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भक्तिभावना छे.
निरतिशयरुप एम बब्बे प्रकारनां होय छे : –
साधे छे.
साधी शकतो नथी.
तेने तो पापनी ज प्रधानता छे.....एनी वात लेता नथी.
करे – आत्माना विचार करे, पण ते त्रणे प्रकारना शुभ विकल्पना
रसमां ज रोकाई रहे, उपयोगने विकल्पथी अधिक न करे,
विकल्पथी जुदुं चेतनस्वरुप लक्षगत न करे, तो एवा जीवना
शुभोपयोगमां कोई सातिशयता नथी; एवा निरतिशय शुभभाव
अज्ञानी जीवो पूर्वे पण करी चूक्या छे, एमां जीवना हितनो प्रसंग
नथी. सातिशय वगरना आ शुभोपयोगमां ‘उपयोग’ बळवान
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छे तेथी ते पोतानुं कार्य करी शकतो नथी. – हा, एटलुं खरुं के
शुभने लीधे तेने शुभनिमित्तो मळ्या करशे, तेथी भविष्यमां
‘कदाचित्’ आगळ वधीने ते स्वकार्य साधवा तैयार थशे तो ते वखते
तेमां सातिशयपणुं आवी जशे.
जरुर पोताना स्वभावने साधे ज छे. ए ध्यान राखवुं के ‘शुभ –
उपयोग’ तेमांथी साधकपणुं ‘उपयोग’मां छे, ‘शुभ’मां नहीं.
शुभराग अने उपयोग बंने भिन्न भिन्न (एकबीजाथी विरुद्ध)
कार्य करे छे. तेमां उपयोग ज्यारे राग करतां बळवान होय त्यारे
तेने ‘सातिशय’ कहीए छीए.
होय, एटले के उपयोगनी अधिकता ने शुभरागथी भिन्नतानुं लक्ष
वर्ततुं होय, तो ते शुभोपयोग सातिशय छे, – सम्यक्त्व साथे ते
संबंधवाळो छे. शुभोपयोगनुं आ सातिशयपणुं बे प्रकारे छे –
सातिशयपणुं एटला माटे कह्युं के ते रागनी साथे ते काळे जे
उपयोग छे ते, राग करतां अधिक – बळवान थयो छे. राग करतां
तेनी विशेषता छे – अतिशयता छे, तेथी ते उपयोगनी अपेक्षाए
ते शुभोपयोगमां सातिशयपणुं आवे छे. आवी अतिशयता उच्च
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पछीना शुभोपयोगमां पण ते होय छे.
सम्यक्स्वभावने ते पकडी लेशे; ते शुभरागमां अटकी नहीं रहे. तेने
राग करतां उपयोगनुं बळ क्षणे क्षणे वधी रह्युं छे. – आवुं आत्म-
बळ निरतिशय उपयोगमां नथी, ते तो रागथी दबाई गयेल छे.
सम्यक् परिणमन, तेवो पुरुषार्थ, देशनालब्धि, काळलब्धि,
कर्मअभाव वगेरे निमित्तो, – ए बधाये एकसाथे ज पोतपोतानुं
काम कर्युं छे. – ए बधानुं एकसाथे ज्ञान करवुं जोईए. एकनो
स्वीकार ने बीजानो निषेध – एम नहि, प्रसंग अनुसार मुख्य –
गौण भले थाय. (तत्त्वार्थ राजवार्तिक अ. १ सूत्र ३ नी टीकामां
आ संबंधी प्रकरण छे.)
तलवार, पुरुषार्थवडे प्रहार करवामां आवतां मोहशत्रुने छेदी नांखे
छे. माटे हे भव्य
स्वानुभूतिनुं ज साधन बनाव. – तो ज तुं जिनवाणीनो साचो
सेवक छो. ए ज रीते गुरुने अने भगवानने पण वीतराग भावमां
ज निमित्त बनाव.
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पमाय छे.
साधवो.
जे साधे तेने अत्यारे पण सुगम छे. आजे ज साचा दिलथी साधवा
लागी जा.....तारे माटे आजे पण सुगम छे.
छोडी विषयकषाय करतां तने शरम नथी आवती
पछी जोई ले के आत्मानो अनुभव केवो सुगम छे
– नानी उंमरमां, प्रतिकूळतानी वच्चे पण एवो अनुभव कर्यो छे.
तुं पण हवे कर. अत्यार सुधी तो भूल्यो पण हवे गुरुप्रतापे
जैनधर्म पामीने जाग. संसारना बीजा कामोमां चतुराई करे छे –
तो आत्माने साधवाना काममां चतुराई कर. नवरो थई – थईने
विकथा कर्या करे छे ते छोडीने दिन – रात होंशे – होंशे आत्मानी
कथा कर....तेना अनुभवनी वार्ता संतो पासे जई – जईने पूछ्या
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काम जरुर थशे ने तुं भवदुःखथी छूटीश.
स्वानुभव. – ए माराथी दूर नथी, बहार नथी, हुं ज ए स्वादरुप
छुं. जेम मीठास्वादरुप साकर पोते छे तेम चैतन्यस्वादरुप हुं पोते
छुं. ‘साकर पोतानो मीठो स्वाद ल्ये छे’ – एम शुं कहेवुं? तेम हुं
मारा चैतन्यरसनो स्वाद लउं छुं – एवो भेद शुं कहेवो
कमाणी करी ल्यो. क्रोधने – मानने – मायाने – लोभने, विषयोनी
भावनाने, बधा परभावोने एककोर आघे – आघे मूकी,
चैतन्यप्रभुनी एकदम नजीक आवी, शांत – शांत भावे भेद मटाडीने
एने भावो. एवो भावो के भाव्य – भावक एक थई जाय.
निर्विकल्परसनी आनंदधारा ऊछळशे ने तमे अपूर्व आश्चर्य पामशो.
हाथमां पडे, ते छाया वडे इच्छा – सिद्धि करवा मागे तो क्यांथी
थाय
कल्पी, तेना वडे सुखी थवा मागे – ते सुख क्यांथी थाय
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पण त्यारे ज प्रगटयुं. अपूर्व महा आनंद थयो. ए अनुभवदशानां
घणां नाम छे. आत्माना स्वादरुप आनंदअनुभव ते मुख्य छे,
सर्वगुणनो मीठो रस ए अनुभवमां समाई जाय छे.
स्वानुभव रहेवानो काळ वधु छे, ने थोडा ज काळना अंतरे थाय छे;
मुनिवरोने स्वानुभव दीर्घ अंतर्मुहूर्त सुधी रहे छे ने बहु थोडा
काळना अंतरे वारंवार थया करे छे.
जोवामां आव्युं नथी; तथा वर्तमानगोचर स्वानुभवी –
साधर्मीजनो साथे आ विषयनी चर्चाथी पण ते काळनुं कोई चोक्कस
प्रमाण निश्चित थई शक्युं नथी. पण आ संबंधमां एक विशेषता
मुमुक्षुओए खास जाणवायोग्य – समजवायोग्य महत्त्वनी छे के –
स्वानुभूतिना निर्विकल्पकाळमां जे सम्यक्त्व थयुं छे, ते सम्यक्त्व,
स्वानुभूति बहार बीजे उपयोग वखते पण सम्यग्द्रष्टिने एवुं ने
एवुं टकी रहे छे; सम्यग्ज्ञानचेतना चालु ज रहे छे; ते सम्यग्दर्शन
अने ज्ञानचेतना तो ते वखतेय विकल्प वगरना, निर्विकल्प छे,
विकल्पथी जुदुं ज तेनुं परिणमन वर्ती रह्युं छे.....अतीन्द्रियसुखनुं
परिणमन पण चाली ज रह्युं छे. श्रद्धा – ज्ञान – सुखना आ बधा
निर्विकल्पचैतन्यभावोने तमे ओळखता शीखो तो ज सम्यग्द्रष्टिने
तमे ओळखी शकशो.....ने त्यारे, सम्यग्द्रष्टिमां विकल्पदशा ने
निर्विकल्पदशा वच्चे तमने जे मोटो भेद देखाय छे ते मटी
जशे.....तमने विकल्प अने ज्ञान जुदा पाडतां आवडी जशे.
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– पण आनंदनी धारा अने मोक्षनी साधना तो चालु ज रहे छे.
सातमुं गुणस्थान आवे – एटले छठ्ठागुणस्थाननो काळ ०।। सेकंडथी
वधु न ज होय ने सातमानो तेनाथी पण अडधो होय
अनुभव – युक्तिथी पण ते सत्य भासती नथी. चोथा – पांचमा
गुणस्थाने पण स्वानुभव करनार जाणे छे के अनुभूतिनो काळ
विशेष छे. – तो मुनिवरोनी स्वानुभूतिनो काळ तो अमाराथी पण
विशेष होय ज छे. जीव अडधी सेकंडथी वधुकाळ छठ्ठागुणस्थानमां
रहे तो तेने मुनिदशा ज न रहे – एम मानवामां अजाणपणे पण
मुनिभगवंतोनो अवर्णवाद थई जाय छे.
स्वानुभव करी ले. स्वानुभव ते ज स्वसमय छे, ते ज जीवनुं
जीवन छे; स्वानुभवमां ज शांति छे, तेमां ज तृप्ति छे; स्वानुभव
ते ज कल्याण छे, ते ज मोक्षराह छे; जैनधर्म पामवानी सफळता
स्वानुभवथी ज छे. स्वानुभव थतो होय तो मृत्युनेय गणकारीश
नहि, के मान – अपमान जोवा रोकाईश नहीं. स्वानुभव जेवुं
सन्मान बीजुं कोई नथी, एना जेवी मोटाई बीजे क्यांय नथी.
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कोईनी गुलामी करवी पडती नथी. वाह रे वाह
आवे छे ते स्वानुभवनो साक्षात् आनंद केवो मजानो हशे
रहेवानो उद्यम राख्या कर.
वडे जेम जेम विशुद्धता वधे तेम तेम सुख वधतुं जाय छे.
मतिश्रुतज्ञाननी स्वसन्मुख धारा वधतां स्वसंवेदनरस वधतो जाय
छे. आ रीते स्वानुभव ते अनंत सुखनुं मूळ छे. सविकल्प अने
निर्विकल्प बंने प्रकारनां चारित्रपरिणाम धर्मी जीवे पोतामां दीठां
छे ने तेनो स्वादभेद जाण्यो छे. तेथी जेम परिणामनी स्थिरता वधे
तेम उद्यम राखे छे.....ने विकल्पपरिणाम रही जाय तोपण पोतानी
सम्यक्त्व – चेतनाने विकल्पथी अलिप्त ज राखीने बेठो होवाथी
ते गभरातो नथी, निज – स्वानुभवमां शंकाशील थतो नथी.
जे विशेषता छे ते बधी विशेषता स्वानुभवमां सिद्ध थई जाय छे.
स्वानुभूतिमां सिद्ध परमात्मा अने आ आत्मा वच्चे कोई ज
तफावत देखातो नथी.
यातें अनुभव सारिखो, ओर दूसरो नांही.
पंच परमगुरु जे थया, ने थाशे जगमांहि,
ते अनुभव – प्रसादथी, एमां धोखो नांही.
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छे.....स्वानुभवनो आनंद सिद्धभगवान जेवो छे. अनादिथी
आत्म प्रदेश उपर बेठेला आठकर्मो स्वानुभव थतां भागी जाय छे.
स्वानुभवीने कर्मो पोतानुं फळ आपी शकता नथी; नवां कर्मो
बंधातां नथी. कर्मो कदाचित आवे तो ते स्वानुभवीनी सेवा करवा
ज आवे छे. स्वानुभवीने कोई भयो रह्या नथी के जगत पासेथी
कांई लेवानी वांछा नथी. स्वानुभवीए रत्नत्रयने पोताना स्वजन
बनाव्या छे, तेनो परम प्रेम छे.
थया, हवे एनो संग छोडो ने तमारी प्रभुता संभारो. आ शरीर
जड – मडदुं ते हुं छुं एटले के हुं मडदुं छुं – एम कहेतां तमने
शरम नथी आवती
नथी. राग – द्वेष – क्रोध थई – थईने मरी गया, छतां तमे कांई
मरी नथी गया, तमे तो आ जीवता रह्या. तो जीवंतभावने –
चेतनभावने देखो – अनुभवो, तमारुं मरण कदी नहीं
थाय.....अमरपदने पामी जशो.
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परवस्तुने तें जाणी, आजे ते वस्तु तो चाली गई छतां तेनुं ज्ञान
तारामां रह्युं छे.....ते ज्ञान क्यां रह्युं छे
अत्यारे तने ‘ज्ञान’ छे – पण तेवो क्रोध ज्ञान साथे अत्यारे थतो
नथी; आ रीते क्रोध अने ज्ञान जुदा छे; एम नक्की करीने,
क्रोधादिथी जुदा चेतनरुप उपयोगभावने शोधी ले. (तारामां जे
वेदाई ज रह्यो छे ते भावने ओळखी ले.) एटले तारी वस्तु तने
जडी जशे – स्वसंवेदनमां आवी जशे.
जातनी ज कोई शांति झांखी – झांखी वेदाय छे.....झांखी – झांखी
होवा छतां आवी शांति तें पहेलां कोई वस्तुमां वेदी न हती.....तो
आवी शांतिनुं वेदन क्यांथी आवे छे
ज तुं पोते ज छो; तारामां ज ए बधी क्रियाओ थाय छे. तारी वस्तु
महान शांतिथी भरेली छे, एटले तेनो विचार करतां पण ते शांतिनी
सुगंध आववा मांडे छे.....ए शांतिनो दोर पकडीने ऊंडे – ऊंडे
चाल्यो जा तो शांतिनो आखो समुद्र तारामां ऊछळतो तने देखाशे.
थोडी वार लागे तो गभराईने पाछो आवीश मा.....अमे जोयेली
वस्तु तने बतावीए छीए; कोई कल्पित वस्तुनुं वर्णन नथी करता.
उपयोगरुप थईने बधाने जाणे छे. ‘हुं जाणुं छुं’ एवुं जाणपणुं
जीव वगर केम होय
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छतां तेनी केम ना पाडो छो
अस्तित्व तमने देखाशे.....स्वाधीन अस्तित्व देखतावेंत तमने
महान आनंद थशे.....नवुं ज जीवन प्राप्त थशे.
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परना उत्पाद-व्यय-ध्रुव, द्रव्य-गुण-पर्याय सर्वस्व परमां छे.
आम स्व-परने अत्यंत भिन्नता छे, कांई ज भेळसेळ नथी.
भिन्नता होवाथी एकला – एकला आत्माने शुद्धता ज छे.
परसंग छोडीने पोताना एकत्वमां रहेनारने कोई अशुद्धता नथी.
आ रीते हुं एक छुं.....शुद्ध छुं.....मारामां ज परिपूर्ण छुं.
स्वरुपनी ओळखाणथी आत्मानुं साचुं स्वरुप ओळखाय छे, अने
तेओ जे मार्गे – जे भावथी मोक्षपद पाम्या ते मार्ग – ते भाव
तेमणे आपणने उपदेश्या छे. –
नाश ए ज विधि वडे,
उपदेश पण एम ज करी,
निर्वृत्त थया; नमुं तमने.
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थाय छे के आत्मा रागस्वरुप नथी. आवुं मारुं स्वरुप समजतां हुं
पण राग मटाडीने वीतराग थईश. आम राग अने आत्मस्वरुपनुं
भेदज्ञान ते परमात्माना दर्शननुं सत्फळ छे.
आवा अरिहंत परमात्मा मनुष्यलोकमां सदाय विद्यमान विचरे छे,
मोक्षमार्ग पण जगतमां सदाय छे; ने ते मोक्षमार्गमां चालनारा
मुमुक्षुओ पण सदाय छे. वीरप्रभुनुं शासन पामीने हुं पण
मोक्षमार्गना आ प्रवाहमां जोडाई गयो छुं. प्रवाहधारा अखंड छे
– नवा नवा जीवो तेमां जोडाता जाय छे. तमे पण आवो ने प्रभुना
मार्गमां जोडाव.
अज्ञानपरिणाम क्यांथी थात
रागमय नथी पण वीतरागस्वभावी छो, तेथी राग मटीने
वीतरागता थई जाय छे; तेम तमे पोताने ज्ञानस्वभावी जाणो तो
अज्ञान कांई छे ज नहीं. ‘अज्ञान’ ए कोई शक्ति नथी, शक्ति तो
‘ज्ञान’ छे; – तेने संभाळो. ज्ञानमां अज्ञान नथी. जो के ज्ञान
विना अज्ञान नथी परंतु अज्ञान विना तो ज्ञान छे. – माटे
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राग विना तो आत्मानुं अस्तित्व छे; माटे आत्मा रागस्वरुप नथी.
आत्मा तो रागथी मोटो छे, तेथी राग वगर ते जीवी शके छे.
शकतुं नथी, ज्ञान खुल्लु तो रहे ज छे. माटे ज्ञानावरणकर्मथी ज्ञान
मोटुं छे. ज्ञान पोतानी महान – शक्ति संभाळीने जागशे त्यारे
आवरणने तोडीने एवुं खीलशे के आखा जगतने पोतानुं ज्ञेय
बनावी देशे. आवरण वखतेय ज्ञाननी निजशक्ति चाली गई नथी.
बधाने आनंदसहित एक साथे जाणवानी मारा ज्ञाननी ताकात छे,
– एम ज्ञानशक्तिनुं संवेदन करतां अज्ञान तो अलोप थई गयुं.
त्रणे जुदा जुदा नथी. द्रव्यमां गुण – पर्यायो रहेलां छे;
गुणपर्यायोमां द्रव्य रहेलुं छे. कथंचित् स्वरुपभेद होवा छतां
वस्तुत: अभेदपणे जे गुण – पर्याय छे ते ज द्रव्य छे, जे द्रव्य छे
ते ज गुण – पर्याय छे. बधुं एक ज सत् छे. द्रव्य वगर गुण –
पर्याय न होय; गुणपर्याय वगर द्रव्य न होय. त्रणेनी परस्पर
सिद्धि छे. गुण – पर्यायो वगर द्रव्यनी सिद्धि न थाय; द्रव्य वगर
गुण – पर्यायनी सिद्धि न थाय. वस्तुना परिणाम प्रत्येक समये
उत्पाद – व्यय – ध्रुवताने धारे छे.....ने एवो प्रवाह त्रिकाळ छे,
एटले उत्पाद – व्यय – ध्रुवता ए सत्वस्तुनुं त्रिकाळीस्वरुप छे.
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परज्ञेयना उत्पाद – व्यय – ध्रुव द्रव्य – गुण – पर्याय परमां ज छे.
मारो कोई अंश परमां, के परनो कोई अंश मारामां नथी, तेथी
समस्त परज्ञेयो प्रत्ये मने अत्यंत उदासीनतारुप समभाव छे,
मारा स्वज्ञेयरुप ज्ञानतत्त्वमां ज हुं अत्यंत तृप्त संतुष्ट छुं.
गाथा १९२ – १९३ मां समजावीने शुद्धात्मतत्त्वनी उपलब्धिनो
उपाय बताव्यो छे : –
मानुं हुं आलंबन रहित जीव शुद्ध निश्चल ध्रुव छे.
लक्ष्मी, शरीर, सुख – दुःख अथवा शत्रु – मित्र जनो अरे
तत्त्वथी सर्वथा जुदुं अनुभवाय छे; ए ज रीते रागरुप पुण्य –
पाप – आस्रव – बंधतत्त्वो मारा शुद्ध जीवतत्त्वथी जुदा रही जाय
छे, ने चेतनारुप संवर – निर्जरा – मोक्ष तत्त्वो मारा शुद्धतत्त्वमां
अभेद अनुभवाय छे; आ रीते नवतत्त्वोनो विभाग थतां
भूतार्थपणे मारुं एक शुद्ध – जीवतत्त्व ज चैतन्यभावमय प्रकाशे
छे. ए अनुभूति इन्द्रियातीत छे, एमां मने मारा आत्मा सिवाय
बीजा कोईनुं अवलंबन नथी; आवा मारा स्वतत्त्वनो मने कदी
वियोग नथी, तेथी मारे माटे हुं पोते ध्रुव छुं; सर्व स्वभावसंपन्न
हुं महान पदार्थ छुं. शुद्धात्मतत्त्वनी आवी भावनाथी सम्यक्त्वादि
शुद्धतारुप परिणमन थाय छे.
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जे भावना प्रमाणे कार्य न थई शके ते भावना साची नथी. जेमके
नथी; आत्मा कदी जड थई शकतो नथी, जड कदी चेतन थई शकतुं
नथी; माटे ते भावना मिथ्या छे, निरर्थक छे.
जुदा पडे छे.
मोक्षमांय आत्मा पर्यायरुप तो रहे ज छे, आत्माने पर्याय वगरनो
कदी करी शकातो नथी.....माटे तेमना भेदनी भावना साची नथी.
सम्यक्त्वरुप परिणमीने तेने ज सदा भावुं छुं.
अनुभवरुप शुद्धनय छे. आ शुद्धनय निर्विकल्प छे, सम्यग्दर्शनरुप
छे. (आ शुद्धनय शुद्धस्वभाव अने अशुद्धताने जुदा पाडे छे; परंतु
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एक धर्मने ग्रहण करे छे. (परवस्तुमां पण पर्याय गौण करीने
द्रव्यने देखवुं ते द्रव्यार्थिकनय छे.)
एकेक भागना ग्रहण वडे वस्तुनुं साचुं स्वरुप अनुभवमां आवतुं
नथी. आ बाबतमां हाथी अने छ अंधनुं द्रष्टांत प्रसिद्ध छे :
हाथीनी सूंढ – पूंछडी – कान – पग वगेरे एकेक अंगने ज
पकडीने तेने ज आखो हाथी मानी लेनार आंधळाने साचा हाथीनुं
ज्ञान थतुं नथी. बधा अंग सहित आखा हाथीने जे जाणे छे तेने
ज साचा हाथीनुं ज्ञान थाय छे; तेम आत्मामां समजवुं.
कोई स्वभावने छोडी देतो नथी. शुद्धनयरुप ज्ञानपर्याय छे ते पण
वस्तुनो स्वभाव छे, तेथी अभेदअनुभूतिमां ‘शुद्धनय भूतार्थ छे’
एम कह्युं. ‘भूतार्थ’मां शुद्धपर्यायनो अभाव नथी. ‘पर्यायना भेदनो’
अभाव छे. द्रव्य – गुण – पर्याय एवा त्रणेय भेद अभूतार्थ छे, ते
भेदवडे परमार्थ जीवनुं ग्रहण थतुं नथी – ए वात ‘अलिंगग्रहण’
ना अर्थोमां (१८ – १९ – २० बोलमां) आचार्यदेवे स्पष्ट
समजावी छे. त्यां आचार्यदेवे आत्मा अने तेनी शुद्धपर्याय वच्चेना
भेदनो विकल्प मटाडवा ‘शुद्धपर्याय ते आत्मा छे’ एम कह्युं छे, पण
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तन्मय छे. द्रव्य – पर्यायना भेद वडे परमार्थ आत्मानुं ग्रहण थतुं
नथी एटले के ते अनुभवमां आवतो नथी.
छे. आवा निजधर्मनो धारक जीव परम शुद्ध छे, ते निश्चय छे.
परना एक पण धर्मने पोताना मानीश मा.
कोईपण परना धर्मनुं ग्रहण करवा जईश तो दुःखी थईश.
जाणे – जुए जे सर्व, ते हुं – एम ज्ञानी चिंतवे.
एवो अभेदभाव छे के जे द्रव्य छे ते ज गुण – पर्याय छे, ने जे
गुण – पर्याय छे ते ज द्रव्य छे. आवा अभेदभावमां आखो
आत्मा समाय छे; अभेदअनुभूति ते आत्मानुं सर्वस्व छे.
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जे पोताना आत्माथी अभेद भावे छे तेने ज रत्नत्रय-धर्मनुं साचुं
वात्सल्य छे; रत्नत्रयने जे आत्माथी जुदो माने तेने तेनुं साचुं
वात्सल्य नथी एटले तेनी पासे सम्यक्त्वादि गुणो ज नथी.
आत्मानी अवस्थामां ‘बीजा’ रागदि विभाव पण छे. आम
शुद्धभाव अने विभाव बंने भावनी धारा ते आत्मामां एकसाथे
वर्तती होवाथी तेने मिश्रभाववाळो कहीए छीए.
रागवाळां अशुद्ध थई जतां नथी. ते शुद्धभावोनी ज साधकने
प्रधानता छे, ने ते ज तेनुं चिह्न छे. साधकपणुं अने मोक्षमार्ग ते
शुद्धभावनी धारावडे ज सधाय छे. एटले साधक – ज्ञानीनी
भूमिकामां यत्किंचित् रागादि देखो त्यारे पण तेनी रागथी अलिप्त
ज्ञानचेतनाने भूलशो नहि. राग जेने डगावी शकतो नथी एवी ते
अचल छे. जुओ, भरतचक्रीए क्रोधपूर्वक बाहुबली – पोताना
भाईने मारवा चक्र छोडयुं – ते वखतेय ते क्रोध ते धर्मात्माना
सम्यक्त्वने के तेनी ज्ञानचेतनाने डगावी शक्यो नथी, मलिन करी
शक्यो नथी, नष्ट करी शक्यो नथी. क्रोध सामे अडगपणे टकी
रहेवानुं अपार सामर्थ्य ते सम्यक्त्वचेतनामां छे.....ते महान छे.
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ओळखतां ज ज्ञानीनुं हृदय ओळखाय छे, ने पोतानेय भेदज्ञान
थाय छे. ‘ – अमने एम थयुं छे.’ (जुओ पानुं : २०३)
सुखधारा वर्ती रही छे; ने जेटली कषाय – कर्मधारा छे तेटलुं दुःख
छे; पण मोक्षने साधवानुं ते वखतेय चालु होवाथी ते धर्मीने
दुर्गतिनुं के विशेष व्याकुळतानुं कारण थती नथी. प्रतीतमां –
ज्ञानमां आत्मस्वरुप बराबर आव्युं छे, पण परिणमनमां हजी
पूरुं आव्युं नथी, शुद्धतानुं परिणमन शरु थयुं छे पण हजी पूरुं
नथी थयुं. जुओने, चोथा गुणस्थाने सम्यक्त्व तो क्षायिक थई गयुं
छतां हजी राग तो रह्यो; – एक साथे क्षायिकभाव ने उदयभाव
बंने वर्ते छे. सम्यक्त्वगुण सर्वगुणोमां फेलायेलो छे तेथी तेना
प्रतापे सर्व गुणोमां थोडी थोडी तो शुद्धता थई छे. एकेक गुण
पोतानो स्वाद बधा गुणोने आपे छे. – पण विकारभावने कोई
गुणो साथ आपता नथी, तेने जुदो ज राखे छे; गुणना आधार
विनानो ते निराधार छे, लांबु जीवी शकतो नथी.
थई छे, केटलोक विकार पण छे. जेटला अंशे रत्नत्रयनी शुद्धता छे
ते तो मोक्षनी ज साधक छे, तेना वडे कर्मबंधन थतुं नथी. जेटला
अंशे रागादि – अशुद्धता छे तेटलो अपराध छे, ते बंधनुं कारण
थाय छे, ते मोक्षनुं कारण थतुं नथी. – आम बंने धारा
पोतपोतानुं काम करे छे; एकबीजानुं काम करती नथी, ने
एकबीजानुं काम रोकतीय नथी. चोथा गुणस्थाननो राग तेना
सम्यक्त्वने नथी बगाडतो, अने चोथा गुणस्थाननुं सम्यक्त्व त्यांना