छतां हजी हुं सिद्धिना पंथने जाणतो
न हतो. हुं मने ते वननो राजा मानतो हतो, तेथी त्यांथी पसार
थता यात्रिकोने हुं त्रास आपतो.
एक वखत सम्मेदशिखरजीनी यात्रा करवा जता यात्रासंघे ते
वनमां पडाव नांख्यो; साथे अरविंद – मुनिराज पण हता. संघनो
कोलाहल सांभळी हुं गांडो थयो ने पशु के माणस जे कोई
हडफेटमां आवे तेनो कच्चरघाण करवा लाग्यो. क्रोधपूर्वक दोडतो
दोडतो हुं झाड नीचे बेठेला मुनिराजनी सामे आव्यो.
मुनिराजे तो शांत मीठी नजरे मारा तरफ जोयुं.....ने हाथ
ऊंचो करीने आदेश आप्यो के ‘रुक जा.’
(हाथी कहे छे :) मुनिराजने देखतां कोण जाणे शुं थयुं के हुं
स्तब्ध बनी गयो. क्रोधने भूलीने हुं शांत थई गयो.....मुनिराज
सामे टगर टगर जोई रह्यो.....मने बहु ज गम्युं. त्यां तो मारी
स्मृति जागी ऊठी; पूर्वभवनुं मने भान थयुं के अरे, आ तो मारा
अरविंदराजा
! हुं तेमनो मंत्री हतो.....

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१२ : एक गजराजनी आत्मकथा )
( सम्यग्दर्शन
मुनिराज करुणाद्रष्टिथी मने संबोधन करवा लाग्या : हे
भव्य! तुं शांत था. तुं मारो मंत्री मरुभूति हतो, ते मरीने हाथी
थयो छो. हवे आठमा भवे तो तुं भरतक्षेत्रमां तीर्थंकर थवानो छो.
आ क्रोध तने शोभतो नथी; तारो महान आत्मा क्रोधथी भिन्न,
अत्यंत शांत चैतन्यस्वरुप छे, तेने तुं ओळख.
अहा, मुनिराजना संबोधनथी मारो आत्मा चोंकी ऊठयो.
एकदम शान्त थईने हुं मुनिराजनी सामे बेसी गयो.....ने तेनी
सामे टगटग जोतां तेमनी वाणी सांभळवा आतुर बन्यो.
मुनिराजे जोयुं के मारा परिणाम विशुद्ध थवा मांडया
छे.....ने मने आत्मज्ञाननी भावना जागी छे, एटले तेओ मने
उपदेश देवा लाग्या : हे भव्य
! तुं बुझ! बुझ! आ पशुपर्याय ए
तारुं स्वरुप नथी, तुं तो चैतन्यमय आत्मा छो. देहने अने रागने
आत्मा साथे एकमेक मानीने तें भवचक्रमां घणा भव कर्या ने बहु
दुःखी थयो. हवे राग अने ज्ञानने एकमेक मानवाना अविवेकने तुं
छोड. तारो आत्मा देहरुप के रागरुप थई गयो नथी, चेतनरुप ज
रह्यो छे. – आ जाणीने तुं प्रसन्न था, सावधान था, अने सदाय
उपयोगस्वरुप स्वतत्त्व ज मारुं छे एम अनुभव कर.
अहा, मुनिराजनां वचनो सांभळी मने महान तृप्ति
थई.....जो के मने महान हर्ष जागतो हतो, परंतु त्यारे मारो
उपयोग तो हर्षथीये पार थईने चैतन्यतत्त्वना परमआनंदनो स्वाद
लेवा तरफ ढळी रह्यो हतो. प्रशांत परिणाम वडे मारी चेतना
अंदरमां ऊंडी ऊतरतां में मारा परमात्मस्वरुपने साक्षात
देख्युं.....अहा, परम आनंदनी अनुभूतिसहित आत्मानुं सम्यक्
दर्शन थयुं.
– ‘त्यारे हुं अमृतना दरियामां डोली रह्यो हतो; सर्वे

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सम्यग्दर्शन )
( एक गजराजनी आत्मकथा : १३
परभावोथी रहित साचुं आत्मसुख मारा आत्मामां अनुभवातुं
हतुं. क्षणमात्रना आवा अनुभवथी मारो अनंतभवनो थाक ऊतरी
गयो ने हुं मोक्षमार्गनो पथिक बन्यो.’ – सम्यग्दर्शन पामेलो हाथी
कहे छे : आत्मउपयोग सहजपणे झडपथी पोताना स्वरुप तरफ
वळतां सहज निर्विकल्पस्वरुप अनुभवायुं. चैतन्यप्रभु पोताना
एकत्वमां आवीने निजानंदमां डोलवा लाग्या. वाह, मारुं स्वरुप
कोई अद्भुत – अचिंत्य – आश्चर्यकारी छे.’
– आम सम्यग्दर्शन थतां मारा आनंदनो कोई पार न
रह्यो. अहा, मुनिभगवंतना एक क्षणना सत्संगे तो मने मारुं
परमात्मपणुं मळ्युं. हुं पशु नहि, हुं तो परमात्मा
! वाह, पशुमांथी
परमात्मा बनावनार जैनधर्म खरेखर अद्भुत छे, अद्भुत
आत्मस्वरुपने ते प्रगट करे छे. अहा, जेमना उपदेशथी मारा
भवदुःखनो अंत आव्यो ने मोक्षनी साधना शरु थई, जेमणे मने
मारा परमात्मनिधान बताव्या, ते मुनिराजना उपकारीनी शी वात
!
ते व्यक्त करवा मारी पासे भाषा न हती तोपण मनद्वारा में तेमनी
स्तुति करी, सूंढवडे नमस्कार करीने में तेमनो उपकार मान्यो....
मारी आंखमांथी हरखना आंसु झरता हता.
मारी आवी दशा देखीने यात्रासंघना माणसो पण आश्चर्य
पाम्या : आ शुं चमत्कार!! – क्यां क्षण पहेलानो हिंसक ए गांडो
हाथी! ने क्यां आ शांतरसमां तरबोळ थईने मोक्षमार्गमां झूलतो
हाथी! वाह, आ चैतन्यनो चमत्कार छे. चैतन्यसाधनाना प्रतापे
एक पशु पण परमात्मा बनी जाय छे.
(इतिश्री, गजराजनी आनंदकारी आत्मकथा)

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१४ : एक गजराजनी आत्मकथा )
( सम्यग्दर्शन
मोक्षसाधक ते हाथीने देखीने वनना वांदरा पण राजी थता
हता ने फळ वगेरे लावीने तेनी सेवा करता हता. एकवार
सरोवरमां पाणी पीवा जतां ते वज्रघोष – हाथी कादवमां खूंची
गयो; त्यारे एक भयंकर सर्प तेने करडयो.....ने हाथी समाधिमरण
करीने स्वर्गमां गयो.
ए सर्प कोण छे? ते हाथीनो ज पूर्वभवनो भाई कमठ छे
– जे मरीने सर्प थयो छे. भविष्यमां हाथीनो जीव ज्यारे
पारसनाथ – तीर्थंकर थया त्यारे ते सर्पनो ज जीव ‘संवरदेव’ थई
ने तेमनी ज समीपमां सम्यग्दर्शन पामीने मोक्षमार्गी थयो.
‘पारसना संगे लोढुं सोनुं बनी गयुं.’
(ते हाथी अने ते सर्पना वच्चेना अनेक भवोनुं सचित्र
आनंदकारी वर्णन आप ‘महापुराण’मां वांचजो.)

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सम्यग्दर्शन )
( चोवीस तीर्थंकरोनुं महापुराण : १५
२४ तीर्थंकरोनुं महापुराण
FOUR IN ONE
(एक ज शास्त्रमां चारेय अनुयोग)
लेखक : ब्र. हरिलाल जैन
(१) प्रथम कथानुयोग (२) चरणानुयोग (३)
करणानुयोग अने (४) द्रव्यानुयोग. – जिनवाणी आवा चार
अनुयोगरुप छे, ने ते चारेय अनुयोग वीतरागभावनो ज
उपदेश आपीने आत्मानुं हित करनार छे. पुराणा शास्त्रभंडारोमां
चारे अनुयोगना घणांय शास्त्रो छे, पण ते बधाय नो अभ्यास
अति विरल विद्वानो ज करी शके छे.
– तो जिज्ञासुए शुं करवुं ? चारे अनुयोगना अनेक
शास्त्रोना आधारे आपणा चोवीस तीर्थंकर भगवंतोनुं,
अध्यात्मशैलीथी लखायेल ‘महापुराण’ वांचो, – तेमां
जिनवाणीना चारेय अनुयोग भर्या छे. तेमां (१) तीर्थंकर
भगवंतोनी जीवनकथा छे, (२) मोक्षने माटे ते भगवंतोए
आचरेला उत्तम आचरणनुं वर्णन छे, (३) चार गतिनां सुख-
दुःख, गुणस्थान वगेरे परिणामरुप करणानुयोग पण तेमां छे,
अने (४) ते तीर्थंकरादि महात्माओ क्यारे, केवा भावथी
सम्यग्दर्शनादि पाम्या, तेनुं वर्णन तेमज स्वानुभूतिनी अति
सुंदर चर्चाओरुप द्रव्यानुयोग पण तेमां ठेरठेर भरेलो छे. आ
रीते
(FOUR IN ONE) एक ज पुस्तकमां चारेय अनुयोगनुं
रोमांचकारी वर्णन वांचता तमे कोई अनेरी धार्मिक स्फूर्ति
अनुभवशो....अने, जो ज्ञानीना सत्संगनुं जोर तमारी पासे हशे
तो, तमे मोक्षमार्गमां पण दाखल थई जशो. – धन्यवाद !
श्री कहानस्मृति – प्रकाशन, संतसान्निध्य, सोनगढ

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१६ : जेलमां प्रवचन )
( सम्यग्दर्शन
बधा आत्मामां प्रभुता भरी छे
राजकोटनी जेलमां २०० जेटला केदीओ समक्ष उपदेश
(संसारनी जेलमांथी केम छूटाय?)
वीर सं. २४९० ना फागण सुद १२ ना रोज राजकोट
शहेरमां सेन्ट्रल जेलना सुप्रीन्टेन्डन्ट तरफथी विनंति थतां पू.
गुरुदेव श्री कानजीस्वामी त्यांना केदीओने सदुपदेशनां
बोधवचनो संभळाववा पधार्या हता. त्यांना करुण अने
वैराग्यप्रेरक वातावरणमां गुरुदेवे लागणीभीना हृदये जे
बोधवचन कह्या ते अहीं आपवामां आव्या छे. जेलना
केदीभाईओने गुरुदेवना आ बोधवचनो सांभळीने
सन्मार्गमां जीवन गाळवानी भावना जागी हती.
‘भाईओ’ एवा प्रेमभर्या संबोधनपूर्वक गुरुदेवे कह्युं :
जुओ भाई, आ देहमां रहेलो आत्मा सच्चिदानंदस्वरुप कायमी
वस्तु छे, ते अविनाशी छे; ने पाप, हिंसा वगेरे जे दोष छे, ते
क्षणिक छे, ते कांई कायमी वस्तु नथी, एटले तेने टाळी शकाय छे.
क्रोध – मान वगेरे दोष तो आत्मा अज्ञानथी अनादिनो करतो ज
आवे छे ने तेथी ते आ संसाररुपी जेलमां पूरायेलो छे, तेमांथी
केम छूटाय
? ते विचारवुं जोईए. दोष तो पहेलां दरेक आत्मामां
होय छे, पण तेनुं भान करीने एटले के ‘आ मारो अपराध छे,
पण ते अपराध मारा आत्मानुं कायमी स्वरुप नथी,’ एम
ओळखाण करीने ते अपराधने टाळी शकाय छे ने निर्दोषता
प्रगटावी शकाय छे.

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सम्यग्दर्शन )
( जेलमां प्रवचन : १७
जेम पाणी भले ऊनुं थयुं तोपण तेनो स्वभाव तो ठंडो छे,
अग्निने ठारी नांखवानो तेनो स्वभाव छे; एटले जे अग्नि उपर
ते ऊनुं थयुं ते ज अग्नि उपर जो ते पडे तो ते पाणी अग्निने
बूझावी नांखे छे, तेम आ आत्मा शांत – शीतळस्वभावी छे, ने
क्रोधादि तो अग्नि जेवा छे; जो के पोतानी भूलथी ज आत्मा
क्रोधादि करे छे, पण ते कांई तेनो असली स्वभाव नथी, असली
स्वभाव तो ज्ञान छे, तेनुं भान करे तो क्रोधादि टळी जाय छे ने
शांतरस प्रगटे छे. आत्मामां चैतन्यप्रकाश छे, ते दोष अने पापना
अंधकारनो नाश करी नांखे छे.
जुओ, अहीं (जेलमां) पण भींत उपर लख्युं छे के ‘बधा
दुःखनुं मूळ कारण अज्ञान छे.’ ते अज्ञानने लीधे ज आ संसारनी
जेलना बंधनमां आत्मा बंधायेलो छे; तेमांथी छूटवा माटे
आत्मानी ओळखाण अने सत्समागम करवा जोईए. आवो मोंघो
मनुष्य – अवतार मळ्यो, ते कांई फरी फरीने नथी मळतो; माटे
तेमां एवुं सारुं काम करवुं जोईए के जेथी आत्मा आ भवबंधननी
जेलमांथी छूटे. श्रीमद् राजचंद्रजी नानी उंमरमां कहे छे के –
बहु पुण्यकेरा पूंजथी शुभदेह मानवनो मळ्यो,
तोये अरे, भवचक्रनो आंटो नहीं एक्के टळ्यो;
सुख प्राप्त करतां सुख टळे छे, लेश ए लक्षे लहो,
क्षण क्षण भयंकर भावमरणे कां अहो राची रहो
!
आवो मनुष्यभव रत्नचिंतामणी समान छे, तेमां शांतिथी
आत्माने सावधान करीने मनुष्यजीवन सफळ करवा जेवुं छे;
नहितर तो आ रत्न, चौटामां पडेला रत्ननी जेम चोराई जशे.
बधाय आत्मामां (अहीं बेठा छे ते केदी – भाईओना दरेक
आत्मामां पण) एवी ताकात छे के प्रभुता प्रगटावी शके ने दोषनो

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१८ : जेलमां प्रवचन )
( सम्यग्दर्शन
नाश करी नांखे. आत्माना भान वडे सज्जनता प्रगटावीने दोषनो
नाश थई शके छे. कोई व्यक्ति उपर द्वेष न होय. बधा आत्मामां
प्रभुता भरी छे, तेनुं पोते भान करीने ते प्रगटावी शके छे.
क्षणिक आवेशथी तीव्र राग – द्वेषमां के क्रोधमां तणाई जतां
जीव हिंसादि पाप करी बेसे छे. एवा पापभावो होय त्यां
आत्मानुं भान न थाय. विचार करवो जोईए के अरे
! जीवनमां
केवुं कार्य करवा जेवुं छे! सत्समागमे आत्मानुं भान नाना बाळक
पण करी शके छे. अरे, सिंह वगेरे पशु पण एवुं भान करी शके
छे, पापीमां पापी जीव पण क्षणमां पोताना विचार पलटीने आवुं
भान करी शके छे; ‘सो उंदर मारीने बिल्ली पाटे बेठी’ – एम
घणां पाप कर्या ने हवे जीवन केम सुधारी शके
? – एवुं नथी;
पापनुं प्रायश्चित्त करीने, क्षणमां पापने टाळी शकाय छे ने जीवनने
सुधारी शकाय छे. आ मनुष्यभव पामीने ए करवा जेवुं छे.
(इति जेल – प्रवचन)
साधकनुं सौन्दर्य
साधकना आत्मसौन्दर्यने देखो, तमे मुग्ध बनी जशो.
आत्मसाधनामां भरेलुं सौन्दर्य कोई अचिंत्य छे.
एकत्व – निश्चयरुप थयेलो ते आत्मा सर्वत्र सुंदर छे.
प्रतिद्रोहनो आवेश निर्बळने आवे छे, शांतधैर्यवानने
नहीं. धैर्यवान मुमुक्षु गमे तेवा प्रतिद्रोह वच्चे पण
आत्मसाधनामां अचल रहे छे.

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सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभवनी भावना : १९
स्वानुभवनी भावना
हे आत्मजिज्ञासु!
(१) आत्मअनुभव माटेना प्रयोगो जाणवानी तमारी
उत्कंठा.....ते एक एवो भाव छे के जेमां आगळ वधतां अद्भुत
चैतन्यतत्त्वनी अनुभूति चोक्कस थाय छे. तेमां जरुरीयात एटली
के, आत्माने जाणवानी जे भावना जागी तेमां पूरी ताकात लगाडीने
आगळ ने आगळ वध्ये जवुं. बधी परिस्थितिमां एने ज मुख्य
राखवुं, एटले ए ज पोतानुं जीवन छे – एम समजवुं.
(२) हवे जे आत्मवस्तुने जोवी छे – अनुभवमां लेवी छे
ते वस्तु एवी अद्भुत – सुंदर छे के, चित्त तेनी नजीक आवतां
ज आखुं जगत जाणे मनमांथी दूर हटी जाय छे ने संसारना
बघाय भावोनो थाक ऊतरवा मांडे छे.....एटले के चित्त शांत
थईने पोताना आत्माना चिंतनमां एकाग्र थवा तत्पर थाय छे.
अहींथी ध्यान माटेना (एटले के सम्यग्दर्शनरुप आत्मअनुभव
माटेना) प्रयोगनी शरुआत थवा मांडे छे.
(३) आ प्रयोगनो प्रारंभ थतां ज, मुमुक्षु जीवने एक महान
फायदो ए थयो के, तेनुं चित्त बीजे बधेयथी हटीने, अत्यंत
रसपूर्वक पोताना चैतन्यभंडारमांथी ज शांतिनुं वेदन लेवा
प्रयत्नशील थयुं.....श्रद्धा अने ज्ञाननी बधी ताकातने तेमां ज
रोकी.....अनंत ताकातवाळो आत्मा पोते जागीने पोताने साधवा
तैयार थयो.....ध्याता बनीने पोते पोताने ज ध्येयरुप करवा
मांडयो. आ प्रयोगनी जेटली उग्रता, एटलो विकल्पोनो अभाव.
(४) बस, हवे आ जीवने वारंवार एमां ज उपयोग

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२० : स्वानुभवनी भावना )
( सम्यग्दर्शन
लगावीने चिंतन करवानुं गमे छे.....एमां ज मजा आवे छे.
बहारनी सामग्रीमां के रागादिभावोमां कदी जे जातनी शांतिनो
स्वाद आव्यो न हतो, एवो कोई नवीन शांतिनो स्वाद
चैतन्यचिंतनमां तेने आववा लाग्यो.....क्यांथी आव्यो आ मधुर
स्वाद
! अंदरमां पोतामांथी ज ते स्वाद आवी रह्यो छे. ज्यांथी आ
स्वाद आवी रह्यो छे त्यां भरेली अगाध शांति तरफ ते मुमुक्षु हवे
ऊंडो ने ऊंडो ऊतरतो जाय छे. तेने शांतिनुं वेदन चमत्कारिक रीते
वधतुं जाय छे ने विकल्पो लगभग बधा ज शांत थई जाय छे.
(५) हे आत्मपिपासु! आ एक अद्भुत कळा छे.....के जे
मुमुक्षुने ज आवडे छे.....अने जेना फळमां कल्पनातीत आनंद थाय
छे. जुओ, अत्यारे थोडीक वार एवी आत्मभावना करी तेमां पण
जगतना बधा सुख – दुःखो भूलाईने, तमारा चित्तमां शांतिना
केवा भणकार आववा लाग्या
! आना उपरथी जातअनुभव वडे तुं
विश्वास कर के, जे शांतिने हुं अनुभववा मांगु छुं ते बीजे क्यांय
नथी पण मारामां छे, ने हुं पोते ज शांति स्वरुप छुं.
बस, आवो आत्मा.....ते ज पोताना ध्याननो विषय.
‘‘जेने हुं ध्याववा चाहुं छुं.....ते हुं ज छुं.’’
(इति स्वानुभवनी भावना.)
आ भावनानो द्रढ अभ्यास करो.....पछी तेना प्रयोग कहेशुं.
हवे चालो जईए :
भगवंतोनी नगरीमां.....चैतन्य महेलमां.....

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सम्यग्दर्शन )
( चैतन्य नगरी तरफ : २१
(चित्र)
हे प्राथमिक जिज्ञासु साधर्मी !
कषायोना वेदननी भींसथी तुं भयंकर दुःखी छो – एम जो
तने लागतुं होय, ने एनाथी छूटीने शांति लेवा माटे तारुं हृदय
पोकारतुं होय तो –
हे भव्य! आव.....अमारी पासे आव.
पंचपरमेष्ठी भगवंतोनी आत्मनगरीमां शांतिना महेलमां
रहेनारा अमे तने खूब प्रेमथी बोलावीए छीए.....केमके खरेखर
तुं अमारो ज्ञातिबंधु – साधर्मी छो. अमारा परिवारनो ज छो.
कषायनगरीमां तो तुं भूलथी फसाई पडयो छो; हवे त्यांनो वास
छोडीने आपणा बापदादानी असली नगरी एवी आ शांतनगरीमां
अमारी साथे रहेवा चाल्यो आव
! कषाय तने कंई पण हेरान
करवा आ नगरीमां आवी नहीं शके.....छतां आवे तो अमे बधा
बेठा छीए.....आनंदथी तुं आव.....ने अमारी साथे सदाय सुखथी
रहे; तुं अमारो भाई छो, श्री पंचपरमेष्ठीनी आज्ञाथी तने
चैतन्यनगरीमां आववानुं आ आमंत्रण आपुं छुं.

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२२ : चैतन्य नगरी तरफ )
( सम्यग्दर्शन
(१)
आनंदनगरी तरफ प्रथम पगलुं
‘हवे हुं मुमुक्षु थयो छुं.’
अत्यार सुधी अनादिथी आत्मानी शांतिने भूलीने हुं
कषायोनी आगमां सळगी रह्यो छुं. हवे मारा पंच परमेष्ठी
भगवंतोनी शांतिने देखीने मने पण एवी शांति माटे घणी ज
चाहना थई छे. तेथी हवे हुं आ कषायनी आगमां एक क्षण पण
रही नहीं शकुं. एनाथी जल्दी छूटीने शांतरसनो हुं पिपासु थयो
छुं, तेथी हुं मुमुक्षु छुं.
हवे हुं विचारुं छुं के अरे, आ कषायो मने केवा भयंकर
दुःखनी आगमां बाळी रह्या छे! ए देखीने हवे हुं कषायोथी बहु
ज बीवुं छुं; तेथी हुं तेनाथी भागीने चैतन्य महाराजनी समीप
आनंदमय चैतन्यनगरी तरफ पांच पगलां
आत्मनगरी
शांतिमहेल
हे मुमुक्षु! कषायनगरीमांथी छूटीने
आत्मनगरीना शांतिमहेलमां आववानो मार्ग
तने बतावुं छुं. अमे आ मार्गे आत्मनगरीमां
आव्या छीए. तुं पण जल्दी आव. ते माटे
पांच पगलां तने बतावुं छुं.

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सम्यग्दर्शन )
( चैतन्य नगरी तरफ : २३
आवीने जोरजोरथी पोकार करुं छुं के हे चैतन्यदेव! हवे तमे ज
मने आ कषाय – राक्षसोथी बचावनारा छो अने तमे ज मने
शांति आपीने मारुं दुःख मटाडनार छो. पहेलां हुं कदी तमारी
पासे नहोतो आव्यो तेथी कषायोए मने हेरान कर्यो.....हवे हुं
तमारी पासे आव्यो छुं ने मुमुक्षु थयो छुं; तमे अवश्य मने
कषायोथी छोडावीने महान आत्मशांति देशो – एवो मारो विश्वास
छे. अहो चैतन्य प्रभु
! मारा मनमां तमने याद करतां ज आ
कषायो तो तमाराथी डरीने एकदम दूर भागवा लाग्या, अने मने
शांतरसनी शीतळ हवा आववा लागी.
(इति चैतन्यपुरीमां प्रथम पगलुं)
(२)
चैतन्यनगरीमां बीजुं पगलुं
चैतन्यनगरीना महाराजा चेतनप्रभु कहे छे : – हे मुमुक्षु!
तें बहु सारुं कर्युं के तुं अहीं मारी पासे चैतन्यनगरीमां आव्यो.
देख, आपणी आ चैतन्यनगरी केवी मजानी सुंदर छे
! आ
नगरीमां बधाय शांतपरिणामी आत्माओ ज रहे छे; कषायो के
मिथ्यात्व वगेरे दुष्ट चोर – लोकोनो आ नगरीमां प्रवेश – निषेध
छे; माटे हवे तुं ते कषायोनी बीक छोडी दे, अने निर्भय थईने आ
शांतनगरीमां रहेनारा सर्वे सज्जन परिवारनो परिचय कर
!
देख, आ सर्वज्ञ महाराज ! तेओ आपणी आ नगरीना
महाराजा छे, तेओ आपणी जातिना ज छे. तेओ केवा मजाना
वीतराग छे
! आपणे पण एवा ज थवानुं छे.

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२४ : चैतन्य नगरी तरफ )
( सम्यग्दर्शन
वळी आ तरफ जो? – आ मोटा मोटा मुनिवरो
शुद्धोपयोगचक्रना बळथी संज्वलन कषायने पण जीतीने केवळज्ञान
पामी रह्या छे; तेओ एम समजावे छे के आटलो सूक्ष्म कषायकण
पण जीवने दुःख देनारो छे, तेथी तेने आपणी चैतन्यनगरीमांथी
भगाडी देवो जोईए..... तो पछी मोटा मोटा कषायोनी तो वात ज
शुं करवी
?
वळी हे मुमुक्षु! आ तरफ देख! आ सम्यग्द्रष्टि – धर्मात्मा
जीवो – जेओ हमणां नवा नवा आ शांतिनगरीमां आव्या छे –
तेमणे कषायोनी सामे घणी मोटी लडाई करीने तेने पछाडी दीधां
छे.
अमे बधाय तारी साथे ऊभा छीए. हवे कषायनुं तारी सामे
कंई पण चाली शके नहीं शके. तुं निर्भय थईने बहादुरीथी
लड.....अने..... ले आ चेतना – तलवार.....तेना एक ज घाथी
कषायनी अनंत सेना मरी जशे अने तने तारा चैतन्यना
आनंदवैभवथी भरेलुं स्वराज्य प्राप्त थशे.....अने तुं पण अमारा
बधा जेवो ज थई जईश.
हे भव्य! हवे तुं पोतानुं महान गौरव समज के, हुं आवी
अद्भुत वीतरागीनगरीमां रहेवा आव्यो छुं, अने महान
दुःखदायक एवी कषायनगरीमांथी हुं भागी छूटयो छुं.
बस, हे बंधु! हवे तुं शांतिथी आ नगरीमां रहीने सुख
भोगव्या कर! जो कोईक कषाय आवी जाय तो भय न करतो, –
अमे बधा तारी पासे बेठा छीए, – तेने जोई लेशुं!!

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सम्यग्दर्शन )
( चैतन्य नगरी तरफ : २५
(३)
आत्मनगरीमां त्रीजुं पगलुं
हवे त्रीजा दिवसे विचार करतां मने एम थाय छे के –
हुं आत्मानी शांतिनगरीमां आव्यो छुं, छतां पण आ
कषायोथी हजी मारो छूटकारो नथी थयो, ने साची शांति मने नथी
मळती, – आम केम
?
– तो मारा सत्संगी स्वानुभवीजनो मने एम बतावे छे के
अरे भाई! पूर्वपरिचित ते कषायोनो रस हजी पण तें नथी
छोडयो.....अने अमारी साथे रहेवा छतां चैतन्यनो साचो रस तें
प्रगट कर्यो नथी, तो पछी तने शांति केम मळे
? शुं कषायोमांथी कदी
शांति मळे छे? – ना, कदी नहीं.
कषाय अने ज्ञानादि गुणो एकबीजाथी साव विरुद्ध छे. ज्ञान
तो जीवनो स्वभाव – गुण छे, तेना वगर जीव जीवी शकतो ज नथी.
अने कषाय कांई जीवनो गुण नथी पण विरोधी छे. कषायनो नाश
थतां कांई जीवनो नाश नथी थतो. कषाय तो कर्मनो मित्र छे अने
आत्मानो दुश्मन छे.
जेम ज्ञान जीवनो मित्र (स्वभाव) छे तेम कषाय कांई जीवनो
मित्र नथी. ज्ञान जीवनो गुण छे तेम शांति पण जीवनो गुण छे; अने
एक वस्तुना बे गुणो एकबीजाना विरोधी होता नथी. तेथी ज्ञान
अने शांति तो एकसाथे रहे छे – पण क्रोध अने शांति एकसाथे कदी
रही शकता नथी. क्रोध अने अशांति सदा साथे होय छे. आ रीते,
शांति अने क्रोधनी अत्यंत भिन्नता जाणीने हुं मारा ज्ञानने शांतिनी
साथे जोडुं छुं अने क्रोधने ज्ञानमांथी बहार काढी नाखुं छुं.
वाह! आवा मारा ज्ञानमां मने तो कोई अद्भुत मजा आवे
छे अने नवी ज शांति मळे छे. बस, आमां ज हुं रही जाउं छुं. –
आ ज छे मारी आत्मनगरी.

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२६ : चैतन्य नगरी तरफ )
( सम्यग्दर्शन
(४)
पंचपरमेष्ठीनी नगरीमां चोथुं पगलुं
हे पंचपरमेष्ठी भगवान्!
हवे आज हुं जोशमां आवी गयो छुं; काल हुं ढीलो हतो पण
हवे मने खबर पडी गई के जेटलो अनंतगुणवैभव आपनी पासे
छे, – मारी पासे पण एटलो ज गुणवैभव भरेलो छे; अने
कषायोने के अशांतिने मारा कोई पण गुणमां रहेवानो अधिकार
नथी. तेथी मारी चैतन्यसत्तानो उपयोग करीने में कषायोने
देशनिकाल करी दीधा छे.....एटले हवे हुं जोशमां आवी गयो छुं.
अत्यार सुधी कषायोना दबाणने कारणे मारी शांति खीलती न
हती, तथा मारुं ज्ञान पण कषायवश थवाथी मारा अतीन्द्रिय
स्वभावने देखी शकतुं न हतुं; हवे मारुं ज्ञान ने शांति कषायोथी
भिन्न स्वाधीन थई जवाथी, पोताना असली स्वरुपे प्रगट थईने
मारी महान शांति तथा अपूर्व ज्ञानचेतनानो अनुभव करी रह्युं छे.
वाह प्रभो! आपणी आ चैतन्यनगरीमां आवुं सुंदर ज्ञान
अने आवी वीतरागी शांति भरेली हती एनी मने आजे ज खबर
पडी, अने मने घणी ज प्रसन्नता थई.....हवे आवी सुंदर नगरीने
छोडीने हुं बीजे क्यांय जवानो नथी.....सदाय आपनी साथे आ
नगरीमां ज मारा स्वघरमां रहीश.....ने आपना जेवो ज थई
जईश.
अहो, पंचपरमेष्ठी भगवंतोना प्रसादथी हवे मारुं जीवन
सुधरी गयुं.....जीवनदिशा पलटी गई; आ जीवनमां सम्यक्त्वादि
महान आनंदनो लाभ लेवानो उत्तम अवसर मने मळी गयो छे
तेथी हवे हुं मारा स्वभावमां ऊतरीने, अंतरमां स्वानुभूति करीने

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सम्यग्दर्शन )
( चैतन्य नगरी तरफ : २७
सिद्धप्रभु जेवा सुखनो स्वाद चाखुं छुं. – आ स्वाद चाखवा माटे
मारुं चित्त एवुं तलसी रह्युं छे के दुनियानी सामे क्यांय देखवानी
इच्छा थती नथी. दुनियानो कोई पण प्रसंग हवे मारी चेतनाने
मारा सुखथी छोडावीने मने नथी तो डरावी शकतो, के नथी
लोभावी शकतो. तेथी हुं दुनियाथी उपेक्षित थईने मारा
चैतन्यरसना मीठा स्वादमां ज मशगुल छुं.
( – इति चैतन्यनगरीमां चोथुं पगलुं)
(५)
आनंदनगरीमां पांचमुं पगलुं
हवे चार दिवसथी हुं मारी आ आनंदमय चैतन्यनगरीमां
पंचपरमेष्ठी परिवारनी साथे रहीने आनंद करुं छुं. जेम जेम हुं
आ चैतन्यनगरीने देखतो जाउं छुं तेम तेम तेनी महान अद्भुत
विभूतिओ देखीने मने आश्चर्य थई रह्युं छे. अहा
! आवी सुंदर
विभूतिओ में पहेलां कदी क्यांय पण देखी न हती.....ते में मारी
चैतन्यपुरीमां देखी.
वळी विशेष आश्चर्य तो ए थाय छे के आ बधी विभूतिओ
पहेलां पण मारामां भरेली ज हती; ज्यारे हुं कषायनगरीमां
फसाई पडयो हतो त्यारे पण मारी आ आत्मविभूति मारामां ज
भरी हती, अने छतां पण कषायो तेने नष्ट करी शक्या न हता.
आथी एम पण नक्की थई जाय छे के कषायोनी ताकात करतां मारी
आत्मविभूतिनी ताकात घणी महान छे.
अहो! उपकार छे पंचपरमेष्ठी देवोनो, के – तेमना प्रसादथी
मने मारी महान शक्तिनुं भान थयुं. हवे मारी चैतन्यविभूति सामे