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पलटी नांख.....‘‘ऊर्ध्वगमन कर.’’ ऊर्ध्व = सिद्धालय.
छे, ते ज तारुं विश्रामस्थान छे.
छुं’ एम स्वपदने साध्युं. ‘हुं – हुं’ एवी स्वपदनी आस्तिक्यता ते
स्वरुपने साधवानुं साधन छे. ‘हुं – हुं’ एवा ते स्वपदमां शरीर
नथी, वचन नथी, राग के दुःख पण नथी, ते पदमां तो सर्वत्र
आनंद अने चेतना भरी छे. – वारंवार आवा स्वपदने स्वपदमां
ज शोध...प्राप्त छे तेनी तने प्राप्ति थशे, अनुभूति थशे.....त्यां
शक्तिस्वभाव व्यक्तरुप पोते ज परिणमी रह्यो छे.
राजाना तेजथी कायर मनुष्यो संग्राम कर्या वगर ज भागी जाय छे
अने जेम सूर्यना तेज – प्रताप पासे अंधकार पहेलेथी दूर भागी
जाय छे; तेम चैतन्यपरमात्मा ज्यां अपार स्वतेजना प्रकाशथी
स्फूरायमान थाय छे त्यां परभावो तेनी सामे ऊभा नथी रहेता,
लडया वगर ज भागी जाय छे. चैतन्यप्रभुनो प्रताप कोई अनेरो
छे.....अनुपम छे.
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तारे कोने शोधवुं छे ते नक्की कर.....तो ते तारामां ज छे,
छुं एम ज्ञानमां निजभावनी द्रढता ते सम्यक्त्व छे; ते सुगम छे;
तेमां खेद नथी, विषमता नथी. एनाथी ज शिवपद सधाय छे. माटे
स्वरुप – रसनो वारंवार अभ्यास करो. तमारी शक्ति अपार छे.
अरे चिदानंदराज
रह्यो छे – ते आश्चर्य उपजावे छे
देखीने लोटवा लागे छे तेम तुं तारा सुंदर स्वरुपमां लोटवा लाग.
अत्यार सुधी तुं जेनी पाछळ पागलनी जेम लोटयो – भटक्यो –
ए तो जडपुद्गल – अचेतननो ढगलो छे.....एम जाणीने
पस्तावो कर, ने हवे तारा चैतन्यप्रभु पाछळ लागी जा. लोको भले
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बीजानुं तारे शुं काम छे
आनंदस्वरुपमां शांतिथी बेसी रहेवुं – तेमां ज मजा छे.
तथा चेतनने चेतनरुप देखो.
अज्ञानना आवरणथी ढंकायेल छतां आत्मानी अंदर चेतनामां
चैतन्यप्रकाशनो पूंज भर्यो छे, ते कांई अचेतन थई गयो नथी. ‘हुं
चेतन छुं’ एम चेतनपणे पोतानुं संवेदन करे तो पोते पोताथी
जराय गुप्त नथी.
करवा छतां, अरे तेनी पाछळ आखुं जीवन गुमावी देतां पण,
जराय सुख तो तने मळतुं नथी. सुखनो निधान तो तुं
छो.....बापु
पहेलां अमे य तारी जेम सुखने माटे बहार भटकता हता; पछी
संतोए अमारुं सुखनिधान अमने बताव्युं ते पामीने अमे सुखी
थया.....तुं पण सुखी था
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आंख होवा छतां आंधळो था मा....कूवामां पड मा. राजा होवा छतां
तारी हरामजादीथी तुं घरघरनो भिखारी थईने भटके छे
खखडावी पूछ्युं – ‘चांपो घरे छे
तेम पोताने भूलेलो शिष्य श्रीगुरु पासे जईने पूछे छे – प्रभो
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मटयुं.....भटकवानुं मटयुं.....स्वघरमां आवी रह्यो.
जाणनार पोते वर्तमान अपूर्व शुद्धतारुपे परिणमी रह्यो छे. अनादि
अशुद्धतानी धारा तूटी ने अपूर्व शुद्धतानो प्रवाह शरु थयो.
रुपे देखीने ‘अशुद्धआत्माने ज’ अनुभवतो हतो; हवे बंनेने
सम्यग्ज्ञानथी ज्यां भिन्न देख्यां त्यां भिन्न थवानी शरुआत थई,
शुद्ध आत्मा अनुभवमां आवी रह्यो छे; द्रव्य पर्याय विरुद्धता
छोडीने समभावी थवा मांडया छे.
तेवुं परिणमन थाय छे. तेम आत्मामां समजवुं. आ ‘समजण’ ते ज
शुद्धता.
कारणभाव छे. बंनेमां एकता होवाथी शुद्धता छे. कारण –
कार्यपणे द्रव्य – पर्यायनी संधिनो आ सम्यक्स्वभाव सम्यग्द्रष्टि ज
अनुभवे छे – जाणे छे; तेनी शुद्ध परिणतिने आत्मा सिवाय बीजा
बधा साथेनो कारण – कार्य संबंध तूटी गयो छे, तेथी निमित्तरुपे
पण ते कर्म – नोकर्मनो कर्ता नथी. क्रोधादिभावो – के जेमनो
संबंध पर साथे छे – ते क्रोधादिभावने पण ते शुद्धपरिणति करती
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जेम जेम शुद्धतानुं परिणमन वधतुं जाय छे, तेम तेम क्रोधादिनुं
अस्तित्व मटतुं जाय छे. आम बंने भावनी अत्यंत भिन्नता
प्रयोगमां आवी गई छे.
निज – गुणोनी महानता देखीश तो दोष तुरत ज भागी जशे.
ओछा थईने नष्ट थई जशे, गुण कदी एक्केय ओछो नहि थाय.
अज्ञान मटशे, मिथ्यात्व मटशे, दुःख मटशे, अशांति – क्रोधनो
अभाव थशे, शरीर छूटी जशे, पण ज्ञानगुण – सम्यक्त्वगुण –
सुखस्वभाव – शांतिस्वभाव – शरीररहित अमूर्तस्वभाव – ते कदी
नहीं छूटे; – ए बधाय निजस्वभाव छे. –
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गुणनो रस सर्वगुणने रसबोळ करी रह्यो छे : –
सर्वगुणो सत्रुप छे.
सर्वगुणो चेतनरुप छे.
तेना सर्व गुणो आनंदरुप छे.
सर्वगुणो प्रदेशोरुप छे.
शकातो नथी. श्रद्धामां – स्वानुभूतिमां सर्वगुणो एकसाथे
अभेदरसपणे आत्मरसरुपे स्वादमां आवे छे.....सर्वगुणोनो
एक साथे रस आवतो होवाथी ते आत्मरसनो स्वाद महा
सुंदर छे. (तेमां विकल्परुप आकुळता नथी.)
‘सत्ता’ जो सत्तागुणमां ज होय ने बीजा सर्वगुणोमां सत्ता न
चेतना न होय तो बीजा गुणो अचेतन – जड ठरे.
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नीरस ठरे.
होय तो बीजा गुणो आकार वगरना ठरे. माटे एकेक
गुणद्वारा सर्वगुणसम्पन्न आखी वस्तुने ज देखवी.
अनुभवनो महिमा कोण कही शके
स्वाद आवे छे. ‘आवो हुं छुं’ – एवा सम्यक् निश्चयनुं बळ पण
एवुं महान छे के मोक्षने अहीं खेंची लावे छे.
३. अनात्म – संग छोडी, ‘अनुभवी – आत्मानुं’ निमित्त ले,
५. मोक्षनगरीनी वीतरागी सडक संतोए चालीने कंटकरहित करी
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आनाथी बन तुं तृप्त, तुजने सुख अहो
हाथमां आव्युं छे ने तने तेमां रस आव्यो छे.....तो ते
रसनुं घोलन नीकटमां ज तने स्वानुभूतिनुं कारण थशे.
– हा, तेमां एकवार कोईपण आत्मज्ञानीना सीधा
मार्गदर्शननी अपेक्षा तो खरी ज. पण तुं मुंझाईश
मा.....अत्यारेय भरतक्षेत्रमां अनेक आत्मज्ञानी जीवो
विद्यमान छे, ने पंचमकाळना छेडा सुधी अविच्छिन्नपणे
रहेवाना छे. तुं तैयार था.....एटले बधुंय तैयार छे.
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करीने दोडे छे
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आवतो नथी, तो कल्पना करो के उपयोगने ते स्वरुपमां केटली बधी
मजा आवती हशे
कोईए पूछ्युं : तमे शुं करो छो
– तो आ जवाब कोण आपे छे
– तो तमे जीवता छो के मरेला
तेम जीवने भ्रमणा थई गई हती के ‘हुं अचेतन – शरीर छुं.’
कोईए तेने पूछ्युं : तमे कोण छो
– तो आ शरीरने कोण जाणे छे
– तो जाणनारा तमे चेतन छो के अचेतन
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छे ते बधी शक्ति तारी अशुद्धता पासेथी ज मळी छे. तुं तारामां
अशुद्धता न कर तो जड कर्मोमां तो कांई ज शक्ति रहेती नथी.
बिचारा वेरविखेर थई जाय छे.
महिमावंत शुद्धपद पोतानी पासे छे; तो तेनी भावना केम न
भावीए
पछी दिव्यध्वनिनी कोई वात ताराथी गुप्त नहीं रहे. आवो
आतमरस ए ज मोक्षमार्गी संतोनुं चिह्न छे.
आवे, ओळखतां स्वाद आवे. वारंवार कहेवा छतां, हे जीव
उपासक थईने आटलुं पण कार्य नथी करतो. ए अचरजनी वात
छे
तो रत्नत्रयना चैतन्यशणगार शोभे; जड – शणगार एने न
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स्वानुभूतिना विलासथी तारी शोभा छे.
एमांथी नहि मळे.
छे ते जोई ले.....पछी देह साथे भाईबंधीनो विचार पण तने नहि
आवे. विष्टानो खजानो जेमां भर्यो छे एवा देह साथे संबंध
राखवामां तमारुं शुं महंतपणुं छे
तमारी मोटाई छे, तेने तमे ग्रहण करो. तमे दरिद्री नथी – के
बीजा पासे सुखनी भीख मांगो छो
अनंतगुणनी महान प्रजाना तमे राजा छो.....तमने ते सुख
आपशे. माटे ते तमारा स्वाधीन राजपदने भोगवो.
विषयकषायरुप चोरने तमारा राजमां आववा न द्यो. तमारो
राजवैभव केवो अद्भुत छे
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जे झूंपडामां रहेवानुं होय ते झूंपडाने वाळी – चोळी साफसूफ
करवा रोकाय; हजी पूरुं साफ न करे त्यां तो दिवस पूरो थई जाय
ने बीजा झूंपडामां जवानुं थाय. एटले झूंपडुं साफ करवानी महेनत
तो नकामी गई. बीजा झूंपडामां गयो तो ते पण घणा दिवसोना
कचराथी भरेलुं हतुं, तेने साफ करवा रोकायो अने दिवस वीती
गयो.....ए साफसूफ करेलुं झूंपडुं छोडीने भाईसाहेब चाल्या त्रीजा
झूंपडामां; त्यां पण एवा ज हाल...
पाछो पहेला झूंपडामां आव्यो, तो तेमां पण आखा वरसनो कचरो
भेगो थई गयेलो – ते साफ करवा मांडयो.....एम फरीने चकरावो
शरु थयो.
गरमी पण न लागे; पण राजा पोताना राजमहेलने भूलीने झूंपडे –
झूंपडे भटकी रह्यो छे. पोताना राजमहेलमां स्थिर थईने रहे तो तेने
कांई उपाधि नथी. सूना घरमां मफतनो मजुरी करे छे.....
रहेवानुं थाय तेने ज पोतानुं मानीने स्नान – भोजनादि वडे तेने
साचववामां आखी जिंदगी वेडफी नांखे छे, पण आत्मानी शांति
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आयु पूरुं थतां एकाएक तेने छोडीने बीजा शरीरमां तेने जवुं पडे
छे; पाछो ते बीजा शरीरने पोतानुं मानीने तेनी पाछळ जींदगी
गुमावे छे, ने तेने छोडीने त्रीजा शरीरमां चाल्यो जाय छे; पाछला
शरीरोने पोषवानी महेनत तो नकामी गई.....ने शरीर बदलवानो
चकरावो तो चालु ज रह्यो. (अंते थाक्यो
मोक्षपुरीनो महाराजा छो, तारो मोक्षमहेल तो कचराना प्रवेश
वगरनो अत्यंत सुंदर छे. तेमां स्थिर थईने रहे तो तने महान
सुख थशे.....ने तारे कोई उपाधि नही रहे.
– मन ए त्रणे बहारना गढने ओळंगीने ज्ञानद्वारे अंदर प्रवेश
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मूकीने जुओ के महेलमां शुं शुं भर्युं छे
अजवाळां फेलावी रह्यो छे.....शांति तो एवी छे के जराय कोलाहल
नथी. कर्मनो कचरो तो जराय छे ज नहि; अपूर्व समता सर्वत्र
प्रसरी रही छे. मोक्षमहेलमां अनंता सिद्धभगवंतोनी आटली बधी
वस्ती, छतां त्यां क्लेश नथी, दुःख नथी, कोई नानुं – मोटुं नथी,
कोई अछत नथी, परम तृप्ति छे.....बस, मारे मारा आ
मोक्षमहेलमां जल्दी पहोंची जवुं छे. आ संसार साथे हवे मारे
कांई संबंध राखवो नथी. आ चेतन – देह झूंपडुं रहो के न रहो,
अमे कांई तेना रहेवासी नथी.
वळी इंद्रियो बळहीन थशे, झट साधी ले निजआत्मने.
ए.....रे.....संसारमां नहीं रहुं.....नहीं रहुं.....नहीं रहुं रे.
मने लाग्युं छे सिद्धपद सार.....
मुक्ति – महेलमां हुं झट जाउं....झट जाउं.....झट जाउं रे...
अचेतन जड, ते रुपे हुं छुं – एम परपदरुपे पोताने मानी –
मानीने अनंतकाळथी थाक्यो, छतां ते परपदरुपे थयो नहि,
चेतनरुपे ज रह्यो. माटे परपद मुश्केल छे, कोई रीते पोतानुं थतु
नथी. अरे जीव
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रत्नत्रयनी सेवा करे छे. आवा तारा निजवैभवना
अवलोकनमात्रथी तुं परमेश्वर थईश.
एकरसमय छे. बीजा कलुष रसने एमां न भेळवो तो चेतनरस
एकलो अत्यंत मधुर वीतराग स्वादवाळो छे. – आ शुद्धचेतना
थई. कर्मफळ – चेतना अने कर्म – चेतना ते बंने अशुद्ध होवा
छतां तेमां पण चेतना रहेली तो छे ज. ते चेतनानुं चेतनापणुं
ओळखतां रागादि परभावोथी निजभावनुं भेदज्ञान थाय छे, ने
ज्ञाता – द्रष्टास्वभावी जीव अनुभवमां आवे छे. अहो, ए
अनुभवनी शी वात
स्वरुप – हाथी उपर आरुढ थयो. अनुभवमां आवुं वेदन छे पण
विकल्प नथी, भेद नथी, विचार नथी.....आत्मपरिणमन ज तेवुं
वर्ते छे. त्यां ते परिणमतो – आत्मा पोते ज साधक – साध्य
अभेद छे, एनाथी बहार साधक के साध्य नथी.
रंगथी सम्यक्त्व, शुद्धोपयोग, ज्ञान, आनंद वगेरे बधा
स्वभावभावो खीली जाय छे. थोडीक पण शुद्धता पूर्ण शुद्धताने
प्रसिद्ध करे छे; थोडोक पण चैतन्यरस पूर्ण चैतन्यस्वभावने प्रसिद्ध
करे छे; थोडोक पण वीतरागी आनंद पूर्ण आनंदस्वभावने प्रसिद्ध
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केमके ते – ते अंश, अंशीथी अभेद छे. अंशी छे तो अंश छे;
अंशी वगर अंश कोनो
तो ते जुदुं छे. जेवी परिणति थई तेवो आखो स्वभाव जाण्यो.
अनादिथी परसमयरुप थतो हतो ते हवे स्वसमयरुप परिणमवा
लाग्यो. शुद्धतत्त्वनो निश्चय तेनी सन्मुख थयेला शुद्धोपयोगवडे थाय
छे.....ते उपयोग केवळज्ञाननी जातनो छे, – अहा, केवळज्ञाननो
ते नानो भाई छे.
‘जाणीने’ हुं तमारी सेवा करुं छुं –
भक्ति करुं छुं – आदर करुं छुं.
मारा चित्तमां तमारा प्रत्ये परम
प्रीति छे. मारुं चित्त आपना गुणमा
अंतरमां आपनुं ध्यान, वाणीमां गुणवर्णन, देह चेष्टामां विनय –
प्रवर्तन, आपनी आज्ञानो परम उत्साह, जरापण अवज्ञानो
अभाव; आपना शुद्धस्वरुपने हुं मारा अनंतसुखनुं प्रतिदर्शक जाणुं
छुं.....मारुं अनंतसुख जोवा माटे ज हुं रोज रोज आपना दर्शन
करुं छुं. मारां मन – वचन – तन – धन सर्वकार्य आपना
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साधन छे, ज्यारे आप तो मने परम सुखनां कारण छो, तेथी आप
मने प्राणथी पण अधिक वल्लभ छो. शुद्धस्वरुपनो अभिलाषी
थईने हुं आपनी भक्ति करुं छुं.
आपने साचा स्वरुपे क्यांथी देखी शके
साक्षात्काररुप करी लीधुं छे. मारा ज्ञानमांथी आप क्यारेय खसतां
नथी. आ बाह्यचक्षु आदि इन्द्रियो नहीं होय तो पण हुं तो
आपनो साक्षात्कार कर्या ज करीश.....अने तेथी मने मारा
शुद्धस्वरुपनो साक्षात्कार रह्या ज करशे. केमके –
ते जाणतो निजात्मने, सम्यक्त्व ल्ये आनंदथी.
गुणगान सदा अमने संभळाव्या करे छे, ने शुद्धात्मरस पीवडावी
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पकडीने सदाय ज्ञान – वैराग्यमां अमने जागृत राखे छे. ते
वारंवार स्वरुपभावना करावी – करावीने संसारदुःखथी बीवडावे
छे ने मोहभावोमांथी अमारुं रक्षण करीने अमने मोक्षमार्गमां
सदाय उत्साहित करे छे; मोक्षमार्ग अने मोक्षनुं स्वरुप ते सदाय
अमने बताव्या करे छे.
दर्शन ए साक्षात मोक्षमार्गनुं ज दर्शन छे. आपना अंतरमां
भगवान वसी रह्यो छे, आपना श्रीमुखमां जिनवाणी वसी रही
छे, अने रत्नत्रयस्वरुप तो स्वयं आप पोते ज छो, तेथी देव –
गुरु – शास्त्र – धर्म बधुंय आपमां एकमां ज समाई जाय छे.
आप भवभोगथी सर्वथा उदास थईने निजस्वरुपनी साधनामां ज
तत्पर छो.....वारंवार शुद्धोपयोगी थई – थईने जाणे सिद्धोना
देशमां जई आवो छो.....ने पुन: अमने तेडवा माटे पाछा आवो