Samyak Darshan Part 7 8-Gujarati (Devanagari transliteration). Badvan Upyog Aatmane Sadhe Chhe, Raag Nahi; Swanubhav No Kaal Teni Odkhan; Arihantna Darshan Karta; Swa-Parno Vibhag; Sadhak.

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६८ : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
छो! प्रभो, आप मारा आंगणे पधारो ने हुं आपने आहारदान
दईने आपनी साथे साथे मोक्षमार्गमां रहुं – ए मारी
भक्तिभावना छे.
(इति श्री देव – गुरु – शास्त्रप्रत्ये भक्तिभावना)
बळवान उपयोग आत्माने साधे छे, राग नहि.
शुभोपयोग त्रण प्रकारे – १. क्रियारुप; २. भक्तिरुप; ३.
गुणगुणीभेदविचाररुप. ते दरेक प्रकार सातिशयरुप अने
निरतिशयरुप एम बब्बे प्रकारनां होय छे : –
सातिशयरुप शुभ – उपयोगवाळो जीव तो चोक्कस शुद्धताने
साधे छे.
निरतिशय शुभउपयोगी जीव सातिशय थया वगर शुद्धताने
साधी शकतो नथी.
अहीं जैनमार्गानुसारी शुभोपयोगीनी वात लेवी छे;
कुमतअनुयायीने शुभ साथे देव – गुरु – धर्मनी विराधना होवाथी
तेने तो पापनी ज प्रधानता छे.....एनी वात लेता नथी.
(१) शुभक्रियामां वर्ते (२) देवगुरुशास्त्रसंबंधी उत्तमकार्योमां
भक्तिथी भाग ल्ये, अने (३) शास्त्रना अभ्यासथी तत्त्वना विचार
करे – आत्माना विचार करे, पण ते त्रणे प्रकारना शुभ विकल्पना
रसमां ज रोकाई रहे, उपयोगने विकल्पथी अधिक न करे,
विकल्पथी जुदुं चेतनस्वरुप लक्षगत न करे, तो एवा जीवना
शुभोपयोगमां कोई सातिशयता नथी; एवा निरतिशय शुभभाव
अज्ञानी जीवो पूर्वे पण करी चूक्या छे, एमां जीवना हितनो प्रसंग
नथी. सातिशय वगरना आ शुभोपयोगमां ‘उपयोग’ बळवान

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सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ६९
नथी, उपयोग रागमां दबाई रह्यो छे – तेमां एकाकार वर्ती रह्यो
छे तेथी ते पोतानुं कार्य करी शकतो नथी. – हा, एटलुं खरुं के
शुभने लीधे तेने शुभनिमित्तो मळ्या करशे, तेथी भविष्यमां
‘कदाचित्’ आगळ वधीने ते स्वकार्य साधवा तैयार थशे तो ते वखते
तेमां सातिशयपणुं आवी जशे.
‘उपयोगमां’ सातिशयपणुं आव्या वगर ते पोताना
स्वभावने साधी शके नहि. जे उपयोगमां सातिशयपणुं आवे ते
जरुर पोताना स्वभावने साधे ज छे. ए ध्यान राखवुं के ‘शुभ –
उपयोग’ तेमांथी साधकपणुं ‘उपयोग’मां छे, ‘शुभ’मां नहीं.
शुभराग अने उपयोग बंने भिन्न भिन्न (एकबीजाथी विरुद्ध)
कार्य करे छे. तेमां उपयोग ज्यारे राग करतां बळवान होय त्यारे
तेने ‘सातिशय’ कहीए छीए.
हवे ए ज त्रण प्रकार १ – क्रिया, २ – भक्ति, ३ –
विचार, – ते वखते जो उपयोगस्वरुप आत्मा ‘लक्षगत’ वर्ततो
होय, एटले के उपयोगनी अधिकता ने शुभरागथी भिन्नतानुं लक्ष
वर्ततुं होय, तो ते शुभोपयोग सातिशय छे, – सम्यक्त्व साथे ते
संबंधवाळो छे. शुभोपयोगनुं आ सातिशयपणुं बे प्रकारे छे –
(१) सम्यक्त्वनी पूर्वतैयारी वखतनुं; (२) सम्यक्त्व
सहितनुं.
शुभोपयोग = शुभ + उपयोग; तेमां जे ‘शुभ’ राग छे
तेनी तो कांई विशेषता नथी, ते तो राग ज छे; पण त्यां
सातिशयपणुं एटला माटे कह्युं के ते रागनी साथे ते काळे जे
उपयोग छे ते, राग करतां अधिक – बळवान थयो छे. राग करतां
तेनी विशेषता छे – अतिशयता छे, तेथी ते उपयोगनी अपेक्षाए
ते शुभोपयोगमां सातिशयपणुं आवे छे. आवी अतिशयता उच्च

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७० : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
जिज्ञासुने सम्यक्त्वनी पूर्वतैयारी वखते पण होय छे, ने सम्यक्त्व
पछीना शुभोपयोगमां पण ते होय छे.
सम्यक्त्व पहेलांना सातिशय – उपयोगनुं बळ एवुं छे के
रागथी पोते जुदो पडीने, तेनाथी आघो ऊंडे – ऊंडे जईने पोताना
सम्यक्स्वभावने ते पकडी लेशे; ते शुभरागमां अटकी नहीं रहे. तेने
राग करतां उपयोगनुं बळ क्षणे क्षणे वधी रह्युं छे. – आवुं आत्म-
बळ निरतिशय उपयोगमां नथी, ते तो रागथी दबाई गयेल छे.
‘‘उपयोग – गुणथी अधिक तेथी जीवना नहीं भाव को.’’
सर्वज्ञप्रभुए जयारे जोयुं हतुं त्यारे, मारा पुरुषार्थथी ‘‘हुं
सम्यक्त्व पामी आराधक थयो’’ – तेमां सर्वज्ञनुं दिव्यज्ञान, मारुं
सम्यक् परिणमन, तेवो पुरुषार्थ, देशनालब्धि, काळलब्धि,
कर्मअभाव वगेरे निमित्तो, – ए बधाये एकसाथे ज पोतपोतानुं
काम कर्युं छे. – ए बधानुं एकसाथे ज्ञान करवुं जोईए. एकनो
स्वीकार ने बीजानो निषेध – एम नहि, प्रसंग अनुसार मुख्य –
गौण भले थाय. (तत्त्वार्थ राजवार्तिक अ. १ सूत्र ३ नी टीकामां
आ संबंधी प्रकरण छे.)
जिनशास्त्रोनुं सम्यक् अवगाहन ए स्वानुभूतिनुं साधक
छे. मुमुक्षुना हाथमां आवेली जिनवचनरुप तीक्ष्ण धारवाळी
तलवार, पुरुषार्थवडे प्रहार करवामां आवतां मोहशत्रुने छेदी नांखे
छे. माटे हे भव्य
! जिनवचनने एकला शुभरागनुं साधन न
बनाव, एमां तो स्वानुभूतिनुं साधन थवानी ताकात छे.....माटे
स्वानुभूतिनुं ज साधन बनाव. – तो ज तुं जिनवाणीनो साचो
सेवक छो. ए ज रीते गुरुने अने भगवानने पण वीतराग भावमां
ज निमित्त बनाव.

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सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ७१
देव – शास्त्र – गुरुनी साची प्रतीति – ओळखाण अवश्य
आत्मतत्त्वनी प्रतीति करावीने सम्यक्त्व पमाडे छे.
परदयाथी (रागथी) व्यवहार धर्म सधाय छे, स्वधर्म
नहीं. स्वदयाथी (वीतरागताथी) निजधर्म सधाय छे ने परमसुख
पमाय छे.
नय – ज्ञान साधक छे, अनेकान्त – प्रमाण साध्य छे;
माटे नय वडे एकेक धर्मने पकडीने अटकी न जवुं, अनेकान्त
साधवो.
आजे निजस्वरुप साधवुं कठण छे – एम कहीने तेनी
साधना छोडी न दईश. जे न साधे तेने तो त्रणेकाळे कठिन ज छे.
जे साधे तेने अत्यारे पण सुगम छे. आजे ज साचा दिलथी साधवा
लागी जा.....तारे माटे आजे पण सुगम छे.
अरे, वेपार – धंधा विषय – कषाय करवा सुगम, अने
स्वरुपनो अनुभव करवो दुर्गम – एम कहीने, स्वरुपनो अभ्यास
छोडी विषयकषाय करतां तने शरम नथी आवती
? विषय – कषायो
ने घर – धंधानो पापरस छे ते छोडीने चैतन्यनो रसीलो था, –
पछी जोई ले के आत्मानो अनुभव केवो सुगम छे
!! बापु! एमां
रस लीधा वगर अनुभव क्यांथी थशे? आत्मानो रस लगाडी एनी
पाछळ लाग.....तो जरुर तने स्वानुभव थशे. अनेक संतोए नानी
– नानी उंमरमां, प्रतिकूळतानी वच्चे पण एवो अनुभव कर्यो छे.
तुं पण हवे कर. अत्यार सुधी तो भूल्यो पण हवे गुरुप्रतापे
जैनधर्म पामीने जाग. संसारना बीजा कामोमां चतुराई करे छे –
तो आत्माने साधवाना काममां चतुराई कर. नवरो थई – थईने
विकथा कर्या करे छे ते छोडीने दिन – रात होंशे – होंशे आत्मानी
कथा कर....तेना अनुभवनी वार्ता संतो पासे जई – जईने पूछ्या

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७२ : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
कर.....तेनो अपार महिमा कर्या कर. एनी पाछळ लागीश तो तारुं
काम जरुर थशे ने तुं भवदुःखथी छूटीश.
बधा करतां मारुं चैतन्यतत्त्व ज श्रेष्ठ छे के जे मने
सुखरसनो आस्वाद आपे छे. चैतन्यना स्वरसनो आस्वाद ए ज
स्वानुभव. – ए माराथी दूर नथी, बहार नथी, हुं ज ए स्वादरुप
छुं. जेम मीठास्वादरुप साकर पोते छे तेम चैतन्यस्वादरुप हुं पोते
छुं. ‘साकर पोतानो मीठो स्वाद ल्ये छे’ – एम शुं कहेवुं? तेम हुं
मारा चैतन्यरसनो स्वाद लउं छुं – एवो भेद शुं कहेवो
?
चैतन्यरस तो हुं पोते छुं. – एनो जश सर्वे संतोए गायो छे.
अहो जीवो! सदाय एम करो के जेथी आत्मा दुःखी न
थाय. जैनधर्ममां उत्तम दाव (अवसर) पाम्या छो तो हवे सुखनी
कमाणी करी ल्यो. क्रोधने – मानने – मायाने – लोभने, विषयोनी
भावनाने, बधा परभावोने एककोर आघे – आघे मूकी,
चैतन्यप्रभुनी एकदम नजीक आवी, शांत – शांत भावे भेद मटाडीने
एने भावो. एवो भावो के भाव्य – भावक एक थई जाय.
निर्विकल्परसनी आनंदधारा ऊछळशे ने तमे अपूर्व आश्चर्य पामशो.
पोतानो चिंतामणि पोताना घरमां पडयो छे – तेने तो भूली
जाय, अने बीजाना हाथमां रहेला चिंतामणिनी छाया पोताना
हाथमां पडे, ते छाया वडे इच्छा – सिद्धि करवा मागे तो क्यांथी
थाय
? तेम आत्मा पोताना चैतन्यचिंतामणिने तो भूली रह्यो छे,
ने ज्ञाननी छाया परज्ञेयमां पडे छे – त्यां परज्ञेयमां निजभाव
कल्पी, तेना वडे सुखी थवा मागे – ते सुख क्यांथी थाय
? पोताना
चिंतामणिने चिंतवे तो सर्वसिद्धि थाय.
आत्मानो परम प्रेम करीने, अपार अचिंत्य महिमा जाणतां
उपयोग आत्मसन्मुख थयो त्यारे स्वानुभव थयो; तेमां

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सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ७३
निर्विकल्पता छे. आवी दशामां सम्यक्त्व ऊपज्युं.....सम्यग्ज्ञान
पण त्यारे ज प्रगटयुं. अपूर्व महा आनंद थयो. ए अनुभवदशानां
घणां नाम छे. आत्माना स्वादरुप आनंदअनुभव ते मुख्य छे,
सर्वगुणनो मीठो रस ए अनुभवमां समाई जाय छे.
स्वानुभवनो काळ चोथा गुणस्थाने लघुअंतर्मुहूर्त छे, ने
ते लांबा काळना अंतरे थाय छे; तेनाथी पांचमागुणस्थाने
स्वानुभव रहेवानो काळ वधु छे, ने थोडा ज काळना अंतरे थाय छे;
मुनिवरोने स्वानुभव दीर्घ अंतर्मुहूर्त सुधी रहे छे ने बहु थोडा
काळना अंतरे वारंवार थया करे छे.
चोथा गुणस्थाने निर्विकल्प स्वानुभूति फरी फरी केटला
काळना अंतरे थाय – ते बाबत कोई चोक्कस माप आगममां
जोवामां आव्युं नथी; तथा वर्तमानगोचर स्वानुभवी –
साधर्मीजनो साथे आ विषयनी चर्चाथी पण ते काळनुं कोई चोक्कस
प्रमाण निश्चित थई शक्युं नथी. पण आ संबंधमां एक विशेषता
मुमुक्षुओए खास जाणवायोग्य – समजवायोग्य महत्त्वनी छे के –
स्वानुभूतिना निर्विकल्पकाळमां जे सम्यक्त्व थयुं छे, ते सम्यक्त्व,
स्वानुभूति बहार बीजे उपयोग वखते पण सम्यग्द्रष्टिने एवुं ने
एवुं टकी रहे छे; सम्यग्ज्ञानचेतना चालु ज रहे छे; ते सम्यग्दर्शन
अने ज्ञानचेतना तो ते वखतेय विकल्प वगरना, निर्विकल्प छे,
विकल्पथी जुदुं ज तेनुं परिणमन वर्ती रह्युं छे.....अतीन्द्रियसुखनुं
परिणमन पण चाली ज रह्युं छे. श्रद्धा – ज्ञान – सुखना आ बधा
निर्विकल्पचैतन्यभावोने तमे ओळखता शीखो तो ज सम्यग्द्रष्टिने
तमे ओळखी शकशो.....ने त्यारे, सम्यग्द्रष्टिमां विकल्पदशा ने
निर्विकल्पदशा वच्चे तमने जे मोटो भेद देखाय छे ते मटी
जशे.....तमने विकल्प अने ज्ञान जुदा पाडतां आवडी जशे.

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७४ : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
हा, एक ने एक भूमिकाना जीवमां सविकल्पदशा तथा
निर्विकल्पदशा वखते आनंदवेदनमां थोडी हानि – वृद्धि थाय छे,
– पण आनंदनी धारा अने मोक्षनी साधना तो चालु ज रहे छे.
मुनिभगवंतोने निर्विकल्पदशा वारंवार आवे छे ने विशेषकाळ
टके छे. कोई कहे छे के – मुनिओने पोणी – पोणी सेकंडमां छठ्ठुं –
सातमुं गुणस्थान आवे – एटले छठ्ठागुणस्थाननो काळ ०।। सेकंडथी
वधु न ज होय ने सातमानो तेनाथी पण अडधो होय
!’’ – पण
एवी वात षट्खंडागम वगेरे कोई सिद्धांतमां आवती नथी, तेमज
अनुभव – युक्तिथी पण ते सत्य भासती नथी. चोथा – पांचमा
गुणस्थाने पण स्वानुभव करनार जाणे छे के अनुभूतिनो काळ
विशेष छे. – तो मुनिवरोनी स्वानुभूतिनो काळ तो अमाराथी पण
विशेष होय ज छे. जीव अडधी सेकंडथी वधुकाळ छठ्ठागुणस्थानमां
रहे तो तेने मुनिदशा ज न रहे – एम मानवामां अजाणपणे पण
मुनिभगवंतोनो अवर्णवाद थई जाय छे.
निर्विकल्प स्वानुभवरसनी धारा वधतां केवळज्ञान थाय छे.
अनुभव मारग मोक्षका.....अनुभव मोक्षस्वरुप
हे भव्य! तुं एक वात सांभळ! जो के घणीवार तने आ
वात कही छे – वळी एकवार फरी कहीए छीए के तुं हवे
स्वानुभव करी ले. स्वानुभव ते ज स्वसमय छे, ते ज जीवनुं
जीवन छे; स्वानुभवमां ज शांति छे, तेमां ज तृप्ति छे; स्वानुभव
ते ज कल्याण छे, ते ज मोक्षराह छे; जैनधर्म पामवानी सफळता
स्वानुभवथी ज छे. स्वानुभव थतो होय तो मृत्युनेय गणकारीश
नहि, के मान – अपमान जोवा रोकाईश नहीं. स्वानुभव जेवुं
सन्मान बीजुं कोई नथी, एना जेवी मोटाई बीजे क्यांय नथी.

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सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ७५
वळी ए स्वाधीनपणे करातुं सत्कार्य छे, ते अत्यंत सुंदर छे ने तेमां
कोईनी गुलामी करवी पडती नथी. वाह रे वाह
! तुं जो तो खरो....
विचार तो खरो – के जे स्वानुभवनी चर्चामां तने आवी मजा
आवे छे ते स्वानुभवनो साक्षात् आनंद केवो मजानो हशे
!! आवो
स्वानुभव शीध्र कर.... अने स्वानुभव करीने पछी स्वानुभवरुप
रहेवानो उद्यम राख्या कर.
जो के सम्यग्द्रष्टिने सविकल्पदशा वखतेय उपयोग अने
सम्यक्त्व तो निर्मळ ज छे.....तोपण स्वरुपमां उपयोगनी स्थिरता
वडे जेम जेम विशुद्धता वधे तेम तेम सुख वधतुं जाय छे.
मतिश्रुतज्ञाननी स्वसन्मुख धारा वधतां स्वसंवेदनरस वधतो जाय
छे. आ रीते स्वानुभव ते अनंत सुखनुं मूळ छे. सविकल्प अने
निर्विकल्प बंने प्रकारनां चारित्रपरिणाम धर्मी जीवे पोतामां दीठां
छे ने तेनो स्वादभेद जाण्यो छे. तेथी जेम परिणामनी स्थिरता वधे
तेम उद्यम राखे छे.....ने विकल्पपरिणाम रही जाय तोपण पोतानी
सम्यक्त्व – चेतनाने विकल्पथी अलिप्त ज राखीने बेठो होवाथी
ते गभरातो नथी, निज – स्वानुभवमां शंकाशील थतो नथी.
स्वानुभवी – पुरुष गमे त्यां रहे.....स्वानुभवना प्रसादथी
ते पूज्य छे, सुंदर छे – शोभनीक छे. परमेश्वरमां अनंत गुणनी
जे विशेषता छे ते बधी विशेषता स्वानुभवमां सिद्ध थई जाय छे.
स्वानुभूतिमां सिद्ध परमात्मा अने आ आत्मा वच्चे कोई ज
तफावत देखातो नथी.
गुण अनंतके रस सबे अनुभव रसके मांहि;
यातें अनुभव सारिखो, ओर दूसरो नांही.
पंच परमगुरु जे थया, ने थाशे जगमांहि,
ते अनुभव – प्रसादथी, एमां धोखो नांही.

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७६ : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
स्वानुभवथी ऊंचुं पद जगतमां कोई नथी; स्वानुभव जेवुं
उत्तम कार्य बीजुं कोई नथी. स्वानुभवनो महिमा अनंत
छे.....स्वानुभवनो आनंद सिद्धभगवान जेवो छे. अनादिथी
आत्म प्रदेश उपर बेठेला आठकर्मो स्वानुभव थतां भागी जाय छे.
स्वानुभवीने कर्मो पोतानुं फळ आपी शकता नथी; नवां कर्मो
बंधातां नथी. कर्मो कदाचित आवे तो ते स्वानुभवीनी सेवा करवा
ज आवे छे. स्वानुभवीने कोई भयो रह्या नथी के जगत पासेथी
कांई लेवानी वांछा नथी. स्वानुभवीए रत्नत्रयने पोताना स्वजन
बनाव्या छे, तेनो परम प्रेम छे.
हे प्रभुजी! तमे तो अनंत ज्ञानधारक चिदानंद छो ने! शुं
आ जड – मडदा साथे सगाई तमने शोभे छे? ए मडदा साथे
भाईबंधी करीने तेनी साथे तमे अनंतकाळथी रखडया ने दुःखी
थया, हवे एनो संग छोडो ने तमारी प्रभुता संभारो. आ शरीर
जड – मडदुं ते हुं छुं एटले के हुं मडदुं छुं – एम कहेतां तमने
शरम नथी आवती
? बस, हवे शरीर धारण नथी करवा.....चेती
जाव. तमे चेतन छो. तमारा चेतनमां जड नथी. चेतनमां रागद्वेष
नथी. राग – द्वेष – क्रोध थई – थईने मरी गया, छतां तमे कांई
मरी नथी गया, तमे तो आ जीवता रह्या. तो जीवंतभावने –
चेतनभावने देखो – अनुभवो, तमारुं मरण कदी नहीं
थाय.....अमरपदने पामी जशो.
प्रश्न : – अमे अंदर जोवा घणी महेनत करीए छीए पण
चेतनवस्तु देखाती नथी, तो तेमां उपयोग केवी रीते लगावीए?
उत्तर : – भाई, तने चेतनने देखवा माटे उत्कंठा थई ते
माटे शाबाशी! उत्कंठा जागी छे – तो ते जरुर देखाशे.....धीरज

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सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ७७
छोडीश नहीं. जो, तने चेतनवस्तु बतावुं छुं : गई काले कोई
परवस्तुने तें जाणी, आजे ते वस्तु तो चाली गई छतां तेनुं ज्ञान
तारामां रह्युं छे.....ते ज्ञान क्यां रह्युं छे
? जो जोईए! ऊंडे – ऊंडे
तारामां ज ते ज्ञान रह्युं छे ने? ज्यां ए ज्ञान रह्युं छे ते ज तुं पोते
चेतनवस्तु छो. वळी विचारी जो.....गईकाले तें जे क्रोध करेल, तेनुं
अत्यारे तने ‘ज्ञान’ छे – पण तेवो क्रोध ज्ञान साथे अत्यारे थतो
नथी; आ रीते क्रोध अने ज्ञान जुदा छे; एम नक्की करीने,
क्रोधादिथी जुदा चेतनरुप उपयोगभावने शोधी ले. (तारामां जे
वेदाई ज रह्यो छे ते भावने ओळखी ले.) एटले तारी वस्तु तने
जडी जशे – स्वसंवेदनमां आवी जशे.
वळी सांभळ! तुं तारी चेतनवस्तुने शोधवा माटे ज्ञानमां
ज्यारे महेनत करे छे त्यारे ते ज्ञानमां विषय – कषाय वगरनी, नवी
जातनी ज कोई शांति झांखी – झांखी वेदाय छे.....झांखी – झांखी
होवा छतां आवी शांति तें पहेलां कोई वस्तुमां वेदी न हती.....तो
आवी शांतिनुं वेदन क्यांथी आवे छे
? ज्यांथी ए शांतिनुं वेदन
आवे छे – जेमां ए शांति वेदाय छे ने जे ए शांतिने वेदे छे – ते
ज तुं पोते ज छो; तारामां ज ए बधी क्रियाओ थाय छे. तारी वस्तु
महान शांतिथी भरेली छे, एटले तेनो विचार करतां पण ते शांतिनी
सुगंध आववा मांडे छे.....ए शांतिनो दोर पकडीने ऊंडे – ऊंडे
चाल्यो जा तो शांतिनो आखो समुद्र तारामां ऊछळतो तने देखाशे.
थोडी वार लागे तो गभराईने पाछो आवीश मा.....अमे जोयेली
वस्तु तने बतावीए छीए; कोई कल्पित वस्तुनुं वर्णन नथी करता.
उपयोगलक्षणः जीवः’ जीव उपयोगमय छे....
उपयोगस्वरुपमां जीव वसे छे.....जे जीव छे ते पोते ज
उपयोगरुप थईने बधाने जाणे छे. ‘हुं जाणुं छुं’ एवुं जाणपणुं
जीव वगर केम होय
? ‘हुं जाणुं छुं’ एटले ज ‘हुं जीव छुं’ –

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७८ : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
आवा पोताना अस्तित्वनुं चेतनमय स्वसंवेदन थई रह्युं होवा
छतां तेनी केम ना पाडो छो
? ‘हुं मने नथी देखातो’ एम केम कहो
छो? अरे, पोते पोतानो अभाव ते कोण कहे? अस्तित्वने
देखवानी वारंवार टेव पाडो तो बीजा बधाथी जुदुं तमारुं स्पष्ट
अस्तित्व तमने देखाशे.....स्वाधीन अस्तित्व देखतावेंत तमने
महान आनंद थशे.....नवुं ज जीवन प्राप्त थशे.
वाह, वाह! आ रह्योने हुं सत्! हुं मारामां छुं.
कोण कहे छे – ‘हुं नथी’?
मारा स्वरुप – अस्तित्वमां हुं मने वेदी ज रह्यो छुं.
स्व सं वे द्यो हं
T
सत्ना साथिया पुरावो.....
स्वानुभवना वाजां वगडावो.....
आजे अवसर अपूर्व आनंदना.....
T

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सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ७९
मारा चेतन परिणाममां उत्पाद – व्यय – ध्रुवता छे.
उत्पाद – व्यय – ध्रुवतामां सत् छे; सत्मां मारुं सर्वस्व छे;
परिणमन शुद्ध थतां आखो आत्मा शुद्ध थयो. ( – प्रव. गा. ९)
‘‘शुद्धे प्रणमतां शुद्ध, जीव परिणामस्वभावी होईने.’’
आत्मा पोते पोतामां शुद्धपणे परिणमी रह्यो छे.
मारा उत्पाद-व्यय-ध्रुव, द्रव्य-गुण-पर्याय सर्वस्व मारामां छे.
परना उत्पाद-व्यय-ध्रुव, द्रव्य-गुण-पर्याय सर्वस्व परमां छे.
आम स्व-परने अत्यंत भिन्नता छे, कांई ज भेळसेळ नथी.
भिन्नता होवाथी एकला – एकला आत्माने शुद्धता ज छे.
परसंग छोडीने पोताना एकत्वमां रहेनारने कोई अशुद्धता नथी.
आ रीते हुं एक छुं.....शुद्ध छुं.....मारामां ज परिपूर्ण छुं.
– आवी स्वानुभूतिरुपे हुं परिणम्यो छुं...तेथी –
‘छुं एक शुद्ध ममत्वहीन हुं ज्ञानदर्शन – पूर्ण छुं.’
संपूर्ण शुद्धता-ज्ञायकता-वीतरागता-आनंदने पामेल आत्मा
ते देव. तेओ परम मंगलरुप अने उपकारी छे, केमके तेमना
स्वरुपनी ओळखाणथी आत्मानुं साचुं स्वरुप ओळखाय छे, अने
तेओ जे मार्गे – जे भावथी मोक्षपद पाम्या ते मार्ग – ते भाव
तेमणे आपणने उपदेश्या छे. –
अर्हन्त सौ कर्मोतणो करी
नाश ए ज विधि वडे,
उपदेश पण एम ज करी,
निर्वृत्त थया; नमुं तमने.
(प्रवचनसार गा. ८२)
अहो, आवा परमात्मदेवनुं नामस्मरण पण मंगलकारी छे.

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८० : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
भगवान अरहंतदेवना दर्शन करतां एम विचार जागे छे
के अहो! आ सर्वज्ञप्रभु केवा वीतराग छे!! वीतरागताने लीधे केवा
शोभी रह्या छे! तेओ पण पूर्वे संसारदशामां सराग हता पण
पछी स्वरुप – साधन वडे राग मटाडी वीतराग थया. माटे नक्की
थाय छे के आत्मा रागस्वरुप नथी. आवुं मारुं स्वरुप समजतां हुं
पण राग मटाडीने वीतराग थईश. आम राग अने आत्मस्वरुपनुं
भेदज्ञान ते परमात्माना दर्शननुं सत्फळ छे.
चार कल्याणक अने अनंतचतुष्टययुक्त परमात्मा दिव्यध्वनि
वडे साक्षात् मोक्षमार्गनी ज वर्षा करी रह्या छे. मोक्षमार्ग प्रतिपादक
आवा अरिहंत परमात्मा मनुष्यलोकमां सदाय विद्यमान विचरे छे,
मोक्षमार्ग पण जगतमां सदाय छे; ने ते मोक्षमार्गमां चालनारा
मुमुक्षुओ पण सदाय छे. वीरप्रभुनुं शासन पामीने हुं पण
मोक्षमार्गना आ प्रवाहमां जोडाई गयो छुं. प्रवाहधारा अखंड छे
– नवा नवा जीवो तेमां जोडाता जाय छे. तमे पण आवो ने प्रभुना
मार्गमां जोडाव.
– ‘‘अमे तो अज्ञानी छीए!’’
भाई, तमे अज्ञानी नथी, ज्ञानी छो. – सांभळो! तमारामां
ज्ञानशक्ति छे तो अज्ञान थयुं छे. ज्ञानशक्ति ज जो न होत तो
अज्ञानपरिणाम क्यांथी थात
? माटे तमे पोताने अज्ञानमय न
मानो, ज्ञानस्वरुपी जाणो. जेम राग – परिणाम थवा छतां तमे
रागमय नथी पण वीतरागस्वभावी छो, तेथी राग मटीने
वीतरागता थई जाय छे; तेम तमे पोताने ज्ञानस्वभावी जाणो तो
अज्ञान कांई छे ज नहीं. ‘अज्ञान’ ए कोई शक्ति नथी, शक्ति तो
‘ज्ञान’ छे; – तेने संभाळो. ज्ञानमां अज्ञान नथी. जो के ज्ञान
विना अज्ञान नथी परंतु अज्ञान विना तो ज्ञान छे. – माटे

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सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ८१
ज्ञानमां अज्ञान नथी. जेम आत्माना अस्तित्व विना राग नथी पण
राग विना तो आत्मानुं अस्तित्व छे; माटे आत्मा रागस्वरुप नथी.
आत्मा तो रागथी मोटो छे, तेथी राग वगर ते जीवी शके छे.
ज्ञानस्वरुपी तुं न होत तो ‘ज्ञानावरण’ कोने आवरत? अने
ज्ञानावरणकर्म गमे तेवुं मोटुं होवा छतां तारा ज्ञानने पूरुं ढांकी
शकतुं नथी, ज्ञान खुल्लु तो रहे ज छे. माटे ज्ञानावरणकर्मथी ज्ञान
मोटुं छे. ज्ञान पोतानी महान – शक्ति संभाळीने जागशे त्यारे
आवरणने तोडीने एवुं खीलशे के आखा जगतने पोतानुं ज्ञेय
बनावी देशे. आवरण वखतेय ज्ञाननी निजशक्ति चाली गई नथी.
अहा, जेनी ताकातनो एक नानो अंश पण आखा
जगतने जाणी ल्ये तेनी पूरी ताकातनुं शुं कहेवुं? बहारमां लोक –
अलोक अने अंदर पोतामां अनंता गुण – पर्यायोनी शुद्धता – ए
बधाने आनंदसहित एक साथे जाणवानी मारा ज्ञाननी ताकात छे,
– एम ज्ञानशक्तिनुं संवेदन करतां अज्ञान तो अलोप थई गयुं.
अज्ञान अलोप थतां, ज्ञान स्व – पर ज्ञेयने यथार्थ
स्वरुप जाणे छे. प्रत्येक वस्तु द्रव्य – गुण – पर्याय स्वरुप छे. ए
त्रणे जुदा जुदा नथी. द्रव्यमां गुण – पर्यायो रहेलां छे;
गुणपर्यायोमां द्रव्य रहेलुं छे. कथंचित् स्वरुपभेद होवा छतां
वस्तुत: अभेदपणे जे गुण – पर्याय छे ते ज द्रव्य छे, जे द्रव्य छे
ते ज गुण – पर्याय छे. बधुं एक ज सत् छे. द्रव्य वगर गुण –
पर्याय न होय; गुणपर्याय वगर द्रव्य न होय. त्रणेनी परस्पर
सिद्धि छे. गुण – पर्यायो वगर द्रव्यनी सिद्धि न थाय; द्रव्य वगर
गुण – पर्यायनी सिद्धि न थाय. वस्तुना परिणाम प्रत्येक समये
उत्पाद – व्यय – ध्रुवताने धारे छे.....ने एवो प्रवाह त्रिकाळ छे,
एटले उत्पाद – व्यय – ध्रुवता ए सत्वस्तुनुं त्रिकाळीस्वरुप छे.

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८२ : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
स्वज्ञेयना उत्पाद – व्यय – ध्रुव द्रव्य – गुण – पर्याय स्वमां ज छे.
परज्ञेयना उत्पाद – व्यय – ध्रुव द्रव्य – गुण – पर्याय परमां ज छे.
मारो कोई अंश परमां, के परनो कोई अंश मारामां नथी, तेथी
समस्त परज्ञेयो प्रत्ये मने अत्यंत उदासीनतारुप समभाव छे,
मारा स्वज्ञेयरुप ज्ञानतत्त्वमां ज हुं अत्यंत तृप्त संतुष्ट छुं.
आवो स्व – परनो विभाग करतां शुद्धात्मानी उपलब्धि
थाय छे, ने मोक्षमार्ग सधाय छे. वीतराग संते ए वात प्रवचनसार
गाथा १९२ – १९३ मां समजावीने शुद्धात्मतत्त्वनी उपलब्धिनो
उपाय बताव्यो छे : –
ए रीत दर्शन – ज्ञान छे, इन्द्रिय – अतीत महार्थ छे;
मानुं हुं आलंबन रहित जीव शुद्ध निश्चल ध्रुव छे.
लक्ष्मी, शरीर, सुख – दुःख अथवा शत्रु – मित्र जनो अरे
!
जीवने नथी कंई ध्रुव, ध्रुव उपयोग – आत्मक जीव छे.
नवतत्त्वने हुं ज्यारे भूतार्थथी जाणुं छुं एटले के मारा
भूतार्थ स्वभावने हुं अनुभवुं छुं त्यारे मारुं शुद्धतत्त्व अजीव
तत्त्वथी सर्वथा जुदुं अनुभवाय छे; ए ज रीते रागरुप पुण्य –
पाप – आस्रव – बंधतत्त्वो मारा शुद्ध जीवतत्त्वथी जुदा रही जाय
छे, ने चेतनारुप संवर – निर्जरा – मोक्ष तत्त्वो मारा शुद्धतत्त्वमां
अभेद अनुभवाय छे; आ रीते नवतत्त्वोनो विभाग थतां
भूतार्थपणे मारुं एक शुद्ध – जीवतत्त्व ज चैतन्यभावमय प्रकाशे
छे. ए अनुभूति इन्द्रियातीत छे, एमां मने मारा आत्मा सिवाय
बीजा कोईनुं अवलंबन नथी; आवा मारा स्वतत्त्वनो मने कदी
वियोग नथी, तेथी मारे माटे हुं पोते ध्रुव छुं; सर्व स्वभावसंपन्न
हुं महान पदार्थ छुं. शुद्धात्मतत्त्वनी आवी भावनाथी सम्यक्त्वादि
शुद्धतारुप परिणमन थाय छे.

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सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ८३
जे भावना प्रमाणे कार्य थई शके ते ज साची भावना छे.
जे भावना प्रमाणे कार्य न थई शके ते भावना साची नथी. जेमके
(१) शरीर मारुं – एवी जड – चेतननी एकतानी भावना
अज्ञानी जीव करे छे, पण जड – चेतननी एकता कदी थई शकती
नथी; आत्मा कदी जड थई शकतो नथी, जड कदी चेतन थई शकतुं
नथी; माटे ते भावना मिथ्या छे, निरर्थक छे.
(२) ज्ञान अने रागनी भिन्नतानी भावना सत्य अने सार्थक
छे, केमके ते भावना – अनुसार कार्य थाय छे, ज्ञान अने राग
जुदा पडे छे.
(३) आत्मा अने तेनी पर्यायनी भिन्नतानी भावना निष्फळ
छे, केमके आत्मा अने तेनी पर्याय कदी जुदा पडी शकता नथी;
मोक्षमांय आत्मा पर्यायरुप तो रहे ज छे, आत्माने पर्याय वगरनो
कदी करी शकातो नथी.....माटे तेमना भेदनी भावना साची नथी.
मिथ्यात्वरुप आत्माने जीवे चिरकाळथी अनादिथी भाव्यो
छे. सम्यक्त्वरुप आत्माने जीवे पूर्वे कदी भाव्यो नथी; तेथी हवे हुं
सम्यक्त्वरुप परिणमीने तेने ज सदा भावुं छुं.
✽ ✽ ✽
‘शुद्धनय भूतार्थ छे’
आत्माना स्वभावभूत भाव ते भूतार्थ छे.
शुद्धद्रव्य – गुण – पर्यायस्वरुप भूतार्थस्वभाव छे, तेमां भेद
पाडया वगर आखा स्वभावने एकसाथे अनुभवे छे ते भूतार्थना
अनुभवरुप शुद्धनय छे. आ शुद्धनय निर्विकल्प छे, सम्यग्दर्शनरुप
छे. (आ शुद्धनय शुद्धस्वभाव अने अशुद्धताने जुदा पाडे छे; परंतु

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८४ : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
शुद्धवस्तुमां द्रव्य – गुण – पर्यायना भेद नथी पाडतो.)
(पंचाध्यायीमां आ वात आवे छे : अ. १ गा. २४६ –
२४७; तथा कलश – टीका : ९)
द्रव्य – पर्यायना भेदरुप जे द्रव्यार्थिकनय छे ते अनुभव
वखतनो नय नथी, ते तो विकल्पवाळो छे केमके भेद पाडीने एक
एक धर्मने ग्रहण करे छे. (परवस्तुमां पण पर्याय गौण करीने
द्रव्यने देखवुं ते द्रव्यार्थिकनय छे.)
वस्तुना पूरेपूरा शुद्धस्वरुपने ग्रहण करीने ज तेनो साचो
अनुभव थई शके. वस्तुना शुद्धस्वरुपमां पण भागला पाडीने,
एकेक भागना ग्रहण वडे वस्तुनुं साचुं स्वरुप अनुभवमां आवतुं
नथी. आ बाबतमां हाथी अने छ अंधनुं द्रष्टांत प्रसिद्ध छे :
हाथीनी सूंढ – पूंछडी – कान – पग वगेरे एकेक अंगने ज
पकडीने तेने ज आखो हाथी मानी लेनार आंधळाने साचा हाथीनुं
ज्ञान थतुं नथी. बधा अंग सहित आखा हाथीने जे जाणे छे तेने
ज साचा हाथीनुं ज्ञान थाय छे; तेम आत्मामां समजवुं.
भूतार्थस्वभावनो ग्राहक जे शुद्धनय छे ते बधा ज
स्वभावधर्मो सहित वस्तुने एकपणे – शुद्धपणे ग्रहण करे छे, तेना
कोई स्वभावने छोडी देतो नथी. शुद्धनयरुप ज्ञानपर्याय छे ते पण
वस्तुनो स्वभाव छे, तेथी अभेदअनुभूतिमां ‘शुद्धनय भूतार्थ छे’
एम कह्युं. ‘भूतार्थ’मां शुद्धपर्यायनो अभाव नथी. ‘पर्यायना भेदनो’
अभाव छे. द्रव्य – गुण – पर्याय एवा त्रणेय भेद अभूतार्थ छे, ते
भेदवडे परमार्थ जीवनुं ग्रहण थतुं नथी – ए वात ‘अलिंगग्रहण’
ना अर्थोमां (१८ – १९ – २० बोलमां) आचार्यदेवे स्पष्ट
समजावी छे. त्यां आचार्यदेवे आत्मा अने तेनी शुद्धपर्याय वच्चेना
भेदनो विकल्प मटाडवा ‘शुद्धपर्याय ते आत्मा छे’ एम कह्युं छे, पण

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सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ८५
आत्मा शुद्धपर्यायथी जुदो छे – एम नथी कह्युं. – तेमां तो ते काळे
तन्मय छे. द्रव्य – पर्यायना भेद वडे परमार्थ आत्मानुं ग्रहण थतुं
नथी एटले के ते अनुभवमां आवतो नथी.
वस्तुस्वभाव ते निजधर्म छे : ‘
वत्थुसहावो धम्मो।
आत्माना शुद्ध अनंत गुण – पर्यायरुप स्वभाव ते निजधर्म
छे. आवा निजधर्मनो धारक जीव परम शुद्ध छे, ते निश्चय छे.
तारा एक पण स्वधर्मने तुं छोडीश ना.
परना एक पण धर्मने पोताना मानीश मा.
आ रीते स्वधर्मना ग्रहणवडे तुं परमात्मा बनी जईश.
कोईपण परना धर्मनुं ग्रहण करवा जईश तो दुःखी थईश.
निजभावने छोडे नहीं, परभाव कंई पण नव ग्रहे;
जाणे – जुए जे सर्व, ते हुं – एम ज्ञानी चिंतवे.
मारा स्व – आत्मप्रदेशमां अन्य कोईपण वस्तुना
द्रव्य – गुण – पर्याय नथी.
मारा द्रव्य-गुण-पर्यायनो समस्त वैभव मारा स्व-
आत्मप्रदेशमां ज भर्यो छे.
असंख्यप्रदेशी आत्मवस्तुमां द्रव्य-गुण-पर्याय वच्चे
कोई क्षेत्रभेद नथी.
कथंचित् भावभेद एवो छे के – द्रव्य ते एकगुण के पर्याय
नथी, ने एकगुण के पर्याय ते ज द्रव्य नथी. आम छतां वस्तुपणे
एवो अभेदभाव छे के जे द्रव्य छे ते ज गुण – पर्याय छे, ने जे
गुण – पर्याय छे ते ज द्रव्य छे. आवा अभेदभावमां आखो
आत्मा समाय छे; अभेदअनुभूति ते आत्मानुं सर्वस्व छे.

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८६ : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
हे भव्य! तारा गुण – पर्यायोने ज तुं सौथी वहाला कर...
केमके ते तुं ज छो. पोताना उपर तो पोताने प्रेम होय ज. रत्नत्रयने
जे पोताना आत्माथी अभेद भावे छे तेने ज रत्नत्रय-धर्मनुं साचुं
वात्सल्य छे; रत्नत्रयने जे आत्माथी जुदो माने तेने तेनुं साचुं
वात्सल्य नथी एटले तेनी पासे सम्यक्त्वादि गुणो ज नथी.
सा ध क
साधक अंतरात्मा मिश्रभाववाळा होय छे; तेमां एक
सम्यक्त्व – ज्ञानचेतनारुप वीतरागी शुद्धभाव छे; अने ते ज
आत्मानी अवस्थामां ‘बीजा’ रागदि विभाव पण छे. आम
शुद्धभाव अने विभाव बंने भावनी धारा ते आत्मामां एकसाथे
वर्तती होवाथी तेने मिश्रभाववाळो कहीए छीए.
त्यां विशेषता ए छे के तेमां जे सम्यक्त्वादि शुद्धपरिणति छे
ते तो शुद्ध ज छे; सम्यक्त्व – ज्ञानचेतना के सुख – ते कांई
रागवाळां अशुद्ध थई जतां नथी. ते शुद्धभावोनी ज साधकने
प्रधानता छे, ने ते ज तेनुं चिह्न छे. साधकपणुं अने मोक्षमार्ग ते
शुद्धभावनी धारावडे ज सधाय छे. एटले साधक – ज्ञानीनी
भूमिकामां यत्किंचित् रागादि देखो त्यारे पण तेनी रागथी अलिप्त
ज्ञानचेतनाने भूलशो नहि. राग जेने डगावी शकतो नथी एवी ते
अचल छे. जुओ, भरतचक्रीए क्रोधपूर्वक बाहुबली – पोताना
भाईने मारवा चक्र छोडयुं – ते वखतेय ते क्रोध ते धर्मात्माना
सम्यक्त्वने के तेनी ज्ञानचेतनाने डगावी शक्यो नथी, मलिन करी
शक्यो नथी, नष्ट करी शक्यो नथी. क्रोध सामे अडगपणे टकी
रहेवानुं अपार सामर्थ्य ते सम्यक्त्वचेतनामां छे.....ते महान छे.

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सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ८७
क्रोधना सामर्थ्य करतां ज्ञानचेतना घणी ज बळवान छे.....तेने
ओळखतां ज ज्ञानीनुं हृदय ओळखाय छे, ने पोतानेय भेदज्ञान
थाय छे. ‘ – अमने एम थयुं छे.’ (जुओ पानुं : २०३)
चेतनधारा छे ते मोक्षनी साधक छे. जेटली चेतनधारा छे
तेटलुं सुख निरंतर छे; धर्मीने संक्लेश परिणाम वखतेय ते
सुखधारा वर्ती रही छे; ने जेटली कषाय – कर्मधारा छे तेटलुं दुःख
छे; पण मोक्षने साधवानुं ते वखतेय चालु होवाथी ते धर्मीने
दुर्गतिनुं के विशेष व्याकुळतानुं कारण थती नथी. प्रतीतमां –
ज्ञानमां आत्मस्वरुप बराबर आव्युं छे, पण परिणमनमां हजी
पूरुं आव्युं नथी, शुद्धतानुं परिणमन शरु थयुं छे पण हजी पूरुं
नथी थयुं. जुओने, चोथा गुणस्थाने सम्यक्त्व तो क्षायिक थई गयुं
छतां हजी राग तो रह्यो; – एक साथे क्षायिकभाव ने उदयभाव
बंने वर्ते छे. सम्यक्त्वगुण सर्वगुणोमां फेलायेलो छे तेथी तेना
प्रतापे सर्व गुणोमां थोडी थोडी तो शुद्धता थई छे. एकेक गुण
पोतानो स्वाद बधा गुणोने आपे छे. – पण विकारभावने कोई
गुणो साथ आपता नथी, तेने जुदो ज राखे छे; गुणना आधार
विनानो ते निराधार छे, लांबु जीवी शकतो नथी.
सम्यग्द्रष्टिने श्रद्धानी परिणति सम्यक् श्रद्धारुप छे, ज्ञाननी
परिणति ज्ञानचेतनारुप छे; चारित्र – परिणतिमां केटलीक शुद्धि
थई छे, केटलोक विकार पण छे. जेटला अंशे रत्नत्रयनी शुद्धता छे
ते तो मोक्षनी ज साधक छे, तेना वडे कर्मबंधन थतुं नथी. जेटला
अंशे रागादि – अशुद्धता छे तेटलो अपराध छे, ते बंधनुं कारण
थाय छे, ते मोक्षनुं कारण थतुं नथी. – आम बंने धारा
पोतपोतानुं काम करे छे; एकबीजानुं काम करती नथी, ने
एकबीजानुं काम रोकतीय नथी. चोथा गुणस्थाननो राग तेना
सम्यक्त्वने नथी बगाडतो, अने चोथा गुणस्थाननुं सम्यक्त्व त्यांना