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पासेथी
अहिंसा धर्मनो उपदेश आपीने लाखो – करोडो जीवोनुं कल्याण
करीश.
में शुं कर्युं
ने सातमी नरके पण गयो; पाछो सिंह थयो, जीवोने मारी
मांसभक्षण कर्युं.....पण हवे एवा मांसभक्षणादि पापभावोने तुं
सर्वथा छोड. हवे भगवान थवानी तैयारी कर. तारो आत्मा राग
वगरनो, ज्ञानस्वरुप छे ने तेमां ज शांति छे, तेने तुं जाण. अमे
तने आत्मबोध पमाडवा आव्या छीए; माटे तुं अत्यारे ज तारा
आत्माने जाण ने अनुभव कर.
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ने तेमनुं शांतस्वरुप मने मारा आत्मस्वरुपनी प्रतीति उपजावतुं
हतुं.
मने आत्मज्ञान पमाडवा बहु प्रेमथी कहेता हता के हे भव्य
गयुं.....आत्मा शांतरसना स्वादथी एकदम तृप्त थयो; क्रूर
कषायपरिणामो आत्मामांथी दूर थई गया.....ने कषाय वगरनुं
शांत परमात्मतत्त्व जाणीने हुं परमात्मपदनो पथिक बन्यो.....बस,
पछी तो थोडा ज भवमां आत्मसाधना पूरी करी, महावीर –
तीर्थंकर थईने अत्यारे हुं मोक्षपुरीमां वसी रह्यो छुं.
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काढी नांखतो हतो. एवामां तेणे एक मुनिराजने देख्या.
मुनिराजना दर्शनथी तेने जातिस्मरण ज्ञान थयुं, एटलुं
ज नहि, तेमना उपदेशथी तेने सम्यग्दर्शन थयुं.....गांडो
हाथी, मुनिराजना संगे धर्मात्मा थईने परमात्मा बन्यो.
तेनी सुंदर कथा तेना ज मुखथी सांभळो : –
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देखाय छे ते ज पोते अरविंद राजा हता. मारुं नाम हतुं मरुभूति.
मारा मोटाभाई कमठे मने मारी नांख्यो. हुं मरीने हाथी थयो, ने
कमठ मरीने सर्प थयो. अरविंद राजा दीक्षा लईने मुनि थया.
हतो. भविष्यमां ज्यांथी हुं मोक्ष पामवानो हतो एवा महान
सिद्धिधाम पासे रहेतो होवा छतां हजी हुं सिद्धिना पंथने जाणतो
न हतो. हुं मने ते वननो राजा मानतो हतो, तेथी त्यांथी पसार
थता यात्रिकोने हुं त्रास आपतो.
कोलाहल सांभळी हुं गांडो थयो ने पशु के माणस जे कोई
हडफेटमां आवे तेनो कच्चरघाण करवा लाग्यो. क्रोधपूर्वक दोडतो
दोडतो हुं झाड नीचे बेठेला मुनिराजनी सामे आव्यो.
सामे टगर टगर जोई रह्यो.....मने बहु ज गम्युं. त्यां तो मारी
स्मृति जागी ऊठी; पूर्वभवनुं मने भान थयुं के अरे, आ तो मारा
अरविंदराजा
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आ क्रोध तने शोभतो नथी; तारो महान आत्मा क्रोधथी भिन्न,
अत्यंत शांत चैतन्यस्वरुप छे, तेने तुं ओळख.
सामे टगटग जोतां तेमनी वाणी सांभळवा आतुर बन्यो.
उपदेश देवा लाग्या : हे भव्य
आत्मा साथे एकमेक मानीने तें भवचक्रमां घणा भव कर्या ने बहु
दुःखी थयो. हवे राग अने ज्ञानने एकमेक मानवाना अविवेकने तुं
छोड. तारो आत्मा देहरुप के रागरुप थई गयो नथी, चेतनरुप ज
रह्यो छे. – आ जाणीने तुं प्रसन्न था, सावधान था, अने सदाय
उपयोगस्वरुप स्वतत्त्व ज मारुं छे एम अनुभव कर.
उपयोग तो हर्षथीये पार थईने चैतन्यतत्त्वना परमआनंदनो स्वाद
लेवा तरफ ढळी रह्यो हतो. प्रशांत परिणाम वडे मारी चेतना
अंदरमां ऊंडी ऊतरतां में मारा परमात्मस्वरुपने साक्षात
देख्युं.....अहा, परम आनंदनी अनुभूतिसहित आत्मानुं सम्यक्
दर्शन थयुं.
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हतुं. क्षणमात्रना आवा अनुभवथी मारो अनंतभवनो थाक ऊतरी
गयो ने हुं मोक्षमार्गनो पथिक बन्यो.’ – सम्यग्दर्शन पामेलो हाथी
कहे छे : आत्मउपयोग सहजपणे झडपथी पोताना स्वरुप तरफ
वळतां सहज निर्विकल्पस्वरुप अनुभवायुं. चैतन्यप्रभु पोताना
एकत्वमां आवीने निजानंदमां डोलवा लाग्या. वाह, मारुं स्वरुप
कोई अद्भुत – अचिंत्य – आश्चर्यकारी छे.’
परमात्मपणुं मळ्युं. हुं पशु नहि, हुं तो परमात्मा
आत्मस्वरुपने ते प्रगट करे छे. अहा, जेमना उपदेशथी मारा
भवदुःखनो अंत आव्यो ने मोक्षनी साधना शरु थई, जेमणे मने
मारा परमात्मनिधान बताव्या, ते मुनिराजना उपकारीनी शी वात
स्तुति करी, सूंढवडे नमस्कार करीने में तेमनो उपकार मान्यो....
मारी आंखमांथी हरखना आंसु झरता हता.
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सरोवरमां पाणी पीवा जतां ते वज्रघोष – हाथी कादवमां खूंची
गयो; त्यारे एक भयंकर सर्प तेने करडयो.....ने हाथी समाधिमरण
करीने स्वर्गमां गयो.
पारसनाथ – तीर्थंकर थया त्यारे ते सर्पनो ज जीव ‘संवरदेव’ थई
ने तेमनी ज समीपमां सम्यग्दर्शन पामीने मोक्षमार्गी थयो.
‘पारसना संगे लोढुं सोनुं बनी गयुं.’
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अनुयोगरुप छे, ने ते चारेय अनुयोग वीतरागभावनो ज
उपदेश आपीने आत्मानुं हित करनार छे. पुराणा शास्त्रभंडारोमां
चारे अनुयोगना घणांय शास्त्रो छे, पण ते बधाय नो अभ्यास
अति विरल विद्वानो ज करी शके छे.
अध्यात्मशैलीथी लखायेल ‘महापुराण’ वांचो, – तेमां
जिनवाणीना चारेय अनुयोग भर्या छे. तेमां (१) तीर्थंकर
भगवंतोनी जीवनकथा छे, (२) मोक्षने माटे ते भगवंतोए
आचरेला उत्तम आचरणनुं वर्णन छे, (३) चार गतिनां सुख-
दुःख, गुणस्थान वगेरे परिणामरुप करणानुयोग पण तेमां छे,
अने (४) ते तीर्थंकरादि महात्माओ क्यारे, केवा भावथी
सम्यग्दर्शनादि पाम्या, तेनुं वर्णन तेमज स्वानुभूतिनी अति
सुंदर चर्चाओरुप द्रव्यानुयोग पण तेमां ठेरठेर भरेलो छे. आ
रीते
अनुभवशो....अने, जो ज्ञानीना सत्संगनुं जोर तमारी पासे हशे
तो, तमे मोक्षमार्गमां पण दाखल थई जशो. – धन्यवाद !
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गुरुदेव श्री कानजीस्वामी त्यांना केदीओने सदुपदेशनां
बोधवचनो संभळाववा पधार्या हता. त्यांना करुण अने
वैराग्यप्रेरक वातावरणमां गुरुदेवे लागणीभीना हृदये जे
बोधवचन कह्या ते अहीं आपवामां आव्या छे. जेलना
केदीभाईओने गुरुदेवना आ बोधवचनो सांभळीने
सन्मार्गमां जीवन गाळवानी भावना जागी हती.
वस्तु छे, ते अविनाशी छे; ने पाप, हिंसा वगेरे जे दोष छे, ते
क्षणिक छे, ते कांई कायमी वस्तु नथी, एटले तेने टाळी शकाय छे.
क्रोध – मान वगेरे दोष तो आत्मा अज्ञानथी अनादिनो करतो ज
आवे छे ने तेथी ते आ संसाररुपी जेलमां पूरायेलो छे, तेमांथी
केम छूटाय
पण ते अपराध मारा आत्मानुं कायमी स्वरुप नथी,’ एम
ओळखाण करीने ते अपराधने टाळी शकाय छे ने निर्दोषता
प्रगटावी शकाय छे.
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ते ऊनुं थयुं ते ज अग्नि उपर जो ते पडे तो ते पाणी अग्निने
बूझावी नांखे छे, तेम आ आत्मा शांत – शीतळस्वभावी छे, ने
क्रोधादि तो अग्नि जेवा छे; जो के पोतानी भूलथी ज आत्मा
क्रोधादि करे छे, पण ते कांई तेनो असली स्वभाव नथी, असली
स्वभाव तो ज्ञान छे, तेनुं भान करे तो क्रोधादि टळी जाय छे ने
शांतरस प्रगटे छे. आत्मामां चैतन्यप्रकाश छे, ते दोष अने पापना
अंधकारनो नाश करी नांखे छे.
जेलना बंधनमां आत्मा बंधायेलो छे; तेमांथी छूटवा माटे
आत्मानी ओळखाण अने सत्समागम करवा जोईए. आवो मोंघो
मनुष्य – अवतार मळ्यो, ते कांई फरी फरीने नथी मळतो; माटे
तेमां एवुं सारुं काम करवुं जोईए के जेथी आत्मा आ भवबंधननी
जेलमांथी छूटे. श्रीमद् राजचंद्रजी नानी उंमरमां कहे छे के –
तोये अरे, भवचक्रनो आंटो नहीं एक्के टळ्यो;
सुख प्राप्त करतां सुख टळे छे, लेश ए लक्षे लहो,
क्षण क्षण भयंकर भावमरणे कां अहो राची रहो
नहितर तो आ रत्न, चौटामां पडेला रत्ननी जेम चोराई जशे.
बधाय आत्मामां (अहीं बेठा छे ते केदी – भाईओना दरेक
आत्मामां पण) एवी ताकात छे के प्रभुता प्रगटावी शके ने दोषनो
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नाश थई शके छे. कोई व्यक्ति उपर द्वेष न होय. बधा आत्मामां
प्रभुता भरी छे, तेनुं पोते भान करीने ते प्रगटावी शके छे.
आत्मानुं भान न थाय. विचार करवो जोईए के अरे
छे, पापीमां पापी जीव पण क्षणमां पोताना विचार पलटीने आवुं
भान करी शके छे; ‘सो उंदर मारीने बिल्ली पाटे बेठी’ – एम
घणां पाप कर्या ने हवे जीवन केम सुधारी शके
सुधारी शकाय छे. आ मनुष्यभव पामीने ए करवा जेवुं छे.
आत्मसाधनामां भरेलुं सौन्दर्य कोई अचिंत्य छे.
एकत्व – निश्चयरुप थयेलो ते आत्मा सर्वत्र सुंदर छे.
आत्मसाधनामां अचल रहे छे.
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चैतन्यतत्त्वनी अनुभूति चोक्कस थाय छे. तेमां जरुरीयात एटली
के, आत्माने जाणवानी जे भावना जागी तेमां पूरी ताकात लगाडीने
आगळ ने आगळ वध्ये जवुं. बधी परिस्थितिमां एने ज मुख्य
राखवुं, एटले ए ज पोतानुं जीवन छे – एम समजवुं.
ज आखुं जगत जाणे मनमांथी दूर हटी जाय छे ने संसारना
बघाय भावोनो थाक ऊतरवा मांडे छे.....एटले के चित्त शांत
थईने पोताना आत्माना चिंतनमां एकाग्र थवा तत्पर थाय छे.
अहींथी ध्यान माटेना (एटले के सम्यग्दर्शनरुप आत्मअनुभव
माटेना) प्रयोगनी शरुआत थवा मांडे छे.
रसपूर्वक पोताना चैतन्यभंडारमांथी ज शांतिनुं वेदन लेवा
प्रयत्नशील थयुं.....श्रद्धा अने ज्ञाननी बधी ताकातने तेमां ज
रोकी.....अनंत ताकातवाळो आत्मा पोते जागीने पोताने साधवा
तैयार थयो.....ध्याता बनीने पोते पोताने ज ध्येयरुप करवा
मांडयो. आ प्रयोगनी जेटली उग्रता, एटलो विकल्पोनो अभाव.
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बहारनी सामग्रीमां के रागादिभावोमां कदी जे जातनी शांतिनो
स्वाद आव्यो न हतो, एवो कोई नवीन शांतिनो स्वाद
चैतन्यचिंतनमां तेने आववा लाग्यो.....क्यांथी आव्यो आ मधुर
स्वाद
ऊंडो ने ऊंडो ऊतरतो जाय छे. तेने शांतिनुं वेदन चमत्कारिक रीते
वधतुं जाय छे ने विकल्पो लगभग बधा ज शांत थई जाय छे.
छे. जुओ, अत्यारे थोडीक वार एवी आत्मभावना करी तेमां पण
जगतना बधा सुख – दुःखो भूलाईने, तमारा चित्तमां शांतिना
केवा भणकार आववा लाग्या
नथी पण मारामां छे, ने हुं पोते ज शांति स्वरुप छुं.
भगवंतोनी नगरीमां.....चैतन्य महेलमां.....
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पोकारतुं होय तो –
तुं अमारो ज्ञातिबंधु – साधर्मी छो. अमारा परिवारनो ज छो.
कषायनगरीमां तो तुं भूलथी फसाई पडयो छो; हवे त्यांनो वास
छोडीने आपणा बापदादानी असली नगरी एवी आ शांतनगरीमां
अमारी साथे रहेवा चाल्यो आव
बेठा छीए.....आनंदथी तुं आव.....ने अमारी साथे सदाय सुखथी
रहे; तुं अमारो भाई छो, श्री पंचपरमेष्ठीनी आज्ञाथी तने
चैतन्यनगरीमां आववानुं आ आमंत्रण आपुं छुं.
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अत्यार सुधी अनादिथी आत्मानी शांतिने भूलीने हुं
भगवंतोनी शांतिने देखीने मने पण एवी शांति माटे घणी ज
चाहना थई छे. तेथी हवे हुं आ कषायनी आगमां एक क्षण पण
रही नहीं शकुं. एनाथी जल्दी छूटीने शांतरसनो हुं पिपासु थयो
छुं, तेथी हुं मुमुक्षु छुं.
तने बतावुं छुं. अमे आ मार्गे आत्मनगरीमां
आव्या छीए. तुं पण जल्दी आव. ते माटे
पांच पगलां तने बतावुं छुं.
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शांति आपीने मारुं दुःख मटाडनार छो. पहेलां हुं कदी तमारी
पासे नहोतो आव्यो तेथी कषायोए मने हेरान कर्यो.....हवे हुं
तमारी पासे आव्यो छुं ने मुमुक्षु थयो छुं; तमे अवश्य मने
कषायोथी छोडावीने महान आत्मशांति देशो – एवो मारो विश्वास
छे. अहो चैतन्य प्रभु
शांतरसनी शीतळ हवा आववा लागी.
देख, आपणी आ चैतन्यनगरी केवी मजानी सुंदर छे
मिथ्यात्व वगेरे दुष्ट चोर – लोकोनो आ नगरीमां प्रवेश – निषेध
छे; माटे हवे तुं ते कषायोनी बीक छोडी दे, अने निर्भय थईने आ
शांतनगरीमां रहेनारा सर्वे सज्जन परिवारनो परिचय कर
वीतराग छे
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पामी रह्या छे; तेओ एम समजावे छे के आटलो सूक्ष्म कषायकण
पण जीवने दुःख देनारो छे, तेथी तेने आपणी चैतन्यनगरीमांथी
भगाडी देवो जोईए..... तो पछी मोटा मोटा कषायोनी तो वात ज
शुं करवी
तेमणे कषायोनी सामे घणी मोटी लडाई करीने तेने पछाडी दीधां
छे.
लड.....अने..... ले आ चेतना – तलवार.....तेना एक ज घाथी
कषायनी अनंत सेना मरी जशे अने तने तारा चैतन्यना
आनंदवैभवथी भरेलुं स्वराज्य प्राप्त थशे.....अने तुं पण अमारा
बधा जेवो ज थई जईश.
दुःखदायक एवी कषायनगरीमांथी हुं भागी छूटयो छुं.
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हुं आत्मानी शांतिनगरीमां आव्यो छुं, छतां पण आ
मळती, – आम केम
प्रगट कर्यो नथी, तो पछी तने शांति केम मळे
अने कषाय कांई जीवनो गुण नथी पण विरोधी छे. कषायनो नाश
थतां कांई जीवनो नाश नथी थतो. कषाय तो कर्मनो मित्र छे अने
आत्मानो दुश्मन छे.
एक वस्तुना बे गुणो एकबीजाना विरोधी होता नथी. तेथी ज्ञान
अने शांति तो एकसाथे रहे छे – पण क्रोध अने शांति एकसाथे कदी
रही शकता नथी. क्रोध अने अशांति सदा साथे होय छे. आ रीते,
शांति अने क्रोधनी अत्यंत भिन्नता जाणीने हुं मारा ज्ञानने शांतिनी
साथे जोडुं छुं अने क्रोधने ज्ञानमांथी बहार काढी नाखुं छुं.
आ ज छे मारी आत्मनगरी.
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छे, – मारी पासे पण एटलो ज गुणवैभव भरेलो छे; अने
कषायोने के अशांतिने मारा कोई पण गुणमां रहेवानो अधिकार
नथी. तेथी मारी चैतन्यसत्तानो उपयोग करीने में कषायोने
देशनिकाल करी दीधा छे.....एटले हवे हुं जोशमां आवी गयो छुं.
अत्यार सुधी कषायोना दबाणने कारणे मारी शांति खीलती न
हती, तथा मारुं ज्ञान पण कषायवश थवाथी मारा अतीन्द्रिय
स्वभावने देखी शकतुं न हतुं; हवे मारुं ज्ञान ने शांति कषायोथी
भिन्न स्वाधीन थई जवाथी, पोताना असली स्वरुपे प्रगट थईने
मारी महान शांति तथा अपूर्व ज्ञानचेतनानो अनुभव करी रह्युं छे.
पडी, अने मने घणी ज प्रसन्नता थई.....हवे आवी सुंदर नगरीने
छोडीने हुं बीजे क्यांय जवानो नथी.....सदाय आपनी साथे आ
नगरीमां ज मारा स्वघरमां रहीश.....ने आपना जेवो ज थई
जईश.
महान आनंदनो लाभ लेवानो उत्तम अवसर मने मळी गयो छे
तेथी हवे हुं मारा स्वभावमां ऊतरीने, अंतरमां स्वानुभूति करीने
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मारुं चित्त एवुं तलसी रह्युं छे के दुनियानी सामे क्यांय देखवानी
इच्छा थती नथी. दुनियानो कोई पण प्रसंग हवे मारी चेतनाने
मारा सुखथी छोडावीने मने नथी तो डरावी शकतो, के नथी
लोभावी शकतो. तेथी हुं दुनियाथी उपेक्षित थईने मारा
चैतन्यरसना मीठा स्वादमां ज मशगुल छुं.
आ चैतन्यनगरीने देखतो जाउं छुं तेम तेम तेनी महान अद्भुत
विभूतिओ देखीने मने आश्चर्य थई रह्युं छे. अहा
चैतन्यपुरीमां देखी.
फसाई पडयो हतो त्यारे पण मारी आ आत्मविभूति मारामां ज
भरी हती, अने छतां पण कषायो तेने नष्ट करी शक्या न हता.
आथी एम पण नक्की थई जाय छे के कषायोनी ताकात करतां मारी
आत्मविभूतिनी ताकात घणी महान छे.