Samyak Darshan Part 7 8-Gujarati (Devanagari transliteration). Pad 1; Pad 2; Pad 3; Pad 4; Pad 5; Pad 6; Pad 7-8; Pad 9; Pad 10; Pad 11; Pad 12; Pad 13; Pad 14; Pad 15.

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१२८ : स्वानुभूति-प्रकाश )
( सम्यग्दर्शन
अहो पंचपरमेष्ठी भगवंतो! आपनो कोई अचिंत्य परम
अद्भुत उपकार छे के आपे आ जीवने परम इष्टरुप एवो
आत्मानो सुबोध आप्यो छे. आपना ते उपकारने याद करीने
फरीफरीने हुं आपने नमस्कार करुं छुं.
अहो महावीर भगवान! आपना उपकारनी शी वात करुं!
सर्वज्ञ थया पछी दिव्यध्वनि वडे विपुलाचल उपरथी चैतन्यनुं
अद्भुत स्वरुप आपे प्रकाश्युं; गौतमस्वामी गणधरदेव जेवा
अनेक भव्य जीवोए ते झील्युं; ते झीलीने ते जीवो स्वयं
मोक्षमार्गरुप थया.....पोताना परम इष्ट पदने पाम्या. तेमना
उपर आपे जेवो महान परम उपकार कर्यो तेवो ज उपकार,
आपना पछी परंपरामां कुंदकुंदाचार्यदेव थया, बीजा अनेक संतो
थया – तेमना द्वारा आ जीवने पण प्राप्त थयो.
अहो प्रभो! आपना उपकारने याद करतां आत्मा कोई
अचिंत्य अद्भुत आनंदने अनुभवे छे; केमके आपना शासनना
प्रतापे, धर्ममाताओ द्वारा अने पूज्य श्री कहानगुरुद्वारा आपनुं
जे परम शासन आ जीवने प्राप्त थयुं ते शासन द्वारा, आपे
बतावेली शुद्धात्मतत्त्वनी अनुभूति आ आत्मा पण पाम्यो. अनंत
अनंत काळना पूर्वनां भयंकर भवदुःख – अज्ञान – मिथ्यात्व –
कषायभावो तेनाथी आ आत्मा छूटो पडयो अने आपे बतावेला
आनंद – सुख – शांति तेने आ जीव पाम्यो.
अहो प्रभो! स्वानुभूतिथी प्राप्त थयेलो जे मोक्षनो मार्ग,
– आपे बतावेलो मोक्षनो मार्ग, तेमां आ आत्मा वीरसंवत
२४९७ ना अषाड वद सातमे दाखल थयो. अहा, ए अद्भुत
आनंदमय स्वानुभूति – प्रकाश.....तेने फरीफरीने याद करतां
तेनी साथे आपनो परम अचिंत्य उपकार हे महावीरनाथ
! मने
याद आवे छे. ते उपकारनी महान स्मृतिरुपे, अने आ आत्माने
पोतानी आनंदमय स्वानुभूतिनो जे अपूर्व प्रकाश थयो तेना
फरीफरीने घोलन माटे, स्वानुभूतिनी आ पदरचना करुं छुं.

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सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १२९
स्वानुभूति – प्रकाश
अचिंत्य आतम देख्यो सम्यक् भावथी,
अतिशय आनंद उल्लसी शांतरस धार जो;
जीवन धन्य बन्युं छे आतम साधतां,
झडपे चाल्या मोक्षसन्मुखी वहेण जो....
जागी रे जागी स्वानुभूति मुज आत्ममां...(१)
अहो भगवान! आपना शासनमां आत्मानुं जे सम्यक्
स्वरुप आपे बताव्युं तेवुं सम्यक् देखतां, अनुभवमां लेतां
चैतन्यमां आनंदरसनी जे अपूर्व धारा उल्लसी, जे एक अद्भुत
अचिंत्य – पूर्वे कदी नहि अनुभवायेली एवी शांति अनुभवाणी.
अनंतगुणथी भरेली गंभीर शांति आत्मामां प्रगटी, तेनी शी
वात
! प्रभो, आपना शासनमां आवी अनुभूति पामीने मारुं
जीवन धन्य बन्युं छे. अहो, आत्मानी परिणति संसारथी छूटीने
एकदम झडपथी मोक्षपुरी तरफ चाली रही छे.
अहा प्रभो, आपना शासननी गंभीरता! आपे
बतावेला चैतन्यतत्त्वनी अपूर्व गंभीरता हवे मने समजाय छे.
दुःखमांथी सुख थयुं. अशांतिमांथी शांति थई, रागमांथी
वीतरागता थई, आत्मा कदी न जोयेलो ते साक्षात् प्रत्यक्षीभूत
थयो, – ए दशानी शी वात
! एक साधारण जीवने पण
अशुभमांथी शुभभाव थतां पोताने खबर पडे छे के मारा
परिणाम पलटी गया, तो शुद्धोपयोग वडे संसारनी दशा
पलटीने मोक्ष तरफनो भाव प्रगटे, कषायभाव छूटीने अकषायी
शांति प्रगटे अने ते पण पोताना स्वसंवेदनप्रत्यक्षथी
अनुभवमां आवे, – ए अनुभवनी निःशंकतानी शी वात
!
– अहो, मारा आत्मामां आवी स्वानुभूति जागी छे. ।।१।।

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१३० : स्वानुभूति-प्रकाश )
( सम्यग्दर्शन
(२)
अनंत गुण गंभीर छे चैतन्य धाम आ,
अहो, अहो, शी वेदन केरी वात जो;
सुडतालीसमे वरसे समकित पामीने,
थयो छुं हुं हरिस्वरुप साक्षात जो.....
प्रभो! आपनो बतावेलो मार्ग आत्माने परमात्मा
बनावनारो छे; तेनुं जे वेदन थयुं, ते वेदनमां जे चैतन्यधाम
देखायुं.....चैतन्यधाममां आत्मानो प्रवेश थयो, ने तेमां
अनंतगुणथी गंभीर एवी जे अनुभूति थई – तेनी शी वात
!
अहो प्रभो! जे वचनथी पार, जे विकल्पथी पार, जे स्वसंवेदन-
प्रत्यक्षगम्य, – एनी अनुभूतिनी शी वात! जे ज्ञान स्वसंवेदनना
बळे हे सर्वज्ञदेव! आपना ज्ञाननी जातनुं ज थई गयुं, ते ज्ञानना
महिमानी, ते ज्ञाननी शांतिनी, ते ज्ञानमां समायेली अनंत गुणनी
गंभीरतानी वात तो स्वानुभूतिमां ज समाय छे.
आत्मानी अनंतशक्तिमांथी ४७ शक्तिना वर्णन द्वारा
अमृतचंद्राचार्यदेवे, तेमज ‘ज्ञायकभाव’ कहीने कुंदकुंदाचार्य
भगवाने जे अद्भुत आत्मस्वरुप बताव्युं छे ते शक्तिस्वरुप
आत्मा आ जीवनना ४७ मा वर्षमां सम्यक्त्वद्वारा प्राप्त थयो.
हे कुंदकुंदस्वामी! आपे जेवो निज वैभव बताव्यो, आत्माना
अपार वैभवथी आपे जे एकत्व – विभक्त शुद्धआत्मा बताव्यो,
तेवो शुद्धात्मा आपना प्रतापे मने प्राप्त थयो, तेथी फरीफरीने
आपनो उपकार मानुं छुं. ।।२।।

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सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १३१
(३)
परम भाग्ये कहान – गुरुना संगमां,
लेवा समकित आव्यो हरिप्रसंग जो;
अद्भुत माता वेदक मारा आत्मना,
ए छे मारां सम्यक्ना दातार जो.....
अहो, आ जीवने सम्यक्त्वनी प्राप्ति थई तेमां परम
उपकारभूत श्री कहानगुरु छे के जेओ भविष्यना एक महान
तीर्थंकर छे; अने पूज्य बन्ने धर्ममाताओ, – के जेमणे आ
बाळकने परम वात्सल्यथी चैतन्यनुं अमृत निरंतर पीवडाव्युं छे –
ते माताओ द्वारा अंतरनी उर्मिथी बतावायेलो शुद्धआत्मा आ
जीवने प्राप्त थयो छे, तेथी ते माताओनो पण खरेखर परम
उपकार छे; ते माता सम्यक्त्वना दाता छे.
आ जीवनमां सं. १९९९ मां (१९ वर्षनी वये) कोई
अचानक सुयोगे (राजकोटमां) ट्रेईन चुकी जतां कहानगुरुनो संग
मने प्राप्त थयो; सम्यक्त्व पामवा माटे ज कुदरते मने कहानगुरुना
चरणमां मुक्यो, ने ए कहानगुरुनी मंगल छायामां आत्महितनी
भावना भावतां – भावतां, जिनवाणीनो अभ्यास करतां – करतां,
धर्ममाताओ पासेथी वारंवार आत्मानुं प्रोत्साहन मेळवतां –
मेळवतां, जे चैतन्यरसनुं घोलन थयुं, चैतन्यरस वारंवार घूंटायो,
दिनरात निरंतर आत्मानी शांति केम मळे
! आत्मा संसारना
दुःखथी छूटीने धर्मनी अनुभूति केम पामे? एवी अनुभूतिने
पामेला परम वैराग्यवंत धर्ममाताओना जीवनने वारंवार देखी –
देखीने अत्यंत उत्कंठा जागती हती के अहो
! मारुं जीवन पण आ
धर्ममाताओ जेवुं क्यारे थाय! – एम वारंवार खूब खूब भावना
भावतां – भावतां, गुरुओना चरणमां रहेतां – रहेतां,

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१३२ : स्वानुभूति-प्रकाश )
( सम्यग्दर्शन
माताओनी सेवा करतां – करतां, अंते चैतन्यनी भावना सफळ
थई, अने आ जीव तेओना परम उपकारने लीधे सम्यक्त्व पाम्यो.
अहो, मने सम्यक्त्वना दातार संतो
! हुं आपनो आत्माना परम
उल्लासथी, असंख्य प्रदेशे परम भक्तिथी अपार – अपार उपकार
मानुं छुं. ।।३।।
(४)
स्वसंवेदन मारुं ऊंडुं अपार छे,
विकल्पो – जड पामी शके नहीं पार जो;
अडी शके नहीं अंतर आतमरामने,
चेतनथी छे विलक्षण सौ भाव जो.....
मने अंतरमां चैतन्यनुं जे वेदन थयुं ते अपार ऊंडुं, एकला
चैतन्यभावथी भरेलुं, चैतन्यरसनी परम गंभीरताथी भरेलुं छे;
कोई विकल्पो, कोई जड – वाणी एनो पार पामी शकता नथी;
केमके आ चैतन्यतत्त्व – तेने कोई विकल्पो के इन्द्रियगम्य पदार्थो
अडी शकता नथी. अहो, चैतन्यनो विलक्षण भाव
! एककोर रागनो
भाव, अने एककोर चैतन्यनो भाव; बंने एकबीजाथी विरुद्ध –
लक्षणवाळां विलक्षण छे. रागथी विलक्षण, जडथी विलक्षण एवुं
कोई परम चैतन्यस्वरुप आत्मतत्त्व, – अंतरनो मारो
आतमराम, ते स्वसंवेदनमां समायेलो छे; ते वाणीमां – विकल्पमां
आवी शकतो नथी; तेनुं जे स्वसंवेदन थयुं तेमां कोई वाणीनी
अपेक्षा न हती, कोई विकल्पनी अपेक्षा न हती, अंदर मात्र
चैतन्यरस एक ज घोळातो हतो. ।।४।।

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सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १३३
(५)
मारुं वेदन अंतर मुज समाय छे,
बहारमां नहीं आवे कोई भाव जो,
केम करीने देखे बाहिर जीवडा
!
खोलो खोलो अद्भुत अंतर नेन जो.....
अहा, चैतन्यनुं जे वेदन ते तो चैतन्यनी अनुभूतिमां ज
समाय छे. ते अनुभूतिना कोई भावो बहारमां नथी देखाता;
चैतन्यना भावो चैतन्यमां अभेद थईने परिणमी गया, ते
बहारमां इन्द्रियथी देखाय के रागथी तेनुं अनुमान थई शके –
तेवा नथी, ते तो अतीन्द्रिय भाव छे, एटले बाहिर – जीवडा,
बहारमां देखनारा जीवडाओ आ अनुभूतिने अरेरे
! क्यांथी देखी
शके?
अहो जीवो! आ अद्भुत अनुभूतिने देखवा माटे अंतरमां
अद्भुत चैतन्य नेत्रने खोलो.....खोलो! धर्मात्मानी अनुभूति
मुमुक्षु जीव पोताना अंतरना चैतन्य – नेत्रो वडे ज देखी शके छे.
ते धर्मात्मानी अतीन्द्रिय अनुभूतिने ओळखवा माटे पण जिज्ञासु
आत्मामां कोई अनेरा भाव होवा जोईए; एकला राग भावथी,
एकला शुभरागनी भक्तिना भावथी के बहारनी कोई चेष्टाओथी
ए धर्मात्मानी अनुभूति अनुमानगम्य पण थई शकती नथी.
धर्मात्मानी अनुभूतिनो भाव जेम रागथी पार अतीन्द्रिय थयेलो
छे, तेम ते अनुभूतिने ओळखवा माटेनो भाव पण रागथी जराक
छूटो पडेलो अने ज्ञानना रसवाळो होय छे. एटले आवी अद्भुत
अनुभूतिने जगतना बाह्यद्रष्टिवाळा जीवो देखे के न देखे, एनी
साथे अनुभूतिने कांई ज संबंध नथी. पंचपरमेष्ठी भगवंतो आवी
आत्मिक अनुभूतिने देखी रह्या छे, धर्मात्माओ आवी आत्मिक

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१३४ : स्वानुभूति-प्रकाश )
( सम्यग्दर्शन
अनुभूति पोतामां वेदी रह्या छे, अने बीजा धर्मात्माओमां पण
आवी ज अनुभूति थाय छे एम तेओ अनुमानथी जाणी शके
छे. ।।५।।
(६)
देख्यो रे देख्यो अद्भुत वैभव अंतरे,
अनंत गुणनिधि छुं आतमदेव जो
चेतनभाव ज प्रसरी रह्यो छे एकलो,
सर्व प्रदेशे सुख – सुख बस, सुख जो.....
– आत्मप्रदेशे सुख – सुख बस, सुख जो.....
वाह रे वाह! अनुभूतिमां तो बस, आत्माना सर्व प्रदेशोमां
एकलुं सुख सुख ने सुख! एक सुखनो महान समुद्र ज पोते
पोतानी अनुभूतिमां आवे छे; एमां एकलो चैतन्यभाव सर्वत्र
भरेलो छे. ए वखते आत्मा पोते पोताना ‘एकत्व’ने – पोताने
एकने ज – एकलो-एकलो स्वसंवेदनमां वेदे छे. आहा
! अंतरमां
अनंत गुणनिधान पोते ज भगवानपणे में मने देख्यो....देख्यो. –
एवो स्पष्ट देख्यो, आंखथी जेम थांभलो देखाय एना करतां पण
वधु स्पष्ट, – प्रत्यक्ष ज्ञान वडे स्वसंवेदननी स्वानुभूतिथी
आत्माने प्रत्यक्ष देख्यो.
जेे इन्द्रियज्ञानथी स्पष्ट देखाय ते तो परोक्ष ज्ञान छे; आ तो
अतीन्द्रिय ज्ञानथी देखायेलो आत्मा – एनी स्पष्टतानी, एनी
प्रत्यक्षतानी शी वात
! अहो महावीर भगवान! आपना शासनमां
आत्मानो जे शांतरस उल्लस्यो – एनी शी वात! ।।६।।

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सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १३५
(७)
शांत शांतरस उल्लस्यो गुणना धाममां,
अनंत गुणोना रसमां डूब्या राम जो;
दरियो ऊंडो केवो चैतन्य रसनो,
स्वयंभूथी पण नहीं माप मपाय जो.....
अहो, अनुभूतिमां चैतन्यना गुणना धाममां जे शांत –
शांतरस ऊछळ्यो, जे शांतरसनुं वेदन थयुं, अने आत्मा पोताना
अनंत गुणना चैतन्यरसमां लीन थयो, एनी शी वात
!
स्वयंभूरमण समुद्र मोटामां मोटो दरियो गणाय छे, परंतु एना
वडे पण जेनुं माप थई शकतुं नथी, जेनी गंभीरता अनंता
स्वयंभूरमण समुद्रथी पण अधिक छे, जेनी गंभीरता एकमात्र
अतीन्द्रिय ज्ञानमां ज समाई शके छे, बीजी कोई रीते जेनुं माप
थई शकतुं नथी एवो अमाप – अगाध शांत चैतन्यरसनो समुद्र
आत्मानी अनुभूतिमां उल्लस्यो.
ए वखते आत्मा एकलो – एकलो पोताना एकत्वना
आनंदमां डोलतो हतो. ।।७।।
(८)
एकाकी एकाकी निजमां डोलतो,
कदी न आवे, निज मर्यादा बाह्य जो;
एवुं वेदन अंतरमां शुद्ध भावनुं,
मलिन भावो जेमां कदी न समाय जो.....
आत्मा पोताना द्रव्य – गुण – पर्यायने पोतामां समावतो,
पोताना एकत्वमां डोलतो हतो; एकत्वमां बीजा कोई अशुद्धभावो,
बीजा कोई भेदो, बीजा कोई विकल्पो के अन्य कोई संग त्यां

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१३६ : स्वानुभूति-प्रकाश )
( सम्यग्दर्शन
देखातो न हतो. चेतनराजा एकलो पोताना शुद्ध वेदनमां
परिणमतो, पोतानी मर्यादामां स्वघरमां समातो, आनंदथी
परिणमतो हतो. पोताना द्रव्य – गुण – पर्यायनी शुद्धतानी
एकता, – ए एकत्वनी मर्यादाथी बहार ए जरा पण न जतो;
ने पोताना स्वरुपना वेदनमां अन्य भावने पोते आववा देतो न
हतो; पोताना एकत्वना वेदनने कोई अन्य भावथी के कोई
भंगभेदथी खंडित करतो न हतो.
– आवुं अद्भुत एकत्व! सुंदर एकत्व! कुंदकुंद स्वामीए
बतावेलुं एकत्व, मारी अनुभूतिमां मने प्राप्त थयुं. अनुभूतिमां
आवुं एकत्वस्वरुप प्राप्त थतां कोई अद्भुत – आश्चर्यकारी
मोक्षनो मंगळ महोत्सव जाणे थतो होय
! मारा चैतन्यमां जाणे
अनंता अरिहंत अने सिद्ध भगवंतो पधारीने मने आनंदित करता
होय
! एवो कोई अद्भुत आनंद – उल्लास थतो हतो. अनुभव
वखते तो ए आनंद – उल्लास के अरिहंतोनी पधरामणी – एवो
कोई भेदभाव पण न हतो. चैतन्यनी अनुभूतिमां अभेदपणे
पंचपरमेष्ठी भगवंतो पण समायेला ज हता. त्यां न कोई विकल्प
हतो, न कोई उल्लासनी वृत्तिनो भाव हतो, मात्र चैतन्यनी
शांतपरिणति, – निर्विकल्प परिणति, – अभेद परिणति
आत्मामां परिणमती हती. ते अनुभूतिमां अरिहंतो – सिद्धो पण
साक्षात् थया, – एमनुं जेवुं स्वरुप छे तेवुं स्वरुप साक्षात थयुं,
एटले जाणे आहा
! मारा आत्मामां सदाय अरिहंतो बिराजी ज
रह्या छे. सिद्धो पण मारा आत्मामां सदा वसी ज रह्या छे;
पंचपरमेष्ठीने मारा आत्माथी बहार क्यांय मारे जोवा जवुं पडे –
एम छे ज नहीं. खरी अरिहंतोनी ओळखाण, सिद्धभगवंतोनी
आत्मामां पधरामणी, कुंदकुंदस्वामी जेवा धर्मात्मा पुरुषोनी साची
ओळखाण आ अनुभूतिमां थई. ।।८।।

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सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १३७
(९)
अरिहंतो आव्या छे अहो मुज अंतरे,
सिद्ध प्रभु पण बिराजे साक्षात जो.
साक्षी सर्वे साधक संतो आपता,
एवी अनुभूति ‘छे’ इन्द्रिय – तीत जो.....
अहो आ अनुभूति! ए अनुभूति ज्यारे थई, अने
अतीन्द्रिय आत्मा स्वसंवेदनगोचर थयो त्यारे ज खबर पडी के
अरिहंत अने सिद्ध भगवंतो केवा छे
! केमके सर्वज्ञ अरिहंतो अने
सिद्ध भगवंतो ते अतीन्द्रिय ज्ञानथी ज ओळखाय एवा छे. स्वयं
अतीन्द्रिय थयेला सर्वज्ञो, – अतीन्द्रिय आनंदरुपे परिणमता
सर्वज्ञो, – एमनी ओळखाण पोताना अतीन्द्रिय स्वसंवेदन द्वारा
ज थई शके छे. अतीन्द्रिय स्वसंवेदनमां जे थोडुंक अतीन्द्रियपणुं
थयुं ने अतीन्द्रिय आनंदनो थोडोक अंश स्वादमां आव्यो तेना
उपरथी खबर पडी के अहो, आवुं अद्भुत ज्ञान ने आवो अद्भुत
अतीन्द्रिय आनंद – एने घणो घणो वधारे – परिपूर्णपणे
अरिहंतो अने सिद्ध भगवंतो अनुभवी रह्या छे, ए ज ज्ञान अने
आनंदनो थोडोक नमूनो आ आत्माने प्राप्त थयो.
आ आत्माने जे स्वसंवेदनरुप स्वानुभूति थई ते
अनुभूतिमां सर्वे साधक संतोनी साक्षी छे.
अहो, जिनशासनमां आवी जे अनुभूति सत्रुपे आत्मामां
वर्ते छे ते अनुभूति इन्द्रियोथी पार होवा छतां स्वसंवेदनमां ते
एकदम प्रत्यक्ष छे. आत्मा इन्द्रियोथी भले पकडाय तेवो नथी परंतु
अंतर्मुख दशा, अंतर्मुख ज्ञान अने अनुभूति जे थाय छे तेमां तो
आखेआखो आत्मा साक्षात् हाजराहजूर प्रत्यक्षभूत थई जाय छे.
आवी अनुभूति थतां सर्वे सिद्ध भगवंतोनी साक्षी, सर्वे साधक

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१३८ : स्वानुभूति-प्रकाश )
( सम्यग्दर्शन
संतोनी साक्षी, पोताना भावमां समाई जाय छे के अहो,
पंचपरमेष्ठी भगवंतो
! तमे आत्मानो केवो अनुभव करी करीने
परमेष्ठी थया तेनी मारा आत्मामां मने हवे खबर पडी गई छे,
अने हुं पण आपना ते मार्गमां आवी रह्यो छुं; तेमां आप सर्वेनुं
अतीन्द्रियज्ञान साक्षी छे.
सर्वोत्कृष्ट साक्षीरुप स्वसंवेदन एटले के आत्मानी साक्षी तो
छे ज, अने ते साक्षीना बळे पंच परमेष्ठीने पण हुं मारी
अनुभूतिना साक्षी बनावुं छुं. ।।९।।
(१०)
ज्ञानपक्षमां रागनो पक्ष विपक्ष छे,
बंने धारा अतिशय भिन्न वेदाय जो.
ज्ञानलक्षमां अनंत गुणनो पक्ष छे,
बहार रहे छे सर्वे राग – विकल्प जो.....
स्वसंवेदनमां जे ज्ञान थयुं ते ज्ञान –
एक तरफ ज्ञाननो पक्ष, अने
बीजी तरफ रागनो पक्ष,
– एम बे भागने जुदा पाडीने भेदज्ञान करे छे. बे
भावोने जुदा जाण्या : एक मारा चैतन्यनो स्वाभाविक भाव – के
जेमां चैतन्यना बीजा सर्वे भावो पण तन्मयपणे भरेला छे; अने
बीजी तरफ राग – द्वेषादि पर भावो – के जेमां चैतन्यनी शांति
वगेरे कोई पण गुणो नथी; – आम बे भावोनुं अत्यंत भिन्नपणुं
ज्ञाने पोतामां जाण्युं.
अनुभूति पहेलां पण ज्ञान अने राग ए बंनेनुं भिन्नभिन्न

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सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १३९
स्वरुप जिनदेवना उपदेश अनुसार, ज्ञानीनी अनुभूति अनुसार
शास्त्रना अभ्यास अनुसार जीवने पोताना ज्ञानमां जाणवामां आवतुं
हतुं; ‘आ ज्ञान, अने आ राग’ एम बंनेने जाणीने, तेमां ज्ञाननो पक्ष
हतो; – ज्ञाननो पक्ष एटले शुं
? ज्ञानमां जे कंईक अंशे पण शांति
देखाती ते शांति देखाती ते शांति पोताने इष्ट अने वहाली लागती, ने
रागमां कंई पण शांति देखाती न हती, के राग पोताने वहालो लागतो
न हतो. आम पहेलेथी ज रुचिनी दिशा पलटी गई, पक्ष फरी गयो,
रागनो पक्ष छूटी स्वाभाविक भावोनो पक्ष थयो; ते पक्षनुं घोलन
करतां – करतां, ज्ञाननी वृद्धि करतां – करतां अने रागनो रस तोडतां
– तोडतां, अंते बंने धारा अत्यंत भिन्न, एकदम जुदी वेदनमां आवी
गई अने साक्षात् स्वसंवेदन थयुं, त्यां निर्विकल्पता थई गई.
पहेलां जे ज्ञाननुं लक्ष हतुं एटले के ‘हुं ज्ञान.....हुं ज्ञान’
एवो जे भाव अंदर घूंटातो हतो, ते ज्ञाननी अंदर अनंत गुणनो
पक्ष हतो एटले के अनंत गुणो ए ज्ञानना पक्षमां आवीने ऊभा
रहेता हता; ज्ञानना स्वादनी साथे अनंत गुणोनो स्वाद अंदर
देखातो हतो, वेदनमां आवतो हतो; अने जे रागादि – विकल्पो –
अशांति – क्रोधादि भावो – परभावो ए बधाय भावो ज्ञानना
वेदनथी एकदम दूर, एकदम जुदा अने विरुद्ध स्वभाववाळा
एटले के विपक्षवाळा हता. आ रीते आत्मानी जे अनुभूति थई
तेमां बंने भावोनुं सर्वथा भिन्नपणुं तो थयुं, पण बंनेने भिन्न
करीने अनुभूति ज्ञानना पक्षमां रही गई अने रागनो तेमां
अभाव थई गयो. – आम एक ज ज्ञानस्वरुपना ज पक्षनुं लक्ष
रह्युं – एनी ज अनुभूति रही, बीजानी नास्ति तेमां आवी गई.
अने, आ रीते अनुभूति थतां पर भावोथी अत्यंत
भिन्न एवुं, अत्यंत सुंदर मारुं पोतानुं मजानुं स्वतत्त्व मने प्राप्त
थयुं. ।।१०।।

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१४० : स्वानुभूति-प्रकाश )
( सम्यग्दर्शन
(११)
अहो मारुं तत्त्व मळ्युं मुज अंतरे,
हुं ज स्वयं छुं निजानंदपद धाम जो.
स्वयं सुखी ने तृप्तपणे हुं वर्ततो,
दीसे नहीं को अवर मुज आराम जो...
जागी रे जागी स्वानुभूति मुज आत्मामां...
अहो, मारुं तत्त्व मने मळ्युं. आ तत्त्व प्राप्त थतां अतीन्द्रिय
आनंदना वाजां वाग्या. अहा, आवो आनंद जे पूर्वे कदी
अनुभूतिमां नहीं आवेलो, एवा आनंदस्वरुपे मारो पोतानो
आत्मा ज परिणमनरुप थई गयो, एटले हुं पोते ज मारा
निजानंदपदनुं धाम छुं – एम पोते पोताने अनुभववा लाग्यो.
त्यारे हुं पोते सुखी हतो; – सुख एटले हुं ज. सुख नामनी कोई
बीजी वस्तु नथी, आत्माथी कोई जुदुं सुख नथी. – आम स्वयं
पोते पोताने सुखी देखी – अनुभवी ने पोतामां तृप्त थयो के
अहो
! जे कांई छुं ते हुं मारामां ज छुं; जे कांई जोईए, जे मने
इष्ट, सुख – शांति ए बधुं हुं ज छुं; एटले परम तृप्ति थई; कोई
असंतोष न रह्यो के हवे मारे कांई प्राप्त करवानुं बाकी रह्युं; के
मारे बीजे क्यांयथी लेवानुं रह्युं, बीजा कोईनी कांई आधीनता
करवानी रही – एवो कोई अतृप्ति भाव रहेतो नथी. मारुं आटलुं
मजानुं चैतन्यतत्त्व – ए ज एक पोतानो आराम, ए ज आनंदथी
खीलेलो बगीचो, ए ज अनंत गुणोना चैतन्य भावोथी भरेलुं
विश्रामनुं स्थान; पोतामां ज पोते स्थिर थईने रही गयो के वाह,
आ मारुं घर
! आ मारुं रहेवानुं स्थान! गमे त्यां होउं – जगतना
बाह्य क्षेत्रमां, पण मारुं रहेवानुं स्थान तो मारो चैतन्य आत्मा ज
छे; एमां ज हुं हवे सदा काळ रहीश. एनाथी बहार जगतमां

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सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १४१
क्यांय बीजुं कोई क्षेत्र, स्थान, कोई पुरुषो के कोई बीजो भाव –
ए मारा आत्माने माटे आरामनुं स्थान छे नहि. – एम स्वयं
पोते पोतामां आराम लउं एवुं मारुं स्वतत्त्व कोई परम अद्भुत,
अनुभूतिमां प्राप्त थयुं. ।।११।।
आवुं तत्त्व सर्वज्ञ भगवानना वीतरागी शासनमां ज प्राप्त
थाय छे. जे शासनना प्रतापे आत्मप्राप्ति थई ए शासनना
महिमानुं शुं कहीए
? –
(१२)
धन्य धन्य छे शासन श्री वीतरागनुं,
करावे छे चेतनमय निज भाव जो.
अंतरमुख वृत्तिने वाळी वेगथी,
राग – द्वेषने राखे छे अति दूर जो.....
वाह रे वाह, अनंत सर्वज्ञ भगवंतोनुं शासन! तेमां कोई
रागनो अंश नथी; स्वयं वीतराग अने सर्वज्ञ थयेला भगवंतो पोते
जे मार्गथी आत्मा पाम्या, ते मार्ग अने तेवुं आत्मस्वरुप आपणने
पण ते सर्वज्ञ वीतराग भगवंतोए बताव्युं छे. अहा, आवुं शासन
पामवुं, ने ए शासनमां कहेलुं चैतन्यतत्त्व पामवुं – ए अपूर्वतानी
शी वात
!
जैनशासननी आ एक खूबी छे के ते आत्माने
चैतन्यभावरुपे परिणमन करावे छे. कोई पण तत्त्वनुं रहस्य
समजो तो आत्मा बीजा बधायथी छूटा चेतनपणे ज पोतानी
अनुभूतिमां आवे – एवुं जैनशासन सर्व प्रकारे बतावे छे.
जैनशासनथी ए प्रमाणे जाणतां चैतन्यतत्त्व एटलुं बधुं

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१४२ : स्वानुभूति-प्रकाश )
( सम्यग्दर्शन
सुंदर अने मजानुं देखाय छे के पोतानी पर्यायनी वृत्तिनो वेग
एकदम अंतरमां वळवा मांडे छे – के वाह
! आवुं मजानुं मारुं
तत्त्व! चाल, हुं जल्दी एमां जाउं! जल्दी एनो अनुभव करी लउं!
अने अनुभव पछी पण वारंवार एमां तन्मय थईने लीन थाउं!
– एम अंतर्मुख वृत्ति वळे छे अने चैतन्यमां वृत्ति वळतां राग –
द्वेष तो एमां क्यांय देखाता नथी, एनी नजीकमां पण देखाता
नथी. राग – द्वेष जाणे आ आत्मामां क्यांय छे ज नहि.....एम
एकदम, रागद्वेष अत्यंत दूर थई गया, रागद्वेषथी चेतना अत्यंत
छूटी पडी गई. – आवी चेतनापणे आत्मानी अनुभूति
जैनशासन करावे छे.
अहो, आ जैनशासन.....धन्य छे! धन्य छे! ।।१२।।
हवे जैनशासने बतावेलुं चैतन्यतत्त्व जे स्वसंवेदनमां आव्युं,
ते स्वसंवेदन करनारो भाव – ए कोई रागभाव नथी; विचारदशा
वखतनो ‘राग’ ए कांई चेतनने पकडतो नथी, पण ए वखतनुं
‘ज्ञान’ – ते आगळ वधी, रागथी छूट्टुं पडी, ते ज्ञान पोते
चेतनभावरुप थईने चैतन्यतत्त्वने अनुभवे छे. खरेखर बंने
चेतनभावो तन्मय थई जाय छे, एनुं नाम ज अनुभूति छे.
बंने चेतनभावो एटले? – एक तो चेतनस्वभाव त्रिकाळ
स्वरुपे छे ज, अने पर्याय पण चेतनभावरुप थई गई, – एम
द्रव्य – पर्याय बंने एक स्वभावरुप थई गया, एनुं नाम अभेद
अनुभूति
! – ए ज निर्विकल्प – अनुभूति, अने ए ज सर्वज्ञ
भगवाननो शुद्ध अनेकान्त धर्म! आ रीते चेतनस्वरुप आत्मा
पोताना चेतनभावथी ज पकडाय छे.

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सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १४३
(१३)
चेतन प्रभु ‘पकडाया’ चेतन भावथी,
कदी न थाये चेतन राग आधीन जो;
बंनेनी ज्यां जात ज भिन्न भिन्न वर्तती,़
ऊंडा ऊतर्ये ए तो भिन्न जणाय जो.....
आ आत्मा तो ‘चेतन प्रभु’ छे.....ने राग ए कांई चेतननी
जातनो नथी, एनामां चेतनपणुं छे ज नहि, – ए रीते बंनेनी
जात एकबीजाथी जुदी तो खरी, पण ऊल्टी एकबीजाथी विरुद्ध
पण छे; तो चेतनप्रभु ए रागने आधीन केम थाय
? रागनी
अनुभूतिमां चेतननी अनुभूति केम आवे? – न ज आवे.
अनुभूतिनो जे भाव छे ए तो राग वगरनो ज, चैतन्यभावरुप ज
परिणमे छे. आ रीते चेतननी अनुभूतिनी जात अने रागनी जात,
ए बंने एकदम जुदा जुदा स्वरुपे ज वर्ते छे. ज्यारे चेतनभाव
पोताना चैतन्यमां ऊंडो ऊतरे छे त्यारे ते रागथी छूटो पडयो छे.
चैतन्यस्वभाव तो सदाय रागथी छूटो ज छे, अने ते चैतन्यमां
ऊंडा ऊतरवानी ताकात चेतनभावमां ज छे; रागमां एवी ताकात
नथी के चैतन्यस्वभावमां ऊंडे ऊतरी शके. राग ए तो बहार जतो
भाव, स्थूळ भाव छे; ए चैतन्यनुं वेदन करी शके नहि, के
चैतन्यनी अंदर प्रवेशी शके नहि. ज्यां रागनी साथे भेळसेळ होय
त्यां चैतन्यनो साचो स्वाद आवे नहीं. जेमां चैतन्यनो साचो स्वाद
आव्यो ते अनुभूति सर्व प्रकारे राग वगरनी, मात्र चेतना –
परिणतिरुप ज हती, – के जे चेतनानी अंदर पोताना सर्व
गुणोनो मधुर स्वाद, निर्मळ स्वाद, शांति अने वीतरागता समाई
शके, पण तेमां एक पण पर भावनो अंश समाई शके नहि. –
आवी स्पष्ट अद्भुत अनुभूति आत्माने थई. एनुं नाम

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१४४ : स्वानुभूति-प्रकाश )
( सम्यग्दर्शन
सम्यग्दर्शन कहो, एने ज भवनो अंत के मोक्षनो मार्ग कहो; ए
ज पंचपरमेष्ठी भगवंतोनी कृपा छे ने ए ज आत्मानुं कल्याण छे.
अहो, आत्मा धन्य बन्यो.....ते आवा भावथी धन्य बन्यो. ।।१३।।
(१४)
अहा, स्पष्ट केवुं छे वेदन आत्मनुं,
स्थंभ करतांये दीसे अति साक्षात् जो.
इन्द्रिय – संबंध छोडी चाल्युं ज्ञान आ,
ए तो पहोंच्युं अतीन्द्रिय आनंदधाम जो.....
बस, जे ज्ञाने नक्की कर्युं हतुं के मारे मारो आत्मा पामवो
ज छे, मारा आत्मानी शांति मारे पामवी ज छे – ए ज्ञान
अंतरमां वळ्युं; अने ज्यां स्वसंवेदन थयुं ई अतीन्द्रियज्ञानमां
थयेला स्वसंवेदननी शी वात
! ए स्वसंवेदन एटलुं बधुं स्पष्ट छे,
एटलुं बधुं चोख्खुं, निःशंक अने आनंदथी भरेलुं छे के जेम
प्रकाशमां ऊभेलो थांभलो आंखथी चोख्खो देखाय छे एनाथी पण
वधारे चोख्खो, अतीन्द्रियज्ञानथी आत्मा पोताना वेदनमां स्पष्ट
आवे छे. – केमके आंखथी थतुं ज्ञान तो परोक्ष – पराधीन छे
त्यारे स्वसंवेदनमां थतुं ज्ञान तो प्रत्यक्ष, अतीन्द्रिय, स्वाधीन छे;
जेमां इन्द्रियनी – आंखनी कोईनी मदद नथी, जेमां रागनुं
आलंबन नथी, – ए ज्ञाननी ताकातनी शी वात
! इंद्रियज्ञान,
पराधीन, रागवाळुं, बहार जोनारुं, एनी ताकात करतां अतीन्द्रिय
ज्ञाननी ताकात कोई अपरंपार घणी घणी वधारे छे.
– एवुं ज्ञान ज्यारे आत्माने देखवा माटे अंदर चाल्युं,
घोलन करतां – करतां अनुभूति तरफ आत्मानो रस उपडयो, त्यारे

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सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १४५
ज्ञान एकदम जोरदार थयुं – एवुं जोरदार थयुं के इन्द्रियोनो
संबंध एणे तोडी नांख्यो. – खबर पण न पडी, एटले के
विचारमां पण न आव्युं के अत्यारे इन्द्रियोनो संबंध हतो ने छूटी
गयो
! केम के उपयोग तो ए वखते चैतन्यना रसमां ज तन्मय
थतो जतो हतो.....एम चैतन्यरसमां तन्मय थयेला उपयोगे
इन्द्रियोनुं अवलंबन एकदम छोडी दीधुं.....छूटी गयुं. अने ए
ज्ञान इंद्रियोथी छूटीने, अंतरमां दोडयुं; पहेलां इद्रियोना
अवलंबनमां बंधायेलुं हतुं एटले दोडी शकतुं न हतुं. (अंतर्मुख
थई शकतुं न हतुं). हवे ज्यां इन्द्रियोनुं बंधन तोडी नांख्युं त्यां
ज्ञान जोरदार थई, छूटुं पडी, अतीन्द्रिय थई अंतरस्वरुपमां
दोडयुं, स्वभावमां ऊतर्युं. अतीन्द्रिय थया वगर ज्ञान पोताना
स्वभाव तरफ चाली शकतुं न हतुं; हवे तो स्वसंवेदनमां एकदम
अतीन्द्रिय थई पोते पोताना स्वभावने पकडी लीधो. आवुं आ
ज्ञान पोताना अतीन्द्रियधाममां पहोंची गयुं.
ज्ञाननुं साचुं धाम तो अतीन्द्रिय स्वभाव ज छे – के जेमां
एकलो आनंद भर्यो छे. ज्ञानने एम थयुं के वाह! अहो, ज्यां
मारो आनंद भर्यो छे तेमां हुं पहोंची गयुं एटले आनंदमां हुं
मशगुल थई गयुं. त्यां आ आनंद, ने आ हुं – एवो द्वैतनो
विकल्प पण ज्ञानमां रह्यो नहि. उपयोग निर्विकल्प थईने आनंदमां
तन्मय थई गयो. – आवी अनुभूति केटली ऊंडी
! घणी ऊंडी!!
अने जाणे केटलाय – केटलाय काळ सुधी ए अनुभूति रही होय
– एम अल्प समयनी अनुभूतिमां पण अपार ऊंडपने लीधे,
घणा – घणा लांबा काळनी अनुभूति होय – जाणे अनंत काळथी
अनुभूतिमां ज आत्मा बेठो होय
! एटलो ऊंडो भाव अंदर
वेदातो हतो. ‘हम तो कबहुं न निजघर आये’ ए वात हवे आ
आत्माने माटे न रही. हवे तो आ आत्माराम पोताना आनंदमय

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१४६ : स्वानुभूति-प्रकाश )
( सम्यग्दर्शन
निजघरमां आव्या.....एणे पोतानुं निजघर जोयुं.....अने ए
निजघर छोडीने संसाररुपी पर घरमां आ आत्मा हवे कदी नहीं
जाय.
आनंदमय निज आत्मा, जिसकी अनुभूतिसे भवका अंत
आ जाय और मोक्षका दरवाजा खुल जाय – ऐसी अनुभूति
करनेकी यह बात है. ऐसी अनुभूति करनेसे आत्माको महान
आनंद होता है; आत्माका कल्याण.....आत्माकी शांति.....आत्माकी
ऐसी अनुभूतिमें ही है. ।।१४।।
(१५)
सहजे उल्लस्या भावो आतम देवना,
नीरखवा पोते पोतानुं रुप जो;
अद्भुत महिमा आव्यो ज्यारे लक्षमां,
केम रहे पछी क्षण पण एक्के दूर जो.....
अहो, अनुभूति करवा ज्यारे आ आत्मा बेठो
हतो.....पहेलां तो घणा काळथी अनुभूति माटे तलसतो हतो; पण
छेल्ले, एटले के अषाड वद ७ ना दिवसे अनुभूति करवा माटे
ज्यारे आ आत्मा बेठो हतो.....त्यारे चैतन्यतत्त्वनो विचार करतां,
परभावोथी भिन्न ज्ञानीनी ज्ञानचेतनानुं लक्ष करतां सहजपणे
आत्मदेवना भावो पोताना चैतन्यस्वभाव तरफ उल्लस्या; –
एवा उल्लस्या.....ए उल्लासथी एवी मजा आवी – एवी शांति
आवी.....के झडपथी एवी शांतिस्वरुप पोतानुं रुप जोवा माटे
परिणाम एकदम स्थिर – शांत थईने अंदरमां ऊंडे ऊंडे जवा
लाग्या.

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सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १४७
– जेम जेम परिणाम अंतरमां ऊंडा जवा लाग्या तेम तेम
आत्मतत्त्वनो महिमा कोई अद्भुत.....अद्भुत, वधारे ने वधारे
अद्भुत अंतरमां लक्षगत थवा लाग्यो. अहो, ज्यां चैतन्यनो
आवो महिमा लक्षमां आवी जाय, – पछी मुमुक्षुजीव एक क्षण
पण एनाथी दूर केम रहे
? एटले परिणाम दोडया एकदम
अंतरमां, – आ परिणाम अंतरमां दोडया ए वखते ए
परिणामनी अंदर ज त्रण प्रकारनां करण थई गया.....हवे ए
वखते उपयोग तो अंदरमां ज जतो हतो, एटले ‘आ त्रण करण
थया’ एवुं कंई भेदनुं लक्ष होय नहीं; पण पछी ख्याल आवी गयो
के आ स्थितिमां ज्यारे चैतन्य तरफ उपयोग जतो हतो ए
वखतना कोई काळमां ए त्रण करण समाई गया हता. ए
परिणाममां चैतन्यरसनी कोई परम सूक्ष्मता हती; ए
चैतन्यरसनी अंदर ज त्रण करण हता, – एटले सम्यक्त्वना त्रण
करण ए कोई रागरुप नथी पण चैतन्यने रागथी भिन्न पकडवानी
क्रिया – एवी क्रिया करवानुं नाम ज त्रण करण छे. – एवो भाव
अंतरमां स्पष्ट देखाय छे.
ज्यां चैतन्यरस पोतानो पोतामां देखायो, ए रसनी शांति
पोतामां आववा लागी त्यां पछी साची शांतिनो अभिलाषी एक
क्षण पण एनाथी दूर केम रहे
? – न रहे. एटले उपयोग
एकदम झडपथी अंतरमां – आत्मामां वळी गयो, निर्विकल्प थई
गयो, अपूर्व स्वानुभूति थई गई; कोई परम आनंद, महान
शांति, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, मोक्षमार्ग – बधुंय एक ज क्षणमां
अंदरमां आवी गयुं.
अहो, ए क्षण! ए अनुभूति! एना भावो! एनी शी
वात!! एने माटे पहेलां चैतन्यनो अपार – अपार महिमा लक्षमां
आववो जोईए. चैतन्यनो महिमा जेटलो छे तेटलो बराबर