Samyak Darshan Part 7 8-Gujarati (Devanagari transliteration).

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मोह तो डरीने क्यांय दूर भागवा मांडयो छे; हवे मारी अने
आपनी वच्चे कोई अंतराय रही शकशे नहि. हुं इन्द्रियोना कमाडने
तोडीने आपना अतीन्द्रिय स्वरुपमां प्रवेश करी रह्यो छुं. आपने
देखीने हवे हुं आपनामां एवो लीन थई रह्यो छुं के हवे आपने
देखवानो पण विकल्प नथी रह्यो. हुं – द्रष्टा, माराथी आप कोई
बीजा नथी – के जेने हुं देखुं. हुं ज पोते मारो द्रश्य अने द्रष्टा छुं.
‘‘नि र्वि क ल्पो हं’’
(प्रयोग) विचार : २० मिनिट; ध्यान : २० मिनिट)
b प्रयोग छठ्ठो b
(२६) अनुभव माटे अत्यंत उत्सुक मारो आत्मा हवे ए
जाणवा आतुर छे के अनुभवमां शुं थतुं हशे? कई वस्तु एमां
देखाती हशे? अने तेमां केवो स्वाद आवतो हशे!!
– तो, अत्यारसुधीना अभ्यासना बळथी एम जणाय छे
के अनुभवमां आत्मानुं जे कांई सर्वस्व छे ते बधुंय देखाय छे; तथा
तेना बधाय गुणो पोतपोताना स्वाभाविक रुपमां खीलीने पोतानुं
कार्य करवा लागे छे; अने अनुभवरसमां सर्वगुणोनो स्वाद
एकसाथे वेदनमां आवे छे. ए स्वादनी मीठाश एटली बधी होय
छे के अतीन्द्रिय ज्ञानमां ज ते समाई शके छे. मानो के, कदाच जो
ते स्थूलरुप धारण करे तो आखा लोक – अलोकमां पण तेनो
आनंद न समाय. – मारुं आत्मतत्त्व ज एटलुं मोटुं छे के आटला
महान आनंदने एक साथे पी जईने पोतामां समावी दे छे.
(२७) आवी मारी महानता मारा लक्षमां आवे छे, तेथी
२२८ : स्वानुभवनो प्रयोग )
( सम्यग्दर्शन

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विकल्पनी – रागनी कोई महानता मने नथी भासती; एटले
विकल्पथी जुदुं थईने मारुं ज्ञान चैतन्यनी महानतामां प्रवेश करी
रह्युं छे. आ रीते मारुं ज्ञान इन्द्रियोथी आघुं खसीने, अतीन्द्रियता
पामीने पोते स्वयं पण महान थवा मांडयुं छे.
(२८) आ रीते इन्द्रियोथी तेम ज विकल्पोथी पण पार आ
ज्ञान पोते ज एटलुं महान थई जाय छे के पूरा चैतन्यस्वभावने
एकसाथे पोतानुं ज्ञेय बनाववानी ताकात राखे छे.
(२९) जुओ तो खरा, हजी तो सम्यक्त्वनी सन्मुख थईने
अभ्यास करतां पण मारा मति – श्रुतज्ञान केवुं महान कार्य करवा
लाग्या छे
! शुं विकल्पमां – रागमां के इन्द्रियज्ञानमां एवी ताकात
छे के आटला महान स्वभावनो स्वीकार करी शके? – ना, कदी
नहीं. अत्यारसुधी हुं विकल्पमां रागमां तथा इन्द्रिय ज्ञानमां ज
अटकी गयो, तेथी मने बाह्य विषयो ज देखाया, परंतु अंतरमां
मारुं महान चैतन्यतत्त्व मने कदी न देखायुं.
– पण हवे तो हुं जाग्यो छुं.....हवे मारुं जागृत ज्ञान
इन्द्रियोमां के रागमां बंधाई नहीं रहे, पण तेनुं बंधन तोडीने,
रागथी भिन्न अतीन्द्रिय थईने हुं मारा महान चैतन्यतत्त्वनी साथे
एवी एकाकार दोस्ती बांधीश के अमारा बंनेनी वच्चे कोई भेद के
अंतर नहीं रहे; तथा मारा महान तत्त्वमां जे अतीन्द्रिय आनंद
भर्यो छे तेने हुं भोगवीश; – ते आनंद कोई विषयोमां के रागमां
में कदी नथी जोयो.
(३०) बस, हवे लांबा विचार बंध करीने हुं सीधो ज
आनंदने भोगवुं छुं.
(प्रयोग : विचार : २० मिनिट ध्यान २० मिनिट)
सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभवनो प्रयोग : २२९

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२३० : स्वानुभवनो प्रयोग )
( सम्यग्दर्शन
सूचना
प्रयोग करतां करतां तमने पोताना अंतरमां शांति वधती
जाय छे ने कषायोनो रस तूटतो जाय छे, मिथ्यात्वादि तूटवा मांडे
छे, – सम्यक्त्व नजीकमां आवतुं देखाय छे, – आवा उत्तम
भावोनी ऊर्मिओ जागे, – तो तमारो प्रयोग सत्य छे. – तेनो
निर्णय पोतानी जाते ज करवानो छे.
प्रयोग सातमो
(३१) अहो, जिनेन्द्रशासन केवुं गंभीर छे! गंभीर होय ज
ने! – केमके, एक तो ते परम गुणगंभीर आत्मस्वभावने
देखाडनारुं छे, अने तेनी उत्पत्ति पण आत्माना गंभीर स्वभावना
स्वानुभव – ज्ञानमांथी थई छे.
(३२) आवा गंभीर जैनशासनमां आवेलो, ने आवा
गंभीर आत्मस्वभावने साधनारो हुं, आत्माने साधतां – साधतां
मारुं जीवन, मारी परिणति पण केवी गंभीरता धारण करती जाय
छे ते मारा अंतरमां स्पष्ट देखाई रह्युं छे. पहेलां राग – द्वेष –
कषायोरुप अत्यंत तुच्छ भावोमां वर्ततुं दुःखी जीवन, ते हवे परम
सुखना धाम तरफ जतां जतां अनेरी शांति, तथा अनेरी
वीतरागताथी भरेला गंभीरज्ञानरुप थवा मांडयुं छे. अंतर्मुखता
वडे आत्मानी ज पासेथी लीधेला गंभीर अतीन्द्रियज्ञान वडे हुं
आत्मानी गंभीरतानो ताग लईश ने तेने प्राप्त करीश.
(३३) आत्मतत्त्व एटलुं महान छे के बीजा कोई साधन वडे
ते पमातुं नथी, एमांथी ज काढेला अतीन्द्रिय ज्ञानवडे ज ते पमाय
छे. जेम वासुदेव द्वारा प्रतिवासुदेवनो घात बीजा कोई साधन वडे
थई शकतो नथी, मात्र तेनी ज पासेथी आवेला चक्र वडे तेनो घात

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थाय छे; त्यां घातनी वात छे, अहीं प्राप्तिनी वात छे. अहीं
आत्मानी प्राप्ति आत्माथी बहारना कोई साधन वडे थती नथी.
अंदर आत्मामांथी ज लीधेला तेना एक अंशरुप ज्ञानचक्र वडे तेनो
लक्ष्यवेध करता ते साक्षात् स्वानुभवमां आवे छे. महान
ताकातवाळा आत्मामांथी आवेलुं ज्ञान पण महान ताकातवाळुं छे;
ते रागनी के इन्द्रियोनी मदद वगर एकलुं ज पोतानुं कार्य करे छे.
(३४) आत्मामांथी आवेलुं ‘ज्ञान’ विचारे छे के हुं क्यांथी
आव्युं? ज्यांथी हुं आव्युं त्यां ज हुं जाउं – एम विचारी ते
आत्मामां ऊतरी जाय छे.....ने साक्षात् ज्ञानसमुद्ररुप थईने
आत्मवेदन करे छे.
(३५) वळी ते आत्मामांथी आवेलुं ज्ञान विचारे छे के हुं
जेमांथी आव्युं तेमांथी मारी साथे कांई क्रोधादि आव्या न
हता....माटे हुं ज्यांथी आव्युं छुं त्यां क्रोधादि भर्या नथी, पण
शांति ज भरी छे. – एम क्रोधादिथी भिन्नतारुप पोतानुं
परिणमन करतुं मारुं ज्ञान शांतिने अनुभवे छे.
(३६) अहो, आ ज्ञाननी अद्भुतता कोई महान छे! तेनी
निःशंकता अने आत्मविश्वास अनेरा छे. पोतानुं पवित्र
‘मातृस्थान’ तेने एवुं वहालुं छे के तेना सिवाय बीजे क्यांय तेनुं
चित्त तन्मय थतुं नथी; ज्यांथी पोतानी उत्पत्ति थई त्यां ज
(ज्ञानस्वभावमां सामान्यमां ज) तेने तन्मयता अनुभवाय छे,
तेनी साथे जराय जुदाई राखतुं नथी.....अने ते स्वभावमां भरेला
आनंद – शांति – प्रभुता वगेरे अनंत वैभवने ते पोतानो ज
निजवैभव समजीने अनुभवे छे.
(३७) हवे मारुं आवुं अद्भुत खीलेलुं ज्ञान कांई गरीब
नथी, रागादिरुप मेलुं नथी, पराधीन नथी, दुःखी नथी, भवमा
सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभवनो प्रयोग : २३१

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भटकनारुं नथी; अपितु आ ज्ञान तो विश्वना शिरताज समान छे,
वीतरागरसथी धोवायेलुं उज्वळ छे, स्वाधीन छे, महान आनंदरुप
छे, मोक्षने साधनारुं छे. आत्मानुं सर्वरसरुप – सर्वस्व तेणे प्राप्त
करी लीधुं छे. हवे आनाथी मोटुं कोई बीजुं तत्त्व गोतवानुं बाकी
नथी रह्युं; जेनाथी ऊंचुं बीजुं कांई नथी एवुं सर्वोत्तम तत्त्व
ज्ञाने अनुभूतिमां प्राप्त करी लीधुं छे; परमार्थ तत्त्वने पामीने –
तेनो आश्रय करीने – तेमां तद्रुप थईने पोते ज परमार्थरुप बनी
गयुं छे.....ते ज्ञानचेतनारुप ज पोते पोताने चेती रह्युं छे.
(३८) अहो, ज्ञानचेतनारुप थयेलुं आ ज्ञान –
ते पोते ज सम्यग्दर्शन छे; ते पोते ज स्वानुभूति छे;
ते पोते ज समयसार छे; ते पोते ज प्रभु – आत्मा छे.
जो आवो हुं छुं.....तो पछी बीजुं मारे शुं जोईए!!
बस! मारी ज्ञान – अनुभूतिमां ज हुं रहीश.
(प्रयोग : मात्र ध्यान : एकाग्रता १५ मिनिट.)
b प्रयोग आठमो b
(३९) अहा, आत्मतत्त्वनी साधनामां, आ सात प्रयोग द्वारा
तो हुं क्यांनो क्यां पहोंची गयो! पूर्वनी मिथ्यात्वनी दुनियाने
छोडीने हवे हुं सम्यक्त्वनी दुनियामां आवीने वस्यो छुं. अहा,
केवो सुन्दर छे – मारो आ देश
! सर्वत्र शांति ज प्रसरेली छे. मने
बहु ज दुःखी करनारा ते क्रोधादि कषायदुश्मनो मारी आ नवी
दुनियामां आवी तो नथी शकता परंतु मारी सामे नजर पण मांडी
शकता नथी.
२३२ : स्वानुभवनो प्रयोग )
( सम्यग्दर्शन

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(४०) अहीं मारो चैतन्यमहेल घणी भारे विभूतिथी भरेलो
छे.....तेमां प्रवेश करीने मारे तेनो उपयोग करवानो छे. हुं जल्दी
आ चैतन्यमहेलमां जवानी कोशिष करी रह्यो छुं. उपयोगने कहुं छुं
के चाल, मारी साथे अंदर चाल.....तने घणो ज आनंद थशे.
(४१) उपयोग पण अंदर आववा तैयार तो थाय छे, परंतु
अंदर जतां जतां ते वारंवार अधवच्चेथी ज पाछो फरी जाय छे.
मने खेद थाय छे के अरे
! उपयोग पाछो केम आवे छे? अंदरमां
प्रवेश केम नथी करतो? बहारमां केम भमे छे?
(४२) अरे उपयोग! बहारमां भमी – भमीने तो तें
अनंतकाळ महान दुःखो भोगव्या. शुं हजी पण ते दुःखोथी तुं नथी
थाक्यो
? ए दुःखोथी छूटवुं होय तो शीघ्र ज तुं सावधान थई जा...
जागृत थई जा आत्मानुभव माटे मरणियो था. जे विषयकषायोए
तने अत्यार सुधी भवचक्रमां पीली – पीलीने दुःखी कर्यो तेनो संग
अत्यंतपणे छोडी दे.....ने अंतरमां सुख – श्रद्धा – वीतरागता वगेरे
तारा साचा स्वजनो छे तेनो संग कर.....तेनी ज साथे रहे....ते
स्वजनो तने महान सुख आपशे.....ने भवचक्रथी छोडावशे.
(४३) भाई, हुं जाणुं छुं के तने अंदर जतां – जतां
अनेकविध चिन्ता वच्चे आवी पडे छे! पण, अत्यारे ए बधी
चिन्ताओ छोडी दे.....आत्मा ज तने वहालो छे – तो पछी तेना
सिवाय बीजा बधानी चिन्ता छोडी दे.....फरी फरीने कहीए छीए
के अरे जीव
! तुं स्वानुभूतिना किनारे पहोंच्यो छे तो हवे अंदर
जवामां वार कां लगाड? उछळीने अंदर कुदी पड....‘आहाहा!
केवी गंभीर शांति!!’
(४४) अरे, मारी आ शांति तो एवी छे के एमां ‘आहाहा’
एवा आश्चर्यनी वृत्ति पण नथी ऊठती.....आश्चर्यथी पण ऊंचुं
सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभवनो प्रयोग : २३३

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कंईक अनुभवाय छे के जे परम तृप्तपणे पोते पोतामां समाई रहे
छे, – उपशांत थई जाय छे.
(४५) अंदर जतां जतां उपयोग केम पाछो आवी जतो
हतो? – ऊंडेथी तेनी शोध करतां ख्याल आव्यो के, स्वभावनी
कंईक नीकटता थतां उपयोग एकदम हर्षित थई जतो हतो एटले
हर्षनी अशांतवृत्तिमां अटकी जतो हतो, तेथी हर्षथी पार वीतरागी
शांति सुधी पहोंचतो न हतो. हवे ख्याल आव्यो के आ
हर्षोल्लासनी वृत्ति पण मारी शांतिमां प्रवेशी शकती नथी, तेथी हवे
उपयोगने तेनाथी पण छूटो राखीने, शांतरसमां ज रहीने हुं मारा
उपयोगने अंतरमां लई जईने शांतस्वभावनी स्वानुभूति करुं छुं.
(इति अष्टम प्रयोग)
(आजका जोरदार प्रयोग : ध्यान २४ मिनिट : एक घडी)
(४६) हे मुमुक्षु साधर्मी !
अहीं सुधीना प्रयोगथी तने स्वानुभूति थई गई
हशे.....अथवा, स्वत: हजी वधारे ऊंडा प्रयोगवडे हवे तने
स्वानुभूति थई शकशे. परंतु तुं तारा सतत प्रयत्नने वच्चेथी तोडीश
नहि के ढीलो पडवा दईश नहीं.
(४७) जो प्रमाद थई जाय तो, एम विचार करजे के अहा, जे
कार्यनुं फळ आत्माना अनुभव जेवुं महान छे अने जेना फळमां मारे
सादि – अनंतकाळ सुधी मोक्षसुख भोगववानुं छे, तेमां हुं प्रमाद
केम करुं
? प्रयत्न तो बराबर करवो पडशे, – पण तेनुं फळ पण घणुं
ज मोटुं छे ने! स्वानुभूतिमां मने केवो आत्मा मळशे? अने केवा
मजाना अतीन्द्रिय आनंदने हुं अनुभवीश!! अहा, हवे तो ते
एकदम नजीक ‘हाथवेंतमां ज छे’ – हमणां ज तेनी प्राप्ति थशे.
२३४ : स्वानुभवनो प्रयोग )
( सम्यग्दर्शन

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(४८) अरे, एक तो मनुष्यजीवन दुर्लभ, तेमांय आयुष्यना
दिवसो घणा थोडा, अने तेमांथी पण घणो थोडो भाग हुं मारा
आत्महित माटे काढी शकुं छुं. – तो तेमां आत्मअनुभवनुं काम
सौथी पहेलां करीने, आत्मशांति प्राप्त करी लेवी – ते माटे हुं घणी
ज सावधानी राखीश. दुनियाना कोई पण कार्य खातर मारा आ
महान इष्टकार्यने हुं गौण नहीं करुं; जीवनमां सर्वत्र क्षणे – क्षणे
ने पळे – पळे एनी ज मुख्यता राखीश, अने एने ज हुं मारुं
जीवन समजुं छुं. जो अत्यारे तेमां प्रमाद करीश तो संसारनां चार
गतिनां भयंकर दुःखो – के जेनी यादी पण आंखमांथी आंसुनी
धार वहावे छे – तेनाथी हुं केम छूटीश
! अरे ना.....ना, हवे तो
ते दुःखोनुं नाम पण माराथी सांभळी शकातुं नथी. मारे तो बस,
हवे मारा देव – गुरु जेवी शांति ने शांति ज जोईए.....तेनी शीघ्र
प्राप्ति माटे अतिशय चैतन्यरसिक थईने फरी फरीने हुं विशेष
प्रयोग करुं छुं. – आम पोताना आत्माने उत्साहित करवो.
(४९) हे मुमुक्षु अभ्यासी! एक वात एम छे के, तारो
उपयोग वारंवार अंदरमां स्वरुपनी नजीक जई – जईने पाछो
आवे छे अने तोपण तने एम नथी थतुं के चालो, उपयोग अंदर
नथी जतो तो तेने बहारमां क्यांक भमावुं
! परंतु ऊल्टुं एम थाय
छे के गमे तेम करीने पण उपयोगने अंदरमां लई जाउं. बहारमां
तो क्यांय गमतुं नथी, क्यांय दिल लागतुं नथी, एटले फरी फरीने
वारंवार एम ज थया करे छे के हुं अंदर जाउं – अंदर जाउं
! –
एम अंदरमां जईने अनुभव करवानी ज खूब लगनी रह्या करे
छे; – केमके बहारना बधा विषयोथी पार, जुदी ज जातनी कोई
अत्यंत सुंदर, एक अद्भुत वस्तु मारा अंतरमां छे – ते मारा
लक्षमां आवी गई छे. अंदर जतां – जतां मने कंईक नवुं ज
देखाय छे, ने नवी ज ज्ञान – ऊर्मिओ उल्लसे छे, – जे मारा
सम्यग्दर्शन )
( स्वानुभवनो प्रयोग : २३५

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वेदनमां तो आवे छे पण वाणीथी हुं तेने कही शकतो नथी. तेनी
जात रागथी पण जुदी छे. – आ रीते वाणीथी तेमज विकल्पोथी
पण दूर ऊंडे ऊंडे अंतरमां क्यांय मारो उपयोग पहोंची रह्यो छे
– अने आ ज रीते आगळ वधीने वधु ऊंडो ऊतरुं तो त्यां ज
मारा चैतन्य प्रभुनो साक्षात्कार थशे.
(५०) अहा, आ चैतन्यप्रभुनी साथे मारी मित्रता द्रढ थतां
हवे मारा जीवनमां वैराग्य अने ज्ञाननो अभ्यास घणो ज वधतो
जाय छे; हवे जोरपूर्वक हुं खान – पान हरवुं – फरवुं वगेरे
सर्वप्रकारना रागनो रस तोडतो जाउं छुं. प्रतिकूळताओने क्रोध
वगर सहन करुं छुं, अने वीर थईने मारी समस्त शक्तिने हुं
आत्मानी साधनमां लगावी दउं छुं. दुनियानी कोई पण परिस्थिति
हवे मारी साधनाने अटकावी शके नहि, केमके मारा चैतन्यप्रभु
पोते ज हवे प्रगट थईने शुद्ध आनंदपरिणतिरुप थवा चाहे छे.
अत्यार सुधी प्रभु ऊंघता’ता, हवे तो जाग्या छे.....एवा जाग्या छे
के मोह – चोरने भगाडीने पोताना सम्यक्त्वादि सर्व निधानने
संभाळी रह्या छे.....मने ए निधान देखाडीने आपी रह्या छे.....के
ले
! चैतन्यना आ बधाय निधान तारा ज छे, आनंदथी तुं तेने
भोगव!
(५१) अहो! मारा निजनिधान पामीने मने जे महान
आनंद थाय छे तेनी शी वात!! एनी वात करवा माटे के एनो हर्ष
करवा माटेय ए निजनिधानमांथी बहार नीकळवुं मने पालवतुं
नथी.....बस, अंदर ने अंदर रहीने हुं निजनिधानने भोगवीश.
आनंदमय स्वसंवेद्यो भरितावस्थोहं
समाप्त
२३६ : स्वानुभवनो प्रयोग )
( सम्यग्दर्शन