Samyak Darshan Part 7 8-Gujarati (Devanagari transliteration). Sarvagna No Svikar; He Jiv Jene Tu Sodhe Chhe Te Tuj Chho; Mare Nijanandne Bhetvu Chhe; Abhedmathi Bhed; Bhed Pragat Karnarna Vichar; Jago Chaitanya Prabhu; Parmatmana Panthe; Shree Munibhagvantni Sathe.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 6 of 13

 

Page 88 of 237
PDF/HTML Page 101 of 250
single page version

background image
८८ : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
रागनो नाश नथी करतुं. अनंतानुबंधी कषायने अने सम्यक्त्वने
साथे रहेवामां विरोध छे, पण बीजा कषायोने अने सम्यक्त्वने
साथे रहेवामां विरोध नथी. – आम मिश्रभावोमां पण बंने
प्रकारना भावोनी भिन्नता जाणो. साधकने आत्मा स्वसंवेदनमां
प्रत्यक्ष थयो छे, ज्ञानचेतना प्रगटी छे; पण संपूर्ण प्रत्यक्ष ज्ञान
वगर परमात्मा थवातुं नथी. बारमागुणस्थाने संपूर्ण ज्ञान वगर
तेने परमात्मा न कह्या, अंतरात्मा कह्या; त्यांसुधी साधकभाव कह्यो;
केवळज्ञान थतां साधक मटीने स्वयं साध्य – परमात्मा थया.
ते सर्वज्ञ परमात्माने नमस्कार हो.
c अहो सर्वज्ञस्वभावी केवळीभगवान! आपनो स्वीकार
इन्द्रियज्ञान वडे थई शकतो नथी; आप अतीन्द्रियज्ञानना ज विषय
छो. छतां जेओ आपने इन्द्रियनो विषय बनाववा मांगे छे तेओ
खरेखर आपना परमात्मस्वरुपने ओळखता नथी. अरे, शुं एक
सूक्ष्म जडपरमाणु करतांय आप स्थूळ छो के इन्द्रियगम्य बनो
?
– नहीं, नहीं. अरे, एक छूटो मूर्त – परमाणु पण एवो सूक्ष्म
छे के इन्द्रियज्ञाननो विषय थई शकतो नथी, अतीन्द्रियज्ञाननो ज
ते विषय छे; तो पछी अमूर्त ज्ञान – आनंदमय अतीन्द्रिय –
परमात्मा तो इन्द्रियज्ञानना विषय केम थाय
? अरे, शुं ते चेतन –
परमात्मा जडपरमाणु करतांय स्थूळ छे के तेने इन्द्रियज्ञानना
विषय कहो छो
? अरे, परमात्मानी महानता तमे जाणी नथी,
तमारुं ज्ञान ज अत्यंत स्थूळ इन्द्रियाधीन छे, तेथी तमने
परमात्मानी स्तुति करतां आवडती नथी. परमात्मा – सर्वज्ञने
इन्द्रियना विषय कहेवा ते तेमनी स्तुति नथी अपि तु अवर्णवाद
छे; ते ज्ञानस्वभावी परमात्माने अतीन्द्रियज्ञानथी ग्रहण करवा ते
ज तेमनी परमार्थ स्तुति छे. ए वात कुंदकुंदस्वामीए समयसार

Page 89 of 237
PDF/HTML Page 102 of 250
single page version

background image
सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ८९
गाथा ३१ मां तथा प्रवचनसार गा. ८० मां कही छे, के
ज्ञानस्वभावी आत्मानुं स्वसंवेदन ते ज केवळी भगवाननी परमार्थ
स्तुति छे. ते स्तुति रागवडे के इन्द्रियज्ञानवडे थई शकती नथी.
अतीन्द्रियचेतनारुप ने अतीन्द्रिय सुखरुप थयेला भगवान
अर्हंतदेवने विकल्पातीत ज्ञानवडे ओळखतां आत्मानुं परमार्थ
स्वरुप ओळखाय छे ने सम्यग्दर्शन थाय छे.
हे जिज्ञासु ! जेने तुं शोधे छे ते तुं ज छो
एक जिज्ञासु कोई ज्ञानवान पुरुषने ओळखी तेनी पासे
गयो अने पूछ्युं – अमने शुद्धचेतनवस्तुनी प्राप्ति करावो!
त्यारे ते ज्ञानीए कह्युं – बीजा एक ज्ञानवान छे तेमनी पासे
जाओ, ते तमने बतावशे.
जिज्ञासु त्यां गयो ने प्रार्थना करी : अमने चेतनवस्तुनी
प्राप्ति करावो.
त्यारे ते बीजा ज्ञानीए तेने कह्युं – नजीकमां मीठा पाणीनो
दरियो छे तेमां एक मच्छ रहे छे, ते ज्ञानी छे, तेनी पासे जाओ,
ते तमने चैतन्यनी प्राप्तिनो उपाय बतावशे.
तेमनी सलाह स्वीकारी ते जिज्ञासु दरियाना माछला पासे
गयो, ने कह्युं – अमने अमारा शुद्धचैतन्यनी प्राप्ति – अनुभूति
करावो.
त्यारे मच्छे मीठासथी जवाब आप्यो : – भले, पण अमारुं
एक काम छे ते पहेलां करो, तो पछी तमने चैतन्यवस्तु बतावीए.
तमे महान जिज्ञासु छो ने पराक्रमी छो तेथी चैतन्यवस्तुनी प्राप्ति
माटे अहीं सुधी आव्या छो; तेथी तमे अमारुं काम जरुर करशो;

Page 90 of 237
PDF/HTML Page 103 of 250
single page version

background image
९० : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
मच्छे कह्युं – भाई! हुं घणाय वखतनो तरस्यो छुं, पाणी
वगर तरफडुं छुं, माटे क्यांयथी पाणी लावी आपो; तमारो उपकार
थशे. महाजननी रीत छे के दुःखीने मदद करे; माटे तमे पाणी
लावीने मारी तरस मटाडो.....हुं तमने चिदानंद वस्तु प्रत्यक्ष
बतावीने तेनी प्राप्ति करावीश.
त्यारे ते जिज्ञासु पुरुष आश्चर्यथी कहेवा लाग्यो – अरे, तमे
एम केम कहो छो के पाणी लावो! आ मीठा पाणीना दरियामां तो
तमे सदाय रहो ज छो. जे दरियामां तमे रहो छो ते तरफ
जुओ.....पाणी भर्युं ज छे.
त्यारे मच्छ बोल्यो – हे जिज्ञासु भाई! तमे पण मारी जेम
ज करी रह्या छो. विचार करो – तमे पोते क्यां रहो छो? तमे ज्यां
रहो छो त्यां ज चैतन्यनो दरियो भर्यो छे, तमे पोते ज
चैतन्यस्वरुप छो, छतां चैतन्यने बहार शोधवा केम नीकळ्या छो
?
ने अमारुं कार्य थतां तमारुं कार्य पण चोक्कस करशुं – ए नियमथी
जाणो.
जिज्ञासुए कह्युं – तमारुं काम जरुर करशुं, – माटे बतावो.

Page 91 of 237
PDF/HTML Page 104 of 250
single page version

background image
सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ९१
तमारामां भरेला चैतन्यदरिया तरफ जुओने! सन्देह न करो.....ने
चैतन्यस्वरुपे ज पोताने अनुभवो. अनादिथी भूल्या, छतां तमारो
ज्ञानभाव मटी गयो नथी, ज्ञानसमुद्रमांथी तमे बहार नीकळी गया
नथी. स्वयं पोते ज्ञानस्वरुप छो, ज्ञान पोते पोताने बीजे शोधे ते
आश्चर्य छे. ‘हे जीव
! जेने तुं शोधे छे ते तुं पोते ज छे. – माटे
अंतर्मुख थईने स्वसंवेदन कर.’
जिज्ञासु तो पोतानुं स्वरुप पोतामां देखीने स्तब्ध थई
गयो.....ने माछलुं क्यां अलोप थई गयुं – तेनी खबरे न पडी.
पण तेना उपदेशना पडघा हजी संभळाय छे.....
वस्तु पोते पोताना स्वरुपमां ज छे.....तेने बहार न शोधो.
वस्तु पोताना स्वभावनो त्याग कोई काळे न करे.
वस्तुना स्वरुपनो महिमा अनंत छे, अचिंत्य छे, अमिट छे.
पोतामां उपयोग मूकीने जोवुं – ए ज स्वरुपने पामवानी रीत
छे.
संतोए ने ग्रंथोए मार्ग बताव्यो छे, पण उपयोग पोते अंदर
जाय तो पोतानी वस्तु पोताने प्राप्त थाय.
पोतामां ज वस्तु प्राप्त थतां महान आनंद थाय
– ए ज ‘स्वानुभव – प्रकाश’ छे.
मारे निजानंदने भेटवुं छे –
एवुं भेटवुं छे के ते – रुपे ज हुं थई जउं
हुं ज आनंद छुं, – आनंदस्वरुपमां तन्मय थईने भेटवा

Page 92 of 237
PDF/HTML Page 105 of 250
single page version

background image
९२ : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
हुं मारा आत्मस्वरुपनी एकनी ज परम प्रीति करीने, अन्य समस्त
पदार्थोमां इष्ट – अनिष्टभावना छोडुं छुं; राग – द्वेषरुप समस्त
चिंता मटाडीने, निजानंदी प्रभुए एकने ज ध्यानमां ध्यावी –
चिंतवी – तेमां ज उपयोगने लीन करी, मारा समस्त
द्रव्यगुणपर्यायने आनंदमय करी दउं छुं. – आ मारी स्वसमयरुप
समाधि छे.
मारुं द्रव्य मारी आनंदपरिणतिरुपे द्रवी रह्युं छे.
आत्मद्रव्यने पोताना आनंदमय द्रवणमां (परिणमनमां) एवी
एकरसता थई छे के बहारना कोईपण परिषहनी वेदना तेमां घूसी
शकती नथी. आनंदरसना आस्वादमां तृप्त आत्माने बहारनी कोई
अपेक्षा ज रही नथी, – एटले बहारमां इन्द्रपदनी सम्पदा हो
के कोई घोर उपद्रव हो, – बंने तेने तो सरखा ज छे, – पोताथी
बाह्य ज छे. अहा, चित्त तो परमेश्वरमां लीन थयुं छे – त्यां
परमानंदनी शी वात
!!
पहेलां सम्यग्ज्ञाने आत्मस्वरुपनो उत्कृष्ट महिमा जाणी लीधो
छे; तेमां एटली बधी सुंदरता छे के तेने जाणतां ज्ञानमां महान
आनंद थयो छे; द्रव्य – गुण – पर्याय – प्रदेशो बधाय आनंदरसमां
तरबोळ छे. अहा, आत्मसाधनाना पहेला पगलामां ज आवी मजा
छे. पछी तेमां लीनतारुप समाधि थाय त्यारे तो बहारमां दुःखादि
प्रसंगनी वेदनाने पण आत्मा वेदतो नथी, ज्ञान पोताना सहज
सुखना वेदनमां ज मग्न छे. ए रीते आत्मसमाधिवडे ज्ञान – सुखनुं
वेदन वधतां – वधतां, सर्व आवरणने तोडीने आत्मा पोते
परमसुखी परमात्मा थई जशे. – तेने हवे तो थोडीक ज वार छे. –
ते मार्गमां झडपथी चाली रह्या छीए.

Page 93 of 237
PDF/HTML Page 106 of 250
single page version

background image
सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ९३
अभेदमांथी भेद ऊपज्यो छे...
भेद छे ते अभेदने सिद्ध करे छे
‘‘ज्ञानस्वरुप आत्मा छे’’ एवो जे गुण – गुणी भेद
उपज्यो छे ते अभेदवस्तुना अस्तित्वमांथी ऊठयो छे. ‘‘ज्ञान ते
आत्मा’’ एवो गुण – गुणीभेद कांई जडमांथी नथी ऊठयो,
रागमांथी पण नथी ऊठयो, पण ज्यां गुण अने गुणीनुं अस्तित्व
छे एवी एक चैतन्यवस्तुमांथी ते भेद ऊठयो छे; ने ते वस्तुने
अनुभवतां ते बंने भेद तेमां ज समाई जाय छे.
आत्मा पोते ज्ञानस्वरुप छे तो ‘ज्ञान ते आत्मा’ एवो भेद
ऊठे छे; जो आत्मा ज्ञानस्वरुप न होय तो एवो भेद क्यांथी ऊठे?
माटे ‘भेद’ (गुणभेद) ज्यांथी ऊठे छे ने जेमां समाय छे त्यां
जा.....तो भेदद्वारा तने अभेदनी प्राप्ति थशे, गुणद्वारा वस्तुनी
प्राप्ति थशे. गुणस्वरुप तो वस्तु ज छे, – बीजुं कोई नथी. आ
रीते गुणनो भेद अभेदवस्तुने जाणवामां कारण छे ( – व्यवहार
छे ते परमार्थनो प्रतिपादक छे) : गुण साधन छे, वस्तु साध्य छे.
गुण – गुणीनी एकताद्वारा भावश्रुतरस झरे छे....तेने पी – पीने
आत्मा अमर थाय छे.
गुण – गुणीनो सम्यक् विचार आत्माने अन्य पदार्थोथी
जुदो राखे छे; अन्यना संबंध वगरना एकला गुणगुणीमांथी
रागद्वेषनुं पण उत्थान थई शकतुं नथी, एटले रागद्वेषथी पण
आत्माने जुदो राखे छे; अने ‘ज्यां चेतन त्यां सर्वगुण’ – ज्यां
एक गुण छे त्यां सर्व गुण छे – ए न्याये अनंतगुणसंपन्न
अविकारी आत्मानी स्वानुभूति करावे छे. अहा, जैनधर्मना
व्यवहारमां पण परमार्थ केवो समायेलो छे
!!

Page 94 of 237
PDF/HTML Page 107 of 250
single page version

background image
९४ : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
स्वानुभूतिनी भावनामां पहेलां स्व – परनुं भेदज्ञान करीने,
‘हुं ज्ञान.....हुं आत्मा’ एम पोतामां ‘अहं’ भाव वारंवार घुंटाय
छे; पछी ऊंडे उतरता ‘‘अहं’’ एवा विचार छूटीने अस्मि ‘हुं छुं’
एवो भाव वेदाय छे.....‘हुं दर्शनज्ञानमय छुं, – एवा स्थूळ
भेदभाव त्यां रहेतां नथी; – अत्यंत सूक्ष्म विचार होय छे; पछी
ते सूक्ष्म विचारने पण ओळंगी जईने; विकल्प – विचार वगर,
स्वरुप – सत्तामात्रनो स्वसंवेदनभाव रहे छे, – ते निर्विकल्प
आनंदसमाधि छे. त्यां आत्मा पोताना एकस्वरुपमां ज एकरस
छे, बीजो कोई रस नथी, कोई भेदविचार नथी. स्वरुप आखुं
सत्तामात्र पोते पोतामां परिणमी रह्युं छे. विकल्पो – भेदो बधा
थाकीने बहार अधवच्चे अटकी गया, मन पण थाक्युं, परम
शांतिमय चैतन्य उपयोग एकलो अंदर पोताना उत्पत्तिस्थान सुधी
पहोंचीने तेमां एवो तन्मय थयो के
अद्वैतना आ महान आनंदमां कोई द्वैत देखातुं नथी,
द्रव्य-पर्याय जराय जुदा अनुभवाता नथी. – आ
परमात्मानो विलास छे.... स्वरुपनी सिद्धि छे.....सर्वे
धर्मात्माओनी अनुभूति छे ने परमात्मानी साक्षी छे.
‘अहो, श्री पंचपरमेष्ठी गुरुओनो उपदेश आवुं
निर्विकल्प – चैतन्यअमृत पीवडावे छे. भव्य साधर्मीओ!
आ अमृतने पीओ.....रे.....पीओ! स्व – पर भेदज्ञानना
निरंतर अभ्यासथी तमारा ज चैतन्यपाताळमांथी आवा
आनंदरसनो फूवारो ऊछळशे. थाकशो नहि, हताश थाशो
नहि. शंका करशो नहि, एक ज लगनथी चैतन्य –
स्वरुपमां लाग्या रहेजो, दिनरात क्षण – पळ प्रयत्न कया
र्

Page 95 of 237
PDF/HTML Page 108 of 250
single page version

background image
सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ९५
ज करजो.....महान उल्लास राखजो.....तमने बहु मजा
आवशे.....ने आनंदनी सिद्धि थशे.....
क्यारेक बेचेनी थाय.....मन मूंझाय.....धीरज खूटती लागे
तो वगर विलंबे, वगर संकोचे आत्मज्ञानी पासे जईने हृदय
खोली नांखजो.....ते ज्ञानीनी एक ज द्रष्टि – मीठीमधुरी चैतन्यनी
वात तमारी हताशाने तरत ज खंखेरी नांखशे ने तमारा आत्माने
स्वरुप साधवानी अखंडधारामां जोडी देशे.
साची आत्मलगनी करो.....तो कार्यसिद्धिने वार नथी.
जैनशासन अने ज्ञानीजनो तमारी पासे ज छे.
तत्क्षण ‘स्वानुभूतिनो प्रकाश’ करो. (आशीष
!)
b o b
भेदज्ञान प्रगट करवाना विचार
अनंतस्वभावी आत्मा; तेनुं ज्ञानकार्य मुख्य. ते पोताना
ज्ञानकार्य वडे जडने – विभावने जाणे त्यारे, ‘हुं ज्ञान छुं’ एवा
ज्ञानस्वादने भूली जाय छे ने अज्ञाननो स्वाद ल्ये छे.....अज्ञाननो
स्वाद एटले मोहनो स्वाद ते दुःख छे.
हवे भेदज्ञान आ प्रमाणे करवुं के – हुं जाणनार
ज्ञानस्वभावी छुं, ज्ञान साथे मारा अनंतस्वभावो तन्मय छे. आवा
ज्ञानस्वभावथी हुं पोते पोतामां ज ज्ञानरुपे परिणमी रह्यो छुं; ते
ज्ञाननो स्वाद महा आनंदरुप छे. आवुं ज्ञानवेदन ते सुख छे; तेमां
मोह नथी. एटले जडने के विभावने जाणवा छतां तेमां क्यांय ते
o

Page 96 of 237
PDF/HTML Page 109 of 250
single page version

background image
९६ : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
ज्ञान मोहित थतुं नथी, तेना स्वादने पोताना स्वादमां भेळवतुं
नथी; पोतानो चैतन्यस्वाद पोतामां ज लीधा करे छे.
ज्ञानस्वाद एकदम शांत छे. विभावनो स्वाद व्याकुळ छे.
जडमां तो कोई स्वाद ज नथी, अथवा जडस्वाद छे.
शरीर तो आखेआखुं जडरुप अचेतन प्रत्यक्ष छे, तेमां
चेतनानो प्रवेश कदी थतो नथी.
चेतना कदी जड थती नथी; शरीर कदी चेतनामां प्रवेशतुं
नथी; जुदेजुदा रहे छे.
अनंतवार जड शरीरना संयोग आव्या ने छूटया, छतां
दर्शन – ज्ञानस्वरुप आत्मा तो उपयोगस्वरुप ज रह्या कर्यो छे. ते
उपयोग ज हुं छुं.
आत्मा उपयोगी; शरीर ‘अनुपयोगी.’ बंनेनी भिन्नता
स्पष्ट छे.
रागद्वेषादि विभाव जो के चेतन नथी, पण ज्यां चेतननुं
अस्तित्व होय त्यां ज ते थई शके छे, एटले पहेलां – मुख्य
चेतनअस्तित्व छे. ज्यां ज्यां रागद्वेष देखाय त्यां त्यां पहेलां
चेतनने तुं जोई ले. ते चेतन तने महान देखाशे; पछी महान चेतन
साथे विजातीय रागादिकनो संबंध करतां तने शरम थशे, एटले तुं
ए रागद्वेषनो संबंध तोडी तारा चेतनभावमां ज रहीश. – आ
ज भेदज्ञान छे.
उपयोग अने रागनी भिन्नता जिनवाणीए सर्वत्र देखाडी
छे; संत – धर्मात्माओए पोतामां अनुभवी छे. भाई! तारो
असली चेतनस्वभाव कदी मटी शके नहि. ‘चेतनस्वभावी’ तुं
b

Page 97 of 237
PDF/HTML Page 110 of 250
single page version

background image
सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ९७
विद्यमान छो, तो तेनी विकृतिरुप रागादिक थाय छे. चेतनस्वभावी
तुं विद्यमान न हो तो रागादिक केवी रीते थाय
? माटे एकला
रागादिकने न देख, चेतनस्वभावना अस्तित्वने देख. हजी के
चेतनस्वभावनुं एकलुं अस्तित्व रागादि विकार वगरनुं
अनुभवाशे; पण एकला रागादि, चेतनना अस्तित्व वगर कदी
नहीं अनुभवाय.
रागादि वगरनुं तारुं चेतनत्व घणुं ज सुंदर छे, – मोक्षनो
स्वाद तेमां भर्यो छे. ए स्वाद छोडीने तुं नरकादिना कारणरुप
पापनो स्वाद केम ल्ये छे
? तमे जाणो छो के आ शरीर – स्त्री –
धन – मकान ए कोई तमारा थईने रहेवाना नथी, अत्यारथी जुदा
ज छे, छतां तमे तेमां मोहित थई, पोतानुं हित चूकी नरकादिनां
कर्मो केम बांधो छो
? ने वळी पाछा तेमां सुख केम मानो छो?
अरेरे, संतो तमने वारंवार शिखामण आपे छे, तमे पण ग्रंथने
सांभळो छो – वांचो छो, छतां मोह केम नथी मूकता
? हजी क्यां
सुधी संसारमां भटकवुं छे?
जागो....जागो.....चैतन्य
प्रभु! झट जागो! वारंवार
आवा हितनी शिखामण
देनारा मळवा दुर्लभ छे....
अवसर पाम्या छो तो
तेनो लाभ लई ल्यो.

Page 98 of 237
PDF/HTML Page 111 of 250
single page version

background image
९८ : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
मारो उपयोग सदा मारामां छे, तेनो मने कदी वियोग नथी.
क्रोधादि विभाव ए खरेखर कोई वस्तु नथी. मोहाग्निथी फदफदाट
थतो हतो, पण उपयोग ज्यां मोहाग्निथी छूटो पडयो त्यां शांत
थई गयो, तेमां कोई फदफदाट न रह्यो. – ए ज मारुं असली
शांत स्वरुप छे. – आम वारंवार अत्यंत शांतचित्ते पोताना
स्वरुपनी भावना करवी. त्यां स्वभाव प्रगटे छे ने साचो आनंद
वेदाय छे. – एनो साक्षी आत्मा पोते ज छे.
हे जीव! तारो एक्केय भाव एवो नथी के जेमां तारुं
चेतनपणुं रहेलुं न होय. चेतनपणुं सर्वत्र व्याप्त छे.....ते आखुं
चेतनपणुं, एकलुं चेतनपणुं, अनंतभावथी भरेलुं चेतनपणुं, द्रव्य
– पर्यायरुप चेतनपणुं – ते ज तुं छो. तुं चैतन्यरसमां चडी जा.
आ काम अत्यारे ताराथी थाय तेवुं छे, तेथी ज तने कहीए
छीए. परिग्रहवान सम्यग्द्रष्टि पण क्यारेक क्यारेक शुद्धोपयोगी
थई स्वानुभूति करी ल्ये छे, ते धन्य छे, मोक्षना साधक छे.
स्वरुपना अनुभव वखते ते पोताना सिद्धसमान आत्मतत्त्वने
स्वसंवेदनरुप करीने प्रत्यक्ष देखे छे. – आवो अनुभव पूज्य छे,
सर्वे संतोए एनी प्रशंसा करी छे; सर्वशास्त्रोमां एनो ज महिमा
भर्यो छे.
हे भव्य मुमुक्षु! तुं प्रतीत कर.....अमे कहीए छीए तेम
करतां तारुं हित ज थशे. बधुं कहेवानुं तात्पर्य ए छे के परनी
आशा सर्वथा मटाडी, तारा चेतनना स्वरसथी तृप्त था. तारा
चेतनरसनो स्वाद ज कोई एवो अपूर्व छे के ते चाखतां परम तृप्ति
ऊपजे छे, – एवी तृप्ति ऊपजे छे के पछी बीजुं कांई रसवाळुं
लागतुं नथी. चैतन्यरस पासे जगत नीरस लागे छे. ए चैतन्यरस
चाखतां ज विषयभावरुप सर्वे व्याधि मटी जाय छे.

Page 99 of 237
PDF/HTML Page 112 of 250
single page version

background image
सम्यग्दर्शन )
( स्वभावरसघोलन : ९९
बधाय पंच परमगुरुओ ने संत – धर्मात्मा – ज्ञानीजनो
निजस्वरुपनो अनुभव करी करीने भवथी पार थया छे. ए
महाजनो जे पंथ पकडी पार थया ते ज अविनाशी – पुरीनो पंथ
तुं पकड. ए महाजनोना मार्गे चालतां तारुं अनंत कल्याण थशे.
आ ज साचो स्व – अर्थ छे, बाकी बधो अनर्थ छे.
अने ते ‘अर्थ’ केम कहेवाय – के जेना ग्रहणथी ‘अनर्थ’
थाय? ‘अर्थ’ तो ते साचो के जेना ग्रहणथी ‘परमार्थ’ सधाय.
आत्मा ज उत्तम अर्थ छे.
तेनुं ग्रहण ते परमार्थ छे.
अन्य अर्थनुं ग्रहण ते अनर्थ छे.
भाई! तारुं चैतन्यतत्त्व कांई उज्जड नथी, अनंतगुणोनी
उत्तम वस्ती त्यां वसेली छे.....चेतनराजानी त्यां राजधानी छे.
बाह्य विषयो तो उज्जड वेरान छे; त्यां कोई गुणनी वस्ती नथी,
एमां क्यांय आनंद नथी, एनो कोई राजा नथी; ए मोह लूटारानो
जंगली प्रदेश छे, एमां तुं जईश मा. – नहितर तारा गुणनिधान
लूंटाई जशे. चैतन्यनी राजधानीमां रहेजे, ने निश्चितपणे तारा
गुणनिधानने भोगवजे.
तारो एक ज्ञानकणियो पण तारा आखा ज्ञानस्वभावने
जाहेर करे छे. तारो ज्ञानकणियो रागने जाहेर नथी करतो, – तेनी
तो जात ज जुदी छे. तारो ज्ञानकणियो कषायपूंजथी जुदो रही,
ज्ञानपिंडमां तन्मय रही तने कहे छे ‘हुं ज्ञानमय छुं.’ – माटे
ज्ञानने बीजा स्वरुपे जोवानी भ्रमणा छोड. सुख पण ज्ञानमां ज
छे, बीजे क्यांय नथी. ज्ञानथी बहार बीजे तारुं अस्तित्व ज नथी,
माटे बीजे क्यांय खोजीश नहीं. घणाकाळथी स्वपदने तुं भूल्यो
होवाथी वारंवार कहेवुं पडे छे. हवे स्वपदने संभारी एवो जागी

Page 100 of 237
PDF/HTML Page 113 of 250
single page version

background image
१०० : स्वभावरसघोलन )
( सम्यग्दर्शन
जा के फरीने कहेवुं न पडे. बस! आ छेल्लुं एक ज वार कहेवाथी
तुं जागी जा. तारा चैतन्यनुं अमृत पीने अमर थई जा.
आवुं मनुष्यजीवन पाम्या छो, आवो जैनउपदेश मळ्यो
छे, आवी आत्महितनी भावना जागी छे ने भेदज्ञानना
तत्त्वविचार पण करो छो, – तो हवे स्वानुभूति करतां शी
वार? बधा साधन तैयार छे, हवे वार न लगाडो. आजे ज
स्वानुभूतिथी आत्माने प्रकाशित करो.
धन्य छे श्रीगुरु – के जेमणे आवी स्वानुभूतिनी रीत
बतावी. शाबाशी छे ते शिष्यने – के जेणे आत्मार्थी
थईने स्वानुभवना प्रकाशवडे आत्माने
आनंदथी शोभाव्यो ने भवथी पार कर्यो.
l जय स्वानुभव – प्रकाश l
स्वभावरसना घोलनथी भरपूर, आत्मसाक्षीपूर्वक
‘स्वानुभवप्रेरक आ स्वानुभव – प्रसाद’
शास्त्ररचना पू. श्री कानजीस्वामीनी विद्यमानतामां
थई : सोनगढ वीर संवत २५०३ माह सुद
तेरस. वर्द्धमानदेवप्रकाशित जैनशासन जयवंत छे.
– ब्र. हरिलाल जैन

Page 101 of 237
PDF/HTML Page 114 of 250
single page version

background image
सम्यग्दर्शन )
( परमात्माना पंथे : १०१
परमात्माना पंथे.....
आत्महित माटे मुमुक्षु जीवनो निरधार
‘‘हुं जीव छुं’’ तेथी मारामां ज सुख भर्युं छे; केमके सुख त्यां
ज होय छे के ज्यां जीव होय. जीव सिवाय बीजा कोईमां सुख
होतुं नथी.
तो हवे सुखी थवा माटे मारे शुं करवुं जोईए? –
(१) माराथी अन्य धन – स्त्री वगेरेमां सुख छे ज नहीं, तो
तेमनाथी मारे शुं प्रयोजन छे? – एटले तेमना माटे जीवन
गुमाववुं नकामुं छे; मात्र नकामुं ज नहि, दुःखकर पण छे.
(२) हुं ते बाह्य वस्तुओने माटे जेटला रागद्वेष क्रोधमान
करुं – तेनाथी मने कांई लाभ नथी, पण एकलुं दुःख ज छे.
(३) अन्य वस्तुने तेमज राग – द्वेषादिने बाद करतां हवे
मारामां शुं रहे छे? ते मारे जोवानुं छे. हा, ए बधा नीकळी जतां
पण हुं ‘जीव’ तो रहुं ज छुं; आथी सिद्ध थाय छे के मारा जीवत्वनुं
– मारा जीवननुं ए कोई साधन नथी.
(४) मारा जीवनमां ज्ञान – सुख – वीतरागता ए बधा
निरंतर भरेला छे, ते ज मारो स्वभाव छे; एटले मारा सुखने
बीजे क्यांयथी लाववुं नथी; हुं पोते ज सुखपिंड छुं.
(५) वाह! आटलो निश्चय करतां मारो संसारनो मोह
केटलो छूटी गयो? अने मारा आत्मामां विश्वास जागीने केटलो
संतोष थई रह्यो छे!!
– बस, हवे आ आत्मविश्वासना बळथी ज हुं मारा
जीवनने सुंदर बनावीश ने परमात्माना पंथे चालीश.

Page 102 of 237
PDF/HTML Page 115 of 250
single page version

background image
१०२ : श्री मुनिभगवंतनी साथे.... )
( सम्यग्दर्शन
एकवार हुं शांतिवनमां टहेलतो हतो.....
.....त्यां तो एक सिद्ध भगवानने में जोया.....आहा,
अत्यारे सिद्ध भगवान! मन न मान्युं, पण ज्ञान कहेतुं हतुं के आ
तो सिद्ध भगवान ज छे.....साक्षात् सिद्ध!
विकल्प कहे छे – अशक्य छे; आ काळमां वळी सिद्ध
क्यांथी? आ तो पंचमकाळ छे.
ज्ञान कहे छे : हा, आ तो पंचमकाळमां सिद्ध!
आत्मआनंदमां झूलता जे देखाय छे ते सिद्धभगवान ज छे.
‘पंचमकाळमां हालता – चालता सिद्ध...’ अहो, आश्चर्य...आश्चर्य
!
एने जोतां ज आत्मा तो मुग्ध थई गयो. शरीरथी पार
चैतन्यतत्त्वनी अद्भुतता देखीने मारुं हृदय भक्तिथी नमी पडयुं.
वनमां विचरता ने महा आनंदमां झूलता ए मुनिराजनो वीतराग
श्री मुनिभगवंतनी साथे.....
(मुमुक्षु जीवनी भावनारुप एक निबंध)

Page 103 of 237
PDF/HTML Page 116 of 250
single page version

background image
सम्यग्दर्शन )
( श्री मुनि भगवंतनी साथे : १०३
देदार जोतां ज घडीभर चित्त थंभी गयुं, दुनिया भुलाई गई;
इंद्रियो थंभी गई, विकल्पो शांत थई गया.....अहो, आश्चर्य
!
जेमना देदार जोतां ज विकल्पो शांत थवा मांडया, तो तेमना
अंतरमां प्रवेशतां सर्वे विकल्पो मटीने निर्विकल्प – शांति थशे, तेवी
प्रतीति थई.....अने में ज्ञानद्वारा एमना हृदयमां प्रवेश कर्यो.
केवा छे ए मुनिराज! केवा छे ए नानकडा सिद्ध!
– जेमने सहजपणे बाह्य तेमज अंतरंग त्याग वर्ते छे;
बाह्यमां वस्त्रादिनो ने अंतरमां कषायोनो त्याग वर्ते छे; निरंतर
जेओ आत्म – आनंदना जोरदार अनुभवमां रत छे. अरे, क्षणे
क्षणे जेओ आश्चर्यकारी आनंदसागरमां डूबकी मारे छे ने सिद्ध
जेवो ज आनंद अनुभवी ल्ये छे; – पछी तेमने सिद्ध केम न
कहेवाय
? पू. श्री कानजीस्वामीना शब्दोमां कहीए तो ‘अहा, मुनि
तो हालता – चालता सिद्ध छे.’
अद्भुत, अपूर्व, सिद्धसमान आनंदना हिलोळा तेमना
अंतरमां उल्लसी रह्या छे. प्रमादनुं तेमने नामनिशान नथी,
चैतन्यनी अनुभूति तेमने सतत सुलभ छे, ने बाह्य विषयोनो
परिचय तेमने छूटी गयो छे. रागमात्रने दुश्मन समजीने तेनाथी
तेओ सावधान छे, अने अंतरमां उल्लसती सुखसागरनी छोळ
पीवामां मग्न छे.....धन्य छे – आ मुनिराज
!
अहो, आजे केवो अवसर आव्यो छे! अपूर्व सोनेरी
अवसर छे के मने आवा मुनिराजना साक्षात् दर्शन थया; तेमनुं
मिलन थतां जाणे सिद्धनुं मिलन थयुं. परमात्मानो साक्षात्कार थयो.
जेम दरियामां डूबताने नानी नौका मळी जाय के रणमां तरस्याने
मीठा पाणीनुं नानकडुं झरणुं देखाय ने हर्षित थाय तेम
पंचमकाळमां नानकडा सिद्ध जेवा आ मुनिराजना दर्शनथी मारुं

Page 104 of 237
PDF/HTML Page 117 of 250
single page version

background image
१०४ : श्री मुनि भगवंतनी साथे )
( सम्यग्दर्शन
हृदय अत्यंत हर्षित थई रह्युं छे. अहा, एनुं वर्णन करवुं अशक्य
छे. समुद्र जेटली शाहीथी अने पृथ्वी जेटला कागळ पर लखवामां
आवे तो पण जेमना महिमानुं पूरुं वर्णन थतुं नथी, तेनी शुं वात
?
तेमना सहवासनी पळो अत्यंत धन्य हती, एमनी आश्चर्यकारी
ध्यानमुद्रा चैतन्यभावनी प्रेरक हती.
हुं स्तब्धपणे एकीटसे मुनिराजनी शांत ध्यानमुद्रा जोई ज
रह्यो; त्यां मुनिराज ध्यानमांथी बहार आव्या.....मीठी नजरे मारा
तरफ जोयुं अहा
! शी मधुरी द्रष्टि! ए द्रष्टि पडतां ज मने तो जाणे
अपूर्व निधान मळ्या.....मने थयुं के, हुं अनादिकाळथी अनंतदुःखो
भोगवतो आव्यो छुं; हवे आ भवमां आवा मुनिराज मळ्या तो
तेमना समागमवडे तेमना मार्गे जईने अनादिना दुःखनो अंत करुं
ने सादि अनंतना महान सुखनी प्राप्तिनो प्रयत्न करुं
! आ
मुनिराज एकला – एकला पोताना अनंत आनंदमां मग्न छे, तो
तेओ केवी रीते आवो आनंद पाम्या
? ते तेमनी पासेथी जाणुं! –
एवी भावनाथी में मुनिराजने विनयपूर्वक पूछ्युं : –
‘हे प्रभो! अनादिकाळथी हुं संसारमां जन्म – मरणना ने
कषायना अनंत दुःखने भोगवुं छुं; हवे आ भवदुःखोथी हुं थाकी
गयो छुं. महाभाग्ये मने आप मळ्या छो. आप खरेखरा सुखी छो
ने सुखनो मार्ग जाणो छो; तो ते सुखनी प्राप्तिनो उपाय कृपा
करीने मने बतावो.’
श्री मुनिराजे मारी जिज्ञासा जाणीने प्रसन्नता बतावी ने
शांतिथी मने समजाव्युं. अहा, शी मधुरी ए वाणी! जाणे अमृत
झरतुं हतुं. तेओश्रीए कह्युं : –
हे भव्य! तुं आत्मा पोते ज्ञान – आनंदस्वभावथी भरेलो
छो ज; पण तारा स्वभावने न जाणवाथी, विषय – कषायना

Page 105 of 237
PDF/HTML Page 118 of 250
single page version

background image
सम्यग्दर्शन )
( श्री मुनि भगवंतनी साथे : १०५
भावोवडे तुं दुःखी थई रह्यो छे. माटे प्रथममां प्रथम तुं तारा
आत्माने जाण
! पर्यायमां व्यक्त एवा चैतन्यचिह्नवडे तारा
आत्मानुं स्वरुप जाण, अने विषय – कषायोथी पाछो वळ.....तेमां
सुखनी बुद्धि छोड. अनादिथी स्वपणे मानेल एवा शरीरादि जडमां
राचीने, तेमां रागद्वेष करीने तुं दुःखी थयो, तेमां क्यांय तने सुख
न मळ्युं; हवे तेमां स्वबुद्धि छोडी दे; सुख तेमां नथी, सुख तारामां
पोतामां छे, तारी सामे जो.
में कह्युं : वाह प्रभो! आपनी वाणी मने आत्मानी तीव्र
जिज्ञासा जगाडे छे. आपे जेने जाणवानुं कह्युं – ते मारुं स्वरुप केवुं
छे
? ने कई रीते मने तेनो अनुभव थाय? ते मने समजावो.
श्री मुनिभगवंते उत्तरमां गंभीर ध्यानचेष्टापूर्वक कह्युं : –
हे भव्य! सुखमय तत्त्व तो तारा अंतरमां सदाय विद्यमान
छे, पण तारा स्वतत्त्वना निजवैभवने भूलीने अनंतकाळथी तें
कामभोगबंधननी, एटले विषय – कषायनी कलंकिनी कथा
सांभळीने तेनो प्रेम कर्यो, तेनो ज वारंवार परिचय कर्यो; तेथी
तारुं सुख (तारा अंतरमां विद्यमान होवा छतां) तने अनुभवमां
न आव्युं ने तुं दुःखी थयो. पण भाई
! हवे ए वात वीती गई
!
हवे तो तारुं एकत्व – विभक्त स्वरुप बतावुं छुं; तुं अपूर्व
आदरपूर्वक प्रेमथी ते सांभळजे, समजजे, ने एवा आत्माने
अनुभवमां लेजे. तारा सर्व दुःख दूर थशे ने तने अपूर्व सुखनुं
वेदन थशे. आत्मा पोते भगवान छे ते अनुभूतिस्वरुप एटले
ज्ञानस्वरुप छे; आवा तारा आत्मानी वात तुं प्रसन्नचित्त
अपूर्वभावे सांभळी, विचारी अने पोताना अनुभवमां लईने
प्रमाण करजे.

Page 106 of 237
PDF/HTML Page 119 of 250
single page version

background image
१०६ : श्री मुनि भगवंतनी साथे )
( सम्यग्दर्शन
‘मुमुक्षुए प्रथम ज आत्मा जाणवो.’
हे भव्य! प्रथममां प्रथम तुं ज्ञानस्वरुप आत्मामां स्वबुद्धि
करी, शरीरमां ने रागद्वेषमां स्वपणुं मानवुं छोडी दे. तुं
ज्ञानस्वभावी भगवान छो. पामर नथी; चैतन्यनी परमेश्वरताथी
भरेला तने पामरपणुं न शोभे. हे चेतनराजा
! तुं परद्रव्य पासे
तारा सुखनी भीख मागे छे ते तने नथी शोभतुं, माटे ते छोडी दे.
परद्रव्यमांथी के रागमांथी तने सुख कदी नहीं मळे. माटे तेमां
आत्मबुद्धि छोड. भाई
! सुखशांतिनो समुद्र तुं मिथ्यात्वना
अग्निमां शेकाई रह्यो छे. तारा स्वभावमां ते रागादि अंगारा
नथी, तुं तो शांतरसथी भरेलो छो. तुं क्रोधादि रहित छो, पण
ज्ञानसहित छो. क्रोधादि विभाव छे; ज्ञान तारो स्वभाव छे.
– आहा! श्री मुनिराज मने मारुं स्वरुप केवुं स्पष्ट
समजावी रह्या छे! मारी वृत्ति स्वभाव – परभावनुं भेदज्ञान
करीने अंतर्मुख थती जाय छे. मुनिराजनो क्षणभरनो समागम
चमत्कारी असर करी रह्यो छे. में पूछ्युं : –
प्रभो! अंतरमां आत्माने जोवा जाउं छुं त्यां रागद्वेष पण
देखाय छे! तो तेनुं भेदज्ञान कई रीते करवुं?
श्री मुनिराजे कह्युं : अंदरनी बहु सूक्ष्म वात तें पूछी. हे
वत्स! सांभळ! ज्ञान अने रागनो समय एक होवा छतां तेमना
स्वरुपमां अत्यंत भिन्नता छे. ‘आ राग छे ते हुं छुं’ एम नथी
जणातुं, पण ‘हुं ज्ञान छुं ने आ रागादि मारां परज्ञेय छे, ते
ज्ञानथी भिन्न छे’ – एम ते परज्ञेयपणे जणाय छे, ने रागादिथी
जुदुं ज्ञान ज स्वपणे अनुभवाय छे. ए ज्ञानपणे जे अनुभवाय छे
ते पोते ज तुं आत्मा छो. जेम स्वच्छ दर्पणमां कोलसो जणाती
वखते पण दर्पण पोते स्वच्छपणे ज रहे छे. तेम तारा ज्ञानमां

Page 107 of 237
PDF/HTML Page 120 of 250
single page version

background image
सम्यग्दर्शन )
( श्री मुनि भगवंतनी साथे : १०७
रागद्वेष जणाय छे त्यारे पण तारो आत्मा ज्ञानरुपे ज परिणमे छे;
ज्ञानमां ते तन्मय वर्ते छे. आ रीते ज्ञानस्वरुप आत्माने जाणतां
सम्यक् भेदज्ञान अने सम्यग्दर्शन थाय छे. माटे हे भव्य
! तुं
रागनुं कर्तापणुं छोड. अने ज्ञातारसनी शांतधारामां आवी जा.
एकवार तुं तारा स्वरुपनो स्वाद लईश पछी ज्ञानमां रागादि
जणावा छतां तुं तेना कर्तापणामां नहीं अटक कारण के ते भावोमां
ज्ञानरस नथी – चेतनता नथी, ते भावो चेतना वगरना छे; तेनुं
कर्तापणुं ( – तेमां तन्मयपणुं) ज्ञानधारामां नथी. माटे ज्ञानरसना
ज बनेला एवा तारा अखंड सत्द्रव्यनो विचार कर; तेनो विचार
करी उपयोगने तेमां ज एकाग्र कर.
अहा, ज्यारे श्री मुनिराज आ वात करता हता त्यारे तेमनुं
चित्त चैतन्यमां ज एकाग्र वर्ती रह्युं हतुं.....ते जोईने मारुं चित्त
पण सर्व परभावोथी दूर थईने, अंतरमां मारा परमात्मतत्त्वने
देखवा जई रह्युं हतुं.....अने बीजी ज क्षणे तो हुं मने पोताने
परमात्मस्वरुपे अनुभवी रह्यो हतो. परमात्माना साक्षात्कारनो
कोई महा अपूर्व आनंद अंदर वेदातो हतो. आश्चर्यकारी,
अद्भुतथी पण अद्भुत, ए वचनातीत अनुभूतिना पूरा गाणां
कोण गाई शके
?
अहा, परमात्मा जेवा मुनिवरोना संगे मने पण परमात्मा
बनावी दीधो. मारुं परमात्मपणुं में मारामां ज देख्युं.....ने तेना
जोरे हुं पण ते मुनिवरोनी साथे – साथे मोक्षपंथमां चालवा
मांडयो. आवी अनुभूतिमांथी बहार आवीने जोयुं त्यां तो ए
निस्पृह मुनिराज गगनमार्गे अन्यत्र विहार करी गया हता ने
मारा हृदयमां एक परमात्मतत्त्व मूकता गया हता.
धन्य मुनिवरोनो उपकार! धन्य तेमनो समागम!
c c c