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आपनी वच्चे कोई अंतराय रही शकशे नहि. हुं इन्द्रियोना कमाडने
तोडीने आपना अतीन्द्रिय स्वरुपमां प्रवेश करी रह्यो छुं. आपने
देखीने हवे हुं आपनामां एवो लीन थई रह्यो छुं के हवे आपने
देखवानो पण विकल्प नथी रह्यो. हुं – द्रष्टा, माराथी आप कोई
बीजा नथी – के जेने हुं देखुं. हुं ज पोते मारो द्रश्य अने द्रष्टा छुं.
तेना बधाय गुणो पोतपोताना स्वाभाविक रुपमां खीलीने पोतानुं
कार्य करवा लागे छे; अने अनुभवरसमां सर्वगुणोनो स्वाद
एकसाथे वेदनमां आवे छे. ए स्वादनी मीठाश एटली बधी होय
छे के अतीन्द्रिय ज्ञानमां ज ते समाई शके छे. मानो के, कदाच जो
ते स्थूलरुप धारण करे तो आखा लोक – अलोकमां पण तेनो
आनंद न समाय. – मारुं आत्मतत्त्व ज एटलुं मोटुं छे के आटला
महान आनंदने एक साथे पी जईने पोतामां समावी दे छे.
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विकल्पथी जुदुं थईने मारुं ज्ञान चैतन्यनी महानतामां प्रवेश करी
रह्युं छे. आ रीते मारुं ज्ञान इन्द्रियोथी आघुं खसीने, अतीन्द्रियता
पामीने पोते स्वयं पण महान थवा मांडयुं छे.
एकसाथे पोतानुं ज्ञेय बनाववानी ताकात राखे छे.
लाग्या छे
अटकी गयो, तेथी मने बाह्य विषयो ज देखाया, परंतु अंतरमां
मारुं महान चैतन्यतत्त्व मने कदी न देखायुं.
रागथी भिन्न अतीन्द्रिय थईने हुं मारा महान चैतन्यतत्त्वनी साथे
एवी एकाकार दोस्ती बांधीश के अमारा बंनेनी वच्चे कोई भेद के
अंतर नहीं रहे; तथा मारा महान तत्त्वमां जे अतीन्द्रिय आनंद
भर्यो छे तेने हुं भोगवीश; – ते आनंद कोई विषयोमां के रागमां
में कदी नथी जोयो.
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छे, – सम्यक्त्व नजीकमां आवतुं देखाय छे, – आवा उत्तम
भावोनी ऊर्मिओ जागे, – तो तमारो प्रयोग सत्य छे. – तेनो
निर्णय पोतानी जाते ज करवानो छे.
स्वानुभव – ज्ञानमांथी थई छे.
मारुं जीवन, मारी परिणति पण केवी गंभीरता धारण करती जाय
छे ते मारा अंतरमां स्पष्ट देखाई रह्युं छे. पहेलां राग – द्वेष –
कषायोरुप अत्यंत तुच्छ भावोमां वर्ततुं दुःखी जीवन, ते हवे परम
सुखना धाम तरफ जतां जतां अनेरी शांति, तथा अनेरी
वीतरागताथी भरेला गंभीरज्ञानरुप थवा मांडयुं छे. अंतर्मुखता
वडे आत्मानी ज पासेथी लीधेला गंभीर अतीन्द्रियज्ञान वडे हुं
आत्मानी गंभीरतानो ताग लईश ने तेने प्राप्त करीश.
छे. जेम वासुदेव द्वारा प्रतिवासुदेवनो घात बीजा कोई साधन वडे
थई शकतो नथी, मात्र तेनी ज पासेथी आवेला चक्र वडे तेनो घात
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आत्मानी प्राप्ति आत्माथी बहारना कोई साधन वडे थती नथी.
अंदर आत्मामांथी ज लीधेला तेना एक अंशरुप ज्ञानचक्र वडे तेनो
लक्ष्यवेध करता ते साक्षात् स्वानुभवमां आवे छे. महान
ताकातवाळा आत्मामांथी आवेलुं ज्ञान पण महान ताकातवाळुं छे;
ते रागनी के इन्द्रियोनी मदद वगर एकलुं ज पोतानुं कार्य करे छे.
आत्मवेदन करे छे.
हता....माटे हुं ज्यांथी आव्युं छुं त्यां क्रोधादि भर्या नथी, पण
शांति ज भरी छे. – एम क्रोधादिथी भिन्नतारुप पोतानुं
परिणमन करतुं मारुं ज्ञान शांतिने अनुभवे छे.
‘मातृस्थान’ तेने एवुं वहालुं छे के तेना सिवाय बीजे क्यांय तेनुं
चित्त तन्मय थतुं नथी; ज्यांथी पोतानी उत्पत्ति थई त्यां ज
(ज्ञानस्वभावमां सामान्यमां ज) तेने तन्मयता अनुभवाय छे,
तेनी साथे जराय जुदाई राखतुं नथी.....अने ते स्वभावमां भरेला
आनंद – शांति – प्रभुता वगेरे अनंत वैभवने ते पोतानो ज
निजवैभव समजीने अनुभवे छे.
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वीतरागरसथी धोवायेलुं उज्वळ छे, स्वाधीन छे, महान आनंदरुप
छे, मोक्षने साधनारुं छे. आत्मानुं सर्वरसरुप – सर्वस्व तेणे प्राप्त
करी लीधुं छे. हवे आनाथी मोटुं कोई बीजुं तत्त्व गोतवानुं बाकी
नथी रह्युं; जेनाथी ऊंचुं बीजुं कांई नथी एवुं सर्वोत्तम तत्त्व आ
ज्ञाने अनुभूतिमां प्राप्त करी लीधुं छे; परमार्थ तत्त्वने पामीने –
तेनो आश्रय करीने – तेमां तद्रुप थईने पोते ज परमार्थरुप बनी
गयुं छे.....ते ज्ञानचेतनारुप ज पोते पोताने चेती रह्युं छे.
ते पोते ज समयसार छे; ते पोते ज प्रभु – आत्मा छे.
केवो सुन्दर छे – मारो आ देश
दुनियामां आवी तो नथी शकता परंतु मारी सामे नजर पण मांडी
शकता नथी.
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आ चैतन्यमहेलमां जवानी कोशिष करी रह्यो छुं. उपयोगने कहुं छुं
के चाल, मारी साथे अंदर चाल.....तने घणो ज आनंद थशे.
मने खेद थाय छे के अरे
थाक्यो
तने अत्यार सुधी भवचक्रमां पीली – पीलीने दुःखी कर्यो तेनो संग
अत्यंतपणे छोडी दे.....ने अंतरमां सुख – श्रद्धा – वीतरागता वगेरे
तारा साचा स्वजनो छे तेनो संग कर.....तेनी ज साथे रहे....ते
स्वजनो तने महान सुख आपशे.....ने भवचक्रथी छोडावशे.
सिवाय बीजा बधानी चिन्ता छोडी दे.....फरी फरीने कहीए छीए
के अरे जीव
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छे, – उपशांत थई जाय छे.
हर्षनी अशांतवृत्तिमां अटकी जतो हतो, तेथी हर्षथी पार वीतरागी
शांति सुधी पहोंचतो न हतो. हवे ख्याल आव्यो के आ
हर्षोल्लासनी वृत्ति पण मारी शांतिमां प्रवेशी शकती नथी, तेथी हवे
उपयोगने तेनाथी पण छूटो राखीने, शांतरसमां ज रहीने हुं मारा
उपयोगने अंतरमां लई जईने शांतस्वभावनी स्वानुभूति करुं छुं.
(इति अष्टम प्रयोग)
स्वानुभूति थई शकशे. परंतु तुं तारा सतत प्रयत्नने वच्चेथी तोडीश
नहि के ढीलो पडवा दईश नहीं.
सादि – अनंतकाळ सुधी मोक्षसुख भोगववानुं छे, तेमां हुं प्रमाद
केम करुं
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आत्महित माटे काढी शकुं छुं. – तो तेमां आत्मअनुभवनुं काम
सौथी पहेलां करीने, आत्मशांति प्राप्त करी लेवी – ते माटे हुं घणी
ज सावधानी राखीश. दुनियाना कोई पण कार्य खातर मारा आ
महान इष्टकार्यने हुं गौण नहीं करुं; जीवनमां सर्वत्र क्षणे – क्षणे
ने पळे – पळे एनी ज मुख्यता राखीश, अने एने ज हुं मारुं
जीवन समजुं छुं. जो अत्यारे तेमां प्रमाद करीश तो संसारनां चार
गतिनां भयंकर दुःखो – के जेनी यादी पण आंखमांथी आंसुनी
धार वहावे छे – तेनाथी हुं केम छूटीश
हवे मारा देव – गुरु जेवी शांति ने शांति ज जोईए.....तेनी शीघ्र
प्राप्ति माटे अतिशय चैतन्यरसिक थईने फरी फरीने हुं विशेष
प्रयोग करुं छुं. – आम पोताना आत्माने उत्साहित करवो.
आवे छे अने तोपण तने एम नथी थतुं के चालो, उपयोग अंदर
नथी जतो तो तेने बहारमां क्यांक भमावुं
तो क्यांय गमतुं नथी, क्यांय दिल लागतुं नथी, एटले फरी फरीने
वारंवार एम ज थया करे छे के हुं अंदर जाउं – अंदर जाउं
छे; – केमके बहारना बधा विषयोथी पार, जुदी ज जातनी कोई
अत्यंत सुंदर, एक अद्भुत वस्तु मारा अंतरमां छे – ते मारा
लक्षमां आवी गई छे. अंदर जतां – जतां मने कंईक नवुं ज
देखाय छे, ने नवी ज ज्ञान – ऊर्मिओ उल्लसे छे, – जे मारा
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जात रागथी पण जुदी छे. – आ रीते वाणीथी तेमज विकल्पोथी
पण दूर ऊंडे ऊंडे अंतरमां क्यांय मारो उपयोग पहोंची रह्यो छे
– अने आ ज रीते आगळ वधीने वधु ऊंडो ऊतरुं तो त्यां ज
मारा चैतन्य प्रभुनो साक्षात्कार थशे.
जाय छे; हवे जोरपूर्वक हुं खान – पान हरवुं – फरवुं वगेरे
सर्वप्रकारना रागनो रस तोडतो जाउं छुं. प्रतिकूळताओने क्रोध
वगर सहन करुं छुं, अने वीर थईने मारी समस्त शक्तिने हुं
आत्मानी साधनमां लगावी दउं छुं. दुनियानी कोई पण परिस्थिति
हवे मारी साधनाने अटकावी शके नहि, केमके मारा चैतन्यप्रभु
पोते ज हवे प्रगट थईने शुद्ध आनंदपरिणतिरुप थवा चाहे छे.
अत्यार सुधी प्रभु ऊंघता’ता, हवे तो जाग्या छे.....एवा जाग्या छे
के मोह – चोरने भगाडीने पोताना सम्यक्त्वादि सर्व निधानने
संभाळी रह्या छे.....मने ए निधान देखाडीने आपी रह्या छे.....के
ले
नथी.....बस, अंदर ने अंदर रहीने हुं निजनिधानने भोगवीश.