Samyak Darshan Part 7 8-Gujarati (Devanagari transliteration). Gruhasthne Aatmadharshan; Siddhapanano Sinhnad; Aatmana Suddhaswarupnu Chintan Karo; Swanubhav Prasad; Chidanad Rajane Kya Gotvo?.

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२८ : चैतन्य नगरी तरफ )
( सम्यग्दर्शन
आ कषाय वगेरे समस्त विभावो सर्वथा बळहीन अने निर्माल्य
देखाय छे. मारी आ चैतन्यनगरीमां हवे सर्वत्र शांति ज फेलाई
रही छे. मारी आसपासमां सर्वज्ञ भगवंतो तथा रत्नत्रयवंत
साधुजनो ज देखाई रह्या छे; कषाय के मिथ्यात्ववाळा जीवो मारी
आ नगरीमां देखाता ज नथी. अने हुं पण हवे कषायो अने
मिथ्यात्वने दूर हटावीने मारा असली शांत रुपने धारण करीने
आनंदथी मारी अपूर्व आत्मविभूतिने भोगवुं छुं.
अमे आत्मपुरीना वासी – अमे सिद्धपुरीना वासी,
अमे संसारथी तो उदासी.....अमे मोक्षपुरीना वासी.
(स्वानुभवना सुंदर प्रयोगो माटे – जुओ पानुं २२१)
चंदनाबेननी आत्मअनुभूति
राजकुमार वर्द्धमानना सान्निध्यमां आत्मानी स्वानुभूति
पामीने कुमारी चंदनाबेन कहे छे के : अहा, मारी स्वानुभूतिमां
शुद्धआत्मा एक ज प्रकाशमान छे. आत्माना एकत्वनी
अनुभूति अभेद होवा छतां शुद्ध द्रव्य – गुण – पर्यायरुप
बधाय स्वभावधर्मो तेमां समायेला छे; त्यां आत्मा पोताना
अनेकांत स्वभावे प्रकाशी रह्यो छे. तेने परथी भिन्नता होवाथी
ते विभक्त छे, अने पोताना गुण – पर्यायोमां अभेदपणुं
होवाथी एकत्व छे. आवा एकत्व – विभक्त शुद्ध आत्मानी
अनुभूति ते जैनशासननी अनुभूति छे.
‘वाह चंदनाबेन! स्वानुभूतिनुं सरस वर्णन तमे कर्युं.’

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सम्यग्दर्शन )
( गृहस्थने आत्मदर्शन : २९
(गुरुदेवने अत्यंत प्रिय योगसार दोहा १८ उपरनुं प्रवचन)
‘हे स्वामी! आप आत्मदर्शनने ज मोक्षनुं कारण कहो छो ने
आत्मज्ञान करवानुं कहो छो; तो अमने प्रश्न थाय छे के, ‘अमे तो
गृहस्थ छीए, शुं अमने पण आत्मदर्शन अने आत्मज्ञान थाय
?’
तेनो उत्तर कहे छे के हा, सांभळ –
गिहि--वावार परिठ्ठिया हेयाहेउ मुणंति।
अणुदिणु झायहिं देउ जिणु लहु णिव्वाणु लहंति ।।
गृहकाम करतां छतां हेयाहेयनुं ज्ञान;
ध्यावे सदा जिनेशपद, शीघ्र लहे निर्वाण.
धर्मी जीव गृहस्थ संबंधी प्रवृत्तिमां रहेला होवा छतां तेने
हेय – उपादेयनो विवेक छे. पोतानो शुद्धआत्मा ज उपादेय छे ते
क्यारेय भूलातो नथी, अने दररोज जिनदेवना ध्यानमां तेनुं चित्त
लागेलुं छे. आवा धर्मी – गृहस्थ शीघ्र निर्वाणने पामे छे.
c गृहस्थने आत्मदर्शन c
मुनिधर्म
श्रावकधर्म

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३० : गृहस्थने आत्मदर्शन )
( सम्यग्दर्शन
वाह रे वाह, जुओ तो खरा.....आत्मदर्शन वडे गृहस्थने,
अरे देडकाने – सिंहने – हाथीने पण मोक्षना दरवाजा खुली जाय
छे.
आत्मदर्शन अने मोक्षमार्ग एकला मुनिओने ज होय ने
श्रावक – गृहस्थने न होय – एम नथी; श्रावक – गृहस्थने पण
आत्मज्ञान अने मोक्षमार्ग होय छे. स्वर्गनो देव होय के मनुष्य,
सिंहादि तीर्यंच होय के नारकी, – दरेकने भगवान आत्मा तो
अंदर बेठो छे ने
? – ते पोताना शुद्धआत्माने अंतःद्रष्टिथी देखीने
मोक्षना मार्गमां चाली शके छे. मारामां रहेली मारी शुद्ध
चैतन्यवस्तु मारे उपादेय छे ने जे विषयकषायो रागद्वेष छे ते हेय
छे; – आवा हेय – उपादेयना साचा ज्ञानवडे धर्मी – गृहस्थ
पण निर्वाणमार्गनो पथिक छे, ते मोक्षनो साधक छे.
– चोथा काळमां एम थतुं हशे! – पण अत्यारे तो
पंचमकाळ छे ने!
– अरे भाई! पंचमकाळमां थयेला मुनिनुं तो आ कथन छे
ने पंचमकाळना गृहस्थने पण आवुं निश्चय सम्यग्दर्शन थाय छे.
वेपार – धंधा, राज – पाट के राग अने राणीओ ए तो बधुं
आत्माना दर्शनथी बहार रही जाय छे; एने ते पररुपे जाणे छे,
हेय समजे छे; निजरुप नथी मानतो, उपादेय नथी समजतो;
एटले एमां क्यांय ते सुखबुद्धि नथी करतो; अंतरमांथी आवेला
अतीन्द्रियसुखने ज ते उपादेय समजे छे. आवा हेय – उपादेयना
विवेक वडे ते गृहस्थ पण मोक्षना मार्गमां छे. खरेखर ते ‘गृह –
स्थ’ नथी पण ‘मार्ग – स्थ’ छे.
गृहस्थोपि मोक्षमार्गस्य.....’ ए
समन्तभद्रस्वामीनुं वचन छे.
– आवा धर्मात्माने माटे पं. बनारसीदासजीए ‘न गृहस्थ

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सम्यग्दर्शन )
( गृहस्थने आत्मदर्शन : ३१
है....न यति है’ एम कह्युं छे; केमके गृहस्थपणुं तो तेनी द्रष्टिमांथी
छूटी गयुं छे, तेनाथी ते उदासीन छे, ने मुनिपणुं हजी प्रगटयुं
नथी; माटे ते ‘नथी गृहस्थ के नथी साधु.’ अमे तो चैतन्यस्वरुपे
पूर्ण परमात्मा छीए – एम ते धर्मी निरंतर देखे छे, ने क्यारेक
– क्यारेक शुद्धोपयोगी थईने तेवो निर्विकल्प अनुभव करी ल्ये छे.
आवा सम्यक्त्वधारक धर्मात्माने कुंदकुंदप्रभुए धन्य अने कृतकृत्य
कह्या छे. मोक्षने साधवामां ते शूरवीर छे; अल्पकाळमां ज मुनि
थईने ते मोक्षने साधी लेशे.
श्रावके प्रथम शुं करवुं? के शुद्ध सम्यक्त्वने धारण करवुं.
पछी तेना ज प्रतापथी अल्पकाळमां कर्मोनो क्षय थईने सिद्धपद
थशे. गृहस्थपणामां मुनिदशा के केवळज्ञान थतुं नथी पण सम्यक्
दर्शन तो थाय छे. तीर्थंकर जेवा महापुरुषो पण गृहस्थपणुं त्यागी
चारित्रदशा अंगीकार कर्या पछी ज केवळज्ञान पामे छे.
धर्मात्माना अंतरमां परमात्मा वसे छे
धर्मी गृहस्थनुं जीवन ‘कथंचित् मुनि जेवुं’ छे; आत्मज्ञान
वडे साद पाडीने तेणे केवळज्ञानने बोलावी लीधुं छे, ने केवळज्ञान
आवी ज रह्युं छे, अर्थात् प्रतिक्षणे ते केवळज्ञानना साधक छे; तेना
श्रद्धा – ज्ञानमां परमात्मा वस्या छे.
अहा, मोक्षमार्गी मुनि के श्रावकना मनमां ‘भगवान’ वसे
छे, रागादि कषायो एना मनमां वसता नथी. देहनी क्रियाओ एना
ज्ञानमां वसती नथी. हे भव्य
! तारे जो मोक्षमार्गी थवुं होय ने
मुनि जेवुं जीवन जीववुं होय तो तुं तारा ज्ञानमां शुद्धात्माने
वसाव, ने रागादिने ज्ञानमांथी बहार काढी नांख.
धर्मात्माओना ज्ञानमां वसेलो सुखसमुद्र भगवान आत्मा,
ते विषयसुखोमां लीन अज्ञानी जीवोने सर्वथा दुर्लभ छे. जेना

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३२ : गृहस्थने आत्मदर्शन )
( सम्यग्दर्शन
मनमां विषयो वसे तेना मनमां परमात्मानो वास क्यांथी होय?
धर्मीगृहस्थना चित्तमां – रुचिमां – ज्ञानमां घर नथी वस्युं पण
परमात्मा वस्या छे. अहा, ए धर्मात्माने तो भगवानना घरना
तेडा आव्या छे. भगवान एने मोक्षमां बोलावे छे; ने ते पोताना
अंतरमां भगवानने वसावीने सिद्धपद तरफ जई रह्या छे.
– आवुं जीवन ते धर्मीनुं जीवन छे.....ए ज साचुं जीवन
छे. श्रद्धा – ज्ञान चोख्खां करीने तेमां परमात्मतत्त्वने वसाव्युं त्यां
जीवन ऊजळुं थयुं : ‘तारुं जीवन खरुं – तारुं जीवन
!’
‘अरे, अमे तो गृहस्थी, अमारे कांई मोक्षमार्ग होय?
मोक्षमार्ग तो घरबार त्यागी वनवासी मुनिने ज होय!’ एम न
मानी लेवुं; केमके आत्मदर्शन वडे मोक्षमार्गना दरवाजा श्रावक –
गृहस्थ पण खोली शके छे. गृहस्थने एकला पापभावो ज होय –
एम नथी. तेने देवदर्शन – पूजा – स्वाध्याय – दया – दान
वगेरेमां पुण्यभावो विशेष होय छे; तीव्र अन्याय – अभक्ष तो
तेने होतां ज नथी; परंतु विशेष वात ए छे के ते धर्मी गृहस्थ,
शुभ – अशुभ बधाय परभावोथी पार पोताना शुद्धात्माने ज
उपादेय समजे छे, ने तेवो शुद्धात्मा तेणे पोताना अनुभवमां लीधो
छे; तेनो आश्रय करीने ते पण मोक्षमार्गमां धीमे धीमे चाली रह्यो
छे. – मुनिवरो झडपथी चाली रह्या छे.
परम चैतन्यतत्त्व जे पोतामां विद्यमान ज छे, तेने
गृहस्थधर्मी केम न जाणी शके? पोताना स्वरुपनो अनुभव पोते
जरुर करी शके छे. संसारथी भयभीत घणा जीवोए आवो
अनुभव आ काळे पण कर्यो छे.
आत्माने उपादेय करवा माटे, एटले के तेनो अनुभव करवा
माटे राग कांई साधन नथी, राग तो आत्माना स्वभावथी दूर छे,

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सम्यग्दर्शन )
( गृहस्थने आत्मदर्शन : ३३
बहार छे. पोतानो चैतन्यस्वभाव जे नजीक छे – पोतामां ज छे,
ते ज अनुभवनुं साधन छे; तेमां स्वसन्मुख थतां सम्यग्दर्शन थाय
छे ने गृहस्थ पण ते करी शके छे. पहेलां बाह्यद्रष्टिमां आत्मा दूर
हतो, हवे अंतरद्रष्टिमां तेने समीप कर्यो के ‘आ हुं
!’ – आवा
धर्मी गृहस्थ पण मोक्षमार्गना पथिक छे.
मुनिवरो पासे मोटो मोक्षमार्ग छे, समकिती – गृहस्थ पासे
नानो (थोडो) मोक्षमार्ग छे; – पण छे तो बंने मोक्षमार्गमां; बंने
जिनेश्वरना वारसदार छे. साधक मुमुक्षु कहे छे के हुं सिद्ध
भगवंतोना पंथे मोक्षपुरीमां जाउं छुं.....स्वानुभव वडे ए
मोक्षपुरीनो रस्तो में जोयेलो छे; मोक्षना दरवाजा स्वानुभव वडे
खुली गया छे.
वाह, मोक्षना दरवाजा खोलवानी रीत बतावीने
संतोए महान उपकार कर्यो छे.
‘चिन्मूरत दृगधारि की मोहे रीति लगत है अटापटी’
बहारमां चक्रवर्तीराजना वैभवनो घेरो होय ने अंदरमां
मोक्षनी साधना चालु होय, – धर्मीनी आवी अटपटी दशा, –
पोतामां भेदज्ञान वगर ओळखाय तेवी नथी. चोथागुणस्थानवर्ती
गृहस्थनेय क्यारेक निर्विकल्प आत्मध्यान थाय छे. – पण ते
क्वचित् ज होय छे. – परंतु सम्यग्दर्शन अने मोक्षमार्ग तो तेने
निरंतर चालु होय छे. आ जाणीने जिज्ञासु गृहस्थोए पण
सम्यक्त्वनी आराधना कर्तव्य छे.
e

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मोक्षार्थी जीवोने जगाडवा सिद्धपणाना सिंहनाद
करीने श्री गुरुकहान कहे छे के : हे जीव! तुं जाग! तुं
नमालो नथी पण सिद्ध जेवो छो. कबुल कर के ‘हुं
परमात्मा छुं.’ ए कबुलात शास्त्रना शब्दो वडे के रागना
विकल्पो वडे नहीं थाय.....पण अंतर्मुख ज्ञानना
सिंहनाद वडे सिद्धपणानी कबुलात थशे.
३४ : सिंहनाद )
( सम्यग्दर्शन
सि द्ध प णा ना सिं ह ना द
हुं सिद्ध.....
तुं सिद्ध.....

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सम्यग्दर्शन )
( संतोनो सिंहनाद : ३५
सिंहनाद.....सिंहगर्जना थतां कर्मरुपी बकरां तो बीने
भाग्या, पण सिंहनुं बच्चुं तो नीडरपणे सिंह सामे जोईने ऊभुं
रह्युं.....
.....तेम ‘हुं सिद्ध, तुं सिद्ध’ एम संतोना मुखेथी
परमात्मपणानो ‘सिद्धनाद’ सांभळतां, सिद्धनो बच्चो (जिनेश्वरनो
नंदन) मुमुक्षु भागतो नथी पण नीडरपणे स्वसन्मुख थईने
सिद्धपणानो अनुभव करे छे.....सिद्धपणाना सिंहनादथी जागीने
सम्यक्त्व पामे छे.
वाह गुरुजी! सिद्धपणाना तमारा सिंहनादना
रणका आजेय संभळाई रह्या छे
ने मुमुक्षुओने जगाडी रह्या छे.
शार्दूलना बच्चाने जगाडवा...
सिद्धपणाना सिंहनाद

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३६ : संतोनो सिंहनाद )
( सम्यग्दर्शन
आत्माना शुद्धस्वरुपनुं चिंतन करो
जिनवर ने शुद्धात्ममां किंचित भेद न जाण;
मोक्षार्थे हे योगीजन निश्चयथी ए मान. २०.
धर्मीजीव, गृहस्थ होय तो पण, जिनवरमां ने पोताना
शुद्धात्मामां निश्चयथी कांई भेद मानतो नथी; मोक्षने अर्थे ते
पोताना अंतरमां पोताना शुद्धात्माने ध्यावे छे.
भगवाननो अने आ आत्मानो परम शुद्धस्वभाव सरखो
छे; पर्यायमां थोडोक फेर छे, परंतु शुद्ध स्वभावनुं चिंतन करतां
पर्यायनो फेर तूटवा मांडे छे.
परमात्मा जेवा पोताना शुद्धस्वरुपने ध्यावतां – ध्यावतां
सम्यग्दर्शन – ज्ञान – चारित्र थईने आत्मा पोते परमात्मा बनी
जाय छे. – आ ज निर्वाणनो मार्ग छे. धर्मी कहे छे – अमे ते
मार्गमां चाली रह्या छीए.
मोक्षमार्गी सन्तोना आ सिंहनाद छे,
मुमुक्षु ते झीलीने मोक्षमार्गमां दोडे छे.

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सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ३७
भगवंत पंच परमेष्ठीना प्रसादथी प्राप्त –
स्वानुभव – प्रसाद
(स्वभावरस – घोलन)
स्वभावरसनुं घोलन करीने आनंदमय स्वानुभवरस
चाखवानी रीत आमां बतावी छे. समयसार – प्रवचनसार
उपर पू. श्री कहानगुरुना प्रवचनना श्रवण वखते, तेमज पं.
श्री दीपचंदजी रचित ‘अनुभव प्रकाश’ पुस्तकनुं स्वाध्याय –
मनन करती वखते, चेतनमय स्वभावरस घूंटतां – घूंटतां आ
सुंदर रचना थई छे; ते मुमुक्षु – साधर्मीओने आनंदमय
चैतन्यरसनो मधुर स्वाद चखाडशे.
आत्माने शुद्धस्वरुपे अनुभवमां लेवो ते मुमुक्षुजीवनुं कार्य छे.
अशुद्धआत्माना चिन्तनथी दुःख – परिपाटी ऊभी थई छे.

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३८ : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
जीव पोताना सहज – शुद्ध स्वरुपनी संभाळ करे तो एक
क्षणमां सर्वदुःखोनो नाश थाय, ने शाश्वत आनंदमय
परमपदने पामे.
परिणाम पोताने भूली परमां एकत्व मानी रह्या छे, ते
गुलांट खाईने स्वस्वरुपमां एकत्व (पोतापणुं) करे तो आत्मा
मुक्तिसुख पामे.
प्रज्ञाछीणी वडे रागने जुदो करीने तारा चैतन्यअंशने पोतानो
जाण, तो तारो आत्मभगवान ताराथी गुप्त रहेशे नहि.
चैतन्य भगवान चेतनाथी जुदो जीवी शकतो नथी. ज्यां चेतना
छे त्यां ज चैतन्यभगवान छे.....बंनेने जुदाई नथी. (‘ज्यां
चेतन त्यां सर्वगुण....’)
परने य जाणनारुं जे ज्ञान छे ते ज्ञान तो निजवानगी छे.
ते वानगी चाखी – चाखीने घणा संतो अजर अमर थया छे.
हे भव्य
! तुं आ वात कहेवामात्र न ग्रहतो, पण चित्तने
चेतनामां लीन करी, स्वानुभवनो सुखविलास करजे.
– ‘ते कई रीते करवुं?’ ज्ञानप्रकाशनां किरणो ज्यांथी नीकळे
छे ते चैतन्यसूर्य तुं छो.....तेनी भावनामां मग्न रहेवुं. द्रव्य –
गुण – पर्याय त्रणेयने चैतन्यरुपे अनुभवीने एकरस करवा.
– एकरस छे ज, तेमां भेद-विकल्प न करवा. मुमुक्षुओ आवो
ज अनुभव करी करीने पंचपरमेष्ठी थया छे. आ अनुभवमां
अनंतगुणनो सर्व रस आवे छे. पंचपरमेष्ठी जेवो ज हुं छुं –
एम समजीने तुं तारा आत्मानो अनुभव कर.
ज्ञानपरिणतिस्वरुप जे आत्मा छे ते आनंदरस सहित छे.
ए ज रीते सर्वगुणोना रसनो स्वाद तेमां छे; ते कोई अत्यंत मधुर
स्वाद छे. ते आत्मद्रव्यनी ज परिणति छे, जुदुं कांई नथी.

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सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ३९
परिणतिद्वारा द्रव्यनो ज अनुभव थाय छे. – तेनुं नाम
‘अनुभवप्रकाश’.... .ते ज ‘आत्मप्रकाश’.....ते ज ‘स्वभावरस.’
अनुभवस्वरुप आत्मानी स्वभावशक्तिओनुं
वर्णन सांभळो : –
आवा अनुभवस्वरुप ज्ञानचेतना, इन्द्रियो साथे संबंध
वगरनी होवाथी परम सूक्ष्म छे, सूक्ष्म होवा छतां सत्तारुप छे अने
स्वसंवेदनगम्य छे. बधा परभावोथी भिन्न अलिप्त रहेवारुप
अने पोताना अनंत स्वभावोने एक साथे धारण करवारुप महान
वीर्य – सामर्थ्य ते चेतनामां छे.....ते पोते पोताने प्रमेय बनावे
छे. आत्माना बधाय स्वधर्मोने तेणे पोतामां धारण कर्या होवाथी
पोते ज वस्तुत्वरुप छे; अनंत स्वगुणमां व्यापीने शोभती तेनी
स्वाधीन प्रभुता कोई अचिंत्य छे. अहा, स्वानुभवमां स्वयं
विकसेली ए चेतनाना केटला गुण गाईए
? अपार एनो महिमा
छे. ए महिमा जाणतां जगतनो महिमा छूटी जाय छे, रागनो रस
ऊडी जाय छे. ए अनुभवरुप परिणमतो आत्मा पोते ज पोताना
कारण – कार्यरुप छे, बीजुं कंई कार्य हवे तेणे करवानुं नथी, के
बीजुं कोई कारण शोधवानुं नथी. हवे कांई ग्रहवानुं के छोडवानुं
रह्युं नथी. ग्रहवायोग्य बधा स्वभावो चेतनामां भर्या छे, ने
छोडवायोग्य बधा परभावो चेतनाथी बहार ज छे. आत्मा
कृतकृत्यपणे निश्चित शोभे छे.
आत्मा पोते स्वाधीनपणे एक ‘भावनो अभाव’ करीने,
बीजा भावरुप थाय छे. पहेलां न होय एवा नवा भावरुपे स्वयं
थई जाय छे. आवुं परिणमन होवा छतां पहेलां जेवा भावरुप
हतो तेवा भावरुपे पण रह्या करे छे. – आवी त्रिविध
आत्मशक्ति छे ( – उत्पाद – व्यय – ध्रुवता).

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४० : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
संप्रदान – शक्ति वडे आत्मा पोतानी परिणतिने पोताना
स्वरुपमां ज समर्पण करे छे. अधिकरण स्वभावने लीधे आत्मा
पोताना क्रम – अक्रमरुप समस्त गुण – पर्यायभावोनो आधार
एकसाथे थाय छे. तेनी अखंडितता एवी छे के एकसाथे घणा शुद्ध
गुण – पर्यायोने धारण करवा छतां पोते खंडित थतो नथी, एक –
अखंड रहे छे....तेना गुण – पर्याय विखेराई जता नथी.
वळी अनेकपणुं पण आत्मानो स्वभाव छे, तेथी अनेक
गुणपर्यायरुप ते पोते ज छे. द्रव्य जुदुं, गुण जुदा, पर्याय जुदी,
प्रदेशो जुदा – एम एक सत्ताने विखेरी न नाखो.....एक ज
वस्तुपणे ते बधाने देखो. द्रव्य पण ते, गुण पण ते, पर्यायरुप
थनार पण ते, प्रदेशो बधाना एक ज, – एम अनंत
स्वभाववाळी एक वस्तुने देखो. तमारुं सर्वस्व तमारामां छे,
बहारमां कांई नथी.
– आम ज्ञानी अनंत विशेषणो सहित पूर्ण स्ववस्तुनो
पोतामां अनुभव करे छे. अनंत भावसम्पन्न गंभीरता ते
स्वानुभवमां छे; तेमां अपार तृप्ति छे, महान शांति छे.
एवो अनुभव केम थाय? ज्ञानमां पोतानी आत्मवस्तुनो
महान रस भासवो ए ज अनुभवनी रीत छे. मारो आत्मरस
अत्यंत मीठो छे. निजद्रव्य-गुण-पर्यायनुं शुद्धस्वरुप जाणतां ते
उपयोगमां आत्मानो अगाध महिमा जणाय छे, ने आत्मअनुभव
थाय छे.
पोताना द्रव्य-गुण-पर्याय सर्वस्व पोतामां ने परना द्रव्य-
गुण-पर्याय सर्वस्व परमां.....
– एमांथी कांई काढी नांखवानुं नथी के नवुं कंई भेळववानुं
नथी.

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सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ४१
बस, आवी अत्यंत भिन्नता नक्की करी त्यां स्वाश्रित
परिणमनमां शुद्धता ज रही. स्वयमेव वस्तु पोते पोताना
स्वभावमां सुंदर छे, शोभती छे, शुद्ध छे. आवा भेदज्ञानमां
स्वतत्त्वनी सुंदरतानो अनुभव थाय छे. ते ज सम्यग्दर्शन छे.....ते
ज मार्ग छे. – आम करतां जीवने आनंद थाय छे, मोक्षपरिणति
साथे तेनी सगाई थाय छे.....मोह साथेनुं सगपण छूटीने
आनंदमय मुक्ति साथे सगाई थाय छे.
पहेलां ‘हुं मनुष्य, हुं शरीर’ एवी मान्यता हती ते
मान्यता उपयोगभूमिमां थई हती; उपयोग पोते पोताने भूली
अशुद्ध स्वांग धरीने ‘हुं बळद, हुं शरीर’ एम मानी बेठो हतो.
उपयोग पोताना असली उपयोग – स्वांगने धारे तो अशुद्धता
अने भूल मटी जाय; जाणनार पोते पोताने साचा स्वरुपे जाणे,
उपयोगधारी आनंदरुप तो पोते प्रयत्न विना ज सहज स्वरुपथी
छे ज.....लोकसंगथी नीराळो थईने पोते पोताने नीहाळवानो छे.
अरे! जणाय ते हुं ने जाणनारो ते हुं नहि, – आवो भेद ते
श्रद्धाय ते आत्मा, ने श्रद्धा करनार आत्मा नहि, कोण माने?
आत्माने देखनारो शुद्धनय पोते आत्मा ज छे – ‘शुद्धनय
भूतार्थ छे.’ ‘ज्ञायक’ने जाणनारो भाव ज्ञायकथी जुदो नथी, पोते
‘ज्ञायक’ ज छे.
एक मनुष्य छे, ते बळद जेवुं रुप धारीने पूछे छे के ‘हुं
मनुष्य क्यारे थईश?’ – भाई! तुं मनुष्य ज छो, तुं बळद नथी.
तारी भाषा, तारी चेष्टा, तारुं खानपान वगेरे उपरथी तुं जो के तुं
मनुष्य ज छो.....तेम उपयोगस्वरुप जीव पूछे छे के ‘हुं
उपयोगस्वरुप क्यारे थईश
?’ हे आत्मा! तुं उपयोगस्वरुप छो
ज.....बीजारुप थयो नथी. तारा प्रश्न उपरथी, तारी जाणवानी
}

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४२ : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
चेष्टाओ उपरथी, तारा वेदन उपरथी, तुं जो के तुं उपयोगस्वरुप
ज छो. खोटा स्वांग रागादिना धरवा छोडी दे तो स्वयमेव
उपयोगस्वरुप तुं छो ज.
उपयोगस्वरुप आत्मा प्रभु – चिदानंदराजा
तेने क्या गोतवो ? कई रीते गोतवो ?
प्रथम तो सर्व लौकिक संगथी पराङ्मुख थई जा.....ने
निजविचारने चैतन्यराजानी सन्मुख कर.....त्रण प्रकारनी
कर्मकंदरारुप गुफामां तारो चैतन्यप्रभु छूपाईने बेठो छे. शरीर
नोकर्म, द्रव्यकर्म अने रागद्वेष – भावकर्म ए त्रण गुफाने
ओळंगीने अंदर जतां ज तारो प्रभु तने तारामां देखाशे. (तुं
पोताने ज प्रभुरुपे अनुभवीश.)
ज्ञान चेतना

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सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ४३
संतनी ए वात सांभळीने परिणति पोताना प्रभुने शोधवा
होंशथी चाली.....
(१) प्रथम नोकर्मगुफामां पेसीने परिणतिए जोयुं.....पण
चैतन्यराजा तेमां क्यांय देखाया नहि.....साद पाडयो के शरीरमां
क्यांय चैतन्यप्रभु छे
? – पण कोईए जवाब न आप्यो.
परिणतिए नोकर्ममां चकरावो लईने जोयुं पण क्यांय चैतन्यप्रभु न
देखातां, ‘अहीं तो मारा चैतन्यप्रभु नथी,’ एम समजीने ते पाछी
वळती हती.....चैतन्यप्रभुने शोधवा ते बहावरी बनी हती.
त्यारे दयाळु श्रीगुरुए पूछ्युं – तुं कोने शोधे छे?
परिणतिए कह्युं – हुं मारा चैतन्यप्रभुने शोधुं छुं.....पण ते
तो अहीं न जडया.....तेथी हुं पाछी जाउं छुं.
श्रीगुरुए कह्युं – तुं पाछी न जा.....तारा प्रभु अहीं ज छे.
आ नोकर्म शरीरादि जीवंत जेवा देखाय छे ते तारा चैतन्य प्रभुना
ज प्रतापे; जो चैतन्यप्रभु बिराजता न होत तो आ जडशरीरने
‘पंचेन्द्रियजीव’ केम कहेवात
? माटे आ देहगुफानी अंदर ऊंडे ऊंडे
त्रीजी गुफा छे त्यां जईने शोध.....त्यां तारा प्रभु बिराजे छे, ते
तने जरुर मळशे. ने तेने भेटीने तने महा आनंद थशे.
(२) उपकारी श्रीगुरुना वचन उपर परम विश्वास करीने,
होंशेहोंशे ते परिणति चैतन्यप्रभुने शोधवा अंदर ऊंडे गई, ने
बीजी कर्मगुफामां दाखल थईने जोयुं.....त्यां तो ज्ञानावरणादि कर्मो
देखाया, पण चैतन्यप्रभु तो न देखाया. त्यारे पूछ्युं – मारा
चैतन्यप्रभु क्यां छे
?
सांभळ, हे परिणति! आ जडकर्मोमां जे क्रिया थाय छे तेनी
दोरी तारा चैतन्यप्रभुना हाथमां छे; तेना हाथनी हलावी ते हाले
छे.....तारा चैतनप्रभुना भावअनुसार आ कर्मोमां प्रदेश – प्रकृति

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४४ : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
– स्थिति – अनुभाग थाय छे. ‘ज्ञानगुण’ धारक तारा
चैतन्यप्रभुनी सत्ताना प्रतापे ज आ पुद्गलो ‘ज्ञानावरण’ वगेरे
नाम पाम्यां छे. अंदर ज्ञानवंत तारा चेतनप्रभु न बिराजता होय
तो आ पुद्गलोने ‘ज्ञानावरण’ आदि नाम क्यांथी मळे
? माटे आ
द्रव्यकर्मरुपी दोरी पकडीने तेना दोरे – दोरे अंदर चाली जा.....आ
दोरीने न देख पण दोरी जेना हाथमां छे तेने देख.....अंदर ऊंडे
त्रीजी गुफामां जईने गोत.
(३) चैतन्यप्रभुने भेटवा झंखती परिणति तो त्रीजी गुफामां
गई... चैतन्यप्रभुना कंईक – कंईक चिह्न तेने जणावा लाग्या....
आ त्रीजी गुफामां रागद्वेषादि भावकर्म देखाया....चेतनाए पूछ्युं
– आमां मारा चैतन्यप्रभु क्यां छे
?
त्यारे श्रीगुरुए तेने चेतनाप्रकाश अने रागद्वेष वच्चे
भेदज्ञान करावीने कह्युं – जो आ रागद्वेष देखाय छे ने? – ते
जेना प्रकाशमां देखाय छे ते प्रकाश तारा चैतन्यप्रभुनो ज छे. आ
राग छे, आ द्वेष छे – एम अज्ञान – अंधकारमां क्यांथी जणाय
?
ए तो चैतन्यप्रकाशमां ज जणाय छे. अने ए चैतन्यप्रकाश ज्यांथी
आवे छे ते ज तारा चैतन्यप्रभु छे. रागथी पण पार चैतन्यगुफामां
ते प्रभु बिराजी रह्या छे. चेतनाए रागथी पार थईने ज्यां
चैतन्यगुफामां जोयुं त्यां तो ‘अहो
! चैतन्यप्रकाशथी झगमगता आ
मारा चैतन्यप्रभु!’ – एम देखतां ज ते पोताना चैतन्यप्रभुने महा
आनंदथी भेटी पडी....पोते ज पोतानो प्रभुस्वरुपे स्वानुभव कर्यो.
हे चेतना! तुं गभराया वगर तारा चैतन्यने शोध.....ते
तने तरत ज अवश्य मळशे. – आ जे रागद्वेष – मोह देखाय
छे ते तेनी ज छाया छे केमके चैतन्यप्रभुना अस्तित्व वगर
रागद्वेषभावो संभवता नथी. – माटे जे प्रदेशमांथी ए रागद्वेष

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सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ४५
मोह ऊठे छे त्यां ज तारा चैतन्यप्रभु बिराजी रह्या छे.
रागद्वेषमोहमां न अटक पण ते दोरी पकडीने, तेनो दोर जेना
हाथमां छे तेनी पासे जा.....ते ज तारा चैतन्यप्रभु छे. रागादिना
प्रकाशक चैतन्यप्रकाशी तारा प्रभु अहीं साक्षात् बिराजी रह्या
छे....ए हवे ताराथी गुप्त रही शकशे नहि.....चैतन्यगुफामां आ
प्रभु प्रगट बिराजी रह्या छे ने पोताना अचिंत्य अपार महिमाने
धारण करी रह्या छे.....तेने देखतां – भेटतां महान सुख थशे.
अहा, मारा चैतन्यप्रभु मने मळ्या....माराथी ते जुदा नथी.
मारा चेतनप्रभु साथे तन्मयताथी मने महान आनंद थयो.
‘मेरा प्रभु नहीं दूर – देशांतर, मोहिमें हे, मोहे सुझत नीके’
स्वरुप पामवानो मार्ग संतोए सुगम करी दीधो छे.
तेमना प्रसादथी हुं ए स्वरुपने पाम्यो छुं. जे स्वरुप हतुं ते ज शुद्ध
थईने परिणम्युं. अनंता तीर्थंकरो थया, तेमणे स्वरुप शुद्ध कर्युं ने
अनंत सुखी थया, हवे मारे पण एवी ज रीते करवुं छे.
महामुनिजनो निरंतर स्वरुप – सेवन करे छे; मारे पण मारुं
त्रिलोकपूज्य सर्वोत्कृष्ट पद अवलोकी – अवलोकी एम ज करवुं छे.
कर्मनी घनघोरघटा पण चैतन्यसूर्यने हणी शके नहि,
चेतनमांथी तेने अचेतन करी शके नहि. चेतनसूर्य स्वप्रकाशथी
सदाय झळहळी रह्यो छे.
रत्नद्वीपनो रहेवासी एक माणस बीजा द्वीपमां
आव्यो.... तेने रत्नद्वीपना नीलमणिनी रज चोंटी हती. ते
सरोवरमां नहातो हतो, त्यारे तेना ते नीलमणिना प्रकाशथी
सरोवरनुं पाणी लीलाप्रकाशथी झगमगाट करतुं हतुं; ते जोईने तेने
अचंबो थयो के वाह
! आ पाणीमां आवो सुंदर झगमगाट क्यांथी
आव्यो? (पोताना प्रकाशथी पोते ज अचंबो पाम्यो!)

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४६ : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
एवामां एक झवेरी त्यां आव्यो.....ते नीलमणिने ओळखी
गयो. तेणे कह्युं – अरे भाई! तमारा शरीरे जे नीलमणिनी रज
चोंटी छे ते घणी किंमती छे, ने तेना प्रकाशने लीधे आ सरोवरनुं
पाणी केवुं मजानुं शोभी रह्युं छे
!! तमारा आ नीलरत्न पासे
राजाना निधान पण तुच्छ छे.
त्यारे ते माणस आश्चर्य पाम्यो : अरे, आवा रत्नोथी भरेला
द्वीप वच्चे तो हुं रहुं छुं.....मारे हवे दीनता केवी!! अत्यारसुधी
रत्नो वच्चे रहीने पण में रत्नोने ओळख्या नहीं ने दीन रह्यो!
तेम हे चैतन्यपुरुष! स्व – परने जाणनारो जे चैतन्यप्रकाश
फेलाई रह्यो छे ने जेनी हयातीने लीधे ज आ विश्वनी सुंदरता
देखाय छे – ते प्रकाश तारा ज चैतन्यरत्ननो छे. एवा
अनंतगुणरुप चैतन्यरत्नाकरमां तुं ज रह्यो छे. तारा एकेक
चैतन्यरत्न पासे आखुं जगत तुच्छताने पामे छे.
अहा, आवो आत्मा हुं! मने दीनता केम शोभे? मारा
निधानने हुं भूल्यो हतो, पण हवे संतोए मारा निधान मने
बताव्या.
आम निजनिधानने देखीने आत्मा आनंदित थयो.....ने
स्वानुभव करवा लाग्यो.
मारी चेतना मारामां गुप्त नथी पण प्रगट छे.
छती वस्तुने हुं अणछती केम करुं
?
लोही – मांसना बनेला आ शरीरने हुं आत्मा केम मानुं?
आत्मा, अनंत चैतन्यचिह्नसहित, अखंड गुणपूंज अने
पर्यायनो धारक, ज्ञानादिगुण – पर्यायरुप वस्तु हुं छुं एम
निश्चय करीने तेमां केलि करतां आनंद थाय छे. एने जाणवाथी
थतो आनंद ते ज्ञानानंद, श्रद्धवाथी थतो आनंद ते श्रद्धानंद –

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सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ४७
दर्शनानंद, तेमां परिणमवाथी थतो आनंद ते चारित्रानंद, एम
सर्वगुणोना स्वादरुप ‘आनंदकंद’ आत्मा छे. – आनाथी ऊंचुं
बीजुं कोई तत्त्व नथी. आ सोहलो शिवमार्ग भगवाने
भव्यजीवोने बताव्यो छे. मोक्ष माटे में आवी स्वभाव –
भावनारुप अवगाढ थंभ रोप्यो छे.
ज्ञानना एकदेशरुप स्वानुभव – मतिज्ञानमां पण
स्वरुपनो प्रभाव एवो जाग्यो के ज्ञानचिंतामणि हाथमां आव्यो.....
शुद्ध केवळज्ञान प्रतीतना द्वारे आवी ऊभुं. अशुद्धताना कोई अंशने
हवे ते ज्ञान पोतामां कल्पतुं नथी. ज्ञानप्रकाश ज हुं छुं – एवुं वेदन
रहे छे. स्वसंवेदन वधारतां केवळज्ञान नजीक आवतुं जाय छे.
मति-श्रुतज्ञान पण ज्ञानस्वभावमां अभेदपणे व्यापी रह्या छे.
केवळज्ञान पण ज्ञानस्वभावमां अभेदपणे व्यापी रह्युं छे.
– तेथी, तेरमे गुणस्थाने हो सातमे गुणस्थाने हो के चोथा
गुणस्थाने हो – ज्ञानपरिणमन ज एकसरखुं वर्ते छे; ने मति-
श्रुतज्ञान प्रत्येक समये केवळज्ञाननी नजीक ज जई रह्या छे.
कुंदकुंदस्वामी सातमा गुणस्थाने हता, अत्यारे चोथा
गुणस्थाने छे छतां प्रतिक्षण केवळज्ञाननी नजीक ज जई रह्या छे, दूर
नथी गया. – आ प्रताप छे ज्ञानस्वभावमां अभेद परिणमननो.
ज्ञानप्रदेशो सर्वत्र सुखथी भरेला छे.
जे ज्ञान ‘छे’ ते तो आवरणथी न्यारुं छे, तेम रागथी पण
ते न्यारुं छे; जेटला आवरण अने राग गया तेटलुं ज्ञान खुल्युं, ते
स्वभाव छे. आवा शुद्ध ज्ञाननी भावना करी – करीने आनंद
वधारीए छीए.