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साथे रहेवामां विरोध छे, पण बीजा कषायोने अने सम्यक्त्वने
साथे रहेवामां विरोध नथी. – आम मिश्रभावोमां पण बंने
प्रकारना भावोनी भिन्नता जाणो. साधकने आत्मा स्वसंवेदनमां
प्रत्यक्ष थयो छे, ज्ञानचेतना प्रगटी छे; पण संपूर्ण प्रत्यक्ष ज्ञान
वगर परमात्मा थवातुं नथी. बारमागुणस्थाने संपूर्ण ज्ञान वगर
तेने परमात्मा न कह्या, अंतरात्मा कह्या; त्यांसुधी साधकभाव कह्यो;
केवळज्ञान थतां साधक मटीने स्वयं साध्य – परमात्मा थया.
छो. छतां जेओ आपने इन्द्रियनो विषय बनाववा मांगे छे तेओ
खरेखर आपना परमात्मस्वरुपने ओळखता नथी. अरे, शुं एक
सूक्ष्म जडपरमाणु करतांय आप स्थूळ छो के इन्द्रियगम्य बनो
छे के इन्द्रियज्ञाननो विषय थई शकतो नथी, अतीन्द्रियज्ञाननो ज
ते विषय छे; तो पछी अमूर्त ज्ञान – आनंदमय अतीन्द्रिय –
परमात्मा तो इन्द्रियज्ञानना विषय केम थाय
विषय कहो छो
परमात्मानी स्तुति करतां आवडती नथी. परमात्मा – सर्वज्ञने
इन्द्रियना विषय कहेवा ते तेमनी स्तुति नथी अपि तु अवर्णवाद
छे; ते ज्ञानस्वभावी परमात्माने अतीन्द्रियज्ञानथी ग्रहण करवा ते
ज तेमनी परमार्थ स्तुति छे. ए वात कुंदकुंदस्वामीए समयसार
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ज्ञानस्वभावी आत्मानुं स्वसंवेदन ते ज केवळी भगवाननी परमार्थ
स्तुति छे. ते स्तुति रागवडे के इन्द्रियज्ञानवडे थई शकती नथी.
अतीन्द्रियचेतनारुप ने अतीन्द्रिय सुखरुप थयेला भगवान
अर्हंतदेवने विकल्पातीत ज्ञानवडे ओळखतां आत्मानुं परमार्थ
स्वरुप ओळखाय छे ने सम्यग्दर्शन थाय छे.
ते तमने चैतन्यनी प्राप्तिनो उपाय बतावशे.
करावो.
तमे महान जिज्ञासु छो ने पराक्रमी छो तेथी चैतन्यवस्तुनी प्राप्ति
माटे अहीं सुधी आव्या छो; तेथी तमे अमारुं काम जरुर करशो;
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थशे. महाजननी रीत छे के दुःखीने मदद करे; माटे तमे पाणी
लावीने मारी तरस मटाडो.....हुं तमने चिदानंद वस्तु प्रत्यक्ष
बतावीने तेनी प्राप्ति करावीश.
जुओ.....पाणी भर्युं ज छे.
चैतन्यस्वरुप छो, छतां चैतन्यने बहार शोधवा केम नीकळ्या छो
जाणो.
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ज्ञानभाव मटी गयो नथी, ज्ञानसमुद्रमांथी तमे बहार नीकळी गया
नथी. स्वयं पोते ज्ञानस्वरुप छो, ज्ञान पोते पोताने बीजे शोधे ते
आश्चर्य छे. ‘हे जीव
पण तेना उपदेशना पडघा हजी संभळाय छे.....
छे.
हुं ज आनंद छुं, – आनंदस्वरुपमां तन्मय थईने भेटवा
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पदार्थोमां इष्ट – अनिष्टभावना छोडुं छुं; राग – द्वेषरुप समस्त
चिंता मटाडीने, निजानंदी प्रभुए एकने ज ध्यानमां ध्यावी –
चिंतवी – तेमां ज उपयोगने लीन करी, मारा समस्त
द्रव्यगुणपर्यायने आनंदमय करी दउं छुं. – आ मारी स्वसमयरुप
समाधि छे.
एकरसता थई छे के बहारना कोईपण परिषहनी वेदना तेमां घूसी
शकती नथी. आनंदरसना आस्वादमां तृप्त आत्माने बहारनी कोई
अपेक्षा ज रही नथी, – एटले बहारमां इन्द्रपदनी सम्पदा हो
के कोई घोर उपद्रव हो, – बंने तेने तो सरखा ज छे, – पोताथी
बाह्य ज छे. अहा, चित्त तो परमेश्वरमां लीन थयुं छे – त्यां
परमानंदनी शी वात
आनंद थयो छे; द्रव्य – गुण – पर्याय – प्रदेशो बधाय आनंदरसमां
तरबोळ छे. अहा, आत्मसाधनाना पहेला पगलामां ज आवी मजा
छे. पछी तेमां लीनतारुप समाधि थाय त्यारे तो बहारमां दुःखादि
प्रसंगनी वेदनाने पण आत्मा वेदतो नथी, ज्ञान पोताना सहज
सुखना वेदनमां ज मग्न छे. ए रीते आत्मसमाधिवडे ज्ञान – सुखनुं
वेदन वधतां – वधतां, सर्व आवरणने तोडीने आत्मा पोते
परमसुखी परमात्मा थई जशे. – तेने हवे तो थोडीक ज वार छे. –
ते मार्गमां झडपथी चाली रह्या छीए.
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आत्मा’’ एवो गुण – गुणीभेद कांई जडमांथी नथी ऊठयो,
रागमांथी पण नथी ऊठयो, पण ज्यां गुण अने गुणीनुं अस्तित्व
छे एवी एक चैतन्यवस्तुमांथी ते भेद ऊठयो छे; ने ते वस्तुने
अनुभवतां ते बंने भेद तेमां ज समाई जाय छे.
जा.....तो भेदद्वारा तने अभेदनी प्राप्ति थशे, गुणद्वारा वस्तुनी
प्राप्ति थशे. गुणस्वरुप तो वस्तु ज छे, – बीजुं कोई नथी. आ
रीते गुणनो भेद अभेदवस्तुने जाणवामां कारण छे ( – व्यवहार
छे ते परमार्थनो प्रतिपादक छे) : गुण साधन छे, वस्तु साध्य छे.
गुण – गुणीनी एकताद्वारा भावश्रुतरस झरे छे....तेने पी – पीने
आत्मा अमर थाय छे.
रागद्वेषनुं पण उत्थान थई शकतुं नथी, एटले रागद्वेषथी पण
आत्माने जुदो राखे छे; अने ‘ज्यां चेतन त्यां सर्वगुण’ – ज्यां
एक गुण छे त्यां सर्व गुण छे – ए न्याये अनंतगुणसंपन्न
अविकारी आत्मानी स्वानुभूति करावे छे. अहा, जैनधर्मना
व्यवहारमां पण परमार्थ केवो समायेलो छे
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छे; पछी ऊंडे उतरता ‘‘अहं’’ एवा विचार छूटीने अस्मि ‘हुं छुं’
एवो भाव वेदाय छे.....‘हुं दर्शनज्ञानमय छुं, – एवा स्थूळ
भेदभाव त्यां रहेतां नथी; – अत्यंत सूक्ष्म विचार होय छे; पछी
ते सूक्ष्म विचारने पण ओळंगी जईने; विकल्प – विचार वगर,
स्वरुप – सत्तामात्रनो स्वसंवेदनभाव रहे छे, – ते निर्विकल्प
आनंदसमाधि छे. त्यां आत्मा पोताना एकस्वरुपमां ज एकरस
छे, बीजो कोई रस नथी, कोई भेदविचार नथी. स्वरुप आखुं
सत्तामात्र पोते पोतामां परिणमी रह्युं छे. विकल्पो – भेदो बधा
थाकीने बहार अधवच्चे अटकी गया, मन पण थाक्युं, परम
शांतिमय चैतन्य उपयोग एकलो अंदर पोताना उत्पत्तिस्थान सुधी
पहोंचीने तेमां एवो तन्मय थयो के
द्रव्य-पर्याय जराय जुदा अनुभवाता नथी. – आ
परमात्मानो विलास छे.... स्वरुपनी सिद्धि छे.....सर्वे
धर्मात्माओनी अनुभूति छे ने परमात्मानी साक्षी छे.
आनंदरसनो फूवारो ऊछळशे. थाकशो नहि, हताश थाशो
नहि. शंका करशो नहि, एक ज लगनथी चैतन्य –
स्वरुपमां लाग्या रहेजो, दिनरात क्षण – पळ प्रयत्न कया
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आवशे.....ने आनंदनी सिद्धि थशे.....
खोली नांखजो.....ते ज्ञानीनी एक ज द्रष्टि – मीठीमधुरी चैतन्यनी
वात तमारी हताशाने तरत ज खंखेरी नांखशे ने तमारा आत्माने
स्वरुप साधवानी अखंडधारामां जोडी देशे.
जैनशासन अने ज्ञानीजनो तमारी पासे ज छे.
तत्क्षण ‘स्वानुभूतिनो प्रकाश’ करो. (आशीष
ज्ञानस्वादने भूली जाय छे ने अज्ञाननो स्वाद ल्ये छे.....अज्ञाननो
स्वाद एटले मोहनो स्वाद ते दुःख छे.
ज्ञानस्वभावथी हुं पोते पोतामां ज ज्ञानरुपे परिणमी रह्यो छुं; ते
ज्ञाननो स्वाद महा आनंदरुप छे. आवुं ज्ञानवेदन ते सुख छे; तेमां
मोह नथी. एटले जडने के विभावने जाणवा छतां तेमां क्यांय ते
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नथी; पोतानो चैतन्यस्वाद पोतामां ज लीधा करे छे.
जडमां तो कोई स्वाद ज नथी, अथवा जडस्वाद छे.
उपयोग ज हुं छुं.
चेतनअस्तित्व छे. ज्यां ज्यां रागद्वेष देखाय त्यां त्यां पहेलां
चेतनने तुं जोई ले. ते चेतन तने महान देखाशे; पछी महान चेतन
साथे विजातीय रागादिकनो संबंध करतां तने शरम थशे, एटले तुं
ए रागद्वेषनो संबंध तोडी तारा चेतनभावमां ज रहीश. – आ
ज भेदज्ञान छे.
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तुं विद्यमान न हो तो रागादिक केवी रीते थाय
चेतनस्वभावनुं एकलुं अस्तित्व रागादि विकार वगरनुं
अनुभवाशे; पण एकला रागादि, चेतनना अस्तित्व वगर कदी
नहीं अनुभवाय.
पापनो स्वाद केम ल्ये छे
ज छे, छतां तमे तेमां मोहित थई, पोतानुं हित चूकी नरकादिनां
कर्मो केम बांधो छो
सांभळो छो – वांचो छो, छतां मोह केम नथी मूकता
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थतो हतो, पण उपयोग ज्यां मोहाग्निथी छूटो पडयो त्यां शांत
थई गयो, तेमां कोई फदफदाट न रह्यो. – ए ज मारुं असली
शांत स्वरुप छे. – आम वारंवार अत्यंत शांतचित्ते पोताना
स्वरुपनी भावना करवी. त्यां स्वभाव प्रगटे छे ने साचो आनंद
वेदाय छे. – एनो साक्षी आत्मा पोते ज छे.
चेतनपणुं, एकलुं चेतनपणुं, अनंतभावथी भरेलुं चेतनपणुं, द्रव्य
– पर्यायरुप चेतनपणुं – ते ज तुं छो. तुं चैतन्यरसमां चडी जा.
थई स्वानुभूति करी ल्ये छे, ते धन्य छे, मोक्षना साधक छे.
स्वरुपना अनुभव वखते ते पोताना सिद्धसमान आत्मतत्त्वने
स्वसंवेदनरुप करीने प्रत्यक्ष देखे छे. – आवो अनुभव पूज्य छे,
सर्वे संतोए एनी प्रशंसा करी छे; सर्वशास्त्रोमां एनो ज महिमा
भर्यो छे.
आशा सर्वथा मटाडी, तारा चेतनना स्वरसथी तृप्त था. तारा
चेतनरसनो स्वाद ज कोई एवो अपूर्व छे के ते चाखतां परम तृप्ति
ऊपजे छे, – एवी तृप्ति ऊपजे छे के पछी बीजुं कांई रसवाळुं
लागतुं नथी. चैतन्यरस पासे जगत नीरस लागे छे. ए चैतन्यरस
चाखतां ज विषयभावरुप सर्वे व्याधि मटी जाय छे.
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महाजनो जे पंथ पकडी पार थया ते ज अविनाशी – पुरीनो पंथ
तुं पकड. ए महाजनोना मार्गे चालतां तारुं अनंत कल्याण थशे.
आ ज साचो स्व – अर्थ छे, बाकी बधो अनर्थ छे.
तेनुं ग्रहण ते परमार्थ छे.
अन्य अर्थनुं ग्रहण ते अनर्थ छे.
बाह्य विषयो तो उज्जड वेरान छे; त्यां कोई गुणनी वस्ती नथी,
एमां क्यांय आनंद नथी, एनो कोई राजा नथी; ए मोह लूटारानो
जंगली प्रदेश छे, एमां तुं जईश मा. – नहितर तारा गुणनिधान
लूंटाई जशे. चैतन्यनी राजधानीमां रहेजे, ने निश्चितपणे तारा
गुणनिधानने भोगवजे.
तो जात ज जुदी छे. तारो ज्ञानकणियो कषायपूंजथी जुदो रही,
ज्ञानपिंडमां तन्मय रही तने कहे छे ‘हुं ज्ञानमय छुं.’ – माटे
ज्ञानने बीजा स्वरुपे जोवानी भ्रमणा छोड. सुख पण ज्ञानमां ज
छे, बीजे क्यांय नथी. ज्ञानथी बहार बीजे तारुं अस्तित्व ज नथी,
माटे बीजे क्यांय खोजीश नहीं. घणाकाळथी स्वपदने तुं भूल्यो
होवाथी वारंवार कहेवुं पडे छे. हवे स्वपदने संभारी एवो जागी
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होतुं नथी.
– मारा जीवननुं ए कोई साधन नथी.
बीजे क्यांयथी लाववुं नथी; हुं पोते ज सुखपिंड छुं.
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.....त्यां तो एक सिद्ध भगवानने में जोया.....आहा,
‘पंचमकाळमां हालता – चालता सिद्ध...’ अहो, आश्चर्य...आश्चर्य
चैतन्यतत्त्वनी अद्भुतता देखीने मारुं हृदय भक्तिथी नमी पडयुं.
वनमां विचरता ने महा आनंदमां झूलता ए मुनिराजनो वीतराग
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इंद्रियो थंभी गई, विकल्पो शांत थई गया.....अहो, आश्चर्य
अंतरमां प्रवेशतां सर्वे विकल्पो मटीने निर्विकल्प – शांति थशे, तेवी
प्रतीति थई.....अने में ज्ञानद्वारा एमना हृदयमां प्रवेश कर्यो.
जेओ आत्म – आनंदना जोरदार अनुभवमां रत छे. अरे, क्षणे
क्षणे जेओ आश्चर्यकारी आनंदसागरमां डूबकी मारे छे ने सिद्ध
जेवो ज आनंद अनुभवी ल्ये छे; – पछी तेमने सिद्ध केम न
कहेवाय
चैतन्यनी अनुभूति तेमने सतत सुलभ छे, ने बाह्य विषयोनो
परिचय तेमने छूटी गयो छे. रागमात्रने दुश्मन समजीने तेनाथी
तेओ सावधान छे, अने अंतरमां उल्लसती सुखसागरनी छोळ
पीवामां मग्न छे.....धन्य छे – आ मुनिराज
मिलन थतां जाणे सिद्धनुं मिलन थयुं. परमात्मानो साक्षात्कार थयो.
जेम दरियामां डूबताने नानी नौका मळी जाय के रणमां तरस्याने
मीठा पाणीनुं नानकडुं झरणुं देखाय ने हर्षित थाय तेम
पंचमकाळमां नानकडा सिद्ध जेवा आ मुनिराजना दर्शनथी मारुं
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छे. समुद्र जेटली शाहीथी अने पृथ्वी जेटला कागळ पर लखवामां
आवे तो पण जेमना महिमानुं पूरुं वर्णन थतुं नथी, तेनी शुं वात
ध्यानमुद्रा चैतन्यभावनी प्रेरक हती.
तरफ जोयुं अहा
भोगवतो आव्यो छुं; हवे आ भवमां आवा मुनिराज मळ्या तो
तेमना समागमवडे तेमना मार्गे जईने अनादिना दुःखनो अंत करुं
ने सादि अनंतना महान सुखनी प्राप्तिनो प्रयत्न करुं
तेओ केवी रीते आवो आनंद पाम्या
गयो छुं. महाभाग्ये मने आप मळ्या छो. आप खरेखरा सुखी छो
ने सुखनो मार्ग जाणो छो; तो ते सुखनी प्राप्तिनो उपाय कृपा
करीने मने बतावो.’
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आत्माने जाण
सुखनी बुद्धि छोड. अनादिथी स्वपणे मानेल एवा शरीरादि जडमां
राचीने, तेमां रागद्वेष करीने तुं दुःखी थयो, तेमां क्यांय तने सुख
न मळ्युं; हवे तेमां स्वबुद्धि छोडी दे; सुख तेमां नथी, सुख तारामां
पोतामां छे, तारी सामे जो.
छे
कामभोगबंधननी, एटले विषय – कषायनी कलंकिनी कथा
सांभळीने तेनो प्रेम कर्यो, तेनो ज वारंवार परिचय कर्यो; तेथी
तारुं सुख (तारा अंतरमां विद्यमान होवा छतां) तने अनुभवमां
न आव्युं ने तुं दुःखी थयो. पण भाई
आदरपूर्वक प्रेमथी ते सांभळजे, समजजे, ने एवा आत्माने
अनुभवमां लेजे. तारा सर्व दुःख दूर थशे ने तने अपूर्व सुखनुं
वेदन थशे. आत्मा पोते भगवान छे ते अनुभूतिस्वरुप एटले
ज्ञानस्वरुप छे; आवा तारा आत्मानी वात तुं प्रसन्नचित्त
अपूर्वभावे सांभळी, विचारी अने पोताना अनुभवमां लईने
प्रमाण करजे.
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ज्ञानस्वभावी भगवान छो. पामर नथी; चैतन्यनी परमेश्वरताथी
भरेला तने पामरपणुं न शोभे. हे चेतनराजा
परद्रव्यमांथी के रागमांथी तने सुख कदी नहीं मळे. माटे तेमां
आत्मबुद्धि छोड. भाई
नथी, तुं तो शांतरसथी भरेलो छो. तुं क्रोधादि रहित छो, पण
ज्ञानसहित छो. क्रोधादि विभाव छे; ज्ञान तारो स्वभाव छे.
चमत्कारी असर करी रह्यो छे. में पूछ्युं : –
जणातुं, पण ‘हुं ज्ञान छुं ने आ रागादि मारां परज्ञेय छे, ते
ज्ञानथी भिन्न छे’ – एम ते परज्ञेयपणे जणाय छे, ने रागादिथी
जुदुं ज्ञान ज स्वपणे अनुभवाय छे. ए ज्ञानपणे जे अनुभवाय छे
ते पोते ज तुं आत्मा छो. जेम स्वच्छ दर्पणमां कोलसो जणाती
वखते पण दर्पण पोते स्वच्छपणे ज रहे छे. तेम तारा ज्ञानमां
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ज्ञानमां ते तन्मय वर्ते छे. आ रीते ज्ञानस्वरुप आत्माने जाणतां
सम्यक् भेदज्ञान अने सम्यग्दर्शन थाय छे. माटे हे भव्य
एकवार तुं तारा स्वरुपनो स्वाद लईश पछी ज्ञानमां रागादि
जणावा छतां तुं तेना कर्तापणामां नहीं अटक कारण के ते भावोमां
ज्ञानरस नथी – चेतनता नथी, ते भावो चेतना वगरना छे; तेनुं
कर्तापणुं ( – तेमां तन्मयपणुं) ज्ञानधारामां नथी. माटे ज्ञानरसना
ज बनेला एवा तारा अखंड सत्द्रव्यनो विचार कर; तेनो विचार
करी उपयोगने तेमां ज एकाग्र कर.
पण सर्व परभावोथी दूर थईने, अंतरमां मारा परमात्मतत्त्वने
देखवा जई रह्युं हतुं.....अने बीजी ज क्षणे तो हुं मने पोताने
परमात्मस्वरुपे अनुभवी रह्यो हतो. परमात्माना साक्षात्कारनो
कोई महा अपूर्व आनंद अंदर वेदातो हतो. आश्चर्यकारी,
अद्भुतथी पण अद्भुत, ए वचनातीत अनुभूतिना पूरा गाणां
कोण गाई शके
जोरे हुं पण ते मुनिवरोनी साथे – साथे मोक्षपंथमां चालवा
मांडयो. आवी अनुभूतिमांथी बहार आवीने जोयुं त्यां तो ए
निस्पृह मुनिराज गगनमार्गे अन्यत्र विहार करी गया हता ने
मारा हृदयमां एक परमात्मतत्त्व मूकता गया हता.