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आत्मानो सुबोध आप्यो छे. आपना ते उपकारने याद करीने
फरीफरीने हुं आपने नमस्कार करुं छुं.
अद्भुत स्वरुप आपे प्रकाश्युं; गौतमस्वामी गणधरदेव जेवा
अनेक भव्य जीवोए ते झील्युं; ते झीलीने ते जीवो स्वयं
मोक्षमार्गरुप थया.....पोताना परम इष्ट पदने पाम्या. तेमना
उपर आपे जेवो महान परम उपकार कर्यो तेवो ज उपकार,
आपना पछी परंपरामां कुंदकुंदाचार्यदेव थया, बीजा अनेक संतो
थया – तेमना द्वारा आ जीवने पण प्राप्त थयो.
प्रतापे, धर्ममाताओ द्वारा अने पूज्य श्री कहानगुरुद्वारा आपनुं
जे परम शासन आ जीवने प्राप्त थयुं ते शासन द्वारा, आपे
बतावेली शुद्धात्मतत्त्वनी अनुभूति आ आत्मा पण पाम्यो. अनंत
अनंत काळना पूर्वनां भयंकर भवदुःख – अज्ञान – मिथ्यात्व –
कषायभावो तेनाथी आ आत्मा छूटो पडयो अने आपे बतावेला
आनंद – सुख – शांति तेने आ जीव पाम्यो.
२४९७ ना अषाड वद सातमे दाखल थयो. अहा, ए अद्भुत
आनंदमय स्वानुभूति – प्रकाश.....तेने फरीफरीने याद करतां
तेनी साथे आपनो परम अचिंत्य उपकार हे महावीरनाथ
पोतानी आनंदमय स्वानुभूतिनो जे अपूर्व प्रकाश थयो तेना
फरीफरीने घोलन माटे, स्वानुभूतिनी आ पदरचना करुं छुं.
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चैतन्यमां आनंदरसनी जे अपूर्व धारा उल्लसी, जे एक अद्भुत
अचिंत्य – पूर्वे कदी नहि अनुभवायेली एवी शांति अनुभवाणी.
अनंतगुणथी भरेली गंभीर शांति आत्मामां प्रगटी, तेनी शी
वात
एकदम झडपथी मोक्षपुरी तरफ चाली रही छे.
दुःखमांथी सुख थयुं. अशांतिमांथी शांति थई, रागमांथी
वीतरागता थई, आत्मा कदी न जोयेलो ते साक्षात् प्रत्यक्षीभूत
थयो, – ए दशानी शी वात
परिणाम पलटी गया, तो शुद्धोपयोग वडे संसारनी दशा
पलटीने मोक्ष तरफनो भाव प्रगटे, कषायभाव छूटीने अकषायी
शांति प्रगटे अने ते पण पोताना स्वसंवेदनप्रत्यक्षथी
अनुभवमां आवे, – ए अनुभवनी निःशंकतानी शी वात
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अहो, अहो, शी वेदन केरी वात जो;
सुडतालीसमे वरसे समकित पामीने,
थयो छुं हुं हरिस्वरुप साक्षात जो.....
देखायुं.....चैतन्यधाममां आत्मानो प्रवेश थयो, ने तेमां
अनंतगुणथी गंभीर एवी जे अनुभूति थई – तेनी शी वात
गंभीरतानी वात तो स्वानुभूतिमां ज समाय छे.
भगवाने जे अद्भुत आत्मस्वरुप बताव्युं छे ते शक्तिस्वरुप
आत्मा आ जीवनना ४७ मा वर्षमां सम्यक्त्वद्वारा प्राप्त थयो.
तेवो शुद्धात्मा आपना प्रतापे मने प्राप्त थयो, तेथी फरीफरीने
आपनो उपकार मानुं छुं. ।।२।।
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लेवा समकित आव्यो हरिप्रसंग जो;
अद्भुत माता वेदक मारा आत्मना,
ए छे मारां सम्यक्ना दातार जो.....
तीर्थंकर छे; अने पूज्य बन्ने धर्ममाताओ, – के जेमणे आ
बाळकने परम वात्सल्यथी चैतन्यनुं अमृत निरंतर पीवडाव्युं छे –
ते माताओ द्वारा अंतरनी उर्मिथी बतावायेलो शुद्धआत्मा आ
जीवने प्राप्त थयो छे, तेथी ते माताओनो पण खरेखर परम
उपकार छे; ते माता सम्यक्त्वना दाता छे.
मने प्राप्त थयो; सम्यक्त्व पामवा माटे ज कुदरते मने कहानगुरुना
चरणमां मुक्यो, ने ए कहानगुरुनी मंगल छायामां आत्महितनी
भावना भावतां – भावतां, जिनवाणीनो अभ्यास करतां – करतां,
धर्ममाताओ पासेथी वारंवार आत्मानुं प्रोत्साहन मेळवतां –
मेळवतां, जे चैतन्यरसनुं घोलन थयुं, चैतन्यरस वारंवार घूंटायो,
दिनरात निरंतर आत्मानी शांति केम मळे
देखीने अत्यंत उत्कंठा जागती हती के अहो
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थई, अने आ जीव तेओना परम उपकारने लीधे सम्यक्त्व पाम्यो.
अहो, मने सम्यक्त्वना दातार संतो
मानुं छुं. ।।३।।
विकल्पो – जड पामी शके नहीं पार जो;
अडी शके नहीं अंतर आतमरामने,
चेतनथी छे विलक्षण सौ भाव जो.....
कोई विकल्पो, कोई जड – वाणी एनो पार पामी शकता नथी;
केमके आ चैतन्यतत्त्व – तेने कोई विकल्पो के इन्द्रियगम्य पदार्थो
अडी शकता नथी. अहो, चैतन्यनो विलक्षण भाव
लक्षणवाळां विलक्षण छे. रागथी विलक्षण, जडथी विलक्षण एवुं
कोई परम चैतन्यस्वरुप आत्मतत्त्व, – अंतरनो मारो
आतमराम, ते स्वसंवेदनमां समायेलो छे; ते वाणीमां – विकल्पमां
आवी शकतो नथी; तेनुं जे स्वसंवेदन थयुं तेमां कोई वाणीनी
अपेक्षा न हती, कोई विकल्पनी अपेक्षा न हती, अंदर मात्र
चैतन्यरस एक ज घोळातो हतो. ।।४।।
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बहारमां नहीं आवे कोई भाव जो,
केम करीने देखे बाहिर जीवडा
चैतन्यना भावो चैतन्यमां अभेद थईने परिणमी गया, ते
बहारमां इन्द्रियथी देखाय के रागथी तेनुं अनुमान थई शके –
तेवा नथी, ते तो अतीन्द्रिय भाव छे, एटले बाहिर – जीवडा,
बहारमां देखनारा जीवडाओ आ अनुभूतिने अरेरे
ते धर्मात्मानी अतीन्द्रिय अनुभूतिने ओळखवा माटे पण जिज्ञासु
आत्मामां कोई अनेरा भाव होवा जोईए; एकला राग भावथी,
एकला शुभरागनी भक्तिना भावथी के बहारनी कोई चेष्टाओथी
ए धर्मात्मानी अनुभूति अनुमानगम्य पण थई शकती नथी.
धर्मात्मानी अनुभूतिनो भाव जेम रागथी पार अतीन्द्रिय थयेलो
छे, तेम ते अनुभूतिने ओळखवा माटेनो भाव पण रागथी जराक
छूटो पडेलो अने ज्ञानना रसवाळो होय छे. एटले आवी अद्भुत
अनुभूतिने जगतना बाह्यद्रष्टिवाळा जीवो देखे के न देखे, एनी
साथे अनुभूतिने कांई ज संबंध नथी. पंचपरमेष्ठी भगवंतो आवी
आत्मिक अनुभूतिने देखी रह्या छे, धर्मात्माओ आवी आत्मिक
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आवी ज अनुभूति थाय छे एम तेओ अनुमानथी जाणी शके
छे. ।।५।।
अनंत गुणनिधि छुं आतमदेव जो
चेतनभाव ज प्रसरी रह्यो छे एकलो,
सर्व प्रदेशे सुख – सुख बस, सुख जो.....
– आत्मप्रदेशे सुख – सुख बस, सुख जो.....
भरेलो छे. ए वखते आत्मा पोते पोताना ‘एकत्व’ने – पोताने
एकने ज – एकलो-एकलो स्वसंवेदनमां वेदे छे. आहा
एवो स्पष्ट देख्यो, आंखथी जेम थांभलो देखाय एना करतां पण
वधु स्पष्ट, – प्रत्यक्ष ज्ञान वडे स्वसंवेदननी स्वानुभूतिथी
आत्माने प्रत्यक्ष देख्यो.
प्रत्यक्षतानी शी वात
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अनंत गुणोना रसमां डूब्या राम जो;
दरियो ऊंडो केवो चैतन्य रसनो,
स्वयंभूथी पण नहीं माप मपाय जो.....
अनंत गुणना चैतन्यरसमां लीन थयो, एनी शी वात
वडे पण जेनुं माप थई शकतुं नथी, जेनी गंभीरता अनंता
स्वयंभूरमण समुद्रथी पण अधिक छे, जेनी गंभीरता एकमात्र
अतीन्द्रिय ज्ञानमां ज समाई शके छे, बीजी कोई रीते जेनुं माप
थई शकतुं नथी एवो अमाप – अगाध शांत चैतन्यरसनो समुद्र
आत्मानी अनुभूतिमां उल्लस्यो.
कदी न आवे, निज मर्यादा बाह्य जो;
एवुं वेदन अंतरमां शुद्ध भावनुं,
मलिन भावो जेमां कदी न समाय जो.....
बीजा कोई भेदो, बीजा कोई विकल्पो के अन्य कोई संग त्यां
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परिणमतो, पोतानी मर्यादामां स्वघरमां समातो, आनंदथी
परिणमतो हतो. पोताना द्रव्य – गुण – पर्यायनी शुद्धतानी
एकता, – ए एकत्वनी मर्यादाथी बहार ए जरा पण न जतो;
ने पोताना स्वरुपना वेदनमां अन्य भावने पोते आववा देतो न
हतो; पोताना एकत्वना वेदनने कोई अन्य भावथी के कोई
भंगभेदथी खंडित करतो न हतो.
आवुं एकत्वस्वरुप प्राप्त थतां कोई अद्भुत – आश्चर्यकारी
मोक्षनो मंगळ महोत्सव जाणे थतो होय
होय
कोई भेदभाव पण न हतो. चैतन्यनी अनुभूतिमां अभेदपणे
पंचपरमेष्ठी भगवंतो पण समायेला ज हता. त्यां न कोई विकल्प
हतो, न कोई उल्लासनी वृत्तिनो भाव हतो, मात्र चैतन्यनी
शांतपरिणति, – निर्विकल्प परिणति, – अभेद परिणति
आत्मामां परिणमती हती. ते अनुभूतिमां अरिहंतो – सिद्धो पण
साक्षात् थया, – एमनुं जेवुं स्वरुप छे तेवुं स्वरुप साक्षात थयुं,
एटले जाणे आहा
पंचपरमेष्ठीने मारा आत्माथी बहार क्यांय मारे जोवा जवुं पडे –
एम छे ज नहीं. खरी अरिहंतोनी ओळखाण, सिद्धभगवंतोनी
आत्मामां पधरामणी, कुंदकुंदस्वामी जेवा धर्मात्मा पुरुषोनी साची
ओळखाण आ अनुभूतिमां थई. ।।८।।
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सिद्ध प्रभु पण बिराजे साक्षात जो.
साक्षी सर्वे साधक संतो आपता,
एवी अनुभूति ‘छे’ इन्द्रिय – तीत जो.....
अरिहंत अने सिद्ध भगवंतो केवा छे
अतीन्द्रिय थयेला सर्वज्ञो, – अतीन्द्रिय आनंदरुपे परिणमता
सर्वज्ञो, – एमनी ओळखाण पोताना अतीन्द्रिय स्वसंवेदन द्वारा
ज थई शके छे. अतीन्द्रिय स्वसंवेदनमां जे थोडुंक अतीन्द्रियपणुं
थयुं ने अतीन्द्रिय आनंदनो थोडोक अंश स्वादमां आव्यो तेना
उपरथी खबर पडी के अहो, आवुं अद्भुत ज्ञान ने आवो अद्भुत
अतीन्द्रिय आनंद – एने घणो घणो वधारे – परिपूर्णपणे
अरिहंतो अने सिद्ध भगवंतो अनुभवी रह्या छे, ए ज ज्ञान अने
आनंदनो थोडोक नमूनो आ आत्माने प्राप्त थयो.
एकदम प्रत्यक्ष छे. आत्मा इन्द्रियोथी भले पकडाय तेवो नथी परंतु
अंतर्मुख दशा, अंतर्मुख ज्ञान अने अनुभूति जे थाय छे तेमां तो
आखेआखो आत्मा साक्षात् हाजराहजूर प्रत्यक्षभूत थई जाय छे.
आवी अनुभूति थतां सर्वे सिद्ध भगवंतोनी साक्षी, सर्वे साधक
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पंचपरमेष्ठी भगवंतो
अने हुं पण आपना ते मार्गमां आवी रह्यो छुं; तेमां आप सर्वेनुं
अतीन्द्रियज्ञान साक्षी छे.
अनुभूतिना साक्षी बनावुं छुं. ।।९।।
बंने धारा अतिशय भिन्न वेदाय जो.
ज्ञानलक्षमां अनंत गुणनो पक्ष छे,
बहार रहे छे सर्वे राग – विकल्प जो.....
जेमां चैतन्यना बीजा सर्वे भावो पण तन्मयपणे भरेला छे; अने
बीजी तरफ राग – द्वेषादि पर भावो – के जेमां चैतन्यनी शांति
वगेरे कोई पण गुणो नथी; – आम बे भावोनुं अत्यंत भिन्नपणुं
ज्ञाने पोतामां जाण्युं.
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शास्त्रना अभ्यास अनुसार जीवने पोताना ज्ञानमां जाणवामां आवतुं
हतुं; ‘आ ज्ञान, अने आ राग’ एम बंनेने जाणीने, तेमां ज्ञाननो पक्ष
हतो; – ज्ञाननो पक्ष एटले शुं
रागमां कंई पण शांति देखाती न हती, के राग पोताने वहालो लागतो
न हतो. आम पहेलेथी ज रुचिनी दिशा पलटी गई, पक्ष फरी गयो,
रागनो पक्ष छूटी स्वाभाविक भावोनो पक्ष थयो; ते पक्षनुं घोलन
करतां – करतां, ज्ञाननी वृद्धि करतां – करतां अने रागनो रस तोडतां
– तोडतां, अंते बंने धारा अत्यंत भिन्न, एकदम जुदी वेदनमां आवी
गई अने साक्षात् स्वसंवेदन थयुं, त्यां निर्विकल्पता थई गई.
पक्ष हतो एटले के अनंत गुणो ए ज्ञानना पक्षमां आवीने ऊभा
रहेता हता; ज्ञानना स्वादनी साथे अनंत गुणोनो स्वाद अंदर
देखातो हतो, वेदनमां आवतो हतो; अने जे रागादि – विकल्पो –
अशांति – क्रोधादि भावो – परभावो ए बधाय भावो ज्ञानना
वेदनथी एकदम दूर, एकदम जुदा अने विरुद्ध स्वभाववाळा
एटले के विपक्षवाळा हता. आ रीते आत्मानी जे अनुभूति थई
तेमां बंने भावोनुं सर्वथा भिन्नपणुं तो थयुं, पण बंनेने भिन्न
करीने अनुभूति ज्ञानना पक्षमां रही गई अने रागनो तेमां
अभाव थई गयो. – आम एक ज ज्ञानस्वरुपना ज पक्षनुं लक्ष
रह्युं – एनी ज अनुभूति रही, बीजानी नास्ति तेमां आवी गई.
थयुं. ।।१०।।
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हुं ज स्वयं छुं निजानंदपद धाम जो.
स्वयं सुखी ने तृप्तपणे हुं वर्ततो,
दीसे नहीं को अवर मुज आराम जो...
अनुभूतिमां नहीं आवेलो, एवा आनंदस्वरुपे मारो पोतानो
आत्मा ज परिणमनरुप थई गयो, एटले हुं पोते ज मारा
निजानंदपदनुं धाम छुं – एम पोते पोताने अनुभववा लाग्यो.
त्यारे हुं पोते सुखी हतो; – सुख एटले हुं ज. सुख नामनी कोई
बीजी वस्तु नथी, आत्माथी कोई जुदुं सुख नथी. – आम स्वयं
पोते पोताने सुखी देखी – अनुभवी ने पोतामां तृप्त थयो के
अहो
असंतोष न रह्यो के हवे मारे कांई प्राप्त करवानुं बाकी रह्युं; के
मारे बीजे क्यांयथी लेवानुं रह्युं, बीजा कोईनी कांई आधीनता
करवानी रही – एवो कोई अतृप्ति भाव रहेतो नथी. मारुं आटलुं
मजानुं चैतन्यतत्त्व – ए ज एक पोतानो आराम, ए ज आनंदथी
खीलेलो बगीचो, ए ज अनंत गुणोना चैतन्य भावोथी भरेलुं
विश्रामनुं स्थान; पोतामां ज पोते स्थिर थईने रही गयो के वाह,
आ मारुं घर! आ मारुं रहेवानुं स्थान! गमे त्यां होउं – जगतना
छे; एमां ज हुं हवे सदा काळ रहीश. एनाथी बहार जगतमां
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ए मारा आत्माने माटे आरामनुं स्थान छे नहि. – एम स्वयं
पोते पोतामां आराम लउं एवुं मारुं स्वतत्त्व कोई परम अद्भुत,
अनुभूतिमां प्राप्त थयुं. ।।११।।
महिमानुं शुं कहीए
करावे छे चेतनमय निज भाव जो.
अंतरमुख वृत्तिने वाळी वेगथी,
राग – द्वेषने राखे छे अति दूर जो.....
जे मार्गथी आत्मा पाम्या, ते मार्ग अने तेवुं आत्मस्वरुप आपणने
पण ते सर्वज्ञ वीतराग भगवंतोए बताव्युं छे. अहा, आवुं शासन
पामवुं, ने ए शासनमां कहेलुं चैतन्यतत्त्व पामवुं – ए अपूर्वतानी
शी वात
समजो तो आत्मा बीजा बधायथी छूटा चेतनपणे ज पोतानी
अनुभूतिमां आवे – एवुं जैनशासन सर्व प्रकारे बतावे छे.
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एकदम अंतरमां वळवा मांडे छे – के वाह
द्वेष तो एमां क्यांय देखाता नथी, एनी नजीकमां पण देखाता
नथी. राग – द्वेष जाणे आ आत्मामां क्यांय छे ज नहि.....एम
एकदम, रागद्वेष अत्यंत दूर थई गया, रागद्वेषथी चेतना अत्यंत
छूटी पडी गई. – आवी चेतनापणे आत्मानी अनुभूति
जैनशासन करावे छे.
वखतनो ‘राग’ ए कांई चेतनने पकडतो नथी, पण ए वखतनुं
‘ज्ञान’ – ते आगळ वधी, रागथी छूट्टुं पडी, ते ज्ञान पोते
चेतनभावरुप थईने चैतन्यतत्त्वने अनुभवे छे. खरेखर बंने
चेतनभावो तन्मय थई जाय छे, एनुं नाम ज अनुभूति छे.
द्रव्य – पर्याय बंने एक स्वभावरुप थई गया, एनुं नाम अभेद
अनुभूति
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कदी न थाये चेतन राग आधीन जो;
बंनेनी ज्यां जात ज भिन्न भिन्न वर्तती,़
ऊंडा ऊतर्ये ए तो भिन्न जणाय जो.....
जात एकबीजाथी जुदी तो खरी, पण ऊल्टी एकबीजाथी विरुद्ध
पण छे; तो चेतनप्रभु ए रागने आधीन केम थाय
परिणमे छे. आ रीते चेतननी अनुभूतिनी जात अने रागनी जात,
ए बंने एकदम जुदा जुदा स्वरुपे ज वर्ते छे. ज्यारे चेतनभाव
पोताना चैतन्यमां ऊंडो ऊतरे छे त्यारे ते रागथी छूटो पडयो छे.
चैतन्यस्वभाव तो सदाय रागथी छूटो ज छे, अने ते चैतन्यमां
ऊंडा ऊतरवानी ताकात चेतनभावमां ज छे; रागमां एवी ताकात
नथी के चैतन्यस्वभावमां ऊंडे ऊतरी शके. राग ए तो बहार जतो
भाव, स्थूळ भाव छे; ए चैतन्यनुं वेदन करी शके नहि, के
चैतन्यनी अंदर प्रवेशी शके नहि. ज्यां रागनी साथे भेळसेळ होय
त्यां चैतन्यनो साचो स्वाद आवे नहीं. जेमां चैतन्यनो साचो स्वाद
आव्यो ते अनुभूति सर्व प्रकारे राग वगरनी, मात्र चेतना –
परिणतिरुप ज हती, – के जे चेतनानी अंदर पोताना सर्व
गुणोनो मधुर स्वाद, निर्मळ स्वाद, शांति अने वीतरागता समाई
शके, पण तेमां एक पण पर भावनो अंश समाई शके नहि. –
आवी स्पष्ट अद्भुत अनुभूति आत्माने थई. एनुं नाम
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ज पंचपरमेष्ठी भगवंतोनी कृपा छे ने ए ज आत्मानुं कल्याण छे.
अहो, आत्मा धन्य बन्यो.....ते आवा भावथी धन्य बन्यो. ।।१३।।
स्थंभ करतांये दीसे अति साक्षात् जो.
इन्द्रिय – संबंध छोडी चाल्युं ज्ञान आ,
ए तो पहोंच्युं अतीन्द्रिय आनंदधाम जो.....
अंतरमां वळ्युं; अने ज्यां स्वसंवेदन थयुं ई अतीन्द्रियज्ञानमां
थयेला स्वसंवेदननी शी वात
प्रकाशमां ऊभेलो थांभलो आंखथी चोख्खो देखाय छे एनाथी पण
वधारे चोख्खो, अतीन्द्रियज्ञानथी आत्मा पोताना वेदनमां स्पष्ट
आवे छे. – केमके आंखथी थतुं ज्ञान तो परोक्ष – पराधीन छे
त्यारे स्वसंवेदनमां थतुं ज्ञान तो प्रत्यक्ष, अतीन्द्रिय, स्वाधीन छे;
जेमां इन्द्रियनी – आंखनी कोईनी मदद नथी, जेमां रागनुं
आलंबन नथी, – ए ज्ञाननी ताकातनी शी वात
ज्ञाननी ताकात कोई अपरंपार घणी घणी वधारे छे.
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संबंध एणे तोडी नांख्यो. – खबर पण न पडी, एटले के
विचारमां पण न आव्युं के अत्यारे इन्द्रियोनो संबंध हतो ने छूटी
गयो
इन्द्रियोनुं अवलंबन एकदम छोडी दीधुं.....छूटी गयुं. अने ए
ज्ञान इंद्रियोथी छूटीने, अंतरमां दोडयुं; पहेलां इद्रियोना
अवलंबनमां बंधायेलुं हतुं एटले दोडी शकतुं न हतुं. (अंतर्मुख
थई शकतुं न हतुं). हवे ज्यां इन्द्रियोनुं बंधन तोडी नांख्युं त्यां
ज्ञान जोरदार थई, छूटुं पडी, अतीन्द्रिय थई अंतरस्वरुपमां
दोडयुं, स्वभावमां ऊतर्युं. अतीन्द्रिय थया वगर ज्ञान पोताना
स्वभाव तरफ चाली शकतुं न हतुं; हवे तो स्वसंवेदनमां एकदम
अतीन्द्रिय थई पोते पोताना स्वभावने पकडी लीधो. आवुं आ
ज्ञान पोताना अतीन्द्रियधाममां पहोंची गयुं.
मशगुल थई गयुं. त्यां आ आनंद, ने आ हुं – एवो द्वैतनो
विकल्प पण ज्ञानमां रह्यो नहि. उपयोग निर्विकल्प थईने आनंदमां
तन्मय थई गयो. – आवी अनुभूति केटली ऊंडी
– एम अल्प समयनी अनुभूतिमां पण अपार ऊंडपने लीधे,
घणा – घणा लांबा काळनी अनुभूति होय – जाणे अनंत काळथी
अनुभूतिमां ज आत्मा बेठो होय
आत्माने माटे न रही. हवे तो आ आत्माराम पोताना आनंदमय
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निजघर छोडीने संसाररुपी पर घरमां आ आत्मा हवे कदी नहीं
जाय.
करनेकी यह बात है. ऐसी अनुभूति करनेसे आत्माको महान
आनंद होता है; आत्माका कल्याण.....आत्माकी शांति.....आत्माकी
ऐसी अनुभूतिमें ही है. ।।१४।।
नीरखवा पोते पोतानुं रुप जो;
अद्भुत महिमा आव्यो ज्यारे लक्षमां,
केम रहे पछी क्षण पण एक्के दूर जो.....
छेल्ले, एटले के अषाड वद ७ ना दिवसे अनुभूति करवा माटे
ज्यारे आ आत्मा बेठो हतो.....त्यारे चैतन्यतत्त्वनो विचार करतां,
परभावोथी भिन्न ज्ञानीनी ज्ञानचेतनानुं लक्ष करतां सहजपणे
आत्मदेवना भावो पोताना चैतन्यस्वभाव तरफ उल्लस्या; –
एवा उल्लस्या.....ए उल्लासथी एवी मजा आवी – एवी शांति
आवी.....के झडपथी एवी शांतिस्वरुप पोतानुं रुप जोवा माटे
परिणाम एकदम स्थिर – शांत थईने अंदरमां ऊंडे ऊंडे जवा
लाग्या.
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अद्भुत अंतरमां लक्षगत थवा लाग्यो. अहो, ज्यां चैतन्यनो
आवो महिमा लक्षमां आवी जाय, – पछी मुमुक्षुजीव एक क्षण
पण एनाथी दूर केम रहे
परिणामनी अंदर ज त्रण प्रकारनां करण थई गया.....हवे ए
वखते उपयोग तो अंदरमां ज जतो हतो, एटले ‘आ त्रण करण
थया’ एवुं कंई भेदनुं लक्ष होय नहीं; पण पछी ख्याल आवी गयो
के आ स्थितिमां ज्यारे चैतन्य तरफ उपयोग जतो हतो ए
वखतना कोई काळमां ए त्रण करण समाई गया हता. ए
परिणाममां चैतन्यरसनी कोई परम सूक्ष्मता हती; ए
चैतन्यरसनी अंदर ज त्रण करण हता, – एटले सम्यक्त्वना त्रण
करण ए कोई रागरुप नथी पण चैतन्यने रागथी भिन्न पकडवानी
क्रिया – एवी क्रिया करवानुं नाम ज त्रण करण छे. – एवो भाव
अंतरमां स्पष्ट देखाय छे.
क्षण पण एनाथी दूर केम रहे
गयो, अपूर्व स्वानुभूति थई गई; कोई परम आनंद, महान
शांति, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, मोक्षमार्ग – बधुंय एक ज क्षणमां
अंदरमां आवी गयुं.