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देखाय छे. मारी आ चैतन्यनगरीमां हवे सर्वत्र शांति ज फेलाई
रही छे. मारी आसपासमां सर्वज्ञ भगवंतो तथा रत्नत्रयवंत
साधुजनो ज देखाई रह्या छे; कषाय के मिथ्यात्ववाळा जीवो मारी
आ नगरीमां देखाता ज नथी. अने हुं पण हवे कषायो अने
मिथ्यात्वने दूर हटावीने मारा असली शांत रुपने धारण करीने
आनंदथी मारी अपूर्व आत्मविभूतिने भोगवुं छुं.
अमे संसारथी तो उदासी.....अमे मोक्षपुरीना वासी.
शुद्धआत्मा एक ज प्रकाशमान छे. आत्माना एकत्वनी
अनुभूति अभेद होवा छतां शुद्ध द्रव्य – गुण – पर्यायरुप
बधाय स्वभावधर्मो तेमां समायेला छे; त्यां आत्मा पोताना
अनेकांत स्वभावे प्रकाशी रह्यो छे. तेने परथी भिन्नता होवाथी
ते विभक्त छे, अने पोताना गुण – पर्यायोमां अभेदपणुं
होवाथी एकत्व छे. आवा एकत्व – विभक्त शुद्ध आत्मानी
अनुभूति ते जैनशासननी अनुभूति छे.
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गृहस्थ छीए, शुं अमने पण आत्मदर्शन अने आत्मज्ञान थाय
अणुदिणु झायहिं देउ जिणु लहु णिव्वाणु लहंति ।।
ध्यावे सदा जिनेशपद, शीघ्र लहे निर्वाण.
क्यारेय भूलातो नथी, अने दररोज जिनदेवना ध्यानमां तेनुं चित्त
लागेलुं छे. आवा धर्मी – गृहस्थ शीघ्र निर्वाणने पामे छे.
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छे.
आत्मज्ञान अने मोक्षमार्ग होय छे. स्वर्गनो देव होय के मनुष्य,
सिंहादि तीर्यंच होय के नारकी, – दरेकने भगवान आत्मा तो
अंदर बेठो छे ने
चैतन्यवस्तु मारे उपादेय छे ने जे विषयकषायो रागद्वेष छे ते हेय
छे; – आवा हेय – उपादेयना साचा ज्ञानवडे धर्मी – गृहस्थ
पण निर्वाणमार्गनो पथिक छे, ते मोक्षनो साधक छे.
वेपार – धंधा, राज – पाट के राग अने राणीओ ए तो बधुं
आत्माना दर्शनथी बहार रही जाय छे; एने ते पररुपे जाणे छे,
हेय समजे छे; निजरुप नथी मानतो, उपादेय नथी समजतो;
एटले एमां क्यांय ते सुखबुद्धि नथी करतो; अंतरमांथी आवेला
अतीन्द्रियसुखने ज ते उपादेय समजे छे. आवा हेय – उपादेयना
विवेक वडे ते गृहस्थ पण मोक्षना मार्गमां छे. खरेखर ते ‘गृह –
स्थ’ नथी पण ‘मार्ग – स्थ’ छे.
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नथी; माटे ते ‘नथी गृहस्थ के नथी साधु.’ अमे तो चैतन्यस्वरुपे
पूर्ण परमात्मा छीए – एम ते धर्मी निरंतर देखे छे, ने क्यारेक
– क्यारेक शुद्धोपयोगी थईने तेवो निर्विकल्प अनुभव करी ल्ये छे.
आवा सम्यक्त्वधारक धर्मात्माने कुंदकुंदप्रभुए धन्य अने कृतकृत्य
कह्या छे. मोक्षने साधवामां ते शूरवीर छे; अल्पकाळमां ज मुनि
थईने ते मोक्षने साधी लेशे.
थशे. गृहस्थपणामां मुनिदशा के केवळज्ञान थतुं नथी पण सम्यक्
दर्शन तो थाय छे. तीर्थंकर जेवा महापुरुषो पण गृहस्थपणुं त्यागी
चारित्रदशा अंगीकार कर्या पछी ज केवळज्ञान पामे छे.
आवी ज रह्युं छे, अर्थात् प्रतिक्षणे ते केवळज्ञानना साधक छे; तेना
श्रद्धा – ज्ञानमां परमात्मा वस्या छे.
ज्ञानमां वसती नथी. हे भव्य
वसाव, ने रागादिने ज्ञानमांथी बहार काढी नांख.
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परमात्मा वस्या छे. अहा, ए धर्मात्माने तो भगवानना घरना
तेडा आव्या छे. भगवान एने मोक्षमां बोलावे छे; ने ते पोताना
अंतरमां भगवानने वसावीने सिद्धपद तरफ जई रह्या छे.
जीवन ऊजळुं थयुं : ‘तारुं जीवन खरुं – तारुं जीवन
गृहस्थ पण खोली शके छे. गृहस्थने एकला पापभावो ज होय –
एम नथी. तेने देवदर्शन – पूजा – स्वाध्याय – दया – दान
वगेरेमां पुण्यभावो विशेष होय छे; तीव्र अन्याय – अभक्ष तो
तेने होतां ज नथी; परंतु विशेष वात ए छे के ते धर्मी गृहस्थ,
शुभ – अशुभ बधाय परभावोथी पार पोताना शुद्धात्माने ज
उपादेय समजे छे, ने तेवो शुद्धात्मा तेणे पोताना अनुभवमां लीधो
छे; तेनो आश्रय करीने ते पण मोक्षमार्गमां धीमे धीमे चाली रह्यो
छे. – मुनिवरो झडपथी चाली रह्या छे.
अनुभव आ काळे पण कर्यो छे.
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ते ज अनुभवनुं साधन छे; तेमां स्वसन्मुख थतां सम्यग्दर्शन थाय
छे ने गृहस्थ पण ते करी शके छे. पहेलां बाह्यद्रष्टिमां आत्मा दूर
हतो, हवे अंतरद्रष्टिमां तेने समीप कर्यो के ‘आ हुं
जिनेश्वरना वारसदार छे. साधक मुमुक्षु कहे छे के हुं सिद्ध
भगवंतोना पंथे मोक्षपुरीमां जाउं छुं.....स्वानुभव वडे ए
मोक्षपुरीनो रस्तो में जोयेलो छे; मोक्षना दरवाजा स्वानुभव वडे
खुली गया छे.
पोतामां भेदज्ञान वगर ओळखाय तेवी नथी. चोथागुणस्थानवर्ती
गृहस्थनेय क्यारेक निर्विकल्प आत्मध्यान थाय छे. – पण ते
क्वचित् ज होय छे. – परंतु सम्यग्दर्शन अने मोक्षमार्ग तो तेने
निरंतर चालु होय छे. आ जाणीने जिज्ञासु गृहस्थोए पण
सम्यक्त्वनी आराधना कर्तव्य छे.
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परमात्मा छुं.’ ए कबुलात शास्त्रना शब्दो वडे के रागना
विकल्पो वडे नहीं थाय.....पण अंतर्मुख ज्ञानना
सिंहनाद वडे सिद्धपणानी कबुलात थशे.
तुं सिद्ध.....
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रह्युं.....
नंदन) मुमुक्षु भागतो नथी पण नीडरपणे स्वसन्मुख थईने
सिद्धपणानो अनुभव करे छे.....सिद्धपणाना सिंहनादथी जागीने
सम्यक्त्व पामे छे.
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मोक्षार्थे हे योगीजन निश्चयथी ए मान. २०.
पोताना अंतरमां पोताना शुद्धात्माने ध्यावे छे.
पर्यायनो फेर तूटवा मांडे छे.
जाय छे. – आ ज निर्वाणनो मार्ग छे. धर्मी कहे छे – अमे ते
मार्गमां चाली रह्या छीए.
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उपर पू. श्री कहानगुरुना प्रवचनना श्रवण वखते, तेमज पं.
श्री दीपचंदजी रचित ‘अनुभव प्रकाश’ पुस्तकनुं स्वाध्याय –
मनन करती वखते, चेतनमय स्वभावरस घूंटतां – घूंटतां आ
सुंदर रचना थई छे; ते मुमुक्षु – साधर्मीओने आनंदमय
चैतन्यरसनो मधुर स्वाद चखाडशे.
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क्षणमां सर्वदुःखोनो नाश थाय, ने शाश्वत आनंदमय
परमपदने पामे.
गुलांट खाईने स्वस्वरुपमां एकत्व (पोतापणुं) करे तो आत्मा
मुक्तिसुख पामे.
जाण, तो तारो आत्मभगवान ताराथी गुप्त रहेशे नहि.
चैतन्य भगवान चेतनाथी जुदो जीवी शकतो नथी. ज्यां चेतना
छे त्यां ज चैतन्यभगवान छे.....बंनेने जुदाई नथी. (‘ज्यां
चेतन त्यां सर्वगुण....’)
ते वानगी चाखी – चाखीने घणा संतो अजर अमर थया छे.
हे भव्य
गुण – पर्याय त्रणेयने चैतन्यरुपे अनुभवीने एकरस करवा.
– एकरस छे ज, तेमां भेद-विकल्प न करवा. मुमुक्षुओ आवो
ज अनुभव करी करीने पंचपरमेष्ठी थया छे. आ अनुभवमां
अनंतगुणनो सर्व रस आवे छे. पंचपरमेष्ठी जेवो ज हुं छुं –
एम समजीने तुं तारा आत्मानो अनुभव कर.
स्वाद छे. ते आत्मद्रव्यनी ज परिणति छे, जुदुं कांई नथी.
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‘अनुभवप्रकाश’.... .ते ज ‘आत्मप्रकाश’.....ते ज ‘स्वभावरस.’
स्वसंवेदनगम्य छे. बधा परभावोथी भिन्न अलिप्त रहेवारुप
अने पोताना अनंत स्वभावोने एक साथे धारण करवारुप महान
वीर्य – सामर्थ्य ते चेतनामां छे.....ते पोते पोताने प्रमेय बनावे
छे. आत्माना बधाय स्वधर्मोने तेणे पोतामां धारण कर्या होवाथी
पोते ज वस्तुत्वरुप छे; अनंत स्वगुणमां व्यापीने शोभती तेनी
स्वाधीन प्रभुता कोई अचिंत्य छे. अहा, स्वानुभवमां स्वयं
विकसेली ए चेतनाना केटला गुण गाईए
ऊडी जाय छे. ए अनुभवरुप परिणमतो आत्मा पोते ज पोताना
कारण – कार्यरुप छे, बीजुं कंई कार्य हवे तेणे करवानुं नथी, के
बीजुं कोई कारण शोधवानुं नथी. हवे कांई ग्रहवानुं के छोडवानुं
रह्युं नथी. ग्रहवायोग्य बधा स्वभावो चेतनामां भर्या छे, ने
छोडवायोग्य बधा परभावो चेतनाथी बहार ज छे. आत्मा
कृतकृत्यपणे निश्चित शोभे छे.
थई जाय छे. आवुं परिणमन होवा छतां पहेलां जेवा भावरुप
हतो तेवा भावरुपे पण रह्या करे छे. – आवी त्रिविध
आत्मशक्ति छे ( – उत्पाद – व्यय – ध्रुवता).
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पोताना क्रम – अक्रमरुप समस्त गुण – पर्यायभावोनो आधार
एकसाथे थाय छे. तेनी अखंडितता एवी छे के एकसाथे घणा शुद्ध
गुण – पर्यायोने धारण करवा छतां पोते खंडित थतो नथी, एक –
अखंड रहे छे....तेना गुण – पर्याय विखेराई जता नथी.
प्रदेशो जुदा – एम एक सत्ताने विखेरी न नाखो.....एक ज
वस्तुपणे ते बधाने देखो. द्रव्य पण ते, गुण पण ते, पर्यायरुप
थनार पण ते, प्रदेशो बधाना एक ज, – एम अनंत
स्वभाववाळी एक वस्तुने देखो. तमारुं सर्वस्व तमारामां छे,
बहारमां कांई नथी.
स्वानुभवमां छे; तेमां अपार तृप्ति छे, महान शांति छे.
अत्यंत मीठो छे. निजद्रव्य-गुण-पर्यायनुं शुद्धस्वरुप जाणतां ते
उपयोगमां आत्मानो अगाध महिमा जणाय छे, ने आत्मअनुभव
थाय छे.
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स्वभावमां सुंदर छे, शोभती छे, शुद्ध छे. आवा भेदज्ञानमां
स्वतत्त्वनी सुंदरतानो अनुभव थाय छे. ते ज सम्यग्दर्शन छे.....ते
ज मार्ग छे. – आम करतां जीवने आनंद थाय छे, मोक्षपरिणति
साथे तेनी सगाई थाय छे.....मोह साथेनुं सगपण छूटीने
आनंदमय मुक्ति साथे सगाई थाय छे.
अशुद्ध स्वांग धरीने ‘हुं बळद, हुं शरीर’ एम मानी बेठो हतो.
उपयोग पोताना असली उपयोग – स्वांगने धारे तो अशुद्धता
अने भूल मटी जाय; जाणनार पोते पोताने साचा स्वरुपे जाणे,
उपयोगधारी आनंदरुप तो पोते प्रयत्न विना ज सहज स्वरुपथी
छे ज.....लोकसंगथी नीराळो थईने पोते पोताने नीहाळवानो छे.
‘ज्ञायक’ ज छे.
मनुष्य ज छो.....तेम उपयोगस्वरुप जीव पूछे छे के ‘हुं
उपयोगस्वरुप क्यारे थईश
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ज छो. खोटा स्वांग रागादिना धरवा छोडी दे तो स्वयमेव
उपयोगस्वरुप तुं छो ज.
कर्मकंदरारुप गुफामां तारो चैतन्यप्रभु छूपाईने बेठो छे. शरीर
नोकर्म, द्रव्यकर्म अने रागद्वेष – भावकर्म ए त्रण गुफाने
ओळंगीने अंदर जतां ज तारो प्रभु तने तारामां देखाशे. (तुं
पोताने ज प्रभुरुपे अनुभवीश.)
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क्यांय चैतन्यप्रभु छे
देखातां, ‘अहीं तो मारा चैतन्यप्रभु नथी,’ एम समजीने ते पाछी
वळती हती.....चैतन्यप्रभुने शोधवा ते बहावरी बनी हती.
ज प्रतापे; जो चैतन्यप्रभु बिराजता न होत तो आ जडशरीरने
‘पंचेन्द्रियजीव’ केम कहेवात
तने जरुर मळशे. ने तेने भेटीने तने महा आनंद थशे.
बीजी कर्मगुफामां दाखल थईने जोयुं.....त्यां तो ज्ञानावरणादि कर्मो
देखाया, पण चैतन्यप्रभु तो न देखाया. त्यारे पूछ्युं – मारा
चैतन्यप्रभु क्यां छे
छे.....तारा चैतनप्रभुना भावअनुसार आ कर्मोमां प्रदेश – प्रकृति
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चैतन्यप्रभुनी सत्ताना प्रतापे ज आ पुद्गलो ‘ज्ञानावरण’ वगेरे
नाम पाम्यां छे. अंदर ज्ञानवंत तारा चेतनप्रभु न बिराजता होय
तो आ पुद्गलोने ‘ज्ञानावरण’ आदि नाम क्यांथी मळे
दोरीने न देख पण दोरी जेना हाथमां छे तेने देख.....अंदर ऊंडे
त्रीजी गुफामां जईने गोत.
आ त्रीजी गुफामां रागद्वेषादि भावकर्म देखाया....चेतनाए पूछ्युं
– आमां मारा चैतन्यप्रभु क्यां छे
राग छे, आ द्वेष छे – एम अज्ञान – अंधकारमां क्यांथी जणाय
आवे छे ते ज तारा चैतन्यप्रभु छे. रागथी पण पार चैतन्यगुफामां
ते प्रभु बिराजी रह्या छे. चेतनाए रागथी पार थईने ज्यां
चैतन्यगुफामां जोयुं त्यां तो ‘अहो
छे ते तेनी ज छाया छे केमके चैतन्यप्रभुना अस्तित्व वगर
रागद्वेषभावो संभवता नथी. – माटे जे प्रदेशमांथी ए रागद्वेष
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रागद्वेषमोहमां न अटक पण ते दोरी पकडीने, तेनो दोर जेना
हाथमां छे तेनी पासे जा.....ते ज तारा चैतन्यप्रभु छे. रागादिना
प्रकाशक चैतन्यप्रकाशी तारा प्रभु अहीं साक्षात् बिराजी रह्या
छे....ए हवे ताराथी गुप्त रही शकशे नहि.....चैतन्यगुफामां आ
प्रभु प्रगट बिराजी रह्या छे ने पोताना अचिंत्य अपार महिमाने
धारण करी रह्या छे.....तेने देखतां – भेटतां महान सुख थशे.
थईने परिणम्युं. अनंता तीर्थंकरो थया, तेमणे स्वरुप शुद्ध कर्युं ने
अनंत सुखी थया, हवे मारे पण एवी ज रीते करवुं छे.
महामुनिजनो निरंतर स्वरुप – सेवन करे छे; मारे पण मारुं
त्रिलोकपूज्य सर्वोत्कृष्ट पद अवलोकी – अवलोकी एम ज करवुं छे.
सदाय झळहळी रह्यो छे.
सरोवरमां नहातो हतो, त्यारे तेना ते नीलमणिना प्रकाशथी
सरोवरनुं पाणी लीलाप्रकाशथी झगमगाट करतुं हतुं; ते जोईने तेने
अचंबो थयो के वाह
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पाणी केवुं मजानुं शोभी रह्युं छे
देखाय छे – ते प्रकाश तारा ज चैतन्यरत्ननो छे. एवा
अनंतगुणरुप चैतन्यरत्नाकरमां तुं ज रह्यो छे. तारा एकेक
चैतन्यरत्न पासे आखुं जगत तुच्छताने पामे छे.
बताव्या.
छती वस्तुने हुं अणछती केम करुं
निश्चय करीने तेमां केलि करतां आनंद थाय छे. एने जाणवाथी
थतो आनंद ते ज्ञानानंद, श्रद्धवाथी थतो आनंद ते श्रद्धानंद –
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सर्वगुणोना स्वादरुप ‘आनंदकंद’ आत्मा छे. – आनाथी ऊंचुं
बीजुं कोई तत्त्व नथी. आ सोहलो शिवमार्ग भगवाने
भव्यजीवोने बताव्यो छे. मोक्ष माटे में आवी स्वभाव –
भावनारुप अवगाढ थंभ रोप्यो छे.
शुद्ध केवळज्ञान प्रतीतना द्वारे आवी ऊभुं. अशुद्धताना कोई अंशने
हवे ते ज्ञान पोतामां कल्पतुं नथी. ज्ञानप्रकाश ज हुं छुं – एवुं वेदन
रहे छे. स्वसंवेदन वधारतां केवळज्ञान नजीक आवतुं जाय छे.
केवळज्ञान पण ज्ञानस्वभावमां अभेदपणे व्यापी रह्युं छे.
श्रुतज्ञान प्रत्येक समये केवळज्ञाननी नजीक ज जई रह्या छे.
नथी गया. – आ प्रताप छे ज्ञानस्वभावमां अभेद परिणमननो.
स्वभाव छे. आवा शुद्ध ज्ञाननी भावना करी – करीने आनंद
वधारीए छीए.