Samyak Darshan Part 7 8-Gujarati (Devanagari transliteration). Pad 29; Pad 30; Pad 31; Pad 32; Pad 33; Pad 34; Pad 35; Pad 36; Pad 37; Pad 38; Pad 39; Pad 40.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 10 of 13

 

Page 168 of 237
PDF/HTML Page 181 of 250
single page version

background image
१६८ : स्वानुभूति-प्रकाश )
( सम्यग्दर्शन
वीर सं. २४९७ मां आ आत्माने जे अपूर्व आत्मिक
स्वानुभूति थई, ते स्वानुभूतिना परम गंभीर अचिंत्य भावोने आ
४७ पदमां गूंथ्या छे; तेनी आ स्वाध्याय अने आ अर्थो द्वारा
महावीर भगवानना उपकारनी प्रसिद्धि चाले छे, तेमां हवे २९ मुं
पद छे. –
अतीन्द्रिय – चक्षुथी देखी आत्मने,
आंख खोली त्यां दीठुं जग अति भिन्न जो;
वैराग वैराग छाया छवाई घेरली,
चित्त चोंटे नही चेतनथी कहीं बाह्य जो...
जागी रे जागी स्वानुभूति मुज आत्मनी...
अहो, ज्ञान – आनंदस्वरुप अतीन्द्रिय मारुं चैतन्यतत्त्व, ए
तत्त्वने स्वानुभूतिना अतीन्द्रियचक्षुथी जीवनमां पहेली ज वार में
देख्युं, ए अतीन्द्रियचक्षुथी आत्माने देखती वखते आ जगतना
अस्तित्व उपर कोई लक्ष न हतुं. ज्यारे स्वानुभूति पूरी थई,
स्वानुभूतिनी धूनमां अमुक टाईम रह्या पछी ज्यारे विचारमां
आव्यो अने जोयुं के अहो, आ शी अद्भुतता छे
! आ कदी नहि
देखेलुं अद्भुत चैतन्यतत्त्व, आजे मने केवुं देखायुं! – एम
अनुभूतिनी धूनमांथी बहार आव्या पछी ज्यारे विचार आव्यो
अने पहेलीवार आंख खोलीने बहार नजर गई त्यारे एम लाग्युं
के अरे, आ जगत माराथी केटलुं दूर छे
! आ जगत माराथी केटलुं
जुदुं छे! मारुं चैतन्यतत्त्व, मारी स्वानुभूतिमां आवेलुं मारुं
स्वतत्त्व, ए स्वतत्त्वने अने आ जगतना तत्त्वोने एकबीजाथी घणुं
घणुं दूरपणुं होय, एकबीजा साथे कांई संबंध न होय, एवा
भिन्नपणे आ जगतना बाह्य तत्त्वोने पण में पहेली ज वार देख्या.
पूर्वे बाह्य तत्त्वोने देखतो’तो, परंतु चैतन्यनी स्वसत्ताथी भिन्नपणे

Page 169 of 237
PDF/HTML Page 182 of 250
single page version

background image
सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १६९
– खरेखर भिन्नपणे – पूर्वे कदी में ए तत्त्वोने जोया न हता;
त्यारे तो अज्ञानभावथी एकत्वबुद्धिपूर्वक ज ए पदार्थोने जोतो’तो;
एटले ए पदार्थोनुं भिन्नपणुं, ए पदार्थोनुं माराथी अत्यंत दूरपणुं
मने खरेखर देखातुं न हतुं. हवे मारुं स्वतत्त्व में जोयुं अने आ
स्वतत्त्वनी पासे परतत्त्वो, जगतना बधा तत्त्वो केटला बधा दूर छे,
केटला बधा अपरिचित छे, ए हवे मने भेदज्ञानद्रष्टिथी स्पष्ट
देखाय छे. जेम स्वतत्त्वने जीवनमां पहेलीवार जोयुं तेम परतत्त्वने
पररुपे पण खरेखर तो जीवनमां पहेलीवार ज जोया.
भेदज्ञानसहितनुं ज्ञान, भेदज्ञानसहितनुं स्व – परनुं ज्ञान, हवे ज
शरु थयुं. अने आवुं भेदज्ञान थतां परतत्त्वो पोतानाथी एटला
बधा दूर, एटला बधा जुदा, एटला बधा विजातीय देखाया, अने
स्वतत्त्वनी गंभीरता, स्वतत्त्वनुं अंतरमां ऊंडाण एटलुं बधुं देखायुं
के परम वैराग्य थई गयो. स्वतत्त्वना एकत्वमां लीनता, अने
परतत्त्वोथी भिन्नतारुप परम वैराग्य, एवी वैराग्यनी घेरी छाया
मारी परिणतिमां छवाई गई; चैतन्यभाव राग वगरनो थई
गयो, एटले पोते ज एकांत – वैराग्यरुप, एकांत शुद्धचेतनारुप
ते परिणति थई गई. आवी घेरी वैराग्यनी छायापूर्वक हवे जे
कांई जणाय छे तेमां पण ए वैराग्यभाव भेगो ज छे, एटले
क्यांय कोईपण परतत्त्वमां मोहभाव थतो नथी, एकत्वबुद्धि थती
नथी, भिन्नपणानुं भान खसतुं नथी; अने स्वतत्त्व जे अति अपूर्व
चैतन्यभावसहित देख्युं, ए चैतन्यभावमां चोंटेलुं मारुं चित्त हवे
त्यांथी कदी खसतुं नथी अने चैतन्यथी बहारना कोई पदार्थमां
मारुं चित्त हवे चोंटतुं नथी.
अहो, अहो, आवी स्वतत्त्वनी अनुभूति आ आत्मामां
प्रगटी छे.....प्रगटी छे. ।।२९।।

Page 170 of 237
PDF/HTML Page 183 of 250
single page version

background image
१७० : स्वानुभूति-प्रकाश )
( सम्यग्दर्शन
आजे चैत्रसुद तेरस.....भगवान महावीरनो मंगल
जन्म दिवस.....जगतनुं कल्याण करनारा तीर्थंकर
भगवानना अवतारनो दिवस.....
अहो, जे भगवानना शासनमां आ जीव आवी
अद्भुत स्वानुभूति पाम्यो ते प्रभुना उपकारनी शी वात
करुं
! मारा असंख्य प्रदेशमां चैतन्यभावनी अंदर
बिराजमान हे सर्वज्ञ – पिता! हे सर्वज्ञदेव! आपना
अचिंत्य परम उपकारने याद करीने, मारी सन्मुख
बिराजमान एवा आपने हुं फरीफरीने नमस्कार करुं छुं.
स्वानुभूति चेतननी प्रभुजी.....
अतिशय मुजने वहाली,
स्वानुभूतिमां आनंद उल्लसे.....
एनी जात ज न्यारी.....
प्रभुजी! दर्शन तारा रे.....
जगतनुं मंगल करनारा.....

Page 171 of 237
PDF/HTML Page 184 of 250
single page version

background image
सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १७१
c ‘प्रणमन करुं हुं धर्मकर्ता तीर्थ श्री महावीरने’c
‘‘अहो सर्वज्ञ महावीरदेव! आपना शासनमां परम
भक्तिथी मने धर्मनी प्राप्ति थई तेथी सम्यक्
आराधनापूर्वक हुं आपने नमस्कार करुं छुं.’’
‘पणमामि वड्ढमाणं तीथ्थ धम्मस्स कत्तारं’

Page 172 of 237
PDF/HTML Page 185 of 250
single page version

background image
१७२ : स्वानुभूति-प्रकाश )
( सम्यग्दर्शन
(३०)
प्रभो! चैतन्यनी जे अनुभूति थई, जे स्वानुभूतिनो
अतीन्द्रिय प्रकाश थयो, तेमां आनंद – आनंदनी अद्भुततानी शी
वात
! –
थयुं थयुं शुं अद्भुत आ मुज अंतरे !
घटना कोई अद्भुत अचिंत्य अपूर्व जो;
वचनातीत शांतिमां तरबोळ हुं थयो,
आनंद – आनंद – आनंदनी शी वात जो.....
अनुभूतिनी पहेलां, थोडीवार पहेलां पण, जेनी कल्पना न
हती एवो अद्भुत आनंद स्वानुभूतिमां थयो; अहो, स्वानुभूति
वखते तो कोई आश्चर्यभाव न हतो; परंतु स्वानुभूतिना काळ पछी,
– पछी पण अमुक टाईम तो एनी धूनमां रह्या, त्यारपछी, –
अद्भुततानो विचार आव्यो के अहा, आ शुं अद्भुतता थई
! आ
स्वानुभूतिनी अद्भुतता मारा अंतरमां जागी, एमां तो अचिंत्य
अपूर्व भावो थई गया. परम गंभीर अनुभूतिनुं वर्णन तो शुं
करीए
? कोई एक अद्भुत अचिंत्य अपूर्व घटना बनी गई. जेने
माटे आ जीवनमां वरसोथी जीव झंखतो हतो, जे अनुभूतिनी
भावनाथी परम भक्ति – बहुमानपूर्वक संतोनी सेवा करतो हतो,
ए संतोनी सेवाना फळरुपे, ए स्वानुभूतिनी झंखनानी पूर्णतारुपे
अंतरमां जे स्वानुभूति थई अने एमां जे अद्भुत आनंद आव्यो,
– अहा
! एनी शी वात
! एनुं स्मरण करतां, एनुं नाम लेतां, ए
भावने ताजो करतां, अत्यारे पण परम शांतरसमां आत्मा तरबोळ
बनी रह्यो छे.....वचनातीत एवा शांतभावमां रसबोळ आत्मा
थयो. आत्मा पोताना चैतन्यरसमां एवो मग्न थयो के एमां बस,
आनंद – आनंद ने आनंद ज हतो. अहो, ए आनंद – आनंदनी

Page 173 of 237
PDF/HTML Page 186 of 250
single page version

background image
सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १७३
शी वात! बरफनी वच्चे रहेला जीवने जेम ठंडक – ठंडक ने ठंडक ज
होय, एम असंख्य प्रदेशे चैतन्यनी अनुभूतिमां रहेला मने, मारा
स्वउपयोगमां बस, आनंद – आनंद ने आनंद ज हतो. ।।३०।।
(३१)
प्रवाह तूटयो अनादि मिथ्या भावनो,
सर्वे छूटयो पर तणो संबंध जो;
एक ज आ बस
! शोभे आतम माहरो,
साधक धारा ऊपडी सिद्धिधाम जो.....
आ आत्माने ज्यारे स्वानुभूति थई त्यारे साधकधारानो
प्रवाह ऊपडयो. अनादिथी चाली रहेलो मिथ्यात्वभावनो प्रवाह –
के जे छेल्ला थोडा वखतथी तो एकदम मंद – मंद थतो जतो हतो,
एकदम एनी धारा तूटती जती हती – एवो ते अनादि मिथ्या
भावनो प्रवाह सर्वथा छूटी गयो, अने परनो संबंध – पर साथेना
एकत्वनो संबंध पण छूटी गयो; अने स्वानुभूतिमां तो बस, एक
मारा पोताना आत्मा साथे ज संबंध हतो. – ‘संबंध’ पण शुं
कहेवो
? – एकलो हुं स्वानुभूतिस्वरुप आत्मा ज शोभतो हतो.
अहा, जेमां एक आत्मानी ज शोभा छे, आत्मा पोते एकलो –
एकलो ज पोताना स्वरुपनी अद्भुतताथी ज, पोताना आनंदथी,
पोतानी ज्ञानदशाथी, पोतानी वैराग्यपरिणतिथी अत्यंत – अत्यंत
शोभी रह्यो छे. आवी अनुभूतिमां शोभतो मारो आत्मा
साधकभाव जगाडीने सिद्धिधाम तरफ ऊपडयो, सिद्धिनगरी
तरफनो एनो प्रवास चालु थई गयो. अहो
! ए परम तृप्ति, ए
परम संतोष! इष्टपदनी प्राप्तिनी ए तृप्ति – एनी शी वात!
मारुं जीवन, मारो आत्मा बधुं धन्य बन्युं. ।।३१।।

Page 174 of 237
PDF/HTML Page 187 of 250
single page version

background image
१७४ : स्वानुभूति-प्रकाश )
( सम्यग्दर्शन
(३२)
सिद्धप्रभुजी सुखने जे वेदी रह्या,
अरिहंतो ने संतोनुं पण इष्ट जो;
साधकज्ञानी सरवे जे सुखिया अहो,
सर्वेनी थई साचे साची पीछान जो.....
पहेलां तत्त्वजिज्ञासाना काळमां एनुं बहु ज आश्चर्य
थतुं.....ए जाणवानुं कुतूहल थतुं के अहा, सिद्ध भगवाननुं सुख
केवुं हशे
! अरिहंत भगवाननुं सुख केवुं हशे! समकिती धर्मात्माओ
– संतो – मुनिओ एमनुं आत्मानुं सुख केवुं हशे! – एम
अंदरमां परम आकांक्षा थती हती. हवे स्वानुभूतिमां एवुं ज सुख,
पोताना आत्मामांथी प्रगटेलुं सुख अनुभवमां आव्युं. आहा
! हवे
खबर पडी के सिद्धभगवान पण आवुं ज सुख वेदे छे; अरिहंतोनुं
सुख ए पण आवुं ज छे. साधक ज्ञानीओ – संतो – मुनिओ ए
बधाय आवा ज सुखने वेदी रह्या छे. ए सर्वे जे सुखने वेदी रह्या
छे ते सुख केवुं छे तेनी हवे साची ओळखाण थई.
‘‘सुखधाम अनंत सुसंत चही, दिनरात्रि रहे तद्ध्यानमहीं.....’’
अहो, जे सुखने संतो पण इच्छे, अने संतो पण दिवस-रात
जेना ध्यानमां रहे – ए सुख तो केवुं अद्भुत! एनुं वेदन हुं केम
करुं!! एम बहुज जिज्ञासुता पहेलां रहेती हती. अहो, ए
प्रशांत.....अनंत.....अमृतस्वादथी भरेलुं सुख केवुं हशे!
‘‘प्रशांत अनंत सुधामय जे, प्रणमुं पद ते वरते जय ते.’’
ए सुखनो महिमा करी – करीने पहेलां तो जिज्ञासुभावे हुं
तेने प्रणाम करतो हतो, तेनी भावना करतो हतो; परंतु हवे,
स्वानुभूति थतां, एवा सुखने हुं पण वेदुं छुं.....एवा सुखना

Page 175 of 237
PDF/HTML Page 188 of 250
single page version

background image
सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १७५
वेदनपूर्वक, अहो वीतरागी संतो! तमने हुं नमस्कार करुं छुं.
पहेलां एनी वेदननी भावनाथी नमस्कार करतो हतो, हवे
एवा वेदनसहित हुं आपने नमस्कार करुं छुं. अहो, धन्य आ
चैतन्य – सुख
! चैतन्यनुं आवुं अपूर्व सुख, जेनी झंखना, जेनी
भावना मने दिनरात हती, ए सुख हे संतो! हे भगवंतो! हुं
आपना प्रतापे हवे पाम्यो. – भले थोडुंक, पण एवुं चैतन्यनुं
अतीन्द्रिय सुख मने मारा स्वसंवेदनमां आव्युं; तेथी आपना पूर्ण
सुखनी पण हवे मने साची प्रतीत थई. आप जे सुखमां लीन छो,
सादिअनंतकाळ आप जे सुखने वेदी रह्या छो, ते सुखनुं हवे मने
भान थयुं, तेनी ओळखाण थई, तेनो स्वाद चाख्यो, अने हवे ते
पूर्ण सुखनी प्राप्ति तरफ हुं आवी रह्यो छुं. अहा, दुःखथी छूटयो;
केवुं भयंकर दुःख
! अने एनी सामे आ केवुं मजानुं अतीन्द्रिय
परम चैतन्यसुख! ।।३२।।
आवी स्वानुभूति थतां आखो आत्मा जाणे नवो बनी जतो
होय! एम अपूर्व परिवर्तन थई जाय छे –
(३३)
उथल – पाथल आत्म – असंख्य प्रदेशमां,
आनंदनो जाणे मोटो धरतीकंप जो;
चैतन्य – पाताळ ऊंडेथी उल्लसी रह्युं,
मोहपर्वतना फूरचा ऊडया दूर जो.....
जागी रे जागी स्वानुभूति मुज आत्ममां.....
अहो, चैत्रसुद १३ नो आजे मंगल दिवस छे : भगवान
महावीर आ भरतक्षेत्रमां जगतना जीवोनुं कल्याण करवा अने

Page 176 of 237
PDF/HTML Page 189 of 250
single page version

background image
१७६ : स्वानुभूति-प्रकाश )
( सम्यग्दर्शन
पोतानुं सर्वज्ञपद साधवा माटे अवतरी चुक्या छे.....धन्य मंगल
अवसर छे. जगतमां उत्कृष्ट मंगळ एवा आ जन्मकल्याणकनो
काळ, अने एनी साथे मारी मंगळ स्वानुभूति, – अहो प्रभो
!
आपनुं कल्याणक ए मारा पण कल्याणनुं कारण थयुं छे.
स्वानुभूति थतां आत्माना असंख्य प्रदेशोमां कोई महान
मंगळ धरतीकंप थाय – एम आनंदनो मोटो धोध ऊछळे छे,
आनंदनो मोटो खळभळाट थाय छे. अहो, ए अनुभूति वखते
आखा आत्मानुं चैतन्य – पाताळ ऊंडीऊंडी शांतिथी उल्लसतुं हतुं;
मोहनो पर्वत क्यांय देखातो न हतो, एना तो फूरचेफूरचा ऊडीने
क्यांय ने क्यांय दूर ऊडी गया हता; अने आखो चैतन्य पर्वत,
असंख्य प्रदेशोमां उल्लसतो आत्मा, पोताना आनंदना धरतीकंपमां
वर्ततो हतो.
जेम भगवान तीर्थंकरनो जन्मकल्याणक थतां आखी पृथ्वीमां
आनंदनो धरतीकंप थई जाय छे; ए धरतीकंपथी इन्द्रना इन्द्रासन
पण डोली ऊठे छे; – एवो आनंदनो धरतीकंप बहारमां एक
पुण्यप्रतापे पण थाय छे. आजे एवा जन्मकल्याणकनो प्रसंग छे.
तेम अहीं आत्मामां पण, चैतन्यमां चैतन्यप्रभुनो पोतानो जन्म
थयो, चैतन्यप्रभु पोते पोतानी स्वानुभूतिमां अवतर्या, अने एना
प्रतापे आनंदनो जे धरतीकंप थयो....अतीन्द्रिय आनंदना
ऊछाळाथी चैतन्यनी धरती ध्रुजी ऊठी, ए आनंदमय धरतीकंपनी
शी वात
! ए आनंदना खळभळाटनी शी वात!
जेम जगतमां धरतीकंप थाय ए छानो रहेतो नथी, तेम
चैतन्यमां थयेलो आ स्वानुभूतिनो धरतीकंप.....एकला आनंदमय
धरतीकंप, एमां दुःखमांथी सुख थयुं, कषायोमांथी शांति थई,
अज्ञानमांथी ज्ञान थयुं, मिथ्यात्वमांथी सम्यक्त्व थयुं, आत्मा

Page 177 of 237
PDF/HTML Page 190 of 250
single page version

background image
सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १७७
परभावोथी छूटीने निजस्वभावरुप परिणमवा मांडयो, बंधना –
दुःखना मार्गथी छूटीने मोक्षसुख तरफ चालवा लाग्यो; अहो, जे
धरतीकंपमां आवा सुंदर – महान – अनंतकार्यो एक साथे थाय
छे एवी स्वानुभूतिनी शी वात
!
ज्यां मोटा पर्वतो होय ते ऊखडीने त्यां दरिया बनी जाय
एवुं धरतीकंपमां बने छे; मोटामोटा पर्वतो होय ते फाटीने त्यां
मोटा खाडा बनी जाय, अने ज्यां ऊंडाऊंडा खाडा होय त्यां
ऊछळीने मोटा पहाड देखावा मांडे – एवुं धरतीकंपमां बने छे;
तेम आ चैतन्यमां स्वानुभूतिना धरतीकंपनो एक महान ऊछाळो
थतां, आत्मामां ज्यां दुःखनां पहाड हता ते पहाड तूटीने गंभीर
चैतन्यनी शांतिना दरिया बनी गया, ज्यां भवसमुद्र हतो ते समुद्र
पुराईने तेनी जग्याए आनंदनो पहाड रचाई गयो. अहो, आवो
धरतीकंप, आवी स्वानुभूति, चैतन्यना पाताळमांथी स्वयं उल्लसेलुं
आत्मानुं सुख, एनो उल्लास, एनो आह्लाद – ए प्रसंगनी शी
वात
!!
अहो महावीर देव! आज आपना अवतारनो महान
कल्याणक दिवस छे. आपना अवतारथी आखी पृथ्वी जेम
आनंदथी ध्रुजी ऊठी, तेम अमारा आत्मामां मंगल स्वानुभूतिनो
अवतार थतां अमारी चैतन्यपृथ्वी – अमारा असंख्यप्रदेशो
अतीन्द्रिय आनंदना झणझणाटथी ध्रुजी रह्या छे.....ए झणझणाटी
वडे आपना उपकारना मंगल गीत गवाय छे.
जय वर्द्धमान देव.....जय स्वानुभूति

Page 178 of 237
PDF/HTML Page 191 of 250
single page version

background image
१७८ : स्वानुभूति-प्रकाश )
( सम्यग्दर्शन
(३४)
प्रभो, आपना शासनमां, आपना मार्गमां संतो द्वारा
आत्मानी स्वानुभूति पामीने हुं हवे कृतकृत्य थयो छुं; मारुं आ
जीवन मारा आत्मकार्यनी सिद्धिथी तृप्त अने कृतार्थ बन्युं छे : –
कृतकृत्यता साची पाम्यो जीवडो,
कार्यसिद्धिथी थयो अतिशय तृप्त जो;
दुःखोना रे भडाकाथी जीव छूटियो,
अद्भुत शांति – शांतिमां थयो लीन जो...
आव्या रे आव्या..चेतन प्रभुजी अंतरे..
अहो.....आत्मा, मारो आत्मा, जेवो छे तेवो सम्यक्स्वरुपे
खीली ऊठयो; अने आ जीव – के जे पहेलां अज्ञानदशामां अतृप्त
हतो, शुं करुं – एनी कांई सूझ न हती, केवुं स्वरुप छे एनुं कोई
वेदन न हतुं, अने पोताना स्वरुपने जाणवा माटे ज्ञानीना
सत्संगमां खूब – खूब झंखतो हतो, अहो, मारा स्वरुपनुं सम्यक्
दर्शन मने थाय, मारा स्वरुपना सुखनुं वेदन मने थाय, – एने
माटे आ आत्मा अतृप्तपणे खूब – खूब दिवस – रात झंखतो
हतो, एनी वेदना खूब ज थती हती.....हवे.....
– हवे हे प्रभु! आपना शासनना प्रतापे स्वानुभूतिरुप
कार्य सिद्ध थतां, मारा आत्मानुं असली स्वरुप प्रगट थयुं; एना
सुखनुं, एनी शांतिनुं, एना अनंत स्वभावोनुं वेदन थतां, आ
आत्मा अतिशय तृप्त थयो, कृतकृत्य थयो. आहा
! आवुं सुंदर
मारुं स्वरुप! आवी सुंदर – अद्भुत मारी शांति! आवी
शांतिस्वरुप हुं पोते, सुखस्वरुप हुं पोते, एम निजस्वरुपने जाण्युं,

Page 179 of 237
PDF/HTML Page 192 of 250
single page version

background image
सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १७९
निजस्वरुपने वेद्युं; मारुं निजस्वरुप मारामां ज छे, ए कदी
माराथी छूटुं पडवानुं नथी – एवी मने परम तृप्ति थई. अत्यार
सुधी, स्वानुभूति थया पहेलां आ आत्मा अनेकवार अनेक
प्रसंगोमां दुःखना भडकामां बळतो हतो, वारंवार अनेक प्रकारना
सुख – दुःखना प्रसंगो – एमां पण सुख करतां दुःखना प्रसंगो
झाझा, अनेक तीव्र मान – अपमानना प्रसंगो, – एवा अनेक
प्रसंगोमां आ जीव दुःखना भडकामां बळतो हतो; वच्चे क्यारेक
कोई कोईवार ज्ञानी धर्मात्माओना सत्संगथी थोडीथोडी शांति
मळती हती, परंतु चैतन्यनी शांति वगर दुःखना भडकामां आ
जीव शेकातो हतो. आहा
! ए दुःखोना भडकाथी हवे हुं छूटयो,
चैतन्यनी परम शांति मळी – के जे शांतिमां दाझवापणुं हवे कदी
नथी. आवी अद्भुत शांति, – ए शांति पण केटली
? – थोडी
नहीं; पूर्ण शांति – स्वभाव, एकलो शांतिनो ज भंडार, एवा
शांतस्वभावमां हुं हवे लीन थयो. मारी शांतिनुं वेदन – एमां हुं
एकत्वपणे परिणम्यो, एटले हुं पोते ज शांतिस्वरुप थयो. आ
शांतिथी हुं हवे कदी छूटवानो नथी, नथी. अहो वीरनाथ भगवान
!
आवी शांति आपनारुं आपनुं शासन, आपनुं वीतरागी शासन,
आपना शासननुं सम्यग्दर्शन, – ए महान कल्याणकारी छे.
आजना आपना कल्याणकना महान दिवसे.....चैत्र सुद तेरसे हुं
आपने, आपना शासनने, स्वानुभूति सहित अपूर्व भक्तिपूर्वक
नमस्कार करुं छुं. ।।३४।।
L

Page 180 of 237
PDF/HTML Page 193 of 250
single page version

background image
१८० : स्वानुभूति-प्रकाश )
( सम्यग्दर्शन
स्वा नु भू ति प्र का श
भगवान महावीरना प्रतापे प्राप्त थयेली, मारा आत्मानी
अपूर्व आनंदमय स्वानुभूति – तेना प्रकाशनमां, ए प्रकाशनद्वारा
वीरप्रभुना उपकारनी प्रसिद्धिरुपे जे पदरचना थयेल छे तेमां, आ
३५ मुं पद छे –
(३५)
मारा भावो सर्वे मुजमां समाय छे,
वरते नहीं को’ मुजमां परनो भाव जो;
हुं तो ज्ञायक.....ज्ञायक.....ज्ञायक भाव छुं,
सुखी स्वयं हुं जगथी तो अति दूर जो.....
– सुखी स्वयं हुं दुःखथी तो अति दूर जो.....
– स्वानुभूतिथी अतीन्द्रिय भावो, ते एवा छे के बहारमां
इंद्रियगम्य चिह्नोद्वारा बीजा जीवोथी देखी शकाय नहीं.
स्वानुभूतिना भावो ते अनुभूतिमां ज समाय छे; एनी गंभीरता
एवी छे के पोतानी आत्मअनुभूतिमां ज ते समाई शके छे, ए
गंभीरता बहारमां देखी शकाती नथी. ए चैतन्यभावो, ए आनंद,
ए शांति, ए अपूर्वता, ए दुःखथी छूटकारानी परम तृप्तिनो
भाव, – ए बधा अनंत गंभीरताथी भरेला पोताना
चैतन्यभावो.....ए तो मारा वेदनमां ज समाई गया. अहो, हुं तो
बस
! एक ज्ञायक.....ज्ञायक.....ज्ञायकभाव ज छुं; ज्ञायकपणामां जे
समाय छे एवा बीजा अनंता चैतन्यभावो ते रुपे हुं ज्ञायक ज छुं;
परंतु ज्ञायकथी विरुद्ध, ज्ञायकथी भिन्न जातिना एवा कोई पण
भावो मारा वेदनमां – मारी अनुभूतिमां नथी – नथी.

Page 181 of 237
PDF/HTML Page 194 of 250
single page version

background image
सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १८१
आ रीते एकला ज्ञायकभावरुपे थयेलो अने ए
ज्ञायकभावनी अंदर चैतन्यना सुख – शांति वगेरे बीजा
अनंतभावोने समावेलो हुं पोते स्वयं सुखी छुं. अने जगतथी,
जगतसंबंधी दुःखोथी, रागद्वेषना भावोथी तो हुं अत्यंत दूरदूर
थयो छुं, एनाथी हुं छूटो पडयो छुं, मारी परिणतिनुं परिणमन ए
दुःखरुप हवे थतुं नथी; मारी चेतना हवे स्वयं सुखरुपे परिणमे
छे, ते दुःखरुपे थती नथी, ते परभावोने करती नथी, जगत साथे
संबंध धरावती नथी; जगतथी अत्यंत दूर, अत्यंत अलिप्त एवी
मारी चैतन्यमय चेतना, ते मारी अनुभूतिमां ज समाय छे, अने
हुं पण ते चेतनामां ज समाउं छुं. आम परम चेतनस्वरुपे थयेलो
हुं हवे परम सुखी छुं, मोक्षनो साधक छुं; हुं हवे महावीरनाथनो
साचो अनुयायी छुं अने एक रीते कहीए तो हुं नानकडो महावीर
छुं. – (जिनेश्वरके लघुनंदन)
गी र ना र धा म मां.....
अहीं सुधीनी रचना ववाणीयामां थई छे, केटलीक रचना
सोनगढमां थई छे. हवे पद नं. ३६ थी शरु करीने जे रचना थई
छे ते रचना परम सिद्धक्षेत्र गीरनारधाममां थयेली छे. गीरनारमां
जईने लगभग एकमास रहेल, ते वखते जेठ सुद त्रीज
लगभगमां आ रचना थयेली छे.
अहो गीरनार सिद्धक्षेत्र! चैतन्यनी साधनानुं क्षेत्र, नेमनाथ
भगवाने परम वैराग्यथी ज्यां आत्माने साध्यो; ज्यां मुनिदशा
छठ्ठुं – सातमुं गुणस्थान निर्विकल्प परम चैतन्यअनुभूति प्रगट
करी, ज्यां मनःपर्ययज्ञान प्रगट कर्युं; त्यारपछी अनेक विहार

Page 182 of 237
PDF/HTML Page 195 of 250
single page version

background image
१८२ : स्वानुभूति-प्रकाश )
( सम्यग्दर्शन
करीने फरी पाछा ए ज सहस्राम्रवनमां पधार्या, ज्यां निर्विकल्प
सातिशय अनुभूति उपरांत आगळ वधीने चैतन्यनी श्रेणीमां
आठमुं गुणस्थान, नवमुं गुणस्थान, दसमुं गुणस्थान, पछी सीधुं
बारमुं वीतरागी गुणस्थान अने पछी.....अहो
! सर्वज्ञपदरुप
केवळज्ञान भगवान नेमिनाथ आ सहस्राम्रवनमां पाम्या. आ
सहेसावनमां बेठोबेठो हुं पण मारी स्वानुभूतिने याद करीकरीने
महान आनंदित थाउं छुं. आ सहेसावनमां नेमप्रभुना खोळामां
बेठो होउं.....एवा परम शांत वातावरणमां, स्वानुभूति पछी
आवीने हुं बेठो छुं अने स्वानुभूतिना पदनी गूंथणी करुं छुं.
गीरनार मारी सन्मुख ज छे.....अरे, गीरनारनी अंदर ज
हुं बेठो छुं.....ने गीरनारी संतोने हृदयमां याद करुं छुं. गीरनार
एटले तो आत्मसाधनानो मोटो ढगलो
! घणा घणा संतोए, करोडो
मुनीश्वरोए ज्यां आत्मसाधना आ चोवीसीमां करी छे – एवुं आ
गीरनारतीर्थ, एने जोतां संतोनी साधना याद आवे छे, अने
संतोनी साधना याद आवतां आ आत्मानी साधना पण याद आवे
छे, एटलुं ज नहीं – एनुं वेदन ताजुं थाय छे अने जीवने
आनंदित करे छे. ।।३५।।
(३६)
गौरव केवुं मोटुं आ गीरनारनुं !
आ गीरनार पण गुण रे जेनां गाय जो;
जेना प्रतापे पूज्य बन्या आ पर्वतो,
ए तो छे आ स्वानुभूतिनो प्रताप जो...
जागी रे जागी स्वानुभूति मुज आत्मनी...
जगतमां आ गीरनार महान गौरववंत, महान तीर्थरुप

Page 183 of 237
PDF/HTML Page 196 of 250
single page version

background image
सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १८३
गणाय छे; परंतु ए गीरनारनुं गौरव, ए गीरनारनुं तीर्थपणुं पण
खरेखर तो चैतन्यनी स्वानुभूतिना प्रतापे ज छे. चैतन्यनी
स्वानुभूतिवाळा साधक जीवो ज्यारे आ गीरनारमां विचर्या त्यारे
ते साधक जीवोना चरणना प्रतापे ज आ गीरनारना पथ्थरोने पण
तीर्थपणुं प्राप्त थयुं छे. ए रीते जे स्वानुभतिना प्रतापे आ पर्वतो
पण पूज्य – तीर्थ बन्या ने आ पथ्थर ए पण परमात्मानी जेम
पूजावा लाग्या, अहो
! ए स्वानुभूतिना प्रतापनी शी वात! अने
एवी स्वानुभूति आ आत्मामां प्रगटी छे एनो साक्षी आ गीरनार
पहाड छे. ।।३६।।
(३७)
स्वानुभूति ज्यां, त्यां तो तीर्थ सदाय छे,
सर्वे तीर्थो स्वानुभूतिमां समाय जो;
स्वानुभूतिनुं आनंद – तीरथ छोडीने
जतो नथी हुं बहार संसार – धाम जो.....
अहो, स्वानुभूति ए भवसागरथी तारनारुं साचुं तीर्थ छे;
स्वानुभूति ए सदाय तीर्थ छे; जगतमां कोई क्षेत्रने तो अमुक
प्रसंगवशात तीर्थपणुं प्राप्त थाय छे, परंतु आ चैतन्यनी स्वानुभूति
तो सदाय तीर्थस्वरुप छे. अने ए स्वानुभूतिना तीर्थमां बधा तीर्थो
समाय छे. जगतनी कोईपण जग्या होय पण जो त्यां
स्वानुभूतिवाळो जीव होय तो ते जग्या तीर्थ ज छे, केमके
स्वानुभूति ते पोते आनंदमय तीर्थ छे. स्वानुभूतिरुप थयेलो आ
मारो आत्मा हवे पोतानी स्वानुभूतिना तीर्थने छोडीने बीजे क्यांय
जतो नथी. बाह्यद्रष्टिए भले गमे ते स्थान हो – गीरनार हो के

Page 184 of 237
PDF/HTML Page 197 of 250
single page version

background image
१८४ : स्वानुभूति-प्रकाश )
( सम्यग्दर्शन
सोनगढ हो, मोरबी हो के सम्मेदशिखर हो, परंतु अंतरमां
स्वानुभूति – तीर्थ मारी साथे ज वर्ती रह्युं छे. हुं पोते तीर्थस्वरुप
छुं. आवा मारा चैतन्यभावरुप तीर्थने छोडीने संसारना भावमां हुं
जतो नथी. संसारधामने छोडीने हुं मारा मोक्षधाममां वस्यो छुं;
तेथी हुं सदाय तीर्थमां ज रहेनारो छुं; सदा मोक्षनी तीर्थयात्रा ज
हुं करी रह्यो छुं. ।।३७।।
स्वानुभूतिना प्रतापे बधुंय मांगळिक छे. आत्मा
स्वानुभूतिरुप थयो त्यां पोते मांगळिक थयो, ने ते आत्माना
संबंधरुप द्रव्य – क्षेत्र – काळ – भाव ते बधा पण मांगळिक ज
छे. जुओने, आजे आ चैत्रसुद तेरस, – भलेने महावीर
भगवानना जन्मने तो २५७२ वर्ष थई गया, छतां ए आत्मा
मंगळरुप हतो तो तेमना प्रतापे आजनो आ दिवस पण (आजे
२५७२ वर्ष पछी पण) मांगळिक तरीके उजवाय छे. आ रीते
मंगळरुप आत्माना प्रतापे बधुं मंगळ ज छे. –
(३८ – ३८)
मंगलरुप आ आतमरामी जीवडो,
बन्या छे मुज क्षेत्र – काळ मंगळ जो;
द्रव्य – भाव पण मंगळ मुजमां वर्तता,
अहो, अहो, आ सम्यक्नो ज प्रताप जो.....
ज्यां जशे आ आतमरामी जीवडो,
बनी जशे ते क्षेत्र – काळ मंगळ जो;
द्रव्य – भाव पण मंगळ जे पीछाणशे,
तेने मंगळ सर्व प्रकारे थाय जो.....

Page 185 of 237
PDF/HTML Page 198 of 250
single page version

background image
सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १८५
अहो, चैतन्यभावरुप स्वभाववाळो मारो आ आत्मा...
मारुं आ आत्मद्रव्य त्रिकाळ मांगळिक छे. त्रिकाळ मंगळ एवुं मारुं
आ आत्मद्रव्य, तेने ओळखतां मारा भाव पण हवे मंगळरुप थया
छे.
मारा असंख्यप्रदेशरुप क्षेत्र, ए पण सम्यक्त्वादि
अतीन्द्रिय आनंद वगेरे निर्मळ मंगळ भावोथी व्याप्त छे, तेथी
मारुं स्वक्षेत्र पण हवे मांगळिक छे.
मारी स्वकाळरुप परिणति पण सम्यक्त्व अने आनंदरुप
परिणमती होवाथी ते पण मांगळिक छे.
– आ रीते मारा आत्माना द्रव्य – क्षेत्र – काळ – भाव
ए बधाय मांगळिक छे. ‘षट्खंडागम – धवला’ना मंगलाचरणमां
आत्माने त्रिकाळ मंगळस्वरुपे वर्णव्यो छे; ते त्रिकाळ मंगळपणुं
मारामां जाणीने मने जे आनंद – उल्लास थयेलो ते
आनंदउल्लासना बळे आगळ वधतां, अहो
! आ आत्मा साक्षात्
भावथी पण मंगळरुप थयो. जे त्रिकाळ द्रव्यनुं मंगळपणुं स्वीकारे
तेने वर्तमान भावमां पण मंगळ होय छे : आ एक अपूर्व न्याय
षट्खंडागम – सिद्धान्तमां भगवान वीरसेन स्वामीए जे रीते
समजाव्यो छे, अने मिथ्यात्वने अमंगल कहीने आत्माथी छूटुं पाडी
दीधुं छे, अने ए ज वखते चैतन्यभावने मंगळरुप कहीने
मिथ्यात्वथी छूटो पाडी दीधो छे, आ रीते भेदज्ञान करावीने
आत्माने सम्यक्त्वरुप मांगळिक कर्यो छे.....अहो
! ते संतोने
नमस्कार छे.
मारा द्रव्य – क्षेत्र – काळ – भाव के जे मारामां मंगळरुपे
वर्ती रह्या छे ए बधो अहो, सम्यक्त्वनो कोई अचिंत्य प्रताप छे.
आवो मंगळरुप थयेलो मारो आत्मा हवे ज्यां जशे त्यां बहारनुं

Page 186 of 237
PDF/HTML Page 199 of 250
single page version

background image
१८६ : स्वानुभूति-प्रकाश )
( सम्यग्दर्शन
क्षेत्र पण मंगळ कहेवाशे; ए जे काळमां हशे ते काळ पण मंगळ
गणाशे; एना संबंधवाळा द्रव्यो ते पण मंगळ छे; आ रीते बधुं
ज आत्मानुं मंगळ छे.....मंगळ छे. (३८)
(३९)
अनादिमां कदी प्राप्ति नो’ती जेहनी
अनंतकाळे पण नहीं छूटे आ रत्न जो;
आवुं अमूल्य ज रत्न दीधुं छे मुजने,
केवा मारा चैतन्य प्रभु दातार जो.....
अनंतकाळमां पूर्वे चैतन्यसुखनो स्वाद आ जीवे कदी चाख्यो
न हतो. आ जीवनी अंदर, आ जीवना स्वभावमां परम
सुखस्वभाव विद्यमान तो हतो परंतु एनी खबर न हती;
श्रीगुरुप्रतापे ए चैतन्यसुखनी वार्ता जैनशासनमां ज्यारे
सांभळवा मळी, वीरनाथ भगवानना शासनमां ए आत्मिकसुखना
अनुभवनो मार्ग ज्यारे सांभळ्यो, त्यारे अंतरमां ते मार्ग जाण्यो
अने ते मार्गे अंतरमां आत्माना सुखनो अनुभव थयो; अहो
!
एनी शी वात! अनादिमां कदी जे सुखनी प्राप्ति न हती ते अपूर्व
चैतन्यसुख आ आत्मा जैनशासनना प्रतापे, स्वानुभूतिना प्रतापे,
सम्यग्दर्शनना प्रतापे पाम्यो. आवुं सम्यग्दर्शन, आवो आनंद,
आवुं सुख, आवुं जैनशासन, एनो दातार आ मारो चैतन्यप्रभु
आत्मा पोते ज छे. अहा, चैतन्यप्रभु केटलो महान दातार छे
!
अनंत चैतन्यभावोनी शांति एकसाथे जे आपे, अने एवी गंभीर
अनंत शांति, अनंतकाळ सुधी सदाय आप्या ज करे – एवो अपूर्व
महान दातार मारो आत्मा, ते आत्मानी अनुभूति मने थई.....
अहो, एनी शी वात
! ए अमूल्य चैतन्यरत्न, अने एवी अमूल्य

Page 187 of 237
PDF/HTML Page 200 of 250
single page version

background image
सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभूति-प्रकाश : १८७
एनी अनुभूति, एनी शी वात! आवी अनुभूति जेमना शासनमां
थई एवा हे वीरनाथ प्रभु! आपनो परम उपकार हुं फरीफरीने
प्रसिद्ध करुं छुं.
हे जगतना जीवो! हे साधर्मीजनो! तमे वीरशासनमां
आव्या छो, वीरशासनने पाम्या छो, तो वीरशासनमां जे आवी
अपूर्व आत्मिक अनुभूति छे ते अनुभूति तमे करो.....करो.....करो.
(३९)
(४०)
अनुभूति थई त्यारे हे वीरनाथ भगवान! जेवो आपनो
आत्मा छे एवी ज जातनो मारो आत्मा परिणम्यो; आप जेवा
पूर्ण सुखरुपे परिणमी रह्या छो एवा ज सुखरुपे मारो आत्मा
अंशे – अंशे परिणमवा मांडयो. आ रीते भावअपेक्षाए आप
अने हुं बंने जुदा नथी. जेवो चैतन्यभाव आपना आत्मामां छे
तेवो ज चैतन्यभाव आ आत्मामां पण छे, – एम आपणे बंने
हवे एक ज होईए एम अंतरमां वेदाय छे : –
प्रभो ! हवे ‘हुं’ अने ‘तुं’ कंई जुदा नथी,
प्रभुमय बन्यो छुं हुं ज स्वयं जो;
प्रभुता ज्यां प्रगटी छे आत्मस्वरुपनी
पामरता के दीनतानुं नहीं नाम जो.....
जागी रे जागी शांति आत्मस्वरुपनी.....
हे प्रभो! पहेलां, आप चैतन्यस्वरुपे परिणमता ज्ञानी अने
हुं कषायरुप परिणमतो अज्ञानी, – एवो आपनामां ने मारामां
भेद हतो, .....हवे.....; अथवा बीजी रीते कहीए तो मारो