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अनुभूति कर्या वगर रहे ज नहीं. एटले अनुभूति माटेनो एक ज
उपाय के चैतन्यतत्त्वनी महानता, एनी गंभीरता, एनो
चैतन्यस्वाद, एनुं रागथी भिन्नपणुं, एनुं जेवुं स्वरुप छे तेवुं
बराबर लक्षमां लेवुं. ए लक्षमां आवे एटले एनी अनुभूति पण
थाय ज.
अतीन्द्रिय थयेलो न हतो, एटले एमां उपयोगनी अगाध ताकात
ए वखते न हती; पण पछी ज्यां अनुभूति माटे ऊंडो ऊतर्यो त्यां
उपयोगनी ताकात एटली बधी वधी गई के एकदम, कल्पनामां
पण न आवे एटली बधी झडपथी, एटली बधी पुरुषार्थनी
ताकातथी, एटला बधा ऊंडाणथी अंदर आत्मामां एकाग्र –
तन्मय थई गयो के बस
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पार न जेनो राग वडे पमाय जो;
अनुभूति जे जागी चैतन्य स्वादनी,
एणे लीधो निज स्वरुपनो अंत जो.....
पार पमातो न हतो, पण ज्यां चैतन्यस्वाद रागथी छूटो पडीने
अंतरमां अनुभूति थई त्यां ए अनुभूति वडे चैतन्यना परम
गंभीर स्वरुपनो पण अंत पामी गयो एटले के एनो पार पामी
गयो; एनुं जेवुं स्वरुप हतुं एवुं पोतानुं पोतामां परिपूर्णपणे
देखवामां जाणवामां ने स्पष्ट अनुभवमां आवी गयुं. ए
आत्मस्वरुपनी गंभीरता अहा, वाणीमां केम आवे
एम लागे के अरे
पण स्वसन्मुख थयेला उपयोगमां आवी शके. – एवुं
आत्मस्वरुप घणुं ज महान, घणुं दिव्य, घणुं सुंदर, घणुं पवित्र छे.
रागथी छूटो पडेलो तो छे ज, ते उपयोग ए स्वसंवेदनमां आवेला
आत्माने भूलतो नथी; ए अनुमानथी, विचारथी, शास्त्रना
अभ्यासथी पण, पोते जाणेली वस्तुने फरीफरीने याद करी शके छे.
।।१६।।
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अने चैतन्यरसनुं घोलन करे, ए घोलन करतां – करतां एनो
अनुभव थाय छे, – ए ज एनो उपाय छे : –
परम घोलन ज्ञान ज रस घूंटाय जो.
ज्ञान – ज्ञान बस ज्ञान – ज्ञान हुं एक छुं,
अनंत भावो ज्ञानमहीं घोळाय जो.....
अंदर चालतुं होय छे. रागनो रस – के जेमां अशांति छे ए
रागनो रस घूंटवामां एने मजा आवती नथी, एमां एनो उपयोग
संतोष पामतो नथी, एटले एनाथी उपयोग ऊंचो ने ऊंचो रहे
छे; जेम मन अमुक काममांथी ऊंचुं थई जाय पछी ए काममां चोंटे
नहि, एम एनो उपयोग रागादि अशांतिमांथी – पर भावोमांथी
ऊठी गयो, पछी हवे एनुं घोलन एने रहेतुं नथी. एना
उपयोगना घोलनमां, एनी मुमुक्षुताना घोलनमां एक पोतानुं
आत्मतत्त्व – के जेमां मारी शांति भरी छे – जेमां मने सुख लागे
छे – ए ज मारुं तत्त्व – तेने हुं केम अनुभवुं, ई तत्त्व केवुं छे
लगनताथी, उदासीनताथी, वैराग्यथी, उत्साहथी, परम परम
आदरभावथी पोताना चैतन्यरसनुं घोलन, एनुं श्रवण करतां कोई
महान मजा आवे, ज्ञानी पासेथी एनुं वर्णन सांभळतां आत्मा
एनी प्राप्ति माटे उल्लसी जाय. अंतरना विचारमां पण वारंवार
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रात, महिनाओ सुधी के वर्षो सुधी पण घूंटीघूंटीने एवुं पाकुं करे
के अंते एनी अनुभूति थाय ज.
होय, क्यांय पण सुख देखातुं होय तो एने पोताना आत्माना
घोलनमां देखाय छे; बीजे क्यांय शांतिनो कोई अंश, शांतिनी कोई
गंध एने देखाती नथी, एटले एनुं घोलन एना उपयोगमां केम
टके
संतोए मारा उपर कृपा करी करीने मने वारंवार ए समजाव्युं,
वारंवार मने एनो अनुभव करवानुं कह्युं; हवे मने ए बहु ज
गम्युं, बहु ज एमां मजा आवी; बस, तो हवे हुं एनो अनुभव
करुं – करुं....एम खूब ज घोलन चालतुं हतुं, वर्षोथी
चालतुं.....छेल्ला काळमां तो खूब ज, अतिशय घोलन चालतुं;
गिरनारतीर्थनी यात्रा वखते, बीजा अनेक तत्त्वना प्रसंगोमां, अनेक
वैराग्यना प्रसंगोमां, संसारना प्रसंगोमां, चैतन्यनी साधनाना
प्रसंगोमां, एम सर्व प्रसंगोमां चैतन्यरसनी पुष्टि करतां – करतां,
एवी पुष्टिनी पराकाष्टा थई के एक क्षणे चैतन्यरसनो स्वाद,
सीधेसीधो स्वाद में चाख्यो.
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पोतामां एवुं घूंटाय छे – एवुं एकाग्र थाय छे के अतीन्द्रिय
अनुभूति करे छे, अने एमां रागनुं वेदन छूटुं पडी जाय छे. ।।१७।।
राग तणा सौ रसडा छूटी जाय जो;
ज्ञानमग्न थतां जे शांति जागती,
विकल्पो त्यां सरवे भागी जाय जो.....
शांति आवे छे के ज्यां कोई विकल्पने अवकाश रहेतो नथी. ए ज्ञानमां
केवी शांति होय ते १९ मा पदमां बताव्युं छे. ।।१८।।
घोलन करवा माटे आ पदरचना छे. आ रचनानो शरुआतनो
मोटो भाग, श्रीमद् राजचंद्रना जन्मधाम ववाणीयाक्षेत्रमां ‘पोष
सुद पूनम’ना रोज लखायेल छे; बीजो केटलोक भाग सोनगढ –
अनुभूतिधाममां लखायेल छे; अने बाकीना भागनी पूर्णता
गीरनार – सिद्धक्षेत्रमां अत्यंत वैराग्यभावनाना वातावरणमां
थयेली छे – जेठ सुद त्रीज वीर सं. २४९९ना रोज, अने पछी
आ पदोनो भावार्थ सोनगढमां वीर निर्वाणना अढीहजारवर्षीय
उत्सव दरमियान लखायेल छे. तेमां १८ श्लोक आपणे भावनारुपे
बोल्या, हवे १९ मा श्लोक द्वारा स्वानुभूतिनो महिमा सांभळो
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आनंदमय ने धीर वीर उदार जो.
ज्ञानमां नहीं – दुःख अशांति संभवे,
ज्ञान तो छे स्वयं आतम देव जो.....
जे ज्ञान पोताना अगाध चैतन्यमहिमाने पकडतुं, एनी शांतिने
वेदतुं एमां तन्मय थयुं, – ए ज्ञान, एनी धीरतानी शी वात
परभावोथी भिन्न पोते पोतानी चेतनारुपे परिणमीने मोक्षने
साधवुं – एवी जे वीरता, – महावीर भगवान जेवुं वीरपणुं ए
ज्ञानमां प्रगटयु छे; अने ते ज्ञान उदार छे, एटलुं मोटुं अने
महान छे के जे सिद्ध भगवान जेवो पोतानो अपार चैतन्यस्वभाव,
अनंत गुणगंभीर चैतन्यस्वभाव ए आखाय स्वभावने एक साथे
पोते पोताना ज्ञानमां स्वीकारी ल्ये छे, अने एना सिवायना समस्त
परभावो, समस्त पर पदार्थो, आखा जगतनी बाह्यविभूति, एने
पोताथी बहार परद्रव्यपणे जाणीने एकदम एनुं ममत्व छोडी दे
छे. आवुं परम भेदज्ञान स्वानुभूति वखते थई जाय छे; अने त्यार
पछी सदाकाळ एवुं ज आत्मिक जीवन वर्त्या करे छे. अहो, ए
जीवननी शी वात! एमां जे अपूर्व शांति छे एनी शी वात! जेमां
भावनी शांतिमां कदी अशांति आवती नथी; एटली शांति तो एने
सर्व प्रसंगे, कोई पण उपयोग वखते, कोई रागद्वेषना परिणाम
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करे छे.
पंचपरमेष्ठीनी पंक्तिमां जे बेसी शके, – एवी जेनी दशा थई
गई ते अनुभूतिस्वरुप आत्मानी शी वात
अनंत खोल्या स्वानुभूतिना द्वार जो;
चेतनजाति साची आत्मानी जात छे,
केवळीमां ने मुजमां को नहीं फेर जो.....
मुज मति छे चेतन केरी जात जो;
बंने जात सजात, राग कजात छे,
जातिभेदनुं साचुं छे आ ज्ञान जो.....
चैतन्यवैभवमां आत्मा दाखल थई गयो; पोताना निजनिधान,
पोतानो अपार निजवैभव, जेनी अद्भुतता संतो पण वखाणे छे,
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थई. ते आत्मिक अनुभूतिमां जे ज्ञान थयुं, – भले मारुं ज्ञान
मतिज्ञान अने श्रुतज्ञान छे तोपण, ते ज्ञान केवळी भगवाननी
जातिनुं ज छे; चेतनभाव तरीके, रागथी भिन्न अतीन्द्रिय
आनंदभाव तरीके मारुं ज्ञान अने केवळी भगवाननुं ज्ञान एक ज
जात छे, ए ज आत्मानी साची जात छे. ए जात अपेक्षाए केवळी
भगवानमां ने मारामां कांई पण फेर नथी – नथी.
एटले जेम केवळज्ञानथी राग जुदो छे तेम मारा स्वसंवेदनमां मति
– श्रुतज्ञानथी पण राग जुदो ज छे; ज्ञान अने रागना जातिभेदनुं
आवुं अत्यंत साचुं ज्ञान ए स्वानुभूतिमां थयुं छे. केवळज्ञानने
अने मारा मतिज्ञानने जातिभेद नथी, परंतु मतिज्ञानने अने
रागने जातिभेद छे. आम राग अने ज्ञाननी अत्यंत भिन्नता, –
अत्यंत जुदापणुं, बंनेना स्वादनुं एकबीजाने जरापण न अडे एवुं
जुदापणुं – ए स्वसंवेदन वडे ख्यालमां – ज्ञानमां – अनुभूतिमां
आवे छे, अने त्यारे पोते पोताना आत्माने केवळज्ञान जेवा ज
आनंदस्वरुपे अनुभवे छे; अने त्यारथी ते केवळीभगवानना
मार्गमां, केवळी भगवाननी नातमां दाखल थई गयो.....एटले के
जगतमां जिनेश्वरदेवनो लघुनंदन थई गयो. ।।२० – २१।।
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ज्ञानधारा छे ए तो सिद्धसद्रश जो.....
देहातीत ने रागातीत एक भावमां
डोली रह्या छे आ ज्ञाता – द्रष्टा देव जो.....
अशरीरी चैतन्यवेदनमां महाली रह्यो छे. सिद्ध भगवंतना
अशरीरी भावमां, अने आ आत्माना स्वसंवेदनरुप
अशरीरीभावमां, कांई फेर नथी. अने आवुं स्वसंवेदन करेला
मुनिभगवंतो, अरिहंत भगवंतो, केवळी भगवंतो – भले शरीर
– संयोगनी वच्चे रह्या होय तोपण – एमनो आत्मा अशरीरी
भावे मुमुक्षुने नजरे देखाय छे.....के अहो
शांति अशरीरी छे; एमने शरीर साथे के शरीर संबंधी कोई
पदार्थो साथे आत्मानी ए शांतिनो संबंध जराय नथी. एवी शरीर
अने रागादि साथे संबंध वगरनी चैतन्यशांति आत्माना
स्वसंवेदनमां थई त्यारे अद्भुत ज्ञानधारा खीली, अने ए
ज्ञानधाराना बळे आ आत्मा पोते पोताने सिद्धसमान ज
अनुभूतिमां आव्यो. ए अनुभूतिनो एक एकत्वभाव छे ते भाव
देहथी पार अने रागथी पण पार छे. ज्यां देह अने रागनो संयोग
काढी नांखो, एनाथी छूटा चैतन्यभावपणे आत्माने देखो, त्यां
आत्मा पोताना एकत्वमां ज देखाय छे. ए वखते भले एना
चेतनमां द्रव्य-गुण-पर्याय बधुंय छे पण एना एकत्वमां ए बधुं
समाई गयुं छे, अने ज्ञाताद्रष्टा आत्मराम चैतन्यभावे पोताना
एकत्वमां डोली रह्या छे. ।।२२।।
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सर्वे क्लेशो एनाथी अति दूर जो.....
भवभ्रमण छूटया ने डंका वागिया,
मोक्षपुरीना सुखडा दीसे नजीक जो.....
वेदनमां संसारनो कोई रस, कोई नामनिशान केम होय
पहेलां ते न जोयुं होय, पण नजीक जईए ने मंदिरना घंट
संभळाय त्यां आत्मा उल्लासमां आवी जाय के अहो, मंदिर
नजीकमां आवी गयुं; एम ज्यां आत्मानुं स्वसंवेदन थयुं त्यां
स्वानुभूतिना आनंदमां मोक्षपुरीना मंदिरना सुखना डंका
‘धणण....धणण’ करतां अंदर स्पष्ट संभळाया, के वाह
घंटनो नाद इन्द्रियज्ञान द्वारा काने पडी गयो तेम मोक्षसुखनो
नमूनो अतीन्द्रियज्ञान द्वारा, चैतन्यना अनहद नादरुपी घंट द्वारा,
अंदर आत्माना स्वसंवेदनमां आवी जाय छे.
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पण नथी आवी शकता; एटली बधी भिन्नता छे के ज्यां
चैतन्यभावना होय त्यां नजीकमां कोई क्लेशभावो आवी शकता
नथी. आवो ज चैतन्यनो कोई अलिप्त स्वभाव छे. आ स्वभावने
ज्यां स्वसंवेदनमां लीधो त्यां, भवभ्रमणना अनादिना जे दुःखो
हता तेना वेदनथी आत्मा छूटी गयो. – जेनाथी कदी छूटो नहोतो
पडयो, एनाथी एवो छूटो पडयो ने एवुं मोक्षनुं सुख स्वादमां
आव्युं के वाह, आ सुख
पण चाखेलुं नहीं, ते आजे ज्यारे स्वानुभूति थई त्यारे पहेली ज
वखत मने वेदनमां – अनुभवमां आव्युं. ए वेदनमां आवतां
मोक्षना डंका वाग्या. मोक्षना भणकारा आव्या. अरे, मोक्ष थशे के
नहि – ए प्रश्न ज हवे रहेतो नथी. मोक्ष थवा ज
मांडयो.....मोक्षनी नजीक हुं आवी ज गयो. हवे तो डंका – निशान
वागवा मांडया.....हवे ए दूर कही शकाय नहि, हवे तो आवी ज
गया कहेवाय.
अहाहा, अत्यारे ज आवो स्वानुभव लई लईए
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छे. जगतना संगथी एकदम दूर, ने एकदम एकलो थई,
एकत्वमां आवी पोताना आत्मानी अंदर ज्ञानमां वेदनमां ने
शांतिमां आववुं ए ज साची अनुभूतिनी रीत छे. सामान्यपणे
दुनियामां पण देखाय छे के ज्यारे चैतन्यना एकत्वनी भावना
भावता होईए त्यारे बीजा कोईनो संग एमां पालवतो नथी, तो
अंतर्मुख थईने साक्षात् अनुभूति करवी तेमां जगतमां कोईनी
अपेक्षा नहि – पण जगतथी एकदम दूर – दूर थईने एटले के
एकदम आत्मामां ऊंडो – ऊंडो ऊतरीने, एकलो थई एटलो बधो
ऊंडो ऊतरी जाउं के जेमां पोताना आत्मा सिवाय बीजुं कोई आवी
ज न शके. आम एकत्वमां आवीने आत्मानी अनुभूति थाय छे.
अनुभूतिथी, सर्वज्ञना दिव्यध्वनिथी, आगमथी, युक्तिथी,
श्रीगुरुना प्रसादथी मने जे शुद्धात्मानुं ज्ञान मळ्युं छे ते समस्त
आत्मवैभवथी – हुं आ समयसारमां....‘शुं देखाडीश
– ते एकत्वमां पछी भले पोताना अनंत गुण – पर्यायो समायेला
होय, ते एकत्वमां भले पोताना अनंत चैतन्यस्वभावो भरेला
होय, पण बीजा कोईनो संग नहि, एटले बीजा कोई भावनो
एमां स्पर्श नहि, – आवा एकत्वनुं वेदन ते आ समयसारनो
सार छे, ते अमारो उपदेश छे. अमे आचार्य थईने शासनना
जीवोने आज्ञा करी होय तो आ एक ज आज्ञा करी छे के
हे जैनशासनना जीवो्र! तमे तमारा एकत्व आत्मानो अनुभव
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पंचपरमेष्ठी भगवंतोनी आज्ञा छे, ते ज पंचपरमेष्ठी
भगवंतोनो उपदेश छे, ते ज आत्मानुं इष्ट छे, ने ते ज
मुमुक्षुनुं कर्तव्य छे. ।।२३।।
दीठुं अद्भुत आश्चर्यमय सुखधाम जो;
नाटकमां छूटया रे भेष भव – दुःखनां,
धार्यो साचो चिदानंद मूळ भेष जो...
केटलाक खराब वेष होय, केटलाक दुःखना वेष होय, तेम केटलाक
सारा – सुखना वेष होय, कोई साधुना वेष होय, कोई वैराग्यना
वेष होय, कोई राजाना के भगवानना वेष होय, एम अनेक
जातना वेष नाटकमां होय छे; तेम आ चैतन्यतत्त्वमां परिणामोनुं
जे विचित्र नाटक चाली रह्युं छे ते नाटकमां, पहेलां अज्ञानदशामां
अनुभूति न थई त्यांसुधी तो दुःखनां ज नाटक हता, दुःखनां ज
वेष हतां, दुःखनुं ज वेदन हतुं, हवे ज्यां साची आत्मअनुभूति
थई, संतोना प्रतापे सुखनो स्वाद आव्यो, त्यां आखो वेषपलटो
थई गयो. जेम एक वेष भीखारीनो होय ने ए ज माणस क्षणमां
ज बीजा वेषमां राजा थईने आवे, ते आखोय पलटी जाय, तेम आ
आत्माने स्वानुभूति थतां भीखारी जेवा भवदुःखनां वेष पलटी
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महाराजा, पोताना सर्वोत्कृष्ट चैतन्यराजाना साचा वेषमां प्रगट
थया : मारो साचो वेष, मारुं असली स्वरुप तो आ ज छे.
नाटकमां एकवार भीखारीनो वेष हतो पण खरेखर तो हुं राजा
छुं, आ मारो स्वाभाविक वेष छे; कोई बनावटी, उपरथी पहेरेलो
आ वेष नथी. – आम पोतानी चैतन्यअनुभूति थतां पोताना
साचा वेषनुं – पोताना साचा स्वरुपनुं अंतरमां ज्ञान थाय छे; ने
अंतरना साचा वेषनुं ज्ञान थया पछी उपरना खोटा भीखारी जेवा
वेषने ए जीव फरीने कदी धारण करतो नथी.
छे, एकत्वमां महान आनंद छे, ने एकत्वमां चैतन्यवैभवनो
एटलो बधो अद्भुत ढगलो देखाय छे के आत्मा आश्चर्य पामी
जाय छे.....आश्चर्यथी पण वधारे, एटले के आश्चर्यथी पण पार
एवी कोई अद्भुत भूमिका एना अंतरमां प्रगटी जाय छे. ए
स्वानुभूतिमां जे आनंद छे ए तो आश्चर्यथी पण पार छे, एटले
के त्यां आश्चर्य करवापणुं पण रहेतुं नथी. जेम केवळी भगवानने,
बारमागुणस्थाने वीतरागता थया पछी केवळज्ञान थतां जगतमां
कदी नहि जोयेला एवा अनंता पदार्थो केवळज्ञानमां देखाय छे, पण
त्यां आश्चर्यनो कोई अवकाश नथी.....के अहो, में आवुं देख्युं
आश्चर्यथी पण कोई पार.....पार थई गई छे. एवी ज
स्वानुभूतिनी भूमिका – निर्वकल्पदशा, एमांय आश्चर्यने कोई
अवकाश नथी; आश्चर्यथी पण पार, आत्मा पोते शांतिना बरफमां
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अद्भुत दशा, आवो चैतन्यनो स्वाभाविक साचो वेष स्वानुभूतिना
प्रतापथी थयो; ए स्वानुभूति कुंदकुंदस्वामी जेवा वीतरागी संतोना
प्रतापथी आ आत्मा पाम्यो. अहो संतो
एनी दशाओ पलटी जाय छे. – शुं थाय छे.....
नुतन धार्यो आनंदमय अवतार जो;
अहो जीवन सुखी बन्युं छे माहरुं,
अतिशय तृप्ति निजरसमां वेदाय जो.....
बदले हवे संवर – निर्जरारुप थयो, मोक्षभावरुप थवा लाग्यो.
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जातना छे ज्यारे आ तो अनादिकाळना मिथ्या – विपरीतभावो
दूर करीने चैतन्यनो एक अद्भुत नवो ज आनंदमय अवतार
आत्माए धारण कर्यो. आत्मा पोते ज आनंदस्वरुपे
अवतर्यो.....परिणम्यो. अहो, आवी स्वानुभूति थई त्यारे बस
सुखी बन्यो, हवे सदाकाळ सुखथी हुं मारा स्वरुपमां.....मारा
आत्मामां पोताथी ज तृप्त – तृप्त संतुष्ट छुं. – आम पोताना
आत्मानी अनुभूति थतां पोताने खातरी थई जाय छे. अरे,
अनादिकाळथी अनंत भवोमां जे दुःख भोगव्यां हशे एनी तो शी
वात
प्रकारनां मान – अपमाननां दुःखो, अनेक प्रकारनां संयोग –
वियोगनां दुःखो, – एवा घणां भयंकर दुःखो – के जेमां नरक
जेवी वेदना पण लागती होय – एवा दुःखो पण जीव भोगवी
चुक्यो छे, पण ज्यां स्वानुभूति थई त्यां आखो आत्मा धोवाई
गयो; दुःख अने पापनुं नामनिशान ज्यां रहेतुं नथी; एकलुं
चैतन्यसुख
नहि. आम, स्वानुभूति थतां आत्माना आखा जीवनमां एक
महान परिवर्तन थई गयुं. ।।२५।।
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परमेष्ठीनो मळ्यो सत्य प्रसाद जो;
अनंत रहस्यो खुल्या आत्मस्वरुपना,
परम गंभीर चैतन्यरस वेदाय जो.....
भगवान पासे तो अतीन्द्रिय आनंद छे, एवो आनंद ते
भगवंतोना प्रसादथी आ आत्माने मळ्यो, ए ज पंचपरमेष्ठीनो
साचो प्रसाद छे. आत्मानी स्वानुभूतिमां तेनो स्वाद आवे छे अने
आत्मस्वरुपना अनंता रहस्यो तेमां खुली जाय छे. ‘आत्मा केवो
हशे! एनुं सुख केवुं हशे! एनी गंभीरता केवी हशे! एनां गुणो
चैतन्यरस पोते पोतामां एकला – एकला घूंटाय छे. जेम दरियो
– एकला अगाध – अगाध पाणीथी भरेलो आखो दरियो, एनुं
पाणी पोतामां ने पोतामां हीलोळा मार्या करतुं होय; एम
आत्मानो परम गंभीर चैतन्यरस, ए चैतन्यरसनो समुद्र पोते
पोतामां ने पोतामां हीलोळा मार्या करे छे. आवी अद्भुत
आराधना स्वानुभूतिमां जागी छे. ।।२६।।
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सिद्धपद जाणे आवी मळ्युं साक्षात जो;
चैतन्यतेज तो खील्युं आत्मिक भावथी,
मोहतणुं त्यां मळे न नामनिशान जो.
चमकार जेम वीजळी झबके एम भेदज्ञानथी झबकी ऊठयो; त्यां
हवे अंधकार – मोहनुं नामनिशान केम होय
आत्मा आराधक थाय छे.
दुनिया सारी लागे छे अति दूर जो;
चित्त चोंटयुं छे एक ज चैतन्यधाममां,
बीजुं तो सौ लागे अपरिचित जो.
चाली गई होय, अथवा दुनियाथी पोते क्यांय अगोचर धाममां
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के न दुनिया पोताने देखे.
क्यां देखे छे
पोताना चैतन्यनी धूनमां होय त्यारे दुनियामां शुं बनी रह्युं छे, –
के दुनिया केम चाले छे – एनुं पोताने क्यां लक्ष छे
आववा मांडे, आत्मानी धून वधती जाय. ए वधतां – वधतां
चैतन्यतत्त्व एकदम परिचित थई जाय के अहो, आ चैतन्यतत्त्व तो
मारुं जाणीतुं छे, आ चैतन्यनी साथे तो हुं सदाकाळ रहुं ज छुं, आ
तो सदाय मारी साथे ज छे; आम आत्मतत्त्व एने परिचित थई
जाय छे. अने दुनिया एटली बधी अपरिचित थई जाय छे के एनी
साथे जाणे मारे कांई संबंध ज नथी; आ दुनिया कोण छे, शुं छे,
– एनो मने जाणे कांई परिचय ज नथी; ए दुनियाथी मारे कोई
परिचय, कोई राग – द्वेषनो संबंध, एनी साथे कांई लेवुं देवुं –
एवुं कांई छे ज नहीं, एनाथी सर्वथा भिन्न एवुं मारुं चैतन्यधाम
– तेमां ज मारुं चित्त चोंटी गयुं छे. – आम दुनियाथी एकदम
दूर, अने पोताना आत्मानी धूनमां मस्त; बीजी रीते कहीए तो
दुनियाथी दूर एटले ‘विभक्त’, अने आत्मानी धूनमां मस्त एटले
‘एकत्व’, – आवा एकत्वविभक्त आत्माने आ रीते स्वानुभूतिमां
साधतां महान आनंद थाय छे. ।।२८।।
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मंगलं कुंदकुंदार्यो, जैनधर्मोस्तु मंगलम्.
उपदेश श्री वीरनाथनो जयवंत छे जिनशासनं.
मंगल वर्ष चाले छे. आ वर्षमां ज सोनगढ – परमागममंदिरमां
महावीर भगवाननी, कुंदकुंदाचार्यदेवनी अने जिनवाणीनी मंगल
प्रतिष्ठा थई छे. वीरशासननी महान प्रभावना द्वारा अजोड
उपकार करनारा श्री कुंदकुंदाचार्यदेव आपणी सन्मुख ज बिराजी
रह्या छे. आवो, एमना दर्शन करो.....चरणस्पर्श करो अने एमनी
मंगल वाणी सांभळो.
आनंद आपना प्रतापे आ जीवने प्राप्त थया छे महावीर
भगवानना मोक्षना अढीहजार वर्षनो आ अति मंगलं महोत्सव
आराधनासहित आनंदथी ऊजवी रह्या छीए, त्यारे प्रभुना महा
– अति उपकारनुं अत्यंत – अत्यंत भक्तिपूर्वक फरी फरीने
स्मरण थाय छे. जीवन महावीर प्रभुनी भक्तिमय बन्युं छे;
महावीर प्रभुना उपदेशेला परम तत्त्वो, चैतन्यनी अनुभूति –
तेमय थयेलुं जीवन, तेमां महावीर भगवाननो परम अचिंत्य
उपकार छे.