Samyak Darshan Part 7 8-Gujarati (Devanagari transliteration). Champabhaina Drastante Jivabhaini Odkhan; Vitragi Santo bolave Chhe: ; Swabhav Rasgholan - Swanubhav Prasad Bhag 2; Moksh Mahelno Maharaja; Shri Dev Shashtra Guru Pratye Bhaktibhavna.

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४८ : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
ज्ञानभावनाने ऊर्ध्व कर.....संसारना भावने अधो कर
– आ रीते, आत्मस्वरुपने साधवुं होय तो तारा भावनी गति
पलटी नांख.....‘‘ऊर्ध्वगमन कर.’’ ऊर्ध्व = सिद्धालय.
जडनां ममत्व करी – करी पोताने जड मानतां तने शुं
सुख छे? ए रीते रागादि भावमां पण सुख क्यां छे? तारो
ज्ञानभाव, तारो आत्मभाव, तारो आनंदभाव – ते ज सुखरुप
छे, ते ज तारुं विश्रामस्थान छे.
आत्मपरिणतिमां आत्मा छे. ‘हुं छुं’ एवी
स्वपरिणतिमां आत्मा प्रगट छे. आत्मामां परिणति आवी त्यां ‘हुं
छुं’ एम स्वपदने साध्युं. ‘हुं – हुं’ एवी स्वपदनी आस्तिक्यता ते
स्वरुपने साधवानुं साधन छे. ‘हुं – हुं’ एवा ते स्वपदमां शरीर
नथी, वचन नथी, राग के दुःख पण नथी, ते पदमां तो सर्वत्र
आनंद अने चेतना भरी छे. – वारंवार आवा स्वपदने स्वपदमां
ज शोध...प्राप्त छे तेनी तने प्राप्ति थशे, अनुभूति थशे.....त्यां
शक्तिस्वभाव व्यक्तरुप पोते ज परिणमी रह्यो छे.
परमात्मतत्त्वनी भावना करतां – करतां परमात्मपद नजीक
आवे छे, त्यारे तेना प्रतापथी परभावो मरी फीटे छे. जेम शूरवीर
राजाना तेजथी कायर मनुष्यो संग्राम कर्या वगर ज भागी जाय छे
अने जेम सूर्यना तेज – प्रताप पासे अंधकार पहेलेथी दूर भागी
जाय छे; तेम चैतन्यपरमात्मा ज्यां अपार स्वतेजना प्रकाशथी
स्फूरायमान थाय छे त्यां परभावो तेनी सामे ऊभा नथी रहेता,
लडया वगर ज भागी जाय छे. चैतन्यप्रभुनो प्रताप कोई अनेरो
छे.....अनुपम छे.
परना रसथी परांगमुख थई, अत्यंत रसथी स्वपदने
अवलोकवानो प्रयत्न वारंवार कर्या ज करो.
‘‘संतनी वात.....टूंकी टच, स्वमां वस.....परथी खस.’’

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सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ४९
कस्तुरीमृग सुगंधने बहारमां शोधे ते क्यांथी मळे?
आत्मतत्त्व निजपदने परमां शोधे ते क्यांथी मळे?
स्वपदनो निवास स्वपदमां ज छे; क्यांय शोधवुं नहीं पडे.
तारे कोने शोधवुं छे ते नक्की कर.....तो ते तारामां ज छे,
ते तुं ज छो.
तुं तो छो ज – पछी पोते पोताने ढूंढवानी व्याकुळता
शा माटे करे छे?
घणो – घणो काळ तुं व्याकुळ थयो; हवे तो शांत थईने
सुखरसनो आस्वादी था.
परभावना निंद्यस्थानोने छोडीने अत्यंत सुंदर निज-
पदमां बेस.....
अरे, तारुं ज्ञान ते परपदमां होय? ना. परपदने
जाणनारुं ज्ञान पण निजपद छे. जे – जे जाणपणुं छे ते – ते हुं
छुं एम ज्ञानमां निजभावनी द्रढता ते सम्यक्त्व छे; ते सुगम छे;
तेमां खेद नथी, विषमता नथी. एनाथी ज शिवपद सधाय छे. माटे
स्वरुप – रसनो वारंवार अभ्यास करो. तमारी शक्ति अपार छे.
अरे चिदानंदराज
! अनंत – अपार ज्ञानशक्तिने अंदर संघरीने
बेठो होवा छतां तुं पोताने सम्यक्त्वकार्य माटे पण नबळो मानी
रह्यो छे – ते आश्चर्य उपजावे छे
! छती शक्तिने अछती शा माटे
करे छे? तारा स्वरुपना साम्राज्यनो तुं हक्कदार छो, तारा
स्वराज्यने तुं झट प्राप्त करी ले. जेम क्षुधातुर बिल्ली खोराक
देखीने लोटवा लागे छे तेम तुं तारा सुंदर स्वरुपमां लोटवा लाग.
अत्यार सुधी तुं जेनी पाछळ पागलनी जेम लोटयो – भटक्यो –
ए तो जडपुद्गल – अचेतननो ढगलो छे.....एम जाणीने
पस्तावो कर, ने हवे तारा चैतन्यप्रभु पाछळ लागी जा. लोको भले

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५० : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
तने पागल जेवो देखे पण तुं डाह्यो थईने निजस्वरुपमां आवी जा.
बीजानुं तारे शुं काम छे
? जगतना डहापण करीकरीने चार गतिना
भवमां भटकी – भटकीने दुःखी थवुं – एना करतां पोताना
आनंदस्वरुपमां शांतिथी बेसी रहेवुं – तेमां ज मजा छे.
अरे चेतनमहाराजा! आ शरीर तो प्रत्यक्ष जड लाकडा
जेवुं छे – तेमां सुख मानतां तमने शरम नथी आवती? तमारी
चेतनानो अंश पण तेमां नथी. जराक नजर खोलीने जडने जडरुप
तथा चेतनने चेतनरुप देखो.
जेम आंख उपर लूगडुं ढांक्युं होय पण अंदर तो आंखमां
प्रकाशपूंज भर्यो छे, ते माणसने कांई आंधळो तो न कहेवाय. तेम
अज्ञानना आवरणथी ढंकायेल छतां आत्मानी अंदर चेतनामां
चैतन्यप्रकाशनो पूंज भर्यो छे, ते कांई अचेतन थई गयो नथी. ‘हुं
चेतन छुं’ एम चेतनपणे पोतानुं संवेदन करे तो पोते पोताथी
जराय गुप्त नथी.
अरे अनंतसुखनो धणी तुं, बहारमांथी सुख लेवाना
वलखां मारी – मारीने केवो दुःखी थई रह्यो छे! लक्ष्मीनो दास
बनी, दीन थईने देशोदेश फरी रह्यो छे! शरीर – स्त्री – पुत्रादिनी
गुलामी करे छे, अनेक परिषह सहे छे, – आटलुं – आटलुं
करवा छतां, अरे तेनी पाछळ आखुं जीवन गुमावी देतां पण,
जराय सुख तो तने मळतुं नथी. सुखनो निधान तो तुं
छो.....बापु
! एनो विश्वास कर तो अत्यारे ज तुं महान सुखी
बनी जा. अमे एम करीने सुखी थया पछी तने कहीए छीए.
पहेलां अमे य तारी जेम सुखने माटे बहार भटकता हता; पछी
संतोए अमारुं सुखनिधान अमने बताव्युं ते पामीने अमे सुखी
थया.....तुं पण सुखी था
!

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सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ५१
‘ज्ञान वगरनो’ दुःखी थाय ए तो ठीक, पण तुं तो पोते
‘ज्ञानवाळो’ थईने दुःखी बनी रह्यो छे – ए आश्चर्यनी वात छे.
आंख होवा छतां आंधळो था मा....कूवामां पड मा. राजा होवा छतां
तारी हरामजादीथी तुं घरघरनो भिखारी थईने भटके छे
! मोह –
धतूरो पीने, ओला ‘चांपा भरवाड’नी जेम तुं पागल बन्यो छे.
चांपो भरवाड एकवार जंगलमां मदिरा पीने भान भूल्यो,
‘हुं चांपो छुं’ ए पण ते भूली गयो.....घरे जईने डेलीनुं बारणुं
खखडावी पूछ्युं – ‘चांपो घरे छे
?’ अंदरथी जवाब आप्यो –
‘तमे कोण छो?’ त्यारे चांपो विचारमां पडी गयो – ‘अरे, हुं ज
पोते चांपो छुं.’ तेनी भ्रमणा भांगी अने स्वघरमां जईने रह्यो.
तेम पोताने भूलेलो शिष्य श्रीगुरु पासे जईने पूछे छे – प्रभो
!
मारो आत्मा क्यां छे? त्यारे श्रीगुरु तेने कहे छे – आत्माने
शोधनार ‘तमे कोण छो?’ त्यारे शिष्य विचारमां पडी गयो – अरे,
हुं पोते ज आत्मा छुं.....जाणनार तत्त्व हुं पोते ज छुं. – एम

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५२ : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
पोते पोताने जाणतां महान सुखी थयो. – बीजे शोधवानुं
मटयुं.....भटकवानुं मटयुं.....स्वघरमां आवी रह्यो.
आत्मा अनादिथी ‘अशुद्ध’ परिणमवा छतां, अनादिथी ते
‘शुद्ध’ पण छे. जो ‘शुद्ध’ न होय तो अशुद्धता कोनी थाय? माटे
बंने भाव (स्वभाव अने विभाव) अनादिथी छे. ए बंने भावने
जाणनार पोते वर्तमान अपूर्व शुद्धतारुपे परिणमी रह्यो छे. अनादि
अशुद्धतानी धारा तूटी ने अपूर्व शुद्धतानो प्रवाह शरु थयो.
शुद्धता अने अशुद्धता बंने अनादिथी एकबीजाथी विरुद्ध
(विसंवाद) भावे वर्तता हता. पण अज्ञानभावे ते बंनेने एक ज
रुपे देखीने ‘अशुद्धआत्माने ज’ अनुभवतो हतो; हवे बंनेने
सम्यग्ज्ञानथी ज्यां भिन्न देख्यां त्यां भिन्न थवानी शरुआत थई,
शुद्ध आत्मा अनुभवमां आवी रह्यो छे; द्रव्य पर्याय विरुद्धता
छोडीने समभावी थवा मांडया छे.
जेम सोनानी खाणनुं सोनुं; पत्थर साथे मळेलुं अशुद्ध होवा
छतां ‘शुद्धसुवर्णपणुं’ ते वखते ज तेनामां छे, – तेथी प्रयोगद्वारा
तेवुं परिणमन थाय छे. तेम आत्मामां समजवुं. आ ‘समजण’ ते ज
शुद्धता.
‘द्रव्यस्वभाव शुद्ध छे’ एम जे समज्यो ते पर्यायमां पण
शुद्ध थयो ज छे. तेनी शुद्धपर्यायने शुद्धद्रव्य साथे एकतारुप कार्य –
कारणभाव छे. बंनेमां एकता होवाथी शुद्धता छे. कारण –
कार्यपणे द्रव्य – पर्यायनी संधिनो आ सम्यक्स्वभाव सम्यग्द्रष्टि ज
अनुभवे छे – जाणे छे; तेनी शुद्ध परिणतिने आत्मा सिवाय बीजा
बधा साथेनो कारण – कार्य संबंध तूटी गयो छे, तेथी निमित्तरुपे
पण ते कर्म – नोकर्मनो कर्ता नथी. क्रोधादिभावो – के जेमनो
संबंध पर साथे छे – ते क्रोधादिभावने पण ते शुद्धपरिणति करती

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सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ५३
नथी, तेनाथी जुदी ज रहीने पोतानुं परिणमन वधारती जाय छे.
जेम जेम शुद्धतानुं परिणमन वधतुं जाय छे, तेम तेम क्रोधादिनुं
अस्तित्व मटतुं जाय छे. आम बंने भावनी अत्यंत भिन्नता
प्रयोगमां आवी गई छे.
अग्नि उपर चडेला सुवर्णरसमां अशुद्धता क्यां सुधी रही
शके? – तरत ज बळीने ऊडी जाय.
तेम भेदज्ञान अने ध्यानाग्नि उपर चडेला चैतन्यरसमां
रागादि क्यां सुधी रही शके? – क्षणमां बळीने अभाव थई जाय.
हे जीव! तारामां ज्ञानगुण न होय तो अज्ञान क्यांथी थाय?
तारामां सम्यक् दर्शननो गुण न होय तो मिथ्यात्व क्यांथी थाय?
तारामां सुखस्वभाव न होय तो दुःख क्यांथी थाय?
तारामां शांतिगुण न होय तो अशांति – क्रोध क्यांथी थाय?
तारामां अशरीरी स्वभाव न होय तो शरीर क्यांथी चोंटे?
माटे –
स्वगुणनुं अस्तित्व छे तेने पण देख.....एकला दोषने न देख.
निज – गुणोनी महानता देखीश तो दोष तुरत ज भागी जशे.
दोष तो घणीवार आव्या ने गया. छतां गुणो तो सदाय एना
ए ज अचलपणे टकी रह्या छे, तेथी गुणोनी ज महानता छे. दोष
ओछा थईने नष्ट थई जशे, गुण कदी एक्केय ओछो नहि थाय.
अज्ञान मटशे, मिथ्यात्व मटशे, दुःख मटशे, अशांति – क्रोधनो
अभाव थशे, शरीर छूटी जशे, पण ज्ञानगुण – सम्यक्त्वगुण –
सुखस्वभाव – शांतिस्वभाव – शरीररहित अमूर्तस्वभाव – ते कदी
नहीं छूटे; – ए बधाय निजस्वभाव छे. –
‘‘निजभावने छोडुं नहीं, परभाव कंई पण नव ग्रहुं.’’

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५४ : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
प्रत्येक गुण आत्मानो छे तेथी आत्मा सर्वगुणस्वरुप छे.
आत्मानो प्रत्येक गुण तेना सर्वगुणना रसथी भरेलो छे, एकेक
गुणनो रस सर्वगुणने रसबोळ करी रह्यो छे : –
‘सत्ता’ : आत्मानो गुण छे तेथी एकलो सत्तागुण ज सत्रुप
नथी पण आखो आत्मा सत्रुप छे, – तेना
सर्वगुणो सत्रुप छे.
‘ज्ञान’ : आत्मानो गुण छे तेथी एकलुं ज्ञान ज चेतनरुप
नथी पण आखो आत्मा चेतनरुप छे, तेना
सर्वगुणो चेतनरुप छे.
‘आनंद’ : आत्मानो गुण छे तेथी एकलो आनंदगुण ज
आनंदरुप नथी; पण आखो आत्मा आनंदरुप छे,
तेना सर्व गुणो आनंदरुप छे.
‘प्रदेशता’: आत्मानो गुण छे तेथी एकलो प्रदेशत्वगुण ज
प्रदेशरुप नथी, आखो आत्मा प्रदेशोरुप छे, तेना
सर्वगुणो प्रदेशोरुप छे.
आम, कथंचित् गुणभेद छतां बधा गुणो वस्तुना
सर्वगुणोरुप छे, जुदा पाडीने एकेक गुणनो जुदो जुदो स्वाद लई
शकातो नथी.
श्रद्धामां – स्वानुभूतिमां सर्वगुणो एकसाथे
अभेदरसपणे आत्मरसरुपे स्वादमां आवे छे.....सर्वगुणोनो
एक साथे रस आवतो होवाथी ते आत्मरसनो स्वाद महा
सुंदर छे. (तेमां विकल्परुप आकुळता नथी.)
‘सत्ता’ जो सत्तागुणमां ज होय ने बीजा सर्वगुणोमां सत्ता न
होय तो बीजा गुणो असत् ठरे.
‘ज्ञान’जो ज्ञानगुणमां ज होय ने बीजा सर्वगुणोमां ज्ञान –
चेतना न होय तो बीजा गुणो अचेतन – जड ठरे.

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सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ५५
‘आनंदरस’ जो आनंदगुणमां ज होय ने बीजा सर्वगुणोमां
आनंदरस न होय तो बीजा गुणो आनंदरस वगरना
नीरस ठरे.
‘प्रदेशता’जो प्रदेशत्वगुणमां ज होय ने बीजा गुणोमां प्रदेशो न
होय तो बीजा गुणो आकार वगरना ठरे. माटे एकेक
गुणद्वारा सर्वगुणसम्पन्न आखी वस्तुने ज देखवी.
अनेकान्तस्वभाव जयवंत छे.
अनंतगुणस्वरुप आत्मानो महिमा अपार छे. जेनुं प्रीतिथी
श्रवण करतां पण मोक्षसुखना भणकारा आवे, ते स्वरुपना साक्षात्
अनुभवनो महिमा कोण कही शके
? – एने ज्ञानी ज जाणे छे.
एना एक अंशना स्वादमां पण अभेदपणे आखाय आत्मानो
स्वाद आवे छे. ‘आवो हुं छुं’ – एवा सम्यक् निश्चयनुं बळ पण
एवुं महान छे के मोक्षने अहीं खेंची लावे छे.
वीतरागी संतो बोलावे छे –
१. अरे आत्मा! तुं अनात्मानो संग केम करे छे?
२. तारुं आत्मत्व महा सुंदर छे, तेने अनात्मा वडे बगाड नहि.
३. अनात्म – संग छोडी, ‘अनुभवी – आत्मानुं’ निमित्त ले,
तने महा आनंद थशे.
४. तारी ज्ञानचेतनाना एक ज कटाक्षथी सर्वगुणो वश थई जशे.
५. मोक्षनगरीनी वीतरागी सडक संतोए चालीने कंटकरहित करी
दीधी छे.
६. मोक्षने आनंदपूर्वक साधवो ए तो मारा आत्मस्वभावनो
सहज खेल छे.

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५६ : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
७. कषायनो अंश पण उपाडवो मने बोजारुप छे; रत्नत्रय मारे
माटे सहज छे.
८. आहा! मारा शांतपदमां क्लेश शो? निज निधानमां दीनता
केवी?
९. आत्मस्वरुपना सेवनथी तृप्ति न थाय तो बीजे क्यां तृप्ति
थशे?
१०. निजात्मरसना आस्वादथी ज जेने तृप्ति थई तेने कोई
बीजानुं शुं काम छे?
फरी फरीने तने बोलावीए छीए के हे जीव!
आमां सदा प्रीतिवंत बन, आमां सदा संतुष्ट ने
आनाथी बन तुं तृप्त, तुजने सुख अहो
! उत्तम थशे.
बधुंय तैयार छे.....तुं तैयार था !
हे आत्मरसिक मुमुक्षु! सम्यग्दर्शन अने
स्वानुभूतिने लगतुं आ एक जोरदार साहित्य तारा
हाथमां आव्युं छे ने तने तेमां रस आव्यो छे.....तो ते
रसनुं घोलन नीकटमां ज तने स्वानुभूतिनुं कारण थशे.
– हा, तेमां एकवार कोईपण आत्मज्ञानीना सीधा
मार्गदर्शननी अपेक्षा तो खरी ज. पण तुं मुंझाईश
मा.....अत्यारेय भरतक्षेत्रमां अनेक आत्मज्ञानी जीवो
विद्यमान छे, ने पंचमकाळना छेडा सुधी अविच्छिन्नपणे
रहेवाना छे. तुं तैयार था.....एटले बधुंय तैयार छे.

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सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ५७
तुं पोताना आत्माने प्रभु स्थाप.
प्रभुमां शुं होय? – शुं न होय? तेनो विचार कर.
प्रभु ‘छे’ तेने प्रभु ‘थवामां’ शी वार?
(होवुं TO BE........... थवुं TO BE)
सर्व कल्याणस्वरुप महासुंदर तारो आत्मा, एनाथी वधु
बीजी कई वस्तु जगतमां छे – के जेनी पाछळ तुं राग करी –
करीने दोडे छे
! – आत्माने छोडीने बीजे उपयोग भमावे छे –
तो शुं आत्मा करतां बीजुं कांई तने सुंदर देखाय छे? –
ना.....ना.....ना! एटले तो उपयोग थाकी थाकीने बधेयथी पाछो
वळे छे, ने पोतामां ज रहेवा मथे छे. एकवार निजस्वरुपमां
स्वभाव – रसघोलन : स्वानुभव – प्रसाद
भाग बीजो
संसार दुःखमां सळगता आत्माने जीवतो बहार काढवा
हे जीव ! तुं मरणियो था.
हे आत्मार्थी! आत्मतत्त्वने जाणवा माटे तुं कुतूहल कर, अने
मरणियो थईने पण देहथी जुदा आत्माने अनुभवमां ले.

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५८ : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
उपयोग पूरो प्रवेशी गयो पछी अनंतकाळेय कदी तेमांथी बहार
आवतो नथी, तो कल्पना करो के उपयोगने ते स्वरुपमां केटली बधी
मजा आवती हशे
! बस, ए तो ‘सादि – अनंत अनंत
समाधिसुखमां’ लीन छे.
जड तो तारी पाछळ नथी पडतुं; तुं शा माटे जडनी पाछळ
दोडे छे? जीव होय तो बधुंय शोभे; जीव न होय तो? बधुं
सूनसाम, शब! तुं स्वयं शोभतो छो.....नकामो कचरो चोपडी –
चोपडीने मेलो केम थाश? अरे, तुं पोते लोकेश्वर – इन्द्र.....ते
मोहनी इंद्रजाळमां कां फसाई गयो? मरणीयो थईने तारा
आत्माने संसारना दुःखाग्निमांथी बहार काढ.
एक माणसने भ्रमणा थई गई के ‘हुं मरी गयो छुं.’
कोईए पूछ्युं : तमे शुं करो छो
?
तेणे कह्युं – ‘हुं मरी गयो छुं.’
– तो आ जवाब कोण आपे छे
?
‘हुं जवाब आपुं छुं.’
– तो तमे जीवता छो के मरेला
?
त्यारे भान थयुं के अरे, ‘हुं तो जीवतो छुं.’
तेम जीवने भ्रमणा थई गई हती के ‘हुं अचेतन – शरीर छुं.’
कोईए तेने पूछ्युं : तमे कोण छो
?
तेणे कह्युं : ‘हुं अचेतन शरीर छुं.’
– तो आ शरीरने कोण जाणे छे
?
तेणे कह्युं : ‘हुं जाणुं छुं.’
– तो जाणनारा तमे चेतन छो के अचेतन
?
त्यारे विचार करतां देहथी भिन्नतानुं भान थयुं के
‘अहा! हुं तो चेतनस्वरुप छुं.’

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सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ५९
हे जीव! तारी शुद्धता महान छे.....तेथी तेनी छायारुप
अशुद्धता पण महान लागे छे. जड कर्मोनी आटली शक्ति देखाय
छे ते बधी शक्ति तारी अशुद्धता पासेथी ज मळी छे. तुं तारामां
अशुद्धता न कर तो जड कर्मोमां तो कांई ज शक्ति रहेती नथी.
बिचारा वेरविखेर थई जाय छे.
तारी शुद्धता एवी महान छे के एना एक अंश पासे पण
इन्द्रादि पदनी विभूति तुच्छ – विकाररुप भासे छे. आवुं
महिमावंत शुद्धपद पोतानी पासे छे; तो तेनी भावना केम न
भावीए
! एनी भावनाथी परमात्मपद तुरत ज पमाय छे.
शुद्धपदनी भावनाथी स्वसंवेदनरसनो आस्वादी था, ए
ज सर्वज्ञना सर्व उपदेशनुं रहस्य छे. तुं स्वसंवेदनरस चाखीश
पछी दिव्यध्वनिनी कोई वात ताराथी गुप्त नहीं रहे. आवो
आतमरस ए ज मोक्षमार्गी संतोनुं चिह्न छे.
जेम अलोकमां झाड नथी ऊगता, तेम चेतनरसमां राग
नथी ऊगतो. चेतनसुखनो स्वाद लख्ये – वांच्ये के सांभळ्ये न
आवे, ओळखतां स्वाद आवे. वारंवार कहेवा छतां, हे जीव
!
आवो अनुभव तुं क्यारे करीश? आटली बधी वखत तो बाळक
पण न कहेवडावे. तुं अनंतज्ञाननो धणी थईने अने जिनेश्वरनाथनो
उपासक थईने आटलुं पण कार्य नथी करतो. ए अचरजनी वात
छे
! भाई, आ नरभव कांई कायम तो नथी रहेवानो; अत्यारे
मोक्षसाधन नहि करे तो पछी क्यारे करीश? कर..... कर.... कर....
आजे ज कर.
जेम मडदा साथेनी कोई क्रिया शोभे नहि तेम अचेतन
शरीर साथेनी कोई क्रिया चेतनप्रभुने शोभती नथी. चैतन्यप्रभुने
तो रत्नत्रयना चैतन्यशणगार शोभे; जड – शणगार एने न

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६० : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
शोभे. अहा, तुं तारी चैतन्यराजधानीनो राजा छो; तारी
स्वानुभूतिना विलासथी तारी शोभा छे.
‘‘सुख’ तो आत्मानो गुण छे, आत्मामांथी ज तेनी अनुभूति
थाय छे. शरीरमांथी स्पर्श – रस – गंध – रंग मळशे, सुख
एमांथी नहि मळे.
खानपान वगेरे सामग्री जाय छे शरीरमां, अने चेतन
एम माने छे के मने एनाथी सुख थयुं – ए तो केवी भ्रमणा?
खाय को’क अने भूख मटे कोईक बीजानी, ए तो केवी भ्रमणा?
देहमां शुं – शुं भर्युं छे ते जोई ले, अने तारामां शुं – शुं भर्युं
छे ते जोई ले.....पछी देह साथे भाईबंधीनो विचार पण तने नहि
आवे. विष्टानो खजानो जेमां भर्यो छे एवा देह साथे संबंध
राखवामां तमारुं शुं महंतपणुं छे
? महंतपणुं तो सम्यक्त्वादि कोई
महान कार्य करवाथी ज थशे. गुणनिधानरुप तमारा आत्मधन वडे
तमारी मोटाई छे, तेने तमे ग्रहण करो. तमे दरिद्री नथी – के
बीजा पासे सुखनी भीख मांगो छो
! पाप करी – करीने शरीरनी
जूठी सेवा करो मा.....ए तमने कांई सुख आपवानुं नथी. तमारा
अनंतगुणनी महान प्रजाना तमे राजा छो.....तमने ते सुख
आपशे. माटे ते तमारा स्वाधीन राजपदने भोगवो.
विषयकषायरुप चोरने तमारा राजमां आववा न द्यो. तमारो
राजवैभव केवो अद्भुत छे
! ते बराबर नीहाळो.
त मे छो मो क्ष म हे ल ना म हा रा जा

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सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ६१
मोक्षमहेलनो महाराजा
एक मनुष्यने जुदा जुदा ३६० झूंपडा.....दररोज एकेक
झूंपडामां एकेक दिवस रहे, ने बीजे दिवसे बीजा झूंपडामां जाय.
जे झूंपडामां रहेवानुं होय ते झूंपडाने वाळी – चोळी साफसूफ
करवा रोकाय; हजी पूरुं साफ न करे त्यां तो दिवस पूरो थई जाय
ने बीजा झूंपडामां जवानुं थाय. एटले झूंपडुं साफ करवानी महेनत
तो नकामी गई. बीजा झूंपडामां गयो तो ते पण घणा दिवसोना
कचराथी भरेलुं हतुं, तेने साफ करवा रोकायो अने दिवस वीती
गयो.....ए साफसूफ करेलुं झूंपडुं छोडीने भाईसाहेब चाल्या त्रीजा
झूंपडामां; त्यां पण एवा ज हाल...
ए रीते ३६० दिवस सुधी रोज एकेक झूंपडुं साफ करी
करीने थाक्यो, पण क्यांय शांतिथी रहेवा न मळ्युं. वर्ष आखरे
पाछो पहेला झूंपडामां आव्यो, तो तेमां पण आखा वरसनो कचरो
भेगो थई गयेलो – ते साफ करवा मांडयो.....एम फरीने चकरावो
शरु थयो.
खरेखर तो ते मनुष्य एक राजा हतो, अने उत्तम
राजमहेलमां रहेनारो हतो के जेमां कचरो आवे ज नहि, ठंडी –
गरमी पण न लागे; पण राजा पोताना राजमहेलने भूलीने झूंपडे –
झूंपडे भटकी रह्यो छे. पोताना राजमहेलमां स्थिर थईने रहे तो तेने
कांई उपाधि नथी. सूना घरमां मफतनो मजुरी करे छे.....
तेम मोक्षमहेलनो वासी आ चैतन्यराजा निजघरने भूलीने
शरीरना झूंपडे झूंपडे भटकी रह्यो छे. जे शरीरमां थोडोक काळ
रहेवानुं थाय तेने ज पोतानुं मानीने स्नान – भोजनादि वडे तेने
साचववामां आखी जिंदगी वेडफी नांखे छे, पण आत्मानी शांति

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६२ : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
माटे वखत लेतो नथी. एक शरीरनुं लालन – पालन करे त्यां तो
आयु पूरुं थतां एकाएक तेने छोडीने बीजा शरीरमां तेने जवुं पडे
छे; पाछो ते बीजा शरीरने पोतानुं मानीने तेनी पाछळ जींदगी
गुमावे छे, ने तेने छोडीने त्रीजा शरीरमां चाल्यो जाय छे; पाछला
शरीरोने पोषवानी महेनत तो नकामी गई.....ने शरीर बदलवानो
चकरावो तो चालु ज रह्यो. (अंते थाक्यो
!!)
कोई हितेच्छुए तेने समजाव्युं – बापु! आ शरीर झूंपडानो
रहेवासी तुं नथी, शरीरने खातर जीवन गाळ मा. तुं तो
मोक्षपुरीनो महाराजा छो, तारो मोक्षमहेल तो कचराना प्रवेश
वगरनो अत्यंत सुंदर छे. तेमां स्थिर थईने रहे तो तने महान
सुख थशे.....ने तारे कोई उपाधि नही रहे.
‘‘ए मोक्षमहेलमां केम जवुं? तेनो रस्तो बतावो! हा, चालो
मारी साथे! जुओ, आ चेतनध्वज फरकी रह्यो छे ते ज तमारो
महेल छे. ज्ञानचेतनानो दोर पकडीने चाल्या आवो. शरीर – वचन
– मन ए त्रणे बहारना गढने ओळंगीने ज्ञानद्वारे अंदर प्रवेश
ज्ञान चेतना
मोक्षमहेल

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सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ६३
करो.....ने चौद पगथियानी आ सीडीना चोथा पगथिया पर पग
मूकीने जुओ के महेलमां शुं शुं भर्युं छे
!!
अहा, अहीं तो कोई अलौकिक आनंद – निधान भर्या
छे.....ज्ञाननो तो पार नथी, सम्यक्त्वरत्ननो महान प्रकाश सर्वत्र
अजवाळां फेलावी रह्यो छे.....शांति तो एवी छे के जराय कोलाहल
नथी. कर्मनो कचरो तो जराय छे ज नहि; अपूर्व समता सर्वत्र
प्रसरी रही छे. मोक्षमहेलमां अनंता सिद्धभगवंतोनी आटली बधी
वस्ती, छतां त्यां क्लेश नथी, दुःख नथी, कोई नानुं – मोटुं नथी,
कोई अछत नथी, परम तृप्ति छे.....बस, मारे मारा आ
मोक्षमहेलमां जल्दी पहोंची जवुं छे. आ संसार साथे हवे मारे
कांई संबंध राखवो नथी. आ चेतन – देह झूंपडुं रहो के न रहो,
अमे कांई तेना रहेवासी नथी.
कुंदकुंदस्वामी भावप्राभृत गा. १३२ मां कहे छे के –
आ शरीरझूंपडुं वृद्धता – रोगाग्निथी झट बळी जशे,
वळी इंद्रियो बळहीन थशे, झट साधी ले निजआत्मने.
मने लाग्यो संसार असार.....
ए.....रे.....संसारमां नहीं रहुं.....नहीं रहुं.....नहीं रहुं रे.
मने लाग्युं छे सिद्धपद सार.....
मुक्ति – महेलमां हुं झट जाउं....झट जाउं.....झट जाउं रे...
स्वपदने ओळखी तेमां रहेवुं ते मुश्केल नथी, सुगम छे,
पोतानुं ज स्वरुप होवाथी ते सहज छे. शरीरादि पर – पद
अचेतन जड, ते रुपे हुं छुं – एम परपदरुपे पोताने मानी –
मानीने अनंतकाळथी थाक्यो, छतां ते परपदरुपे थयो नहि,
चेतनरुपे ज रह्यो. माटे परपद मुश्केल छे, कोई रीते पोतानुं थतु
नथी. अरे जीव
! स्वपदथी बहार परपदमां हजी क्यां सुधी तारे

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६४ : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
भटकवुं छे!! बस कर.....बस कर.....स्वपदमां आव.....स्वपदमां
आव...ने सुखी था.
हे चेतनराजा! नव – निधान पण दरिद्र थईने तारा चैतन्य
निधाननी पाछळ भमे छे; चक्रवर्तीनां चौद रत्नो पण तारा
रत्नत्रयनी सेवा करे छे. आवा तारा निजवैभवना
अवलोकनमात्रथी तुं परमेश्वर थईश.
परभावो हुं नथी, पण तेमां सर्वत्र जे चेतनभाव वसी
रह्यो छे ते मारुं निजस्वरुप छे. चेतनभाव अनादि – अनंत
एकरसमय छे. बीजा कलुष रसने एमां न भेळवो तो चेतनरस
एकलो अत्यंत मधुर वीतराग स्वादवाळो छे. – आ शुद्धचेतना
थई. कर्मफळ – चेतना अने कर्म – चेतना ते बंने अशुद्ध होवा
छतां तेमां पण चेतना रहेली तो छे ज. ते चेतनानुं चेतनापणुं
ओळखतां रागादि परभावोथी निजभावनुं भेदज्ञान थाय छे, ने
ज्ञाता – द्रष्टास्वभावी जीव अनुभवमां आवे छे. अहो, ए
अनुभवनी शी वात
!! अतीन्द्रिय आनंदरुप एनो प्रकाश छे.
ज्ञानचेतना शुद्ध थतां हुं हवे जाग्यो.....मोहभाव भाग्यो. हुं मारा
स्वरुप – हाथी उपर आरुढ थयो. अनुभवमां आवुं वेदन छे पण
विकल्प नथी, भेद नथी, विचार नथी.....आत्मपरिणमन ज तेवुं
वर्ते छे. त्यां ते परिणमतो – आत्मा पोते ज साधक – साध्य
अभेद छे, एनाथी बहार साधक के साध्य नथी.
अनुभूतिमां द्रव्य – गुण – पर्याय त्रणेय स्वभावजातिरुप
थवाथी एकपणे अनुभवाय छे. स्वभाव – संगथी ने स्वभाव –
रंगथी सम्यक्त्व, शुद्धोपयोग, ज्ञान, आनंद वगेरे बधा
स्वभावभावो खीली जाय छे. थोडीक पण शुद्धता पूर्ण शुद्धताने
प्रसिद्ध करे छे; थोडोक पण चैतन्यरस पूर्ण चैतन्यस्वभावने प्रसिद्ध
करे छे; थोडोक पण वीतरागी आनंद पूर्ण आनंदस्वभावने प्रसिद्ध

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करे छे. स्वभावनो एक अंश तेवा ज पूर्ण स्वभावने प्रसिद्ध करे छे;
केमके ते – ते अंश, अंशीथी अभेद छे. अंशी छे तो अंश छे;
अंशी वगर अंश कोनो
? नानकडुं ज्ञान, ते कांई रागनो अंश नथी,
ते पूर्णज्ञाननो अंश छे, पूर्णज्ञान ज ते रुपे परिणम्युं छे; रागथी
तो ते जुदुं छे. जेवी परिणति थई तेवो आखो स्वभाव जाण्यो.
अनादिथी परसमयरुप थतो हतो ते हवे स्वसमयरुप परिणमवा
लाग्यो. शुद्धतत्त्वनो निश्चय तेनी सन्मुख थयेला शुद्धोपयोगवडे थाय
छे.....ते उपयोग केवळज्ञाननी जातनो छे, – अहा, केवळज्ञाननो
ते नानो भाई छे.
✽ ✽ ✽
अथ श्री देव-शास्त्र-गुरुप्रत्ये भक्तिभावना
सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ६५
अहोहो केवळज्ञानने पामेला
देव! तमे महान सुंदर छो.....तमने
व्यक्त चेतनारुप, सर्वगुण सम्पन्न
‘जाणीने’ हुं तमारी सेवा करुं छुं –
भक्ति करुं छुं – आदर करुं छुं.
मारा चित्तमां तमारा प्रत्ये परम
प्रीति छे. मारुं चित्त आपना गुणमा
ज लाग्युं छे. बाह्यमां पण आपनी महान प्रभावना इच्छुं छुं.
अंतरमां आपनुं ध्यान, वाणीमां गुणवर्णन, देह चेष्टामां विनय –
प्रवर्तन, आपनी आज्ञानो परम उत्साह, जरापण अवज्ञानो
अभाव; आपना शुद्धस्वरुपने हुं मारा अनंतसुखनुं प्रतिदर्शक जाणुं
छुं.....मारुं अनंतसुख जोवा माटे ज हुं रोज रोज आपना दर्शन
करुं छुं. मारां मन – वचन – तन – धन सर्वकार्य आपना

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६६ : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
चरणमां ज अर्पायेला छे.....आ इन्द्रियआदि प्राण तो दुःखनां
साधन छे, ज्यारे आप तो मने परम सुखनां कारण छो, तेथी आप
मने प्राणथी पण अधिक वल्लभ छो. शुद्धस्वरुपनो अभिलाषी
थईने हुं आपनी भक्ति करुं छुं.
प्रभो! अतीन्द्रिय थया होवाथी सूक्ष्मथी पण सूक्ष्म एवा
आपने, स्थूल जीवो इन्द्रियनो विषय बनाववा मागे छे.....तेओ
आपने साचा स्वरुपे क्यांथी देखी शके
? प्रभो! में तो इन्द्रियोने
एककोर मूकीने अतीन्द्रियज्ञानथी आपनुं महान स्वरुप
साक्षात्काररुप करी लीधुं छे. मारा ज्ञानमांथी आप क्यारेय खसतां
नथी. आ बाह्यचक्षु आदि इन्द्रियो नहीं होय तो पण हुं तो
आपनो साक्षात्कार कर्या ज करीश.....अने तेथी मने मारा
शुद्धस्वरुपनो साक्षात्कार रह्या ज करशे. केमके –
जे जाणतो अरहंतने चेतनमयी शुद्धभावथी,
ते जाणतो निजात्मने, सम्यक्त्व ल्ये आनंदथी.
प्रभो! आपनी वाणी – जिनवाणी प्रत्ये पण मने परम
उत्साह आवे छे, केमके ते वहाली माता अमारा शुद्धस्वरुपना
गुणगान सदा अमने संभळाव्या करे छे, ने शुद्धात्मरस पीवडावी

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सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ६७
पीवडावीने अमारुं पोषण करे छे. बे नय वडे अमारा बे कान
पकडीने सदाय ज्ञान – वैराग्यमां अमने जागृत राखे छे. ते
वारंवार स्वरुपभावना करावी – करावीने संसारदुःखथी बीवडावे
छे ने मोहभावोमांथी अमारुं रक्षण करीने अमने मोक्षमार्गमां
सदाय उत्साहित करे छे; मोक्षमार्ग अने मोक्षनुं स्वरुप ते सदाय
अमने बताव्या करे छे.
अहो रत्नत्रयधारी श्री गुरु भगवान! ध्यानमग्न आपनी
आ परम शांत मुद्रा.....वीतरागताथी केवी शोभी रही छे! ते
वचन बोल्या विना पण साक्षात् मोक्षमार्ग उपदेशी रही छे; आपनुं
दर्शन ए साक्षात मोक्षमार्गनुं ज दर्शन छे. आपना अंतरमां
भगवान वसी रह्यो छे, आपना श्रीमुखमां जिनवाणी वसी रही
छे, अने रत्नत्रयस्वरुप तो स्वयं आप पोते ज छो, तेथी देव –
गुरु – शास्त्र – धर्म बधुंय आपमां एकमां ज समाई जाय छे.
आप भवभोगथी सर्वथा उदास थईने निजस्वरुपनी साधनामां ज
तत्पर छो.....वारंवार शुद्धोपयोगी थई – थईने जाणे सिद्धोना
देशमां जई आवो छो.....ने पुन: अमने तेडवा माटे पाछा आवो