Page 208 of 237
PDF/HTML Page 221 of 250
single page version
महावीर भगवानना शासनमां हुं आ स्वानुभूति पाम्यो
छुं.....तेथी –
पूरी करी; अने आखा काव्यना भावार्थनुं आलेखन सोनगढमां वीर
सं. २५०१ मां कर्युं.
श्री कुंदकुंद भगवान प्रसन्न हो.
श्री कहान – मंगलदेव प्रसन्न हो.
Page 209 of 237
PDF/HTML Page 222 of 250
single page version
छे, इंद्रियगम्य चिह्नोथी ते जणाय तेवो नथी, तेथी
अलिंगग्राह्य छे. आचार्यदेवे गाथामां तेने
परमार्थस्वरुप शुद्धआत्मानुं स्वरुप स्पष्ट कर्युं छे. आ गाथा
प्रवचनसार उपरांत समयसार, नियमसार, पंचास्तिकाय,
अष्टप्राभृत तेमज षट्खंडागमनी टीका वगेरेमां पण छे. आ
गाथा पू. कानजीस्वामीने अतिशय प्रिय हती. तेना
अलिंगग्रहणना २० अर्थो अहीं टूंकमां आप्यां छे. तेना द्वारा
हे भव्य
ज्ञानमय हुं छुं.
क्यांथी जाणी शके
Page 210 of 237
PDF/HTML Page 223 of 250
single page version
पोताना स्वरुपने प्रत्यक्ष जाणतो ज होय.
जतो नथी; एटले एकांत परोक्ष, परप्रकाशी हुं नथी.
मने तो स्वसंवेदनथी अनुभवे छे. मारुं आ
स्वसंवेदन.....प्रत्यक्ष छे.
ज रहे छे.....माटे – मारुं चैतन्यपणुं बाह्यपदार्थोने
अवलंबनारुं नथी; स्वाधीनपणे हुं चैतन्य छुं.
ज्ञानवडे कदी चेतनरुप करी शकाय छे
चेतनपणुं क्यांय बहारथी आवेलुं नथी.
शके
मारा ज्ञानपरिणामने कोई हरी शके नहि.
Page 211 of 237
PDF/HTML Page 224 of 250
single page version
कषायो शांत थाय छे त्यां चैतन्य – आत्मा झळकी ऊठे छे.
आ रीते कषायने अने मारा चैतन्यने एकता नथी,
विरुद्धता छे; माटे कषाय वगरना शुद्ध चैतन्यस्वादपणे
वेदातो ज हुं छुं.
नथी. कर्मग्रहणमां जे भाव निमित्त थाय ते मारा चेतनथी
भिन्न छे. स्वभावमां तन्मय एवुं मारुं चेतनत्व बीजा
कोई साथे संबंध करतुं नथी.
भोक्ता छुं, अतीन्द्रिय उपयोग साथे अतीन्द्रियआनंद ज
होय.....दुःख न होय, तेथी विषयो पण न होय.
लक्षण नथी. माताना उदरमां जेनी रचना थई ते हुं नहीं;
माताना पेटमां कांई मारी रचना नथी थई. हुं तो अजन्म
छुं, अनादि चैतन्यरुप छुं. शरीर – इन्द्रियोनी रचना ते
कांई मारुं जीवन नथी; मारुं जीवत्व तो स्वयं मारी चेतना
वडे ज में त्रिकाळ धारण करेलुं छे.
Page 212 of 237
PDF/HTML Page 225 of 250
single page version
चैतन्यशरीररुप भावआकार ते हुं छुं.
लोकमां व्याप्त होय तेने ज परमेश्वरपणुं होय – एवी
मिथ्यामान्यता मारा चैतन्यप्रभुने लागु पडती नथी.
मर्यादित क्षेत्रमां रहीने पण हुं अमर्यादित
चैतन्यसामर्थ्यवाळो छुं.
कोई विकार नथी. आ रीते मारुं अतीन्द्रियपणुं द्रव्य –
भाववेद वगरनुं छे. अहा, मारो चैतन्यभाव केवो
निर्विकारपणे शोभे छे
बाह्यचिह्नोने देखवाथी कांई अतीन्द्रिय आत्मा देखातो
नथी. अतीन्द्रियआत्मा पोताना अतीन्द्रिय चैतन्यभावोने
ज ग्रहे छे, बीजा कोईने ग्रहतो नथी.
पर्याय एवा त्रण कटका करीने ‘गुण ते हुं’ एवा भेदना
वेदनथी आत्मानुं ग्रहण ( – अनुभवन) थतुं नथी.
चैतन्यचिह्नरुप परम पदार्थना वेदनमां ते गुणो समाई
जाय छे खरा, पण ‘आ गुण’ एवो भेद तेमां रहेतो नथी.
Page 213 of 237
PDF/HTML Page 226 of 250
single page version
आवतो, केमके आत्मामां शुद्ध द्रव्य – गुण – पर्याय एक
साथे छे, ते त्रणस्वरुपे अखंड आत्मा शुद्धपणे एक
अनुभवाय छे. शुद्धपर्याय तेनी अंदर समाई जाय छे पण
शुद्धात्माना अनुभवमां ‘आ पर्याय’ एवो भेद रहेतो नथी.
नथी, तेथी ‘द्रव्यथी अनालिंगीत’ कह्यो. अनुभूतिमां
शुद्धपर्याय द्रव्यनी साथे अभेदपणे वर्ते ज छे. द्रव्य –
पर्यायनी भिन्न – भिन्न अनुभूतिथी आत्मा अनुभवातो
नथी. आ रीते शुद्धपर्याय सहित शुद्धद्रव्यरुपे मने मारो
स्वानुभव थाय छे. (आ छेल्ला त्रण बोलमां गुण – पर्याय
अने द्रव्य एवा त्रण भेदना विकल्पथी पार,
अभेदआत्मानी अनुभूति बतावी छे.)
चेतनाए पोतानुं सर्वस्व भेदज्ञानी जीवोने सोंपी दीधुं छे एटले के
चेतनाथी लक्षित संपूर्ण जीवस्वभावने भेदज्ञानी जीवो स्वसंवेदनथी
अनुभवे छे. आचार्यदेव कहे छे के हे मुमुक्षु
Page 214 of 237
PDF/HTML Page 227 of 250
single page version
स्वरुप आत्मा श्री कुंदकुंदस्वामीए अनुग्रहपूर्वक पोताना सर्वे
शास्त्रोमां बताव्यो छे तेने हे भव्य
पोताना आनंदनो स्वाद लेवामां कोई रागनी, इन्द्रियोनी के
बाह्यविषयोनी सहाय लेवी पडती नथी. हे भव्य
आनंदरुपे अनुभवीश.
अतीन्द्रिय – चैतन्यचिह्नरुप छे तेने तें अत्यार सुधी न जाण्युं; अने
‘जे इन्द्रियोथी जाणे ते ज जीव, जे इन्द्रियोथी देखाय छे ते ज जीव’
– एम आत्माने इन्द्रियगम्य ज मान्यो; तेथी सर्वज्ञ – मुनि –
सम्यग्द्रष्टि वगेरे अतीन्द्रिय भाववाळा आत्माओने साचा स्वरुपे तुं
ओळखी न शक्यो, तेओने पण तें इन्द्रियगम्य मानी लीधा. आ रीते
तें न तारा शुद्धात्माने जाण्यो, न अरिहंतादिने जाण्या.
तथा रागने काढी नांखीने, अतीन्द्रिय चेतना वडे आत्माने
अनुभवमां ले.
Page 215 of 237
PDF/HTML Page 228 of 250
single page version
परमार्थ – आत्मा छो. तारी ज्ञानचेतना आत्मा साथे तन्मय छे,
इन्द्रियो साथे के राग साथे नहीं.
अतीन्द्रिय आनंदरुप थयुं छे. अतीन्द्रिय महान वीतरागता वडे सुंदर
अने आनंदरसमां तरबोळ ज्ञान ज आत्माने जाणी – अनुभवी शके
छे. इन्द्रियवाळुं – तुच्छ – आकुळव्याकुळ – मलिनज्ञान महा सुंदर
आत्माने क्यांथी जाणी शके
जाणी लीधुं
केमके ते तो अतीन्द्रिय छे. अतीन्द्रिय वस्तुने माटे तुं एम कहे के
मारा इन्द्रियज्ञानवडे में तेने ओळखी लीधी, – तो ए तारी
भ्रमणा छे. हवे जो तुं एम कहेतो हो के में तेमने अतीन्द्रिय ज्ञान
वडे ओळख्या.....तो, शुं तने अतीन्द्रिय ज्ञान थयुं छे
Page 216 of 237
PDF/HTML Page 229 of 250
single page version
जाणवा उत्सुक थाय छे त्यां इन्द्रियोना संबंधने दूर करीने ते ज्ञान
पोताना अतीन्द्रिय स्वभावपणे खीली जाय छे ने पोताना महान –
अतीन्द्रिय – आत्मस्वभावने अनुभवी ल्ये छे, ते अतीन्द्रियज्ञान
पोते आत्मा ज छे.
जे अद्भुत आत्मस्वरुप प्रकाश्युं छे, तेनो सार हमणां
आपे वांच्यो. तेना उपर गुरुदेवना स्वानुभूतिप्रधान
प्रवचनो सांभळतां जे उर्मि जागी ते आ ‘आत्मवस्तु-
स्तवन’मां काव्यरुपे व्यक्त करी छे. (ब्र. ह. जैन)
Page 217 of 237
PDF/HTML Page 230 of 250
single page version
इन्द्रियतीत अखंड ने अद्भुत आनंदरुप.
नमुं छुं जिनवचनने भाखे आत्मस्वरुप,
शुद्धउपयोग – प्रकाशथी जाण्युं आत्मस्वरुप.
परम रुप निजआत्मनुं, देहादिकथी पार,
चेतनचिह्ने ग्राह्य छे, पर लिंगोथी पार.
अमृतस्वामी हृदयखोली परम अमृत रेडता;
स्वानुभूतिमां आवतो ते आत्म आनंदमय अहो,
भवि जीव सूणतां सार तेनो शुद्ध समकितने लहो.
छे चेतनागुण, गंध – रुप – रस – शब्द व्यक्ति न जीवने,
वळी लिंगग्रहण नथी अने संस्थान भाख्युं न तेहने;
नथी रुप कोई जीवमां तेथी न दीसे नेत्रथी,
वळी रस पण जीवने नहि तेथी न दीसे जीभथी.
जीव शब्दवंत नथी अरे, तेथी न दीसे कानथी,
नथी स्पर्श जीवमां कोई तेथी ग्राह्य छे ना हस्तथी.
वळी गंध जीवमां छे नहि तेथी न आवे नाकमां,
छे इन्द्रियोथी पार ते आवे न इन्द्रियज्ञानमां.
असंख्य – देशी आत्म छे, संस्थान को निश्चित नहीं;
निजचेतनाथी शोभतो बस
बस, द्रव्य – गुण – पर्ययस्वरुपे शोभतो निजमां रही.
Page 218 of 237
PDF/HTML Page 231 of 250
single page version
Page 219 of 237
PDF/HTML Page 232 of 250
single page version
इन्द्रियोथी पार थई निज – आत्मने देखी रही;
प्रभु कुंद कुंद – अमृत – स्वामी – चरणमां वंदी रही,
आनंद करती मस्त थई ते मोक्षने साधी रही.
Page 220 of 237
PDF/HTML Page 233 of 250
single page version
सम्यक्त्वनी वार्ता सांभळीने पण प्रसन्न थाजे. सम्यक्त्वादि धर्मनी
के देव – गुरु – शास्त्रनी हांसी के अनादर कदी न करीश. हसतां –
हसतां करेलो पण धर्मनो अनादर केवा भयंकर पापफळने आपे छे
मुनिराजनी हांसी करी तो तेमने आ भवमां केवी परिस्थिति आवी
पडी
राखजे, कदी स्वप्नेय के मश्करीमां पण एमनो अनादर करीश मा
घणुं वधारे भयंकर छे. माटे तेमने ओळखीने परमभक्तिथी तेमनी
उपासना करजे.....तारुं कल्याण थशे.
शुं
प्रयोगो बतावीने ‘दिशासुचन’ कर्युं छे.....ते हवे आप
वांचशो.
Page 221 of 237
PDF/HTML Page 234 of 250
single page version
संसारनां घोर – दुःखोथी छूटवुं होय – तेणे शुं
करवुं जोईए
पाम्या छे; तेथी मारे पण तेमने ओळखीने एम
करवुं जोईए.
कर्या करवो जोईए. ते प्रयोग कई रीते करवो
Page 222 of 237
PDF/HTML Page 235 of 250
single page version
छे
थई जशे, – हुं तेमना जेवो थई जईश.
प्रश्न : – आ प्रयोगमां ‘विचार’ अने ‘ध्यान’ बंने करवानुं
ज्ञायक छुं.....अनंत चैतन्यसुख मारामां ज वेदाय छे’ इत्यादि
प्रकारे एकला स्वतत्त्वने ज उपयोगमां लेवानो प्रयत्न ते ध्याननो
प्रयोग छे.....विचारनुं फळ ध्यान छे ने ध्यानवडे स्वानुभव थाय
छे.
Page 223 of 237
PDF/HTML Page 236 of 250
single page version
पंचपरमेष्ठी जेवी शांति मारामांथी प्रगट करीश.
छे के जाणे पंचपरमेष्ठी आवीने मारा हृदयमां बेठा छे, अने तेमनी
साथे हुं पण कोई अपूर्व शांतिनुं वेदन करी रह्यो छुं.
अवाज संभळाय छे के ‘शांति अहीं छे.....हुं पोते ज शांतिथी
भरेलो समुद्र छुं.’
अंदरना वेदनथी मने शांति देखाय छे. आ पहेलां संसारमां क्यांय
कोईपण वस्तुमां आवी शांति में कदी देखी न हती.
(जेम जेम आ प्रयोग करो तेम तेम, तेमां दर्शाव्या मुजबना
Page 224 of 237
PDF/HTML Page 237 of 250
single page version
आटली गंभीरता नीकळी – ते तत्त्वना महिमानुं शुं कहेवुं
अत्यारे ज ते सफळ थई रह्यो छे, अने तेना फळरुपे परम
अतीन्द्रिय शांतिनो अनुभव थतां हवे वार नहीं लागे.
शांतिनुं वेदन मारे ज करवानुं छे. जगतनुं कांई हुं नथी करतो,
अने जगतमां कोई मारुं कांई करी देतुं नथी; एकबीजाथी निरपेक्ष
पोतपोतामां स्वाधीन छे, – तेथी मारी परिणतिने हवे क्यांय
बहार घूमवानुं न रह्युं; मारामां ज रहीने शांतिनुं वेदन करवानुं
छे. तेथी विश्व प्रत्ये परम उदासीन एवो मारो कषायरस हवे
तूटवा मांडयो छे, अने ज्ञानमय शांतरसनुं घणुं जोरदार घोलन
थई रह्युं छे.
हवे ऊतरवा मांडयो छे; चैतन्यनी वारंवार भावना वगर हवे
रहेवातुं नथी, संसारना कषायप्रसंगमां तो जराय चेन पडतुं नथी.
करीने शांतिने लई लउं छुं. – आ ज मारो आत्महितनो प्रयोग
Page 225 of 237
PDF/HTML Page 238 of 250
single page version
ज्ञानना मीठा स्वादमां कषायना कडवा स्वादनुं मिलन हुं नथी
करतो. कषाय रहित ज्ञानमां चैतन्यरसनो जे अपूर्व स्वाद आवे छे
ते शांत छे, आत्माने तृप्ति देनार छे.
सुखसमुद्र स्वयं उल्लसवा मांडयो छे; सम्यक्त्व हवे नजीक छे;
अपूर्व निर्विकल्प – स्वानुभव हवे अंतरमांथी दोडतो – दोडतो
आवी रह्यो छे.
(प्रयोग : विचार २० मिनिट; ध्यान २० मिनिट)
Page 226 of 237
PDF/HTML Page 239 of 250
single page version
देखीने मने पोताने पण आश्चर्य थई रह्युं छे, – केवो सुंदर अने
उपशांत छे आपनो देश
ए हवे माराथी सहन नथी थतुं. जराक शांतिनी हवा तो अंदरथी
आवी रही छे, ते शांतिना ज बळथी हुं कषायो सामे जोरथी लडी
रह्यो छुं. मारो सम्यक्त्व – भाई मने लडवामां मदद करी रह्यो
छे; तेना एक ज घा थी हवे मिथ्यात्व क्षणमात्रमां खतम थई
जवानुं छे. मारा सम्यक्त्व – बंधुनो अवाज आवी रह्यो छे के तुं
गभराईश नहीं, हुं तरत ज तारी मददमां आवी रह्यो छुं.
पुरुषार्थ वगेरे बधाय मारा पक्षमां छे. अहा, हवे तो कषायो भागवा
मांडया छे, अने मारा अंतरमां अकषायी अद्भुत अतीन्द्रिय
आनंदमय चैतन्यशांतिनुं वेदन थवा मांडयुं छे. हवे कषाय करतां
मारो चैतन्यभाव घणो ज बळवान देखाय छे; आ ज मारा
ज्ञानस्वभावनी ‘अधिकता’ छे, अने आ ज मारी स्वानुभूति छे.
Page 227 of 237
PDF/HTML Page 240 of 250
single page version
हवे आपनी साथे एवी आत्मीयता थई गई छे के चित्त क्यांय
बीजे ठरतुं नथी; पोते पोतामां ज ठरीने चित्त संतुष्ट थई रह्युं छे.
थयो के जेटली मने कल्पना पण न हती; – तोपछी दिनरात
चोवीस कलाक हुं आपनी अनुभूतिना प्रयोगमां लाग्यो रहुं तो
परम अतीन्द्रिय आनंदनो अनुभव थतां केटली वार
शांतिने माटे हवे मारो आत्मा बहु व्याकुळ थई रह्यो छे; जे शांति
मारा पोतामां ज भरी छे अने जेनो थोडो थोडो स्वाद पण आवी
रह्यो छे, – तेनाथी हवे हुं वंचित केम रहुं
परंतु उपयोगने सर्व तरफथी खेंचीने मात्र आपमां ज संपूर्णपणे
जोडवाथी ज आपना साक्षात् दर्शन थशे – जे अतीन्द्रिय आनंदथी
भरपूर हशे; – परंतु ज्यांसुधी साक्षात्कार नथी थतो त्यांसुधी
आपनी भावना वगर रहेवातुं नथी. केमके आपना सिवाय
संसारमां तो बीजे क्यांय पण मारुं चित्त लागतुं नथी.