Samyak Darshan Part 7 8-Gujarati (Devanagari transliteration). Pad 16; Pad 17; Pad 18; Pad 19; Pad 20-21; Pad 22; Pad 23; Pad 24; Pad 25; Pad 26; Pad 27-28.

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१४८ : स्वानुभूति-प्रकाश )
( सम्यग्दर्शन
लक्षमां आवी जाय तो उपयोग तेमां अंतर्मुख थईने, तन्मय थईने
अनुभूति कर्या वगर रहे ज नहीं. एटले अनुभूति माटेनो एक ज
उपाय के चैतन्यतत्त्वनी महानता, एनी गंभीरता, एनो
चैतन्यस्वाद, एनुं रागथी भिन्नपणुं, एनुं जेवुं स्वरुप छे तेवुं
बराबर लक्षमां लेवुं. ए लक्षमां आवे एटले एनी अनुभूति पण
थाय ज.
जेम तरस्यो माणस ठंडा सरोवरना किनारे आवीने ऊभो
होय, एने कोई बतावे के जो, भाई! आ रह्युं ठंडु पाणी! तने
तरस लागी हो तो तुं पी ले! आम ठंडुं पाणी नजर सामे जोवा
मळे पछी पीतां शी वार! एम शांत चैतन्यरसथी भरेल
आत्मतत्त्व.....ज्यां लक्षमां आव्युं के अहो! आ मारुं तत्त्व
शांतिथी भरेलुं कोई अगाध ऊंडुं छे! – त्यां शांतिनो अभिलाषी
मुमुक्षु, तेने एनो अनुभव करतां पछी शी वार! तत्क्षणे ज एनो
उपयोग अंतरमां जाय, अने एने अनुभूति थाय.
– एटली झडपथी ए अनुभूति थई गई – कल्पना पण
न हती के उपयोग आटली बधी झडपथी अंदर चाल्यो जशे! –
केमके पहेलां ज्यारे विचारदशा हती त्यारे उपयोग हजी आटलो
अतीन्द्रिय थयेलो न हतो, एटले एमां उपयोगनी अगाध ताकात
ए वखते न हती; पण पछी ज्यां अनुभूति माटे ऊंडो ऊतर्यो त्यां
उपयोगनी ताकात एटली बधी वधी गई के एकदम, कल्पनामां
पण न आवे एटली बधी झडपथी, एटली बधी पुरुषार्थनी
ताकातथी, एटला बधा ऊंडाणथी अंदर आत्मामां एकाग्र –
तन्मय थई गयो के बस
! ते अनुभूति तत्क्षणे ज थई गई. ।।१५।।

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सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १४९
(१६)
गंभीरता केवी रे आत्म स्वरुपनी,
पार न जेनो राग वडे पमाय जो;
अनुभूति जे जागी चैतन्य स्वादनी,
एणे लीधो निज स्वरुपनो अंत जो.....
आत्मस्वरुप एटलुं अगाध अने गंभीर छे के रागना
अभ्यास वडे, रागसहित एवा ज्ञानना अभ्यास वडे पण एनो
पार पमातो न हतो, पण ज्यां चैतन्यस्वाद रागथी छूटो पडीने
अंतरमां अनुभूति थई त्यां ए अनुभूति वडे चैतन्यना परम
गंभीर स्वरुपनो पण अंत पामी गयो एटले के एनो पार पामी
गयो; एनुं जेवुं स्वरुप हतुं एवुं पोतानुं पोतामां परिपूर्णपणे
देखवामां जाणवामां ने स्पष्ट अनुभवमां आवी गयुं. ए
आत्मस्वरुपनी गंभीरता अहा, वाणीमां केम आवे
? ए
अनुभूतिमां ज समायेली स्पष्ट देखाय, पण वाणीमां कहीए त्यारे
एम लागे के अरे
! अनुभूति केटली ऊंडी छे ने वाणी केटली स्थूळ
छे? रागना विचारमां लईए त्यारे पण, जेवुं अनुभूतिमां हतुं
एवुं तो तेमां नथी आवतुं; उपयोगमां ज आवी शके – अने ते
पण स्वसन्मुख थयेला उपयोगमां आवी शके. – एवुं
आत्मस्वरुप घणुं ज महान, घणुं दिव्य, घणुं सुंदर, घणुं पवित्र छे.
एक वखत आत्मा स्वसंवेदनमां साक्षात् आवी गयो पछी,
निर्विकल्प अनुभूतिरुप उपयोग भले न होय तो पण उपयोग
रागथी छूटो पडेलो तो छे ज, ते उपयोग ए स्वसंवेदनमां आवेला
आत्माने भूलतो नथी; ए अनुमानथी, विचारथी, शास्त्रना
अभ्यासथी पण, पोते जाणेली वस्तुने फरीफरीने याद करी शके छे.
।।१६।।

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१५० : स्वानुभूति-प्रकाश )
( सम्यग्दर्शन
पहेलां आवो आत्मानो अनुभव करवा माटेनी घणी ऊंडी
मुमुक्षुता जागवी जोईए. मुमुक्षु थईने आत्मानो अभ्यास करे
अने चैतन्यरसनुं घोलन करे, ए घोलन करतां – करतां एनो
अनुभव थाय छे, – ए ज एनो उपाय छे : –
(१७)
मुमुक्षुता ज्यां जागी साची आत्मनी,
परम घोलन ज्ञान ज रस घूंटाय जो.
ज्ञान – ज्ञान बस ज्ञान – ज्ञान हुं एक छुं,
अनंत भावो ज्ञानमहीं घोळाय जो.....
अहो, ज्यां आत्मानी साची मुमुक्षुता जागी त्यां एने पोताने
जे भावमां शांतिनुं वेदन थाय – एवा भावनुं ज घोलन वारंवार
अंदर चालतुं होय छे. रागनो रस – के जेमां अशांति छे ए
रागनो रस घूंटवामां एने मजा आवती नथी, एमां एनो उपयोग
संतोष पामतो नथी, एटले एनाथी उपयोग ऊंचो ने ऊंचो रहे
छे; जेम मन अमुक काममांथी ऊंचुं थई जाय पछी ए काममां चोंटे
नहि, एम एनो उपयोग रागादि अशांतिमांथी – पर भावोमांथी
ऊठी गयो, पछी हवे एनुं घोलन एने रहेतुं नथी. एना
उपयोगना घोलनमां, एनी मुमुक्षुताना घोलनमां एक पोतानुं
आत्मतत्त्व – के जेमां मारी शांति भरी छे – जेमां मने सुख लागे
छे – ए ज मारुं तत्त्व – तेने हुं केम अनुभवुं, ई तत्त्व केवुं छे
!
एम वारंवार फरी – फरीने एक ज घोलन, दिनरात तन्मयताथी,
लगनताथी, उदासीनताथी, वैराग्यथी, उत्साहथी, परम परम
आदरभावथी पोताना चैतन्यरसनुं घोलन, एनुं श्रवण करतां कोई
महान मजा आवे, ज्ञानी पासेथी एनुं वर्णन सांभळतां आत्मा
एनी प्राप्ति माटे उल्लसी जाय. अंतरना विचारमां पण वारंवार

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सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १५१
जाणे हमणां ए रस चाखी लउं एम लगन लागे, एम दिवस
रात, महिनाओ सुधी के वर्षो सुधी पण घूंटीघूंटीने एवुं पाकुं करे
के अंते एनी अनुभूति थाय ज.
मुमुक्षु जीव आत्माना घोलनमां पाछो हठे नहि, एमां थाके
नहि, केमके एमां ज एने मजा आवे छे. क्यांय पण शांति जोईती
होय, क्यांय पण सुख देखातुं होय तो एने पोताना आत्माना
घोलनमां देखाय छे; बीजे क्यांय शांतिनो कोई अंश, शांतिनी कोई
गंध एने देखाती नथी, एटले एनुं घोलन एना उपयोगमां केम
टके
? एने तो सूतां – जागतां दिवसे – राते एक ज धून – एक
ज घोलन के अहा! मारुं आ चैतन्य तत्त्व! जैनधर्ममां आवीने मने
सांभळवा मळ्युं; एने प्राप्त करवानी मने अभिलाषा जागी,
संतोए मारा उपर कृपा करी करीने मने वारंवार ए समजाव्युं,
वारंवार मने एनो अनुभव करवानुं कह्युं; हवे मने ए बहु ज
गम्युं, बहु ज एमां मजा आवी; बस, तो हवे हुं एनो अनुभव
करुं – करुं....एम खूब ज घोलन चालतुं हतुं, वर्षोथी
चालतुं.....छेल्ला काळमां तो खूब ज, अतिशय घोलन चालतुं;
गिरनारतीर्थनी यात्रा वखते, बीजा अनेक तत्त्वना प्रसंगोमां, अनेक
वैराग्यना प्रसंगोमां, संसारना प्रसंगोमां, चैतन्यनी साधनाना
प्रसंगोमां, एम सर्व प्रसंगोमां चैतन्यरसनी पुष्टि करतां – करतां,
एवी पुष्टिनी पराकाष्टा थई के एक क्षणे चैतन्यरसनो स्वाद,
सीधेसीधो स्वाद में चाख्यो.
– केमके ज्यां मुमुक्षुता जागे त्यां एना भावमां एम ज
आवे के बस, हुं तो एक ज्ञान.....ज्ञान.....ज्ञान! एम ज्ञाननुं ज
घोलन! मारा ज्ञानमां बीजुं शुं भळी गयुं के जेथी मने ज्ञाननो
स्वाद नथी आवतो? एम बीजा भावोने शोधी शोधीने ज्ञानमांथी
बहार काढतो जाय, ने ज्ञानने ज्ञानरुपे करतो जाय. एम एक

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१५२ : स्वानुभूति-प्रकाश )
( सम्यग्दर्शन
ज्ञानरसना घोलनथी ज आत्मानी अनुभूति थाय छे. ज्ञान पोते
पोतामां एवुं घूंटाय छे – एवुं एकाग्र थाय छे के अतीन्द्रिय
अनुभूति करे छे, अने एमां रागनुं वेदन छूटुं पडी जाय छे. ।।१७।।
(१८)
ज्ञानस्वादने फरी फरीने घूंटतां.....
राग तणा सौ रसडा छूटी जाय जो;
ज्ञानमग्न थतां जे शांति जागती,
विकल्पो त्यां सरवे भागी जाय जो.....
अहो, ज्ञाननो स्वाद रागथी जुदो, अतीन्द्रिय स्वाद, एने घूंटतां
– घूंटतां रागनो रस छूटी जाय छे अने ज्ञाननी साथे कोई एवी अपूर्व
शांति आवे छे के ज्यां कोई विकल्पने अवकाश रहेतो नथी. ए ज्ञानमां
केवी शांति होय ते १९ मा पदमां बताव्युं छे. ।।१८।।
(अहो, स्वानुभूतिनुं वर्णन चाले छे. आ आत्माने कोई
अपूर्व आनंदनी अनुभूति थई; ते आनंदनी अनुभूतिनुं वारंवार
घोलन करवा माटे आ पदरचना छे. आ रचनानो शरुआतनो
मोटो भाग, श्रीमद् राजचंद्रना जन्मधाम ववाणीयाक्षेत्रमां ‘पोष
सुद पूनम’ना रोज लखायेल छे; बीजो केटलोक भाग सोनगढ –
अनुभूतिधाममां लखायेल छे; अने बाकीना भागनी पूर्णता
गीरनार – सिद्धक्षेत्रमां अत्यंत वैराग्यभावनाना वातावरणमां
थयेली छे – जेठ सुद त्रीज वीर सं. २४९९ना रोज, अने पछी
आ पदोनो भावार्थ सोनगढमां वीर निर्वाणना अढीहजारवर्षीय
उत्सव दरमियान लखायेल छे. तेमां १८ श्लोक आपणे भावनारुपे
बोल्या, हवे १९ मा श्लोक द्वारा स्वानुभूतिनो महिमा सांभळो
!)

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सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १५३
(१९)
अहो, ज्ञान तो स्वयं शांति स्वरुप छे,
आनंदमय ने धीर वीर उदार जो.
ज्ञानमां नहीं – दुःख अशांति संभवे,
ज्ञान तो छे स्वयं आतम देव जो.....
अहो, चैतन्यसन्मुख जे ज्ञान थयुं, आखाय संसारनो संबंध
तोडीने, इंद्रियोनो संबंध तोडीने, रागादि परभावनो संबंध तोडीने,
जे ज्ञान पोताना अगाध चैतन्यमहिमाने पकडतुं, एनी शांतिने
वेदतुं एमां तन्मय थयुं, – ए ज्ञान, एनी धीरतानी शी वात
!
एनी वीरतानी शी वात! अने एनी उदारतानी शी वात!!
जगतना कोई प्रसंगथी जे डगे नहि; जेनी वीरता – एटले
परभावोथी भिन्न पोते पोतानी चेतनारुपे परिणमीने मोक्षने
साधवुं – एवी जे वीरता, – महावीर भगवान जेवुं वीरपणुं ए
ज्ञानमां प्रगटयु छे; अने ते ज्ञान उदार छे, एटलुं मोटुं अने
महान छे के जे सिद्ध भगवान जेवो पोतानो अपार चैतन्यस्वभाव,
अनंत गुणगंभीर चैतन्यस्वभाव ए आखाय स्वभावने एक साथे
पोते पोताना ज्ञानमां स्वीकारी ल्ये छे, अने एना सिवायना समस्त
परभावो, समस्त पर पदार्थो, आखा जगतनी बाह्यविभूति, एने
पोताथी बहार परद्रव्यपणे जाणीने एकदम एनुं ममत्व छोडी दे
छे. आवुं परम भेदज्ञान स्वानुभूति वखते थई जाय छे; अने त्यार
पछी सदाकाळ एवुं ज आत्मिक जीवन वर्त्या करे छे. अहो, ए
जीवननी शी वात
! एमां जे अपूर्व शांति छे एनी शी वात! जेमां
कोई अशांति कदी संभवी शकती नथी; जेटली शांति थई ए साधक
भावनी शांतिमां कदी अशांति आवती नथी; एटली शांति तो एने
सर्व प्रसंगे, कोई पण उपयोग वखते, कोई रागद्वेषना परिणाम

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१५४ : स्वानुभूति-प्रकाश )
( सम्यग्दर्शन
वखते, क्रोधादि भाव वखते, शुभाशुभभाव वखते पण वर्त्या ज
करे छे.
– आवा शांतिस्वरुप आत्मदेवने अहो! में मारी
स्वानुभूतिमां स्वयं साक्षात देख्या.....एनी अद्भुततानी शी वात!
जे आत्मतत्त्व मात्र अतीन्द्रियज्ञानथी ज पकडाई शके, अने
पंचपरमेष्ठीनी पंक्तिमां जे बेसी शके, – एवी जेनी दशा थई
गई ते अनुभूतिस्वरुप आत्मानी शी वात
!! ।।१९।।
स्वानुभूतिनो जय हो.
स्वानुभूतिस्वरुप आत्मदेवनो जय हो.
(२०) – (२१)
अद्भुत – अद्भुत – अद्भुत वैभव ज्ञानमां,
अनंत खोल्या स्वानुभूतिना द्वार जो;
चेतनजाति साची आत्मानी जात छे,
केवळीमां ने मुजमां को नहीं फेर जो.....
केवळज्ञान छे चेतन केरी जातनुं,
मुज मति छे चेतन केरी जात जो;
बंने जात सजात, राग कजात छे,
जातिभेदनुं साचुं छे आ ज्ञान जो.....
अहो, अद्भुत – अद्भुत छे आत्मानो वैभव! ए ज्ञानमां
खीली गयो. स्वानुभूति वडे, स्वानुभूतिना दरवाजा द्वारा अनंत
चैतन्यवैभवमां आत्मा दाखल थई गयो; पोताना निजनिधान,
पोतानो अपार निजवैभव, जेनी अद्भुतता संतो पण वखाणे छे,

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सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १५५
जेनी अद्भुतता – अचिंत्यतानो कोई पार नथी – एनी अनुभूति
थई. ते आत्मिक अनुभूतिमां जे ज्ञान थयुं, – भले मारुं ज्ञान
मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान छे तोपण, ते ज्ञान केवळी भगवाननी
जातिनुं ज छे; चेतनभाव तरीके, रागथी भिन्न अतीन्द्रिय
आनंदभाव तरीके मारुं ज्ञान अने केवळी भगवाननुं ज्ञान एक ज
जात छे, ए ज आत्मानी साची जात छे. ए जात अपेक्षाए केवळी
भगवानमां ने मारामां कांई पण फेर नथी – नथी.
केवळज्ञान अने मति श्रुतज्ञान ए रागथी जुदा पडेला छे; ए
बंने एक – सजाति छे, अने राग ए बंनेथी विरुद्ध कजात छे.
एटले जेम केवळज्ञानथी राग जुदो छे तेम मारा स्वसंवेदनमां मति
– श्रुतज्ञानथी पण राग जुदो ज छे; ज्ञान अने रागना जातिभेदनुं
आवुं अत्यंत साचुं ज्ञान ए स्वानुभूतिमां थयुं छे. केवळज्ञानने
अने मारा मतिज्ञानने जातिभेद नथी, परंतु मतिज्ञानने अने
रागने जातिभेद छे. आम राग अने ज्ञाननी अत्यंत भिन्नता, –
अत्यंत जुदापणुं, बंनेना स्वादनुं एकबीजाने जरापण न अडे एवुं
जुदापणुं – ए स्वसंवेदन वडे ख्यालमां – ज्ञानमां – अनुभूतिमां
आवे छे, अने त्यारे पोते पोताना आत्माने केवळज्ञान जेवा ज
आनंदस्वरुपे अनुभवे छे; अने त्यारथी ते केवळीभगवानना
मार्गमां, केवळी भगवाननी नातमां दाखल थई गयो.....एटले के
जगतमां जिनेश्वरदेवनो लघुनंदन थई गयो. ।।२० – २१।।
(२२)
‘‘चेतन – वेदन वेद्युं अशरीर भावथी’’
(आ शरीरमां बेठो, छतां अशरीरी थईने पोते पोताने
वेद्यो, एवुं वेदन कोई अद्भुत होय छे – )

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१५६ : स्वानुभूति-प्रकाश )
( सम्यग्दर्शन
चेतनवेदन वेद्युं अशरीर भावथी
ज्ञानधारा छे ए तो सिद्धसद्रश जो.....
देहातीत ने रागातीत एक भावमां
डोली रह्या छे आ ज्ञाता – द्रष्टा देव जो.....
अहो, सिद्धभगवान जेम शरीरथी छूटा चैतन्यभावमां
महाली रह्या छे तेम स्वसंवेदनमां वर्ततो आ आत्मा पोताना
अशरीरी चैतन्यवेदनमां महाली रह्यो छे. सिद्ध भगवंतना
अशरीरी भावमां, अने आ आत्माना स्वसंवेदनरुप
अशरीरीभावमां, कांई फेर नथी. अने आवुं स्वसंवेदन करेला
मुनिभगवंतो, अरिहंत भगवंतो, केवळी भगवंतो – भले शरीर
– संयोगनी वच्चे रह्या होय तोपण – एमनो आत्मा अशरीरी
भावे मुमुक्षुने नजरे देखाय छे.....के अहो
! आ धर्मात्माओ, आ
मुनिवरो, आ अरिहंतो अशरीरी भावे वर्ती रह्या छे; एमनी
शांति अशरीरी छे; एमने शरीर साथे के शरीर संबंधी कोई
पदार्थो साथे आत्मानी ए शांतिनो संबंध जराय नथी. एवी शरीर
अने रागादि साथे संबंध वगरनी चैतन्यशांति आत्माना
स्वसंवेदनमां थई त्यारे अद्भुत ज्ञानधारा खीली, अने ए
ज्ञानधाराना बळे आ आत्मा पोते पोताने सिद्धसमान ज
अनुभूतिमां आव्यो. ए अनुभूतिनो एक एकत्वभाव छे ते भाव
देहथी पार अने रागथी पण पार छे. ज्यां देह अने रागनो संयोग
काढी नांखो, एनाथी छूटा चैतन्यभावपणे आत्माने देखो, त्यां
आत्मा पोताना एकत्वमां ज देखाय छे. ए वखते भले एना
चेतनमां द्रव्य-गुण-पर्याय बधुंय छे पण एना एकत्वमां ए बधुं
समाई गयुं छे, अने ज्ञाताद्रष्टा आत्मराम चैतन्यभावे पोताना
एकत्वमां डोली रह्या छे. ।।२२।।

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सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १५७
(२३)
अद्भुत केवो चैतन्यरस आ आत्मनो,
सर्वे क्लेशो एनाथी अति दूर जो.....
भवभ्रमण छूटया ने डंका वागिया,
मोक्षपुरीना सुखडा दीसे नजीक जो.....
अहा, आ चैतन्यनो रस.....जे घूंटता – घूंटता पण
संसारना क्लेश दूर थई जाय छे.
‘दूर थई जाय छे ने!’ ...‘हा.’
कांई याद आवे छे दुनियाना क्लेश? ‘ना’
– आम संसारना क्लेशथी दूर जईने, चैतन्यरसने घूंटतां
कोई चिंता रहेती नथी. ए चैतन्यरसनुं जे साक्षात् वेदन थयुं...ए
वेदनमां संसारनो कोई रस, कोई नामनिशान केम होय
?
‘‘वाह!’’ मोक्षनुं मंदिर हवे आ नजीक ज देखाय छे....केमके
सुखना घंट संभळाय छे. जेम क्यांक महान तीर्थमां जता होईए,
पहेलां ते न जोयुं होय, पण नजीक जईए ने मंदिरना घंट
संभळाय त्यां आत्मा उल्लासमां आवी जाय के अहो, मंदिर
नजीकमां आवी गयुं; एम ज्यां आत्मानुं स्वसंवेदन थयुं त्यां
स्वानुभूतिना आनंदमां मोक्षपुरीना मंदिरना सुखना डंका
‘धणण....धणण’ करतां अंदर स्पष्ट संभळाया, के वाह
! मोक्षनुं
सुख एकदम नजीक आव्युं....एनो नमूनो आवी गयो. जेम ओला
घंटनो नाद इन्द्रियज्ञान द्वारा काने पडी गयो तेम मोक्षसुखनो
नमूनो अतीन्द्रियज्ञान द्वारा, चैतन्यना अनहद नादरुपी घंट द्वारा,
अंदर आत्माना स्वसंवेदनमां आवी जाय छे.
आ चैतन्यरसनी भावना भावतां संसारना क्लेशो –

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१५८ : स्वानुभूति-प्रकाश )
( सम्यग्दर्शन
विचारो दूर थई जाय छे, एनी पासे संसारना कोई क्लेश नजीक
पण नथी आवी शकता; एटली बधी भिन्नता छे के ज्यां
चैतन्यभावना होय त्यां नजीकमां कोई क्लेशभावो आवी शकता
नथी. आवो ज चैतन्यनो कोई अलिप्त स्वभाव छे. आ स्वभावने
ज्यां स्वसंवेदनमां लीधो त्यां, भवभ्रमणना अनादिना जे दुःखो
हता तेना वेदनथी आत्मा छूटी गयो. – जेनाथी कदी छूटो नहोतो
पडयो, एनाथी एवो छूटो पडयो ने एवुं मोक्षनुं सुख स्वादमां
आव्युं के वाह, आ सुख
! अने अत्यारे आ पहेली ज वखत आ
भवमां थयुं. अनंत – अनंत भवना अवतारमां आवु सुख कदी
पण चाखेलुं नहीं, ते आजे ज्यारे स्वानुभूति थई त्यारे पहेली ज
वखत मने वेदनमां – अनुभवमां आव्युं. ए वेदनमां आवतां
मोक्षना डंका वाग्या. मोक्षना भणकारा आव्या. अरे, मोक्ष थशे के
नहि – ए प्रश्न ज हवे रहेतो नथी. मोक्ष थवा ज
मांडयो.....मोक्षनी नजीक हुं आवी ज गयो. हवे तो डंका – निशान
वागवा मांडया.....हवे ए दूर कही शकाय नहि, हवे तो आवी ज
गया कहेवाय.
आवी स्वसंवेदननी अद्भुत अलौकिक दशा छे.
(अत्यारे कुदरते डंका ने वाजां वागता संभळाया.)
‘अहो, स्वानुभूतिनुं आवुं मजानुं वर्णन! केवी मजा आवे छे
ते सांभळवामां!!’ ‘अहाहा, बहु ज मजा आवे छे.....आवी
स्वानुभूतिनी वात सांभळतां कोने मजा न आवे!! तमे तो साक्षात्
अनुभवी रह्या छो.....ने अमनेय सांभळतां एम थाय छे के
अहाहा, अत्यारे ज आवो स्वानुभव लई लईए
!’

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सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १५९
– आ रीते आत्मानी अनुभूतिने साधवा माटे मुमुक्षुने
उल्लास होय छे.....ते साधवा माटे आत्माना एकत्वमां आववुं पडे
छे. जगतना संगथी एकदम दूर, ने एकदम एकलो थई,
एकत्वमां आवी पोताना आत्मानी अंदर ज्ञानमां वेदनमां ने
शांतिमां आववुं ए ज साची अनुभूतिनी रीत छे. सामान्यपणे
दुनियामां पण देखाय छे के ज्यारे चैतन्यना एकत्वनी भावना
भावता होईए त्यारे बीजा कोईनो संग एमां पालवतो नथी, तो
अंतर्मुख थईने साक्षात् अनुभूति करवी तेमां जगतमां कोईनी
अपेक्षा नहि – पण जगतथी एकदम दूर – दूर थईने एटले के
एकदम आत्मामां ऊंडो – ऊंडो ऊतरीने, एकलो थई एटलो बधो
ऊंडो ऊतरी जाउं के जेमां पोताना आत्मा सिवाय बीजुं कोई आवी
ज न शके. आम एकत्वमां आवीने आत्मानी अनुभूति थाय छे.
आत्मानुं आवुं एकत्व देखाडतां, आपणा कुंदकुंदस्वामी
समयसारमां कहे छे के : हुं मारा समस्त आत्मवैभवथी –
अनुभूतिथी, सर्वज्ञना दिव्यध्वनिथी, आगमथी, युक्तिथी,
श्रीगुरुना प्रसादथी मने जे शुद्धात्मानुं ज्ञान मळ्युं छे ते समस्त
आत्मवैभवथी – हुं आ समयसारमां....‘शुं देखाडीश
?’ – के
आत्मानुं एकत्वस्वरुप देखाडीश. एटले आत्माना एकत्वने पामवुं,
– ते एकत्वमां पछी भले पोताना अनंत गुण – पर्यायो समायेला
होय, ते एकत्वमां भले पोताना अनंत चैतन्यस्वभावो भरेला
होय, पण बीजा कोईनो संग नहि, एटले बीजा कोई भावनो
एमां स्पर्श नहि, – आवा एकत्वनुं वेदन ते आ समयसारनो
सार छे, ते अमारो उपदेश छे.
अमे आचार्य थईने शासनना
जीवोने आज्ञा करी होय तो आ एक ज आज्ञा करी छे के
हे जैनशासनना जीवो्र! तमे तमारा एकत्व आत्मानो अनुभव

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१६० : स्वानुभूति-प्रकाश )
( सम्यग्दर्शन
करो. शुद्ध आत्मानी अनुभूति ते ज जैनशासन छे, ते ज
पंचपरमेष्ठी भगवंतोनी आज्ञा छे, ते ज पंचपरमेष्ठी
भगवंतोनो उपदेश छे, ते ज आत्मानुं इष्ट छे, ने ते ज
मुमुक्षुनुं कर्तव्य छे. ।।२३।।
आवुं एकत्व थतां आत्मामां शुं थाय छे.....ते जुओ –
(२४)
एकलडो थई आव्यो शांतिधाममां,
दीठुं अद्भुत आश्चर्यमय सुखधाम जो;
नाटकमां छूटया रे भेष भव – दुःखनां,
धार्यो साचो चिदानंद मूळ भेष जो...
जागी रे जागी स्वानुभूति मुज आत्ममां...
समयसारमां अनादि अनंत आत्माना नाटक तरीकेना बधा
वेष बताव्या छे; नाटकमां कांई बधा वेष खराब ज होतां नथी,
केटलाक खराब वेष होय, केटलाक दुःखना वेष होय, तेम केटलाक
सारा – सुखना वेष होय, कोई साधुना वेष होय, कोई वैराग्यना
वेष होय, कोई राजाना के भगवानना वेष होय, एम अनेक
जातना वेष नाटकमां होय छे; तेम आ चैतन्यतत्त्वमां परिणामोनुं
जे विचित्र नाटक चाली रह्युं छे ते नाटकमां, पहेलां अज्ञानदशामां
अनुभूति न थई त्यांसुधी तो दुःखनां ज नाटक हता, दुःखनां ज
वेष हतां, दुःखनुं ज वेदन हतुं, हवे ज्यां साची आत्मअनुभूति
थई, संतोना प्रतापे सुखनो स्वाद आव्यो, त्यां आखो वेषपलटो
थई गयो. जेम एक वेष भीखारीनो होय ने ए ज माणस क्षणमां
ज बीजा वेषमां राजा थईने आवे, ते आखोय पलटी जाय, तेम आ
आत्माने स्वानुभूति थतां भीखारी जेवा भवदुःखनां वेष पलटी

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सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १६१
गया, ए खराब भेष छूटी गया, ने चिदानंदराजा, जगतना
महाराजा, पोताना सर्वोत्कृष्ट चैतन्यराजाना साचा वेषमां प्रगट
थया : मारो साचो वेष, मारुं असली स्वरुप तो आ ज छे.
नाटकमां एकवार भीखारीनो वेष हतो पण खरेखर तो हुं राजा
छुं, आ मारो स्वाभाविक वेष छे; कोई बनावटी, उपरथी पहेरेलो
आ वेष नथी. – आम पोतानी चैतन्यअनुभूति थतां पोताना
साचा वेषनुं – पोताना साचा स्वरुपनुं अंतरमां ज्ञान थाय छे; ने
अंतरना साचा वेषनुं ज्ञान थया पछी उपरना खोटा भीखारी जेवा
वेषने ए जीव फरीने कदी धारण करतो नथी.
ज्यां आत्मा पोताना एकत्वमां आव्यो, त्यां एवुं नथी के
एकत्वमां न गमे के उदासीनता थाय. एकत्वमां तो महान शांति
छे, एकत्वमां महान आनंद छे, ने एकत्वमां चैतन्यवैभवनो
एटलो बधो अद्भुत ढगलो देखाय छे के आत्मा आश्चर्य पामी
जाय छे.....आश्चर्यथी पण वधारे, एटले के आश्चर्यथी पण पार
एवी कोई अद्भुत भूमिका एना अंतरमां प्रगटी जाय छे. ए
स्वानुभूतिमां जे आनंद छे ए तो आश्चर्यथी पण पार छे, एटले
के त्यां आश्चर्य करवापणुं पण रहेतुं नथी. जेम केवळी भगवानने,
बारमागुणस्थाने वीतरागता थया पछी केवळज्ञान थतां जगतमां
कदी नहि जोयेला एवा अनंता पदार्थो केवळज्ञानमां देखाय छे, पण
त्यां आश्चर्यनो कोई अवकाश नथी.....के अहो, में आवुं देख्युं
!
.....अहो, मने आवुं केवळज्ञान थयुं! एवा आश्चर्यनो केवळीने
कोई अवकाश ज नथी, केमके एमना केवळज्ञाननी भूमिका
आश्चर्यथी पण कोई पार.....पार थई गई छे. एवी ज
स्वानुभूतिनी भूमिका – निर्वकल्पदशा, एमांय आश्चर्यने कोई
अवकाश नथी; आश्चर्यथी पण पार, आत्मा पोते शांतिना बरफमां

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१६२ : स्वानुभूति-प्रकाश )
( सम्यग्दर्शन
ठरी जाय छे.....त्यां कोई विकल्पना उत्थाननो अवकाश नथी. आवी
अद्भुत दशा, आवो चैतन्यनो स्वाभाविक साचो वेष स्वानुभूतिना
प्रतापथी थयो; ए स्वानुभूति कुंदकुंदस्वामी जेवा वीतरागी संतोना
प्रतापथी आ आत्मा पाम्यो. अहो संतो
! अहो, कुंदकुंदस्वामी
वगेरे वीतरागी संतो! तमने मारा आत्माना असंख्यप्रदेशमां
भक्तिभीना चित्तथी हुं नमस्कार करुं छुं. ।।२४।।
स्वानुभूति थतां आखो आत्मा ज जाणे नवो थई जाय
छे.....एकदम आखो आत्मा पलटी जाय छे; एना बधा भावो,
एनी दशाओ पलटी जाय छे. – शुं थाय छे.....
?
(२५)
परिवर्तन पाम्यो रे आत्मिक भावनुं,
नुतन धार्यो आनंदमय अवतार जो;
अहो जीवन सुखी बन्युं छे माहरुं,
अतिशय तृप्ति निजरसमां वेदाय जो.....
ज्यां स्वानुभूति थई त्यां शुं थयुं? के आत्मा –
अज्ञानमांथी ज्ञानी थयो;
उनामांथी ठंडो थयो;
आकुळतामांथी निराकुळ थयो;
अशांतिमांथी शांत थयो;
अनात्मा हतो, आस्रव – बंधरुप हतो, संसाररुप हतो, एने
बदले हवे संवर – निर्जरारुप थयो, मोक्षभावरुप थवा लाग्यो.

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सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १६३
– आम आखो पलटो थई जाय छे.
जेम एक भव पूरो थईने बीजो कोई अद्भुत नवो भव
धारण करे, – छतां त्यां तो संसारना चारे भवो एकबीजानी
जातना छे ज्यारे आ तो अनादिकाळना मिथ्या – विपरीतभावो
दूर करीने चैतन्यनो एक अद्भुत नवो ज आनंदमय अवतार
आत्माए धारण कर्यो. आत्मा पोते ज आनंदस्वरुपे
अवतर्यो.....परिणम्यो. अहो, आवी स्वानुभूति थई त्यारे बस
!
हवे मारुं जीवन सुखी बन्युं.....सदा काळने माटे आ आत्मा हवे
सुखी बन्यो, हवे सदाकाळ सुखथी हुं मारा स्वरुपमां.....मारा
आत्मामां पोताथी ज तृप्त – तृप्त संतुष्ट छुं. – आम पोताना
आत्मानी अनुभूति थतां पोताने खातरी थई जाय छे. अरे,
अनादिकाळथी अनंत भवोमां जे दुःख भोगव्यां हशे एनी तो शी
वात
! परंतु आ एक भवमां पण जीवे अनेक – अनेक प्रकारनां
दुःखो भोगव्यां छे; अनेक प्रकारनां संकल्प – विकल्पो, अनेक
प्रकारनां मान – अपमाननां दुःखो, अनेक प्रकारनां संयोग –
वियोगनां दुःखो, – एवा घणां भयंकर दुःखो – के जेमां नरक
जेवी वेदना पण लागती होय – एवा दुःखो पण जीव भोगवी
चुक्यो छे, पण ज्यां स्वानुभूति थई त्यां आखो आत्मा धोवाई
गयो; दुःख अने पापनुं नामनिशान ज्यां रहेतुं नथी; एकलुं
चैतन्यसुख
! सुखमय जीवन ज छे.....अहो, हुं सुखी छुं, सुख ज
मारुं स्वरुप छे, हवे आ जगतमां मारे माटे कांई दुःखरुप छे ज
नहि. आम, स्वानुभूति थतां आत्माना आखा जीवनमां एक
महान परिवर्तन थई गयुं. ।।२५।।

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१६४ : स्वानुभूति-प्रकाश )
( सम्यग्दर्शन
(२६)
आराधाना जागी छे आत्म स्वरुपनी,
परमेष्ठीनो मळ्यो सत्य प्रसाद जो;
अनंत रहस्यो खुल्या आत्मस्वरुपना,
परम गंभीर चैतन्यरस वेदाय जो.....
अहो, आत्मामां आराधना जागी, पंचपरमेष्ठी भगवाननो
साक्षात् प्रसाद मळ्यो; भगवान कांई खावानुं तो आपे नहि,
भगवान पासे तो अतीन्द्रिय आनंद छे, एवो आनंद ते
भगवंतोना प्रसादथी आ आत्माने मळ्यो, ए ज पंचपरमेष्ठीनो
साचो प्रसाद छे. आत्मानी स्वानुभूतिमां तेनो स्वाद आवे छे अने
आत्मस्वरुपना अनंता रहस्यो तेमां खुली जाय छे. ‘आत्मा केवो
हशे
! एनुं सुख केवुं हशे! एनी गंभीरता केवी हशे! एनां गुणो
केवा हशे! एनी पर्यायो केवी हशे! एनुं अनादिअनंतपणुं केम
हशे?’ – एवा जे आत्माना अनंता रहस्यो, ए बधाय
स्वानुभूतिमां खुली जाय छे; अने त्यां एकलो परम गंभीर
चैतन्यरस पोते पोतामां एकला – एकला घूंटाय छे. जेम दरियो
– एकला अगाध – अगाध पाणीथी भरेलो आखो दरियो, एनुं
पाणी पोतामां ने पोतामां हीलोळा मार्या करतुं होय; एम
आत्मानो परम गंभीर चैतन्यरस, ए चैतन्यरसनो समुद्र पोते
पोतामां ने पोतामां हीलोळा मार्या करे छे. आवी अद्भुत
आराधना स्वानुभूतिमां जागी छे. ।।२६।।

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सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १६५
(२७)
स्वानुभूति प्रकाशी ज्यारे आत्ममां,
सिद्धपद जाणे आवी मळ्युं साक्षात जो;
चैतन्यतेज तो खील्युं आत्मिक भावथी,
मोहतणुं त्यां मळे न नामनिशान जो.
आत्मा ज्यां स्वानुभूतिथी झळक्यो त्यां जाणे सिद्धपद
खील्युं, चैतन्यतेज पोताना अनंत किरणोथी खीली ऊठयुं. आत्मिक
चमकार जेम वीजळी झबके एम भेदज्ञानथी झबकी ऊठयो; त्यां
हवे अंधकार – मोहनुं नामनिशान केम होय
? आवी अद्भुत
स्वानुभूति आत्मामां प्रकाशे छे, त्यारे मोक्षना दरवाजा खूले छे,
आत्मा आराधक थाय छे.
– आ तो वर्णन छे, – तो ए अनुभूतिनो जे साक्षात्
स्वाद....एनी तो शी वात करवी? ‘‘वाह!’’ ।।२७।।
(२८)
मग्न थयो हुं निजानंदनी धूनमां,
दुनिया सारी लागे छे अति दूर जो;
चित्त चोंटयुं छे एक ज चैतन्यधाममां,
बीजुं तो सौ लागे अपरिचित जो.
आ स्वानुभूतिनी भावना भावीए छीए तो दुनिया केटली
आघी – आघी लागे छे! ‘‘आहाहा, जे सांभळतां आवुं अद्भुत
लागे छे तो साक्षात् अनुभवनी शी वात!!’ आत्मामां ऊतरे तो,
दुनिया भले छे नजीक क्षेत्रथी, पण पोताथी तो जाणे क्यांय दूर दूर
चाली गई होय, अथवा दुनियाथी पोते क्यांय अगोचर धाममां

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१६६ : स्वानुभूति-प्रकाश )
( सम्यग्दर्शन
दूर दूर चाल्यो गयो होय.....के ज्यां न तो पोताने दुनिया देखाय,
के न दुनिया पोताने देखे.
गुप्त स्थानमां (एकांत भावमां) बेठो बेठो चैतन्यनी धूनमां
चडी जाय तो आनी चैतन्यधूनमां शुं चाली रह्युं छे एने दुनिया
क्यां देखे छे
? दुनिया आने देखती नथी, केमके आ तो दुनियाथी
दूर पोताना अंदरनी गुफामां क्यांक चाल्यो गयो छे; ने पोते
पोताना चैतन्यनी धूनमां होय त्यारे दुनियामां शुं बनी रह्युं छे, –
के दुनिया केम चाले छे – एनुं पोताने क्यां लक्ष छे
? – दुनिया
तो क्यांय दूर दूर छे एटले के देखाती ज नथी.
– आम आत्माना एकत्वमां आवीने पोते पोताना
आनंदनी धूनमां मग्न थाय त्यां अंदर शांति आववा मांडे, आनंद
आववा मांडे, आत्मानी धून वधती जाय. ए वधतां – वधतां
चैतन्यतत्त्व एकदम परिचित थई जाय के अहो, आ चैतन्यतत्त्व तो
मारुं जाणीतुं छे, आ चैतन्यनी साथे तो हुं सदाकाळ रहुं ज छुं, आ
तो सदाय मारी साथे ज छे; आम आत्मतत्त्व एने परिचित थई
जाय छे. अने दुनिया एटली बधी अपरिचित थई जाय छे के एनी
साथे जाणे मारे कांई संबंध ज नथी; आ दुनिया कोण छे, शुं छे,
– एनो मने जाणे कांई परिचय ज नथी; ए दुनियाथी मारे कोई
परिचय, कोई राग – द्वेषनो संबंध, एनी साथे कांई लेवुं देवुं –
एवुं कांई छे ज नहीं, एनाथी सर्वथा भिन्न एवुं मारुं चैतन्यधाम
– तेमां ज मारुं चित्त चोंटी गयुं छे. – आम दुनियाथी एकदम
दूर, अने पोताना आत्मानी धूनमां मस्त; बीजी रीते कहीए तो
दुनियाथी दूर एटले ‘विभक्त’, अने आत्मानी धूनमां मस्त एटले
‘एकत्व’, – आवा एकत्वविभक्त आत्माने आ रीते स्वानुभूतिमां
साधतां महान आनंद थाय छे. ।।२८।।

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सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १६७
वीर सं. २५०० चैत्र सुद १३
मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी,
मंगलं कुंदकुंदार्यो, जैनधर्मोस्तु मंगलम्.
स्याद्वाद – लक्षण अमोघ जेनुं, परम गंभीर सुंदरं,
उपदेश श्री वीरनाथनो जयवंत छे जिनशासनं.
आजे आ २९ मा पदनो अर्थ थाय छे त्यारे, चैत्र सुद १३
छे अने भगवान महावीरना निर्वाण – महोत्सवनुं २५०० मुं
मंगल वर्ष चाले छे. आ वर्षमां ज सोनगढ – परमागममंदिरमां
महावीर भगवाननी, कुंदकुंदाचार्यदेवनी अने जिनवाणीनी मंगल
प्रतिष्ठा थई छे. वीरशासननी महान प्रभावना द्वारा अजोड
उपकार करनारा श्री कुंदकुंदाचार्यदेव आपणी सन्मुख ज बिराजी
रह्या छे. आवो, एमना दर्शन करो.....चरणस्पर्श करो अने एमनी
मंगल वाणी सांभळो.
अहो कुंदकुंद भगवान! आपना प्रतापे आ जीव स्वानुभूति
पाम्यो; भयंकर भवदुःखथी छूटीने चैतन्यनी परम शांति, आत्मिक
आनंद आपना प्रतापे आ जीवने प्राप्त थया छे महावीर
भगवानना मोक्षना अढीहजार वर्षनो आ अति मंगलं महोत्सव
आराधनासहित आनंदथी ऊजवी रह्या छीए, त्यारे प्रभुना महा
– अति उपकारनुं अत्यंत – अत्यंत भक्तिपूर्वक फरी फरीने
स्मरण थाय छे. जीवन महावीर प्रभुनी भक्तिमय बन्युं छे;
महावीर प्रभुना उपदेशेला परम तत्त्वो, चैतन्यनी अनुभूति –
तेमय थयेलुं जीवन, तेमां महावीर भगवाननो परम अचिंत्य
उपकार छे.