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महान अतीन्द्रिय आनंद मने तेमना प्रतापे अनुभवमां आव्यो.
मारी आ ज्ञानअनुभूतिमां राग नथी. दुःख नथी, क्लेश नथी.
आवी शांत ज्ञाताधारानी उग्रता वडे हुं मोहने सर्वथा तोडीने
केवळज्ञान पामी परमात्मा थईश.
मुनिवरोना सहवासमां रहुं ने ध्यानमग्न बनीने तेमनी साथे साथे
मोक्षपुरीमां जाउं
चाल. मोक्षपुरीना दरवाजा खुल्ला छे.
४००० जेटला बालसभ्यो माटे ब्र. हरिभाईए एक निबंधस्पर्धानुं
आयोजन करेलुं : निबंधनो विषय हतो ‘श्री मुनिराजनी साथे.....’
महाभाग्ये तमने कोई मुनिराजनो संग मळे तो तमे शुं करो
बीजा अनेक लेखोनो संग्रह अमारी पासे छे, जे यथावसरे प्रगट थशे.)
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नयपक्ष कंई पण नवग्रहे, नयपक्षथी परिहीन ते.
टीकामां छ बोलथी केवळीभगवान साथे सरखामणी करी छे : –
जेवी रीते केवळी भगवान तेवी रीते श्रुतज्ञानी – सम्यग्द्रष्टि
नजीवो तफावत होवा छतां ‘पक्षातिक्रांत’ संबंधी समानता छे.
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निर्विकल्प – अनुभूतिनो अपार महिमा समजाय छे.
उत्पाद – व्यय – ध्रुव छे, ते ज द्रव्य – गुण – पर्यायस्वरुप छे;
अनुभवथी ते कंई जुदा नथी.
बंधपद्धतिने दूर करीने आवा अपार समयसारने हुं अनुभवुं छुं.’
के ज्ञानमां होता नथी. सम्यग्दर्शन ने सम्यग्ज्ञान जे शुद्धात्माने
अनुभवे छे ते एक ज छे, जुदा जुदा नथी.
महिमाना कोई अनेरा भावो उल्लसता.....जे कोईक विरल ऊंडा –
मुमुक्षुओ ज झीलता, ने आवी अनुभूतिनो गंभीर महिमा
समजीने तेनो प्रयत्न जगाडता.
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सम्यग्दर्शन थवानुं खास वर्णन छे : तेमां वीस – वीस श्लोको
द्वारा तेमज गाथा द्वारा स्पष्ट समजाव्युं छे के नयपक्षना विकल्पो
वडे (भले हुं शुद्ध छुं एवो शुद्धनयनो विकल्प होय – तो पण तेना
वडे) शुद्धात्मानो निर्णय के अनुभूति थती नथी. प्रथम श्रुतज्ञान वडे
ज (विकल्पवडे नहि पण ज्ञानवडे ज) शुद्धात्मानो निर्णय थाय छे;
एवो निर्णय करनारुं ज्ञान, विकल्पोने (इंद्रियो तेमज मनने)
ओळंगीने, आत्मसन्मुख थईने शुद्धात्मानी अनुभूति करे छे;
आवी अनुभूति करनार आत्मा ते भगवान छे, ते समयसार छे;
सम्यग्दर्शन, ज्ञान ने आनंद पण ते ज छे.
आवो, अमे कहीए छीए ते रीते, छ महिना आत्माने देखवानो
अभ्यास कर. – एम करवाथी तारा पोताना हृदयसरोवरमां
देहादिथी भिन्न तारा शुद्धआत्मानी उपलब्धि अनुभूति तने थशे
ज.
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निर्णयमां, ज्ञानमां, रुचिमां भूल छे; शुं भूल छे ते ज्ञानी ज तने
समजावी शकशे. बाकी तो, विकल्पमात्र कोलाहल छे, अने तुं कहे
छे के ‘हुं विकल्प वडे आत्मानो निर्णय के अभ्यास करुं छुं’ तो तें
विकल्पोना कोलाहलने क्यां छोडयो
तुं मार्ग ज भूल्यो छे. (दोडयो घणुं....पण ऊंधा रस्ते
जो....के छ महिनामां केवुं उत्तम फळ आवे छे
ज्ञानीना मार्गदर्शन अनुसार, प्रसन्नताथी.....साचा भावथी,
निःशंकपणे अने दुनियाथी निर्भयपणे, तुं आत्मानी अनुभूतिना
प्रयत्नमां तारा ‘ज्ञानने’ जोड जरुर महान आनंदसहित तने
आत्मअनुभूति थशे.....ने सम्यग्दर्शन वडे तारा आत्मकल्याणना
कोड पूरा थशे.
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सिद्धभगवंतोने आदर्शरुपे राखीने साधकजीव पोताना आत्माने
पण तेमना जेवो एटले के ‘शुद्ध पर्यायरुपे परिणमतो’ अनुभवे छे
ने तेने ध्यावीने पोते सिद्धपदरुपे परिणमी जाय छे.
ज्ञानचक्ररुपे ते परिणमे छे.
कह्यो. अने एवा ज्ञानरुप परिणमनारने ज अमे ‘शुद्ध – ज्ञायक’
कहीए छीए. (भिन्नपणे उपासवामां आवे त्यारे शुद्ध कहेवाय
छे.)
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(द्रव्यपर्यायनुं अभिन्नपणुं) छे; ‘ज्ञायक’थी जुदो बीजो कोई
‘ज्ञाता’ नथी : ‘ज्ञात ते तो ते ज छे.’ आ छठ्ठी गाथानो अर्थ
केटलाक जीवो बराबर समजता नथी, अने ‘तेमां आत्माने सर्वथा
अपरिणामी कह्यो छे’ – एम माने छे, – ते भ्रान्तिनुं निराकरण
उपरना न्यायो समजवाथी थई शकशे.
गुणस्थानोने अशुद्ध कह्या; परंतु भेदज्ञानवडे ते उदयभावोने बाद
करीने जोतां जे सम्यक्त्व – केवळज्ञानादि शुद्धभावो देखाय छे ते
तो जीवनुं स्वरुप छे ने स्वभावथी जीव पोते ते – रुप परिणमे छे.
ते परिणमन जीवनुं ‘कर्म’ छे ने शुद्धजीव तेनो ‘कर्ता’ छे – एम
कर्ता – कर्मनुं अनन्यपणुं (एकपणुं) छे. आ, छठ्ठी गाथानुं ने
समयसारनुं तात्पर्य छे.
विराधक छे; ए वात समयसार ३२२ थी ३४४ सुधीनी २३
गाथामां बहु स्पष्ट रीते समजावीने साबित कर्युं छे के आत्मा
अपरिणामी नथी पण स्वपरिणामी छे. अज्ञानी जीव पोताना
अज्ञानपरिणामने करे छे, ने भेदज्ञानी जीव ज्ञान भावरुप
परिणमतो थको ते ज्ञानपरिणामनो कर्ता (तथा विभावनो अकर्ता)
थाय छे. आ रीते जीव कंईक परिणाम तो करे ज छे.
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‘भूतार्थ’ना आश्रयवाळो जीव सम्यग्द्रष्टि छे.
अभेद करीने, तेने ज (एटले के तेवा भावरुपे परिणमेला जीवने
ज) ‘भूतार्थ’ अने ‘शुद्धनय’ कहेल छे, ने ते पोते ज सम्यग्दर्शन छे.
अमोघ – मंत्र आप्यो छे. तेमने नमस्कार हो.
न मानीश, ते तो तारा स्वभावना अंतरंग निजभावो छे. –
सांभळ
आ ज्ञानपद परमार्थ छे, जे पामी जीव मुक्ति लहे.
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तेम ज द्रव्य – गुण – पर्याय वच्चे प्रदेशभेद होवानुं पण क्यांय
कह्युं नथी. शतशतवार गुरुगमे समयसारना मथननो सार आ छे
के तारा शुद्ध द्रव्यगुणपर्यायथी तारो आत्मा अभेद छे – ते ज
आत्मानुं ‘एकत्व’ छे; ने तेने पर द्रव्यो तथा परभावोथी
भिन्नतारुप ‘विभक्त’ पणुं छे. आवा एकत्व – विभक्तरुप शुद्ध
अभेद आत्मानी अनुभूति करवी ते ज शुद्धनय छे; ने शुद्धनयनी
अनुभूतिथी ऊंचुं खरेखर बीजुं कांई नथी. अनुभूतिमां शुद्धनय
अने तेनो विषय अभेद छे; तेथी ‘शुद्धनय भूतार्थ छे’ अने आवी
अनुभूति ते ज जैनशासन छे.
भेदज्ञान नथी, ते आत्माना शुद्ध स्वरुपने जाणतो नथी.’
पोताथी बहार परमां भेळवता नथी; पोताना ज्ञानना कोई अंशने
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ते पण आत्माने परथी भिन्न जाणतो नथी.
तेम स्वना कोई अंशने स्वथी बहार न काढवो;
पर द्रव्य – गुण – पर्यायथी अत्यंत खाली, ने
स्व द्रव्य – गुण – पर्यायथी संपूर्ण पूरो.....
आस्रवबंधरुप अशुद्धतत्त्वने छोडीने, संवरनिर्जरातत्त्वरुपे
(सम्यक्त्वादि – रुपे) जे स्वयं परिणमे छे तेने तो ते तत्त्व साथे
एकत्व परिणमन छे, तेना सम्यक्त्वादि कांई बाह्य तत्त्व नथी, तेने
तो ते अंत: तत्त्व छे – स्वभाव छे – उपादेय छे.
ते आत्मा ज छे.’ सम्यक्त्वादिने पोताथी भिन्न चिंतववा ते विचार
खोटा छे ने तेवुं चिंतन करनार सम्यक्त्वादिरुप परिणमतो नथी;
– मिथ्यात्वरुप परिणमे छे.
मुज आत्म दर्शन – चरित छे;
मुज आत्म प्रत्याख्यान ने,
मुज आत्म संवर – योग छे.’
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दर्शन – चरितमां आतमा,
पच्चखाणमां आत्मा ज,
संवर – योगमां पण आतमा.’
ज्ञानात् अन्यत् करोति किम्?
ते अज्ञानी जीवोनो मोह छे.
मारा निज भावनोय कर्ता नथी, के आत्मा पोतानी
ज्ञानादिपर्यायने पण करतो नथी,’ – तो ते पण अज्ञान अने
मोह छे, तेनेय कर्ता – कर्मना साचा स्वरुपनी खबर नथी.
कह्यो छे, कांई निज – ज्ञानभावनो अकर्ता नथी कह्यो; तेनो
तो तन्मयरुपे कर्ता छे.
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के आत्मामां ते स्वीकारवामां आवी छे. आत्मा एवो अक्रिय नथी
के तेनामां ज्ञानक्रिया पण न होय. रागादि क्रियाने आत्माथी भिन्न
कहीने, मोक्षमार्गमांथी तेनो निषेध कर्यो छे; ज्ञानक्रिया तो
आत्माना स्वभावभूत छे, तेने आत्माथी जुदी पाडी शकाय नहि,
तेनो निषेध करी शकाय नहीं. आत्मा सर्वथा अकर्ता नथी, निज
शुद्धभावनो तो कर्ता छे. ‘आत्मसिद्धि’ मां ज्ञान पामेलो शिष्य
पोताना अनुभवनुं वर्णन करतां कहे छे के –
छे. आ शुद्ध कर्ता – भोक्तापणुं ज्ञानीने ज समजाय छे.
परभावोने पोताथी बहार राखे छे, चैतन्यमां नथी भेळवतो.
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कहेनारे आत्माने इन्द्रियगम्य – स्थूळ मान्यो छे. विकल्प पोते
मोहनो प्रकार छे, तेना वडे ज्ञानस्वरुप आत्मानुं ग्रहण (श्रद्धान,
ज्ञान के आचरण) केम थई शके
ज आत्मानी शोभा छे. विकल्पमां आत्मानो स्वाद नथी, तेमां तो
मोहनो स्वाद छे. आत्मानो स्वाद तो चेतनामां छे. आ रीते चेतना
अने विकल्पने स्वादभेदे अत्यंत भिन्नता छे. आवी भिन्नता
जाणी, प्रज्ञाछीणी वडे विकल्पोने जुदा करीने, अने चेतनामां एकत्व
करीने, शुद्धआत्मानी स्वानुभूति थाय छे.
अर्थ छे
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वादविवादना क्लेशनुं कारण थतो होवाथी ते छोडीने, ज्ञानी पोताना
ज्ञाननिधिने भोगवे – एम कह्युं छे; पण पोताना गुरुजनो उपकारी
पुरुषो तेमज तत्त्वजिज्ञासु साधर्मी – सज्जनो तेमने कांई ‘परजन’
नथी कह्या; तेमनो तो संग करे, तेमज तेमनी साथे स्वानुभवनी चर्चा
पण करे. ज्यांत्यां अयोग्य स्थाने तेनी चर्चा न करे. जो सुयोग्य जीव
साथे पण ज्ञानी पोताना स्वानुभवनी चर्चा न करे तो जगतमां
स्वानुभूतिना मार्गनी परंपरा कई रीते चालशे
‘प्रत्यक्ष सांभळीने’ (टेप द्वारा सांभळीने के लखाण वांचीने नहि
पण एकवार प्रत्यक्ष सांभळीने) जीवने देशनालब्धि थाय
छे.....अने पछी सुपात्र जीव तेवो स्वानुभव करे छे. हवे जो ज्ञानी
पोताना अनुभवनी वात बोले ज नहि तो देशनालब्धिनो ज लोप
थई जाय
करे
तेना द्वारा ते प्रसिद्ध करे ज छे के हुं केटलो मुल्यवान छुं
झवेरी जेवा कुशळ जिज्ञासुओ तेमने पारखी लईने पोतानुं कल्याण
करे छे. आ लेखकने जीवनमां अनेक ज्ञानीओ मळ्यां छे, ने तेमना
श्रीमुखथी तेमना स्वानुभवनी वात प्रत्यक्ष सांभळी छे, – जे
अपूर्व कल्याणनुं कारण थयुं छे.
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आपीए छीए : –
प्रचुर स्वसंवेदनथी मने निजवैभव प्रगटयो छे.....
अनुभवीए छीए.
अनुभवुं छुं.
थयो तेनुं वर्णन करतां स्वमुखे कहे छे के – हुं अनादिथी
अप्रतिबुद्ध हतो; हवे विरक्त गुरुथी निरंतर समजाववामां
आवतां.....पोताना परमेश्वर आत्माने जाणीने, तेनुं श्रद्धान
करीने तथा आचरण करीने जे सम्यक् प्रकारे एक आत्माराम
थयो; ते हुं एवो अनुभव करुं छुं के.....महान ज्ञानप्रकाश
मने प्रगट थयो छे.
‘ओगणीसो ने सुडतालीसे समकित शुद्ध प्रकाश्युं रे.’
देहभिन्न केवळ चैतन्यनुं ज्ञान जो.’
छे.)
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निजपद निजमांही लह्युं, दूर थयुं अज्ञान.
भास्युं निजस्वरुप ते शुद्ध चेतनारुप;
अजर अमर अविनाशी ने देहातीत स्वरुप.’
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रना ऐक्यस्वरुप एकाग्रताने हुं
अवलंब्यो छुं.
(गा. ८०) मोहनी सेनाने जीतवानो उपाय में मेळव्यो
छे.....अर्थात् मने सम्यग्दर्शन थयुं छे.....में चिंतामणि प्राप्त
कर्यो छे.....मारी मति व्यवस्थित थई छे.....
(गा. ९२) बहिर्मोहद्रष्टि आगमकौशल्य तथा आत्मज्ञान वडे
हणाई गई होवाथी हवे मने फरीने उत्पन्न थवानी
नथी.....‘आ आत्मा स्वयमेव धर्म थयो.’
(प्र. गा. १९९) ‘मोक्षमार्ग अवधारित कर्यो छे, कृत्य कराय
छे.’ अर्थात् मोक्षमार्ग नक्की करीने तेमां चाली रह्या छीए.
(गा. २००) हुं आ मोक्षाधिकारी, ज्ञायकस्वभावी
आत्मतत्त्वना परिज्ञानपूर्वक.....शुद्धात्मामां प्रवर्तुं छुं.
जिज्ञासु जीवोने ते महान आत्मलाभनुं कारण थाय छे.
जिज्ञासुओने माटे आ विषय महत्त्वनो अने लाभकारी होवाथी
तेनुं स्पष्टीकरण कर्युं छे.
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सुंदरता ओळखतां ज उदयभावो जुदा पडी जाय छे. एकला
विभावने न देख; सारुं छे तेने देख.
चेतनभाव विनानो तो कोई ज जीव होतो नथी.
– आ वात विचारीने प्रयोग करतां जरुर भेदज्ञान थाय छे
तेना फळमां तुं मने शुं आपीश
उत्तम त्रण रत्नो, तेमांथी अपूर्व सम्यक्त्व – रत्न तो हुं तने दई
चुकी छुं अने बाकीनां बे वीतरागता ने केवळज्ञानरुप महा रत्नो
पण थोडा ज वखतमां हुं तने आपीश.
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अनंतगुणनिधि छुं आतमदेव जो;
चेतनभाव ज प्रसरी रह्यो छे एकलो,
सर्वप्रदेशे सुख – सुख बस, सुख जो...
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आदरथी – विश्वासथी अने ऊंडा मननथी आनो स्वाध्याय करशे
ते जीवोने स्वानुभूति प्रत्येनो परम उत्साह जागशे अने अत्यंत
अल्पकाळमां ज तेओ स्वानुभूतिनो प्रकाश करीने चैतन्यना परम
अतीन्द्रिय आनंदने पामशे. अने, जेओ आवा अतीन्द्रिय –
आनंदने पामेला छे एवा – स्वानुभूतिवंता मारा साधर्मीजनो
पण आ स्वानुभूतिप्रकाश – शास्त्र द्वारा पोतानी स्वानुभूतिने
फरी फरीने अत्यंत ताजी करीने खूब आनंदित थशे.
‘‘जय वर्द्धमान’’ ब्र. हरिलाल जैन
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महान उपकार छे.....तेमने नमस्कार हो.
स च भवति सुशास्त्रात् तस्य चोत्पत्तिः आप्तात् ।
इति भवति स पूज्य तत्प्रसादात् प्रबुद्धेः
न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरंति ।।
इष्ट फळनी प्राप्तिनो उपाय छे. आ रीते, तेमना प्रसादथी
प्रबुद्ध थयेला बुधजनोवडे ते आप्तपुरुषो पूजनीय छे;
केमके सत्पुरुष – धर्मात्माओ पोताना उपर करेला
पंचपरमेष्ठी भगवंतोना उपकारने कदी भूलता नथी.