Samyak Darshan Part 7 8-Gujarati (Devanagari transliteration). Pakshatikrant Samaysaar; Swanubhutino Aprar Mahima; Sachho Marg Le To Fal Aave; Mumukshune Upyogi Vidhvidh Charchao; Chaitranyanu Grahan Vikalp Vade Na Thay; Mari Mata; Swanubhuti Prakasha (pad ).

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१०८ : श्री मुनि भगवंतनी साथे )
( सम्यग्दर्शन
मुनिराज – धर्मात्माना सत्संगनी ए धन्य घडी जीवनमां
दिनरात मने याद आव्या करे छे. अहा! मारुं आवुं अद्भुत
स्वरुप मुनिराजे मने देखाडयुं; रागथी पार मारा ज्ञानस्वरुपनो
महान अतीन्द्रिय आनंद मने तेमना प्रतापे अनुभवमां आव्यो.
मारी आ ज्ञानअनुभूतिमां राग नथी. दुःख नथी, क्लेश नथी.
आवी शांत ज्ञाताधारानी उग्रता वडे हुं मोहने सर्वथा तोडीने
केवळज्ञान पामी परमात्मा थईश.
बे घडी मुनिना सत्संगनुं आवुं महान फळ! तो जीवनमां
एवो धन्य अवसर क्यारे आवे के हुं पोते मुनि थईने सततपणे
मुनिवरोना सहवासमां रहुं ने ध्यानमग्न बनीने तेमनी साथे साथे
मोक्षपुरीमां जाउं
!
– अने, मुनिराज जाणे आशीर्वादपूर्वक मने बोलावी रह्या
छे; अंतरथी एना नाद आवे छे. हे भव्य! आव.....चाल्यो
आव.....आनंदथी आवीने अमारी साथे रहे.....ने मोक्षपुरीमां
चाल. मोक्षपुरीना दरवाजा खुल्ला छे.
बस प्रभो! आवी ज रह्यो छुं.....
तमारी साथे रहेवा ने मोक्षने साधवा.
(आ एक भावनात्मक निबंध छे. श्री महावीर प्रभुना
‘अढीहजारवर्षीय निर्वाण महोत्सव’ प्रसंगनी स्मृतिमां आत्मधर्मना
४००० जेटला बालसभ्यो माटे ब्र. हरिभाईए एक निबंधस्पर्धानुं
आयोजन करेलुं : निबंधनो विषय हतो ‘श्री मुनिराजनी साथे.....’
महाभाग्ये तमने कोई मुनिराजनो संग मळे तो तमे शुं करो
? – ए
विषय उपर आवेला निबंधोना आधारे आ लेख तैयार कर्यो छे. आवा
बीजा अनेक लेखोनो संग्रह अमारी पासे छे, जे यथावसरे प्रगट थशे.)

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सम्यग्दर्शन )
( पक्षातिक्रांत.... समयसार : १०९
प क्षा ति क्रां त.....स म य सा र
नयद्वय – कथन जाणे ज केवळ ‘समय’मां प्रतिबद्ध जे,
नयपक्ष कंई पण नवग्रहे, नयपक्षथी परिहीन ते.
पक्षातिक्रांत थयेल सम्यग्द्रष्टि केवो छे तेनुं अद्भुत वर्णन
आ गाथामां छे. तेनी अनुभूतिनुं गंभीर स्वरुप समजाववा
टीकामां छ बोलथी केवळीभगवान साथे सरखामणी करी छे : –
जेवी रीते केवळी भगवान
तेवी रीते श्रुतज्ञानी – सम्यग्द्रष्टि
१. विश्वना साक्षी छे.....तेथी,
१. परनुं ग्रहण करवा प्रति
उत्साह निवृत्त थयो छे...तेथी
२. नयपक्षोना स्वरुपने
२. नयपक्षोना स्वरुपने केवळ
केवळ जाणे छे.....
जाणे छे...
३. सकळ केवळज्ञान वडे
३. चिन्मय समयथी प्रतिबद्धपणा
विज्ञानघन थया छे.....
वडे विज्ञानघन थयो छे.....
४. सदा – पोते ज विज्ञानघन
४. ते काळे – (अनुभव वखते)
थया छे.....
पोते ज विज्ञानघन थयो छे..
५. श्रुतज्ञाननी भूमिकाथी
५. विकल्पोनी भूमिकाथी
अतिक्रांत थया छे.....
अतिक्रांत थयो छे....
६. नयपक्षना ग्रहणथी
६. नयपक्षना ग्रहणथी दूर
दूर थया छे.....
थयो छे.....
तेथी ते बंने, कोईपण नयपक्षने ग्रहता नथी. आ छ बोलमां
बीजो अने चोथो बोल एकसरखा छे; बाकीनां चार बोलमां
नजीवो तफावत होवा छतां ‘पक्षातिक्रांत’ संबंधी समानता छे.

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११० : स्वानुभूतिनो अपार महिमा )
( सम्यग्दर्शन
स्वानुभूतिनो अपार महिमा
अहा, आचार्यदेवे शुद्धात्मानो निर्विकल्प अनुभव करनारा
सम्यग्द्रष्टिने केवळी भगवान साथे सरखाव्या छे. आ समजतां
निर्विकल्प – अनुभूतिनो अपार महिमा समजाय छे.
‘धन्य स्वानुभूति !’
आवी अनुभूतिस्वरुप थयेल आत्मा ते पोते ज ‘समयसार’
छे, ते परमात्मा छे, ते सम्यग्दर्शन छे, ते सम्यग्ज्ञान छे, ते
उत्पाद – व्यय – ध्रुव छे, ते ज द्रव्य – गुण – पर्यायस्वरुप छे;
अनुभवथी ते कंई जुदा नथी.
ते आत्मा केवो अनुभव करे छे? तेनी स्पष्टता करतां
आचार्यदेव कळश ९२ मां कहे छे के –
‘चित्स्वभावना पूंज वडे ज पोतानां उत्पाद – व्यय – ध्रौव्य
भवाय छे – आवुं जेनुं परमार्थस्वरुप होवाथी जे एक छे; समस्त
बंधपद्धतिने दूर करीने आवा अपार समयसारने हुं अनुभवुं छुं.’
आवो अनुभव ते ज सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, ने
‘समयसार’ छे. आथी विरुद्ध बीजो कोई अनुभव सम्यग्दर्शनमां
के ज्ञानमां होता नथी. सम्यग्दर्शन ने सम्यग्ज्ञान जे शुद्धात्माने
अनुभवे छे ते एक ज छे, जुदा जुदा नथी.
अहा, समयसारनी आ गाथा १४३-१४४ नुं स्पष्टीकरण
श्रीगुरु – कहान ज्यारे प्रवचनमां करता, त्यारे चैतन्यअनुभूतिना
महिमाना कोई अनेरा भावो उल्लसता.....जे कोईक विरल ऊंडा –
मुमुक्षुओ ज झीलता, ने आवी अनुभूतिनो गंभीर महिमा
समजीने तेनो प्रयत्न जगाडता.

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सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूतिनो महिमा : १११
आम तो आखुंय समयसार सम्यग्दर्शनथी ने शुद्धात्मानी
अनुभूतिथी भरेलुं छे; तेमांय आ गा. १४३ – १४४ मां
सम्यग्दर्शन थवानुं खास वर्णन छे : तेमां वीस – वीस श्लोको
द्वारा तेमज गाथा द्वारा स्पष्ट समजाव्युं छे के नयपक्षना विकल्पो
वडे (भले हुं शुद्ध छुं एवो शुद्धनयनो विकल्प होय – तो पण तेना
वडे) शुद्धात्मानो निर्णय के अनुभूति थती नथी. प्रथम श्रुतज्ञान वडे
ज (विकल्पवडे नहि पण ज्ञानवडे ज) शुद्धात्मानो निर्णय थाय छे;
एवो निर्णय करनारुं ज्ञान, विकल्पोने (इंद्रियो तेमज मनने)
ओळंगीने, आत्मसन्मुख थईने शुद्धात्मानी अनुभूति करे छे;
आवी अनुभूति करनार आत्मा ते भगवान छे, ते समयसार छे;
सम्यग्दर्शन, ज्ञान ने आनंद पण ते ज छे.
आवो अनुभव करवो ते ज सर्वे संतोनो उपदेश छे.
‘साचो मार्ग ले.....तो फळ आवे’
(छ महिना तो वधुमां वधु)
आचार्यदेव करुणाथी कंईक ठपका साथे आत्महितनुं
मार्गदर्शन आपतां (कळश ३४मां) कहे छे के –
विरम.....!’ हे भव्य! तने नक्कामो कोलाहल करवाथी शुं
लाभ छे? एनाथी तुं विराम पाम. (तारी कल्पनाओ छोडी दे.)
अने एक चैतन्यमात्र वस्तुने पोते निश्चल लीन थई अंतरमां देख.
आवो, अमे कहीए छीए ते रीते, छ महिना आत्माने देखवानो
अभ्यास कर. – एम करवाथी तारा पोताना हृदयसरोवरमां
देहादिथी भिन्न तारा शुद्धआत्मानी उपलब्धि अनुभूति तने थशे
ज.

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११२ : साचो मार्ग ले..... )
( सम्यग्दर्शन
कोई कहे के अमे तो वर्षोथी घणी महेनत करीने तूटी मरीए
छीए, छतां केम कंई आत्मप्राप्ति थती नथी? – तो ज्ञानी
समजावे छे : हे भाई! तुं समज के तारो प्रयत्न साची दिशामां
नथी; तें ‘नकामो कोलाहल छोडीने’ प्रयत्न नथी कर्यो; तारा
निर्णयमां, ज्ञानमां, रुचिमां भूल छे; शुं भूल छे ते ज्ञानी ज तने
समजावी शकशे. बाकी तो, विकल्पमात्र कोलाहल छे, अने तुं कहे
छे के ‘हुं विकल्प वडे आत्मानो निर्णय के अभ्यास करुं छुं’ तो तें
विकल्पोना कोलाहलने क्यां छोडयो
? ऊल्टुं तेना ग्रहणनी बुद्धि
करी.....पछी आत्मानो मार्ग तने क्यांथी हाथ आवे? ‘पोतानी
रीते’ वर्षोथी प्रयत्न करवा छतां कांई हाथ न आव्युं तो समज के
तुं मार्ग ज भूल्यो छे. (दोडयो घणुं....पण ऊंधा रस्ते
!) ज्ञानी
पासेथी साची रीत समजीने फरी एकडे एकथी शरु कर अने पछी
जो....के छ महिनामां केवुं उत्तम फळ आवे छे
!!
साचा मार्गनुं, साचा निर्णयनुं, साचा प्रयत्ननुं फळ जरुर
आवे छे.....ने तत्काळ ते आत्मामां देखाय छे.
– माटे हे भव्य आत्मार्थी! तुं भय छोड.....अत्यार सुधी
जे कांई कर्युं ने निष्फळ गयुं तेनो आग्रह छोडी दे; ने कोईक
ज्ञानीना मार्गदर्शन अनुसार, प्रसन्नताथी.....साचा भावथी,
निःशंकपणे अने दुनियाथी निर्भयपणे, तुं आत्मानी अनुभूतिना
प्रयत्नमां तारा ‘ज्ञानने’ जोड जरुर महान आनंदसहित तने
आत्मअनुभूति थशे.....ने सम्यग्दर्शन वडे तारा आत्मकल्याणना
कोड पूरा थशे.

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सम्यग्दर्शन )
( विविध चर्चाओ : ११३
मुमुक्षुने उपयोगी विधविध चर्चाओ
ध्येयरुप सिद्धभगवान (स. गा. १)
आ मंगल गाथामां ‘वंदित्तु सव्व सिद्धे.....’ कहीने, साध्यरुप
सिद्ध भगवंतोने शुद्ध आत्माना आदर्श तरीके स्वीकार्या छे.
ते सिद्ध भगवंतो केवा छे? के स्वभाव – भावभूत एवी
सिद्धगतिरुपे परिणमेला छे, अपरिणामी नथी. आवा
सिद्धभगवंतोने आदर्शरुपे राखीने साधकजीव पोताना आत्माने
पण तेमना जेवो एटले के ‘शुद्ध पर्यायरुपे परिणमतो’ अनुभवे छे
ने तेने ध्यावीने पोते सिद्धपदरुपे परिणमी जाय छे.
‘ज्ञा.....य.....क.....भा.....व’ (स. गा. ६)
जे एक ज्ञायकभाव छे ते – ‘शुभाशुभ – कषायचक्ररुपे
परिणमतो नथी’ तेथी – प्रमत्त के अप्रमत्त नथी.....
‘कषायचक्ररुपे नथी परिणमतो’ एम कह्युं तेमां ज
‘अर्थापत्तिन्याये’ ए वात आवी गई के कषाय वगरना शुद्ध
ज्ञानचक्ररुपे ते परिणमे छे.
‘कोईपण भावरुपे परिणमतो नथी’ एम न कह्युं एटले के
ज्ञायकने अपरिणामी न कह्यो पण कषायचक्रथी जुदो ज्ञानपरिणामी
कह्यो. अने एवा ज्ञानरुप परिणमनारने ज अमे ‘शुद्ध – ज्ञायक’
कहीए छीए. (भिन्नपणे उपासवामां आवे त्यारे शुद्ध कहेवाय
छे.)
स्वानुभूति वखते ते ‘ज्ञायक’ (भले परने नथी जाणतो पण)
पोते पोताने जाणे छे, तेथी ते ज्ञायक ज छे : जाणनार पोते (कर्ता),

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११४ : विविध चर्चाओ )
( सम्यग्दर्शन
अने पोताने ज जाण्यो (ते कर्म) – एम कर्ताकर्मनुं अभिन्नपणुं
(द्रव्यपर्यायनुं अभिन्नपणुं) छे; ‘ज्ञायक’थी जुदो बीजो कोई
‘ज्ञाता’ नथी : ‘ज्ञात ते तो ते ज छे.’ आ छठ्ठी गाथानो अर्थ
केटलाक जीवो बराबर समजता नथी, अने ‘तेमां आत्माने सर्वथा
अपरिणामी कह्यो छे’ – एम माने छे, – ते भ्रान्तिनुं निराकरण
उपरना न्यायो समजवाथी थई शकशे.
अहीं ‘प्रमत्त – अप्रमत्त’ना अर्थमां १ थी १४ गुणस्थानो
लेवाना छे, – तेमां मोहादि उदयभावो भळेला होवाथी
गुणस्थानोने अशुद्ध कह्या; परंतु भेदज्ञानवडे ते उदयभावोने बाद
करीने जोतां जे सम्यक्त्व – केवळज्ञानादि शुद्धभावो देखाय छे ते
तो जीवनुं स्वरुप छे ने स्वभावथी जीव पोते ते – रुप परिणमे छे.
ते परिणमन जीवनुं ‘कर्म’ छे ने शुद्धजीव तेनो ‘कर्ता’ छे – एम
कर्ता – कर्मनुं अनन्यपणुं (एकपणुं) छे. आ, छठ्ठी गाथानुं ने
समयसारनुं तात्पर्य छे.
(गा. ३२२ थी ३४४)
सांख्यनी जेम – कोई जैन पण जो आत्माने सर्वथा
अपरिणामी माने तो ते पण मिथ्याद्रष्टि छे, – अने जिनवाणीना
विराधक छे; ए वात समयसार ३२२ थी ३४४ सुधीनी २३
गाथामां बहु स्पष्ट रीते समजावीने साबित कर्युं छे के आत्मा
अपरिणामी नथी पण स्वपरिणामी छे. अज्ञानी जीव पोताना
अज्ञानपरिणामने करे छे, ने भेदज्ञानी जीव ज्ञान भावरुप
परिणमतो थको ते ज्ञानपरिणामनो कर्ता (तथा विभावनो अकर्ता)
थाय छे. आ रीते जीव कंईक परिणाम तो करे ज छे.
c

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सम्यग्दर्शन )
( विविध चर्चाओ : ११५
समयसार गा. ११
भूतार्थनो आश्रय करनार जीव सम्यग्द्रष्टि
जैनधर्मनो मंत्र ] * [ शुद्धनय भूतार्थ
भूतार्थस्वभावी शुद्धाआत्मा, तेना अनुभवरुपे परिणमेलो
जीव ते पोते ‘शुद्धनय’ छे; ते ‘शुद्धनय’ भूतार्थ छे, ने एवा
‘भूतार्थ’ना आश्रयवाळो जीव सम्यग्द्रष्टि छे.
शुद्धनय तो श्रुतज्ञाननी पर्याय छे, पण अहीं ते पर्यायनो भेद
न करतां, शुद्धनय अने तेना विषयभूत शुद्धआत्मा – ते बंनेने
अभेद करीने, तेने ज (एटले के तेवा भावरुपे परिणमेला जीवने
ज) ‘भूतार्थ’ अने ‘शुद्धनय’ कहेल छे, ने ते पोते ज सम्यग्दर्शन छे.
आ रीते ‘शुद्धनय भूतार्थ’ होवानुं अने ते ‘भूतार्थना आश्रये
सम्यग्द्रष्टि’ होवानुं समजावीने प्रभु कुंदकुंदस्वामीए सम्यग्दर्शननो
अमोघ – मंत्र आप्यो छे. तेमने नमस्कार हो.
श्री गुरुकहान आ गाथाने जैनधर्मनो मंत्र कहेता हता.
नि ज प द
हे उत्तम मुमुक्षु!
जेम क्रोधादि विभावो ताराथी पर भावो छे ने बाह्य छे, तेम
तारा ज्ञानादि पर्यायोरुप चेतन भावोने ताराथी बाह्य के पर भावो
न मानीश, ते तो तारा स्वभावना अंतरंग निजभावो छे. –
सांभळ
! (समयसार : २०५)
मति – श्रुत – अवधि – मन: – केवळ तेह पद एक ज खरे,
आ ज्ञानपद परमार्थ छे, जे पामी जीव मुक्ति लहे.

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११६ : विविध चर्चाओ )
( सम्यग्दर्शन
– जे मति – श्रुत वगेरे ज्ञानपर्यायो छे तेओ ज्ञानमय आ
एक पदने भेदता नथी पण ऊल्टा अभिनंदे छे.
c जै नं ज य ति शा स नं c
आखाय समयसारमां, मूळगाथा के तेनी संस्कृतटीकामां
शुद्धपर्यायथी जुदो आत्मा क्यांय कह्यो नथी, सर्वत्र अभेद कह्यो छे.
तेम ज द्रव्य – गुण – पर्याय वच्चे प्रदेशभेद होवानुं पण क्यांय
कह्युं नथी. शतशतवार गुरुगमे समयसारना मथननो सार आ छे
के तारा शुद्ध द्रव्यगुणपर्यायथी तारो आत्मा अभेद छे – ते ज
आत्मानुं ‘एकत्व’ छे; ने तेने पर द्रव्यो तथा परभावोथी
भिन्नतारुप ‘विभक्त’ पणुं छे. आवा एकत्व – विभक्तरुप शुद्ध
अभेद आत्मानी अनुभूति करवी ते ज शुद्धनय छे; ने शुद्धनयनी
अनुभूतिथी ऊंचुं खरेखर बीजुं कांई नथी. अनुभूतिमां शुद्धनय
अने तेनो विषय अभेद छे; तेथी ‘शुद्धनय भूतार्थ छे’ अने आवी
अनुभूति ते ज जैनशासन छे.
जैनं जयति शासनम्
स्व-परनुं भेदज्ञान
‘अणुमात्र पण रागादिनो जेने पोतामां सद्भाव छे एटले
के रागना एक अंशमात्रने जे ज्ञानस्वभावमां भेळवे छे तेने
भेदज्ञान नथी, ते आत्माना शुद्ध स्वरुपने जाणतो नथी.’
हवे जेम ज्ञानी पोताना ज्ञानस्वभावमां परना एक अणु
मात्रने भेळवता नथी, तेम पोताना स्वभावना एक अंशने पण
पोताथी बहार परमां भेळवता नथी; पोताना ज्ञानना कोई अंशने

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सम्यग्दर्शन )
( विविध चर्चाओ : ११७
– कोई पर्यायने जे पोताना आत्माथी बहार (परद्रव्यरुप) माने छे
ते पण आत्माने परथी भिन्न जाणतो नथी.
जेम परना कोई अंशने स्वमां न लाववो,
तेम स्वना कोई अंशने स्वथी बहार न काढवो;
पर द्रव्य – गुण – पर्यायथी अत्यंत खाली, ने
स्व द्रव्य – गुण – पर्यायथी संपूर्ण पूरो.....
आवी आत्मश्रद्धा ने आत्मज्ञान ते ज सम्यग्दर्शन ने
सम्यग्ज्ञान.
स्वतत्त्वना कोई अंशने जे परमां नांखे छे तेने ‘अंशी’ खंडित
थई जाय छे एटले पूर्ण आत्मा प्रतीतमां आवतो नथी.
मात्र नवतत्त्वना भेदविचारमां रोकाई रहे तेने माटे ते
‘परभाव’ कह्यो; पण नवतत्त्वनुं साचुं स्वरुप विचारीने तेमांथी
आस्रवबंधरुप अशुद्धतत्त्वने छोडीने, संवरनिर्जरातत्त्वरुपे
(सम्यक्त्वादि – रुपे) जे स्वयं परिणमे छे तेने तो ते तत्त्व साथे
एकत्व परिणमन छे, तेना सम्यक्त्वादि कांई बाह्य तत्त्व नथी, तेने
तो ते अंत: तत्त्व छे – स्वभाव छे – उपादेय छे.
साचो विचारक तो सम्यक्त्वादिने पोताना आत्मामां
अभिन्न चिंतवीने, ते – रुप परिणमन करे छे. ‘जे सम्यक्दर्शन छे
ते आत्मा ज छे.’ सम्यक्त्वादिने पोताथी भिन्न चिंतववा ते विचार
खोटा छे ने तेवुं चिंतन करनार सम्यक्त्वादिरुप परिणमतो नथी;
– मिथ्यात्वरुप परिणमे छे.
‘मुज आत्म निश्चय ज्ञान छे,
मुज आत्म दर्शन – चरित छे;
मुज आत्म प्रत्याख्यान ने,
मुज आत्म संवर – योग छे.’

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११८ : विविध चर्चाओ )
( सम्यग्दर्शन
‘मुज ज्ञानमां आत्मा खरे,
दर्शन – चरितमां आतमा,
पच्चखाणमां आत्मा ज,
संवर – योगमां पण आतमा.’
– आ छे ज्ञानीनुं सम्यक् चिंतन!
साक्षी छे प्रभु कुंदकुंदस्वामी.
ज्ञानी ज्ञानक्रियाना कर्ता छे
आत्मा ज्ञानं...स्वयं ज्ञानम्
ज्ञानात् अन्यत् करोति किम्?
आत्मा पोते ज्ञानस्वरुप छे, ते ज्ञान सिवाय बीजुं शुं करे?
ज्ञानथी विरुद्ध अन्य भावोनो कर्ता आत्मा छे – एवी बुद्धि
ते अज्ञानी जीवोनो मोह छे.
हवे आनो व्यतिरेक करीने कोई एम माने के ‘मारो आत्मा
मारा निज भावनोय कर्ता नथी, के आत्मा पोतानी
ज्ञानादिपर्यायने पण करतो नथी,’ – तो ते पण अज्ञान अने
मोह छे, तेनेय कर्ता – कर्मना साचा स्वरुपनी खबर नथी.
भगवाने आत्माने ज्ञानथी अन्य एवा परभावनो अकर्ता
कह्यो छे, कांई निज – ज्ञानभावनो अकर्ता नथी कह्यो; तेनो
तो तन्मयरुपे कर्ता छे.

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सम्यग्दर्शन )
( विविध चर्चाओ : ११९
समयसार गा. ६९ – ७० मां आचार्यदेव कहे छे के –
‘ज्ञानक्रिया स्वभावभूत होवाथी निषेधवामां आवी नथी.’ – एटले
के आत्मामां ते स्वीकारवामां आवी छे. आत्मा एवो अक्रिय नथी
के तेनामां ज्ञानक्रिया पण न होय. रागादि क्रियाने आत्माथी भिन्न
कहीने, मोक्षमार्गमांथी तेनो निषेध कर्यो छे; ज्ञानक्रिया तो
आत्माना स्वभावभूत छे, तेने आत्माथी जुदी पाडी शकाय नहि,
तेनो निषेध करी शकाय नहीं. आत्मा सर्वथा अकर्ता नथी, निज
शुद्धभावनो तो कर्ता छे. ‘आत्मसिद्धि’ मां ज्ञान पामेलो शिष्य
पोताना अनुभवनुं वर्णन करतां कहे छे के –
‘‘अथवा निजपरिणाम जे शुद्ध चेतनारुप
कर्ता – भोक्ता तेहनो, निर्विकल्प – स्वरुप.’’
ज्ञानी विभावकर्मोना अकर्ता – अभोक्ता छे; परंतु पोताना
शुद्ध चेतनभावोना ते अभेदपणे (विकल्प वगर) कर्ता – भोक्ता
छे. आ शुद्ध कर्ता – भोक्तापणुं ज्ञानीने ज समजाय छे.
शुं अंदर अने शुं बहार ?
सम्यग्दर्शन आत्मानुं अंतरंग तत्त्व छे, के आत्माथी
बाह्य छे?
सम्यग्दर्शन ते आत्मानुं अभेद – अंतरंग तत्त्व छे, ते
आत्माथी जुदुं के बाह्य नथी.
धर्मात्मा पोताना शुद्ध द्रव्य – गुण – पर्यायोने पोतानी
अंदर समावे छे, कोईने बहार नथी राखतो; ने सर्वे रागादि
परभावोने पोताथी बहार राखे छे, चैतन्यमां नथी भेळवतो.
– आवी छे धर्मात्मानी भेदज्ञानदशा.
‘‘निजभावने छोडे नहीं; परभाव कंईपण नवग्रहे.’’

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१२० : विविध चर्चाओ )
( सम्यग्दर्शन
चैतन्यतत्त्वनुं ग्रहण विकल्प वडे न थाय
चैतन्यतत्त्व एवुं मोटुं महान अतीन्द्रिय छे के, तेने
विकल्पगम्य कहेवुं ते कलंक छे; ‘विकल्पथी आत्माने जाण्यो’ एम
कहेनारे आत्माने इन्द्रियगम्य – स्थूळ मान्यो छे. विकल्प पोते
मोहनो प्रकार छे, तेना वडे ज्ञानस्वरुप आत्मानुं ग्रहण (श्रद्धान,
ज्ञान के आचरण) केम थई शके
? चैतन्यनी जातरुप ज्ञान वडे ज
तेनुं ग्रहण थाय छे. आत्मानी शोभा विकल्पथी नथी; ज्ञानचेतनाथी
ज आत्मानी शोभा छे. विकल्पमां आत्मानो स्वाद नथी, तेमां तो
मोहनो स्वाद छे. आत्मानो स्वाद तो चेतनामां छे. आ रीते चेतना
अने विकल्पने स्वादभेदे अत्यंत भिन्नता छे. आवी भिन्नता
जाणी, प्रज्ञाछीणी वडे विकल्पोने जुदा करीने, अने चेतनामां एकत्व
करीने, शुद्धआत्मानी स्वानुभूति थाय छे.
स्वानुभवनी परंपरा
प्रश्न : – सम्यग्द्रष्टि – ज्ञानी पोते पोताना स्वानुभवनी
वात करे?
उत्तर : – हा; श्रीगुरु पासे, तेमज सुयोग्य आत्मार्थी जीवो
पासे ज्ञानी पोताना स्वानुभवनी वात करे. ‘हे प्रभो! आपना
प्रसादथी मने शुद्धात्मा मळ्यो’ एम कहीने उपकार माने.
– तो पछी, नियमसारमां तो कह्युं छे के ज्ञानीजीव
परजननो संग छोडीने पोताना ज्ञाननिधिने भोगवे’ – तेनो शुं
अर्थ छे
?

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सम्यग्दर्शन )
( विविध चर्चाओ : १२१
– भाई, एमां तो धर्मना विरोधी जीवो, के तत्त्वनी जिज्ञासा
वगरना साव लौकिक जीवोने ‘परजन’ कह्या छे, तेवा जीवोनो संग
वादविवादना क्लेशनुं कारण थतो होवाथी ते छोडीने, ज्ञानी पोताना
ज्ञाननिधिने भोगवे – एम कह्युं छे; पण पोताना गुरुजनो उपकारी
पुरुषो तेमज तत्त्वजिज्ञासु साधर्मी – सज्जनो तेमने कांई ‘परजन’
नथी कह्या; तेमनो तो संग करे, तेमज तेमनी साथे स्वानुभवनी चर्चा
पण करे. ज्यांत्यां अयोग्य स्थाने तेनी चर्चा न करे. जो सुयोग्य जीव
साथे पण ज्ञानी पोताना स्वानुभवनी चर्चा न करे तो जगतमां
स्वानुभूतिना मार्गनी परंपरा कई रीते चालशे
?
वळी जुओ, देशनालब्धिनो नियम शुं सूचवे छे? कोई पण
स्वानुभूतिवंत ज्ञानीना श्रीमुखथी आत्माना अनुभवनी वात
‘प्रत्यक्ष सांभळीने’ (टेप द्वारा सांभळीने के लखाण वांचीने नहि
पण एकवार प्रत्यक्ष सांभळीने) जीवने देशनालब्धि थाय
छे.....अने पछी सुपात्र जीव तेवो स्वानुभव करे छे. हवे जो ज्ञानी
पोताना अनुभवनी वात बोले ज नहि तो देशनालब्धिनो ज लोप
थई जाय
!
घणा लोको भ्रमणाथी एम माने छे के ‘हीरा मुखसे ना कहे,
लाख हमारा मोल, तेम ज्ञानी पोते पोताना अनुभवनी वात न
करे
!’ – पण ते वात बराबर नथी. प्रथम तो हीराने मुख – जीभ
ज नथी के ते बोले; अथवा हीरानी चमक ए ज एनुं मुख छे ने
तेना द्वारा ते प्रसिद्ध करे ज छे के हुं केटलो मुल्यवान छुं
! तेम
ज्ञानीनी वाणीमां स्वानुभवनी चमक होय छे ने तेना उपरथी
झवेरी जेवा कुशळ जिज्ञासुओ तेमने पारखी लईने पोतानुं कल्याण
करे छे. आ लेखकने जीवनमां अनेक ज्ञानीओ मळ्यां छे, ने तेमना
श्रीमुखथी तेमना स्वानुभवनी वात प्रत्यक्ष सांभळी छे, – जे
अपूर्व कल्याणनुं कारण थयुं छे.

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१२२ : विविध चर्चाओ )
( सम्यग्दर्शन
शास्त्रोमां पण एवा हजारो प्रसंगो छे के जेमां ज्ञानी पोतानी
अनुभूतिनुं निःशंक वर्णन करता होय, तेमांथी थोडाक नमूना अहीं
आपीए छीए : –
(समयसार गा : ५) निरंतर झरता आनंदनी छापवाळा
प्रचुर स्वसंवेदनथी मने निजवैभव प्रगटयो छे.....
(स. कळश २०) आ आत्मज्योतिने अमे निरंतर
अनुभवीए छीए.
(कळश : ३०) हुं पोताथी ज पोताना एक आत्मस्वरुपने
अनुभवुं छुं.
(गा. ३८) प्रतिबुद्ध शिष्य, पोताने जे अपूर्व आत्मअनुभव
थयो तेनुं वर्णन करतां स्वमुखे कहे छे के – हुं अनादिथी
अप्रतिबुद्ध हतो; हवे विरक्त गुरुथी निरंतर समजाववामां
आवतां.....पोताना परमेश्वर आत्माने जाणीने, तेनुं श्रद्धान
करीने तथा आचरण करीने जे सम्यक् प्रकारे एक आत्माराम
थयो; ते हुं एवो अनुभव करुं छुं के.....महान ज्ञानप्रकाश
मने प्रगट थयो छे.
श्रीमद् राजचंद्रजी कहे छे –
‘ओगणीसो ने सुडतालीसे समकित शुद्ध प्रकाश्युं रे.’
‘दर्शनमोह व्यतीत थई उपज्यो बोध जे
देहभिन्न केवळ चैतन्यनुं ज्ञान जो.’
(आ काव्यमां चारित्रनी भावना भावी छे पण ‘आत्मबोध
क्यारे थशे’ एम भावना नथी करी, केमके आत्मबोध तो थई गयो
छे.)
‘अमारुं जे अनुभवज्ञान तेनुं फळ वीतरागता छे.’

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सम्यग्दर्शन )
( विविध चर्चाओ : १२३
‘आत्मसिद्धि’मां बोधबीज पामेलो शिष्य कहे छे के –
‘सद्गुरुना उपदेशथी आव्युं अपूर्व भान;
निजपद निजमांही लह्युं, दूर थयुं अज्ञान.
भास्युं निजस्वरुप ते शुद्ध चेतनारुप;
अजर अमर अविनाशी ने देहातीत स्वरुप.’
प्रवचनसार : पहेली ज गाथानो पहेलो शब्द ‘एष.....’ तेना
अर्थमां कहे छे के ‘आ स्वसंवेदन – प्रत्यक्ष हुं.....प्रणमुं छुं.
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रना ऐक्यस्वरुप एकाग्रताने हुं
अवलंब्यो छुं.
(गा. ८०) मोहनी सेनाने जीतवानो उपाय में मेळव्यो
छे.....अर्थात् मने सम्यग्दर्शन थयुं छे.....में चिंतामणि प्राप्त
कर्यो छे.....मारी मति व्यवस्थित थई छे.....
(गा. ९२) बहिर्मोहद्रष्टि आगमकौशल्य तथा आत्मज्ञान वडे
हणाई गई होवाथी हवे मने फरीने उत्पन्न थवानी
नथी.....‘आ आत्मा स्वयमेव धर्म थयो.’
(प्र. गा. १९९) ‘मोक्षमार्ग अवधारित कर्यो छे, कृत्य कराय
छे.’ अर्थात् मोक्षमार्ग नक्की करीने तेमां चाली रह्या छीए.
(गा. २००) हुं आ मोक्षाधिकारी, ज्ञायकस्वभावी
आत्मतत्त्वना परिज्ञानपूर्वक.....शुद्धात्मामां प्रवर्तुं छुं.
– आ रीते स्वानुभवी ज्ञानीजनो, सुयोग्य प्रसंगे सुपात्र
जीवो समक्ष पोताना स्वानुभवनी महा आनंदकारी वात करे छे, ने
जिज्ञासु जीवोने ते महान आत्मलाभनुं कारण थाय छे.
जिज्ञासुओने माटे आ विषय महत्त्वनो अने लाभकारी होवाथी
तेनुं स्पष्टीकरण कर्युं छे.
c

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१२४ : विविध चर्चाओ )
( सम्यग्दर्शन
‘सारुं छे.....तेने देखो’
हे जीव! तारा आत्मामां क्यारेय एकलो उदयभाव नथी
होतो, बीजा सारा भावो पण सदाय तारामां होय ज छे; तेनी
सुंदरता ओळखतां ज उदयभावो जुदा पडी जाय छे. एकला
विभावने न देख; सारुं छे तेने देख.
उदय भाव विनाना तो घणाय जीवो जोवा मळे छे;
चेतनभाव विनानो तो कोई ज जीव होतो नथी.
– आ वात विचारीने प्रयोग करतां जरुर भेदज्ञान थाय छे
ने उपशमादि भावो प्रगटे छे.
मारी माता
हे जिनवाणी – मा! साचा भावथी में जीवनभर तारी सेवा
करी, मारुं आखुंय जीवन ने आत्मा तने समर्पित करी दीधा; तो
तेना फळमां तुं मने शुं आपीश
?
हे वत्स! सांभळ! जेम तें तारुं सर्वस्व मने समर्पित कर्युं
तेम में पण मारुं सर्वस्व तने समर्पित करी दीधुं छे : मारी पासे
उत्तम त्रण रत्नो, तेमांथी अपूर्व सम्यक्त्व – रत्न तो हुं तने दई
चुकी छुं अने बाकीनां बे वीतरागता ने केवळज्ञानरुप महा रत्नो
पण थोडा ज वखतमां हुं तने आपीश.
धन्य माता, तारी सेवानुं सर्वोत्तम फळ तें मने आप्युं. तारी
सेवाथी जीवन धन्य बन्युं, मारो आत्मा कृतकृत्य थयो.
तने नमस्कार हो.

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सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १२५
स्वानुभूति-प्रकाश
देख्यो रे देख्यो अद्भुत वैभव अंतरे,
अनंतगुणनिधि छुं आतमदेव जो;
चेतनभाव ज प्रसरी रह्यो छे एकलो,
सर्वप्रदेशे सुख – सुख बस, सुख जो...
(स्वानुभूति संबंधी ४७ पद तथा तेना अर्थ)
ब्र. हरिलाल जैन

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१२६ : स्वानुभूति-प्रकाश )
( सम्यग्दर्शन
स्वानुभूति – प्रकाश
आ ‘स्वानुभूति – प्रकाश’शास्त्र अंतरनी अनुभूतिना
भावो वडे रचायेलुं छे. आना भावो समजीने जे मुमुक्षुजीवो
आदरथी – विश्वासथी अने ऊंडा मननथी आनो स्वाध्याय करशे
ते जीवोने स्वानुभूति प्रत्येनो परम उत्साह जागशे अने अत्यंत
अल्पकाळमां ज तेओ स्वानुभूतिनो प्रकाश करीने चैतन्यना परम
अतीन्द्रिय आनंदने पामशे. अने, जेओ आवा अतीन्द्रिय –
आनंदने पामेला छे एवा – स्वानुभूतिवंता मारा साधर्मीजनो
पण आ स्वानुभूतिप्रकाश – शास्त्र द्वारा पोतानी स्वानुभूतिने
फरी फरीने अत्यंत ताजी करीने खूब आनंदित थशे.
स्वानुभूतिनो प्रकाश जगतना सर्वे मुमुक्षुजीवोमां
विस्तरो ने जैनशासननी आ स्वानुभूति जगतनुं कल्याण करो.
‘‘जय वर्द्धमान’’ ब्र. हरिलाल जैन

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सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १२७
नमः श्री वर्द्धमानाय
उ प का र
जेमना प्रतापथी आ आत्मा स्वानुभूति पाम्यो अने
पोताना इष्ट पदनी प्राप्ति थई एवा महावीर भगवाननो
महान उपकार छे.....तेमने नमस्कार हो.
अभिमतफलसिद्धेः अभ्युपायः सुबोधः
स च भवति सुशास्त्रात् तस्य चोत्पत्तिः आप्तात् ।
इति भवति स पूज्य तत्प्रसादात् प्रबुद्धेः
न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरंति ।।
शास्त्रनी उत्पत्ति ‘आप्त’ एटले सर्वज्ञदेव अने परम
गुरुओथी थाय छे; अने तेना वडे सुबोध प्रगटे छे के जे
इष्ट फळनी प्राप्तिनो उपाय छे. आ रीते, तेमना प्रसादथी
प्रबुद्ध थयेला बुधजनोवडे ते आप्तपुरुषो पूजनीय छे;
केमके सत्पुरुष – धर्मात्माओ पोताना उपर करेला
पंचपरमेष्ठी भगवंतोना उपकारने कदी भूलता नथी.