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४७ पदमां गूंथ्या छे; तेनी आ स्वाध्याय अने आ अर्थो द्वारा
महावीर भगवानना उपकारनी प्रसिद्धि चाले छे, तेमां हवे २९ मुं
पद छे. –
आंख खोली त्यां दीठुं जग अति भिन्न जो;
वैराग वैराग छाया छवाई घेरली,
चित्त चोंटे नही चेतनथी कहीं बाह्य जो...
देख्युं, ए अतीन्द्रियचक्षुथी आत्माने देखती वखते आ जगतना
अस्तित्व उपर कोई लक्ष न हतुं. ज्यारे स्वानुभूति पूरी थई,
स्वानुभूतिनी धूनमां अमुक टाईम रह्या पछी ज्यारे विचारमां
आव्यो अने जोयुं के अहो, आ शी अद्भुतता छे
अने पहेलीवार आंख खोलीने बहार नजर गई त्यारे एम लाग्युं
के अरे, आ जगत माराथी केटलुं दूर छे
घणुं दूरपणुं होय, एकबीजा साथे कांई संबंध न होय, एवा
भिन्नपणे आ जगतना बाह्य तत्त्वोने पण में पहेली ज वार देख्या.
पूर्वे बाह्य तत्त्वोने देखतो’तो, परंतु चैतन्यनी स्वसत्ताथी भिन्नपणे
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त्यारे तो अज्ञानभावथी एकत्वबुद्धिपूर्वक ज ए पदार्थोने जोतो’तो;
एटले ए पदार्थोनुं भिन्नपणुं, ए पदार्थोनुं माराथी अत्यंत दूरपणुं
मने खरेखर देखातुं न हतुं. हवे मारुं स्वतत्त्व में जोयुं अने आ
स्वतत्त्वनी पासे परतत्त्वो, जगतना बधा तत्त्वो केटला बधा दूर छे,
केटला बधा अपरिचित छे, ए हवे मने भेदज्ञानद्रष्टिथी स्पष्ट
देखाय छे. जेम स्वतत्त्वने जीवनमां पहेलीवार जोयुं तेम परतत्त्वने
पररुपे पण खरेखर तो जीवनमां पहेलीवार ज जोया.
भेदज्ञानसहितनुं ज्ञान, भेदज्ञानसहितनुं स्व – परनुं ज्ञान, हवे ज
शरु थयुं. अने आवुं भेदज्ञान थतां परतत्त्वो पोतानाथी एटला
बधा दूर, एटला बधा जुदा, एटला बधा विजातीय देखाया, अने
स्वतत्त्वनी गंभीरता, स्वतत्त्वनुं अंतरमां ऊंडाण एटलुं बधुं देखायुं
के परम वैराग्य थई गयो. स्वतत्त्वना एकत्वमां लीनता, अने
परतत्त्वोथी भिन्नतारुप परम वैराग्य, एवी वैराग्यनी घेरी छाया
मारी परिणतिमां छवाई गई; चैतन्यभाव राग वगरनो थई
गयो, एटले पोते ज एकांत – वैराग्यरुप, एकांत शुद्धचेतनारुप
ते परिणति थई गई. आवी घेरी वैराग्यनी छायापूर्वक हवे जे
कांई जणाय छे तेमां पण ए वैराग्यभाव भेगो ज छे, एटले
क्यांय कोईपण परतत्त्वमां मोहभाव थतो नथी, एकत्वबुद्धि थती
नथी, भिन्नपणानुं भान खसतुं नथी; अने स्वतत्त्व जे अति अपूर्व
चैतन्यभावसहित देख्युं, ए चैतन्यभावमां चोंटेलुं मारुं चित्त हवे
त्यांथी कदी खसतुं नथी अने चैतन्यथी बहारना कोई पदार्थमां
मारुं चित्त हवे चोंटतुं नथी.
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भगवानना अवतारनो दिवस.....
करुं
बिराजमान एवा आपने हुं फरीफरीने नमस्कार करुं छुं.
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वात
घटना कोई अद्भुत अचिंत्य अपूर्व जो;
वचनातीत शांतिमां तरबोळ हुं थयो,
आनंद – आनंद – आनंदनी शी वात जो.....
वखते तो कोई आश्चर्यभाव न हतो; परंतु स्वानुभूतिना काळ पछी,
– पछी पण अमुक टाईम तो एनी धूनमां रह्या, त्यारपछी, –
अद्भुततानो विचार आव्यो के अहा, आ शुं अद्भुतता थई
अपूर्व भावो थई गया. परम गंभीर अनुभूतिनुं वर्णन तो शुं
करीए
भावनाथी परम भक्ति – बहुमानपूर्वक संतोनी सेवा करतो हतो,
ए संतोनी सेवाना फळरुपे, ए स्वानुभूतिनी झंखनानी पूर्णतारुपे
अंतरमां जे स्वानुभूति थई अने एमां जे अद्भुत आनंद आव्यो,
– अहा
बनी रह्यो छे.....वचनातीत एवा शांतभावमां रसबोळ आत्मा
थयो. आत्मा पोताना चैतन्यरसमां एवो मग्न थयो के एमां बस,
आनंद – आनंद ने आनंद ज हतो. अहो, ए आनंद – आनंदनी
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स्वउपयोगमां बस, आनंद – आनंद ने आनंद ज हतो. ।।३०।।
सर्वे छूटयो पर तणो संबंध जो;
एक ज आ बस
के जे छेल्ला थोडा वखतथी तो एकदम मंद – मंद थतो जतो हतो,
एकदम एनी धारा तूटती जती हती – एवो ते अनादि मिथ्या
भावनो प्रवाह सर्वथा छूटी गयो, अने परनो संबंध – पर साथेना
एकत्वनो संबंध पण छूटी गयो; अने स्वानुभूतिमां तो बस, एक
मारा पोताना आत्मा साथे ज संबंध हतो. – ‘संबंध’ पण शुं
कहेवो
एकलो ज पोताना स्वरुपनी अद्भुतताथी ज, पोताना आनंदथी,
पोतानी ज्ञानदशाथी, पोतानी वैराग्यपरिणतिथी अत्यंत – अत्यंत
शोभी रह्यो छे. आवी अनुभूतिमां शोभतो मारो आत्मा
साधकभाव जगाडीने सिद्धिधाम तरफ ऊपडयो, सिद्धिनगरी
तरफनो एनो प्रवास चालु थई गयो. अहो
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अरिहंतो ने संतोनुं पण इष्ट जो;
साधकज्ञानी सरवे जे सुखिया अहो,
सर्वेनी थई साचे साची पीछान जो.....
केवुं हशे
पोताना आत्मामांथी प्रगटेलुं सुख अनुभवमां आव्युं. आहा
सुख ए पण आवुं ज छे. साधक ज्ञानीओ – संतो – मुनिओ ए
बधाय आवा ज सुखने वेदी रह्या छे. ए सर्वे जे सुखने वेदी रह्या
छे ते सुख केवुं छे तेनी हवे साची ओळखाण थई.
स्वानुभूति थतां, एवा सुखने हुं पण वेदुं छुं.....एवा सुखना
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चैतन्य – सुख
अतीन्द्रिय सुख मने मारा स्वसंवेदनमां आव्युं; तेथी आपना पूर्ण
सुखनी पण हवे मने साची प्रतीत थई. आप जे सुखमां लीन छो,
सादिअनंतकाळ आप जे सुखने वेदी रह्या छो, ते सुखनुं हवे मने
भान थयुं, तेनी ओळखाण थई, तेनो स्वाद चाख्यो, अने हवे ते
पूर्ण सुखनी प्राप्ति तरफ हुं आवी रह्यो छुं. अहा, दुःखथी छूटयो;
केवुं भयंकर दुःख
आनंदनो जाणे मोटो धरतीकंप जो;
चैतन्य – पाताळ ऊंडेथी उल्लसी रह्युं,
मोहपर्वतना फूरचा ऊडया दूर जो.....
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अवसर छे. जगतमां उत्कृष्ट मंगळ एवा आ जन्मकल्याणकनो
काळ, अने एनी साथे मारी मंगळ स्वानुभूति, – अहो प्रभो
आनंदनो मोटो खळभळाट थाय छे. अहो, ए अनुभूति वखते
आखा आत्मानुं चैतन्य – पाताळ ऊंडीऊंडी शांतिथी उल्लसतुं हतुं;
मोहनो पर्वत क्यांय देखातो न हतो, एना तो फूरचेफूरचा ऊडीने
क्यांय ने क्यांय दूर ऊडी गया हता; अने आखो चैतन्य पर्वत,
असंख्य प्रदेशोमां उल्लसतो आत्मा, पोताना आनंदना धरतीकंपमां
वर्ततो हतो.
पण डोली ऊठे छे; – एवो आनंदनो धरतीकंप बहारमां एक
पुण्यप्रतापे पण थाय छे. आजे एवा जन्मकल्याणकनो प्रसंग छे.
तेम अहीं आत्मामां पण, चैतन्यमां चैतन्यप्रभुनो पोतानो जन्म
थयो, चैतन्यप्रभु पोते पोतानी स्वानुभूतिमां अवतर्या, अने एना
प्रतापे आनंदनो जे धरतीकंप थयो....अतीन्द्रिय आनंदना
ऊछाळाथी चैतन्यनी धरती ध्रुजी ऊठी, ए आनंदमय धरतीकंपनी
शी वात
धरतीकंप, एमां दुःखमांथी सुख थयुं, कषायोमांथी शांति थई,
अज्ञानमांथी ज्ञान थयुं, मिथ्यात्वमांथी सम्यक्त्व थयुं, आत्मा
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दुःखना मार्गथी छूटीने मोक्षसुख तरफ चालवा लाग्यो; अहो, जे
धरतीकंपमां आवा सुंदर – महान – अनंतकार्यो एक साथे थाय
छे एवी स्वानुभूतिनी शी वात
मोटा खाडा बनी जाय, अने ज्यां ऊंडाऊंडा खाडा होय त्यां
ऊछळीने मोटा पहाड देखावा मांडे – एवुं धरतीकंपमां बने छे;
तेम आ चैतन्यमां स्वानुभूतिना धरतीकंपनो एक महान ऊछाळो
थतां, आत्मामां ज्यां दुःखनां पहाड हता ते पहाड तूटीने गंभीर
चैतन्यनी शांतिना दरिया बनी गया, ज्यां भवसमुद्र हतो ते समुद्र
पुराईने तेनी जग्याए आनंदनो पहाड रचाई गयो. अहो, आवो
धरतीकंप, आवी स्वानुभूति, चैतन्यना पाताळमांथी स्वयं उल्लसेलुं
आत्मानुं सुख, एनो उल्लास, एनो आह्लाद – ए प्रसंगनी शी
वात
आनंदथी ध्रुजी ऊठी, तेम अमारा आत्मामां मंगल स्वानुभूतिनो
अवतार थतां अमारी चैतन्यपृथ्वी – अमारा असंख्यप्रदेशो
अतीन्द्रिय आनंदना झणझणाटथी ध्रुजी रह्या छे.....ए झणझणाटी
वडे आपना उपकारना मंगल गीत गवाय छे.
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जीवन मारा आत्मकार्यनी सिद्धिथी तृप्त अने कृतार्थ बन्युं छे : –
कार्यसिद्धिथी थयो अतिशय तृप्त जो;
दुःखोना रे भडाकाथी जीव छूटियो,
अद्भुत शांति – शांतिमां थयो लीन जो...
आव्या रे आव्या..चेतन प्रभुजी अंतरे..
हतो, शुं करुं – एनी कांई सूझ न हती, केवुं स्वरुप छे एनुं कोई
वेदन न हतुं, अने पोताना स्वरुपने जाणवा माटे ज्ञानीना
सत्संगमां खूब – खूब झंखतो हतो, अहो, मारा स्वरुपनुं सम्यक्
दर्शन मने थाय, मारा स्वरुपना सुखनुं वेदन मने थाय, – एने
माटे आ आत्मा अतृप्तपणे खूब – खूब दिवस – रात झंखतो
हतो, एनी वेदना खूब ज थती हती.....हवे.....
सुखनुं, एनी शांतिनुं, एना अनंत स्वभावोनुं वेदन थतां, आ
आत्मा अतिशय तृप्त थयो, कृतकृत्य थयो. आहा
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माराथी छूटुं पडवानुं नथी – एवी मने परम तृप्ति थई. अत्यार
सुधी, स्वानुभूति थया पहेलां आ आत्मा अनेकवार अनेक
प्रसंगोमां दुःखना भडकामां बळतो हतो, वारंवार अनेक प्रकारना
सुख – दुःखना प्रसंगो – एमां पण सुख करतां दुःखना प्रसंगो
झाझा, अनेक तीव्र मान – अपमानना प्रसंगो, – एवा अनेक
प्रसंगोमां आ जीव दुःखना भडकामां बळतो हतो; वच्चे क्यारेक
कोई कोईवार ज्ञानी धर्मात्माओना सत्संगथी थोडीथोडी शांति
मळती हती, परंतु चैतन्यनी शांति वगर दुःखना भडकामां आ
जीव शेकातो हतो. आहा
नथी. आवी अद्भुत शांति, – ए शांति पण केटली
शांतस्वभावमां हुं हवे लीन थयो. मारी शांतिनुं वेदन – एमां हुं
एकत्वपणे परिणम्यो, एटले हुं पोते ज शांतिस्वरुप थयो. आ
शांतिथी हुं हवे कदी छूटवानो नथी, नथी. अहो वीरनाथ भगवान
आपना शासननुं सम्यग्दर्शन, – ए महान कल्याणकारी छे.
आजना आपना कल्याणकना महान दिवसे.....चैत्र सुद तेरसे हुं
आपने, आपना शासनने, स्वानुभूति सहित अपूर्व भक्तिपूर्वक
नमस्कार करुं छुं. ।।३४।।
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वीरप्रभुना उपकारनी प्रसिद्धिरुपे जे पदरचना थयेल छे तेमां, आ
३५ मुं पद छे –
वरते नहीं को’ मुजमां परनो भाव जो;
हुं तो ज्ञायक.....ज्ञायक.....ज्ञायक भाव छुं,
सुखी स्वयं हुं जगथी तो अति दूर जो.....
– सुखी स्वयं हुं दुःखथी तो अति दूर जो.....
स्वानुभूतिना भावो ते अनुभूतिमां ज समाय छे; एनी गंभीरता
एवी छे के पोतानी आत्मअनुभूतिमां ज ते समाई शके छे, ए
गंभीरता बहारमां देखी शकाती नथी. ए चैतन्यभावो, ए आनंद,
ए शांति, ए अपूर्वता, ए दुःखथी छूटकारानी परम तृप्तिनो
भाव, – ए बधा अनंत गंभीरताथी भरेला पोताना
चैतन्यभावो.....ए तो मारा वेदनमां ज समाई गया. अहो, हुं तो
बस
परंतु ज्ञायकथी विरुद्ध, ज्ञायकथी भिन्न जातिना एवा कोई पण
भावो मारा वेदनमां – मारी अनुभूतिमां नथी – नथी.
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अनंतभावोने समावेलो हुं पोते स्वयं सुखी छुं. अने जगतथी,
जगतसंबंधी दुःखोथी, रागद्वेषना भावोथी तो हुं अत्यंत दूरदूर
थयो छुं, एनाथी हुं छूटो पडयो छुं, मारी परिणतिनुं परिणमन ए
दुःखरुप हवे थतुं नथी; मारी चेतना हवे स्वयं सुखरुपे परिणमे
छे, ते दुःखरुपे थती नथी, ते परभावोने करती नथी, जगत साथे
संबंध धरावती नथी; जगतथी अत्यंत दूर, अत्यंत अलिप्त एवी
मारी चैतन्यमय चेतना, ते मारी अनुभूतिमां ज समाय छे, अने
हुं पण ते चेतनामां ज समाउं छुं. आम परम चेतनस्वरुपे थयेलो
हुं हवे परम सुखी छुं, मोक्षनो साधक छुं; हुं हवे महावीरनाथनो
साचो अनुयायी छुं अने एक रीते कहीए तो हुं नानकडो महावीर
छुं. – (जिनेश्वरके लघुनंदन)
छे ते रचना परम सिद्धक्षेत्र गीरनारधाममां थयेली छे. गीरनारमां
जईने लगभग एकमास रहेल, ते वखते जेठ सुद त्रीज
लगभगमां आ रचना थयेली छे.
छठ्ठुं – सातमुं गुणस्थान निर्विकल्प परम चैतन्यअनुभूति प्रगट
करी, ज्यां मनःपर्ययज्ञान प्रगट कर्युं; त्यारपछी अनेक विहार
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सातिशय अनुभूति उपरांत आगळ वधीने चैतन्यनी श्रेणीमां
आठमुं गुणस्थान, नवमुं गुणस्थान, दसमुं गुणस्थान, पछी सीधुं
बारमुं वीतरागी गुणस्थान अने पछी.....अहो
सहेसावनमां बेठोबेठो हुं पण मारी स्वानुभूतिने याद करीकरीने
महान आनंदित थाउं छुं. आ सहेसावनमां नेमप्रभुना खोळामां
बेठो होउं.....एवा परम शांत वातावरणमां, स्वानुभूति पछी
आवीने हुं बेठो छुं अने स्वानुभूतिना पदनी गूंथणी करुं छुं.
एटले तो आत्मसाधनानो मोटो ढगलो
गीरनारतीर्थ, एने जोतां संतोनी साधना याद आवे छे, अने
संतोनी साधना याद आवतां आ आत्मानी साधना पण याद आवे
छे, एटलुं ज नहीं – एनुं वेदन ताजुं थाय छे अने जीवने
आनंदित करे छे. ।।३५।।
आ गीरनार पण गुण रे जेनां गाय जो;
जेना प्रतापे पूज्य बन्या आ पर्वतो,
ए तो छे आ स्वानुभूतिनो प्रताप जो...
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खरेखर तो चैतन्यनी स्वानुभूतिना प्रतापे ज छे. चैतन्यनी
स्वानुभूतिवाळा साधक जीवो ज्यारे आ गीरनारमां विचर्या त्यारे
ते साधक जीवोना चरणना प्रतापे ज आ गीरनारना पथ्थरोने पण
तीर्थपणुं प्राप्त थयुं छे. ए रीते जे स्वानुभतिना प्रतापे आ पर्वतो
पण पूज्य – तीर्थ बन्या ने आ पथ्थर ए पण परमात्मानी जेम
पूजावा लाग्या, अहो! ए स्वानुभूतिना प्रतापनी शी वात! अने
पहाड छे. ।।३६।।
सर्वे तीर्थो स्वानुभूतिमां समाय जो;
स्वानुभूतिनुं आनंद – तीरथ छोडीने
जतो नथी हुं बहार संसार – धाम जो.....
प्रसंगवशात तीर्थपणुं प्राप्त थाय छे, परंतु आ चैतन्यनी स्वानुभूति
तो सदाय तीर्थस्वरुप छे. अने ए स्वानुभूतिना तीर्थमां बधा तीर्थो
समाय छे. जगतनी कोईपण जग्या होय पण जो त्यां
स्वानुभूतिवाळो जीव होय तो ते जग्या तीर्थ ज छे, केमके
स्वानुभूति ते पोते आनंदमय तीर्थ छे. स्वानुभूतिरुप थयेलो आ
मारो आत्मा हवे पोतानी स्वानुभूतिना तीर्थने छोडीने बीजे क्यांय
जतो नथी. बाह्यद्रष्टिए भले गमे ते स्थान हो – गीरनार हो के
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स्वानुभूति – तीर्थ मारी साथे ज वर्ती रह्युं छे. हुं पोते तीर्थस्वरुप
छुं. आवा मारा चैतन्यभावरुप तीर्थने छोडीने संसारना भावमां हुं
जतो नथी. संसारधामने छोडीने हुं मारा मोक्षधाममां वस्यो छुं;
तेथी हुं सदाय तीर्थमां ज रहेनारो छुं; सदा मोक्षनी तीर्थयात्रा ज
हुं करी रह्यो छुं. ।।३७।।
संबंधरुप द्रव्य – क्षेत्र – काळ – भाव ते बधा पण मांगळिक ज
छे. जुओने, आजे आ चैत्रसुद तेरस, – भलेने महावीर
भगवानना जन्मने तो २५७२ वर्ष थई गया, छतां ए आत्मा
मंगळरुप हतो तो तेमना प्रतापे आजनो आ दिवस पण (आजे
२५७२ वर्ष पछी पण) मांगळिक तरीके उजवाय छे. आ रीते
मंगळरुप आत्माना प्रतापे बधुं मंगळ ज छे. –
बन्या छे मुज क्षेत्र – काळ मंगळ जो;
द्रव्य – भाव पण मंगळ मुजमां वर्तता,
अहो, अहो, आ सम्यक्नो ज प्रताप जो.....
ज्यां जशे आ आतमरामी जीवडो,
बनी जशे ते क्षेत्र – काळ मंगळ जो;
द्रव्य – भाव पण मंगळ जे पीछाणशे,
तेने मंगळ सर्व प्रकारे थाय जो.....
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आ आत्मद्रव्य, तेने ओळखतां मारा भाव पण हवे मंगळरुप थया
छे.
मारुं स्वक्षेत्र पण हवे मांगळिक छे.
आत्माने त्रिकाळ मंगळस्वरुपे वर्णव्यो छे; ते त्रिकाळ मंगळपणुं
मारामां जाणीने मने जे आनंद – उल्लास थयेलो ते
आनंदउल्लासना बळे आगळ वधतां, अहो
तेने वर्तमान भावमां पण मंगळ होय छे : आ एक अपूर्व न्याय
षट्खंडागम – सिद्धान्तमां भगवान वीरसेन स्वामीए जे रीते
समजाव्यो छे, अने मिथ्यात्वने अमंगल कहीने आत्माथी छूटुं पाडी
दीधुं छे, अने ए ज वखते चैतन्यभावने मंगळरुप कहीने
मिथ्यात्वथी छूटो पाडी दीधो छे, आ रीते भेदज्ञान करावीने
आत्माने सम्यक्त्वरुप मांगळिक कर्यो छे.....अहो
आवो मंगळरुप थयेलो मारो आत्मा हवे ज्यां जशे त्यां बहारनुं
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गणाशे; एना संबंधवाळा द्रव्यो ते पण मंगळ छे; आ रीते बधुं
ज आत्मानुं मंगळ छे.....मंगळ छे. (३८)
अनंतकाळे पण नहीं छूटे आ रत्न जो;
आवुं अमूल्य ज रत्न दीधुं छे मुजने,
केवा मारा चैतन्य प्रभु दातार जो.....
सुखस्वभाव विद्यमान तो हतो परंतु एनी खबर न हती;
श्रीगुरुप्रतापे ए चैतन्यसुखनी वार्ता जैनशासनमां ज्यारे
सांभळवा मळी, वीरनाथ भगवानना शासनमां ए आत्मिकसुखना
अनुभवनो मार्ग ज्यारे सांभळ्यो, त्यारे अंतरमां ते मार्ग जाण्यो
अने ते मार्गे अंतरमां आत्माना सुखनो अनुभव थयो; अहो
सम्यग्दर्शनना प्रतापे पाम्यो. आवुं सम्यग्दर्शन, आवो आनंद,
आवुं सुख, आवुं जैनशासन, एनो दातार आ मारो चैतन्यप्रभु
आत्मा पोते ज छे. अहा, चैतन्यप्रभु केटलो महान दातार छे
अनंत शांति, अनंतकाळ सुधी सदाय आप्या ज करे – एवो अपूर्व
महान दातार मारो आत्मा, ते आत्मानी अनुभूति मने थई.....
अहो, एनी शी वात
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अपूर्व आत्मिक अनुभूति छे ते अनुभूति तमे करो.....करो.....करो.
(३९)
पूर्ण सुखरुपे परिणमी रह्या छो एवा ज सुखरुपे मारो आत्मा
अंशे – अंशे परिणमवा मांडयो. आ रीते भावअपेक्षाए आप
अने हुं बंने जुदा नथी. जेवो चैतन्यभाव आपना आत्मामां छे
तेवो ज चैतन्यभाव आ आत्मामां पण छे, – एम आपणे बंने
हवे एक ज होईए एम अंतरमां वेदाय छे : –
प्रभुमय बन्यो छुं हुं ज स्वयं जो;
प्रभुता ज्यां प्रगटी छे आत्मस्वरुपनी
पामरता के दीनतानुं नहीं नाम जो.....
भेद हतो, .....हवे.....; अथवा बीजी रीते कहीए तो मारो