सर्वज्ञ सत्तास्वरूप ][ ९१
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नैकान्ताकृत्रिमाम्नायमूलत्वेस्य प्रमाणता ।
तद्व्याख्यातुरसर्वज्ञे रागित्वे विप्रलंभनात् ।।४।।
(प्र. अ. पानुं ७)
तमे सर्वथा अकृत्रिमआम्नाय कहो छो पण तेनी
प्रमाणता नथी, तेथी ए आम्नायनो मूळव्याख्याता मानवा
योग्य छे. तथा जो अज्ञानी – रागीद्वेषीने व्याख्याता मानवामां
आवे तो तेना कहेवामां प्रमाणता केवी रीते आवशे? कारण के
दोषवान वक्ताने तो ढोंगी कहीए छीए, माटे पूर्ण ज्ञानी तथा
रागद्वेष रहित ज मूळ व्याख्याता थतां आम्नायनी साची प्रवृत्ति
थशे, ए ज दर्शावीए छीएः —
जो तमे सर्वथा अकृत्रिम आम्नाय पुरुषना आश्रय विना
ज मानशो तो आम्नाय तो अकृत्रिम संभवे छे. कारण आवुं
वचन छे केः —
“ ‘सिद्धो वर्णसमाम्नायः’
अर्थात् अक्षरोनी साची आम्नाय छे ते स्वयंसिद्ध छे
पण कोईनी करेली नथी, तो अक्षर वा जीवादिक वस्तुनां नाम
✽अर्थ : — सर्वथी अकृत्रिम परंपराथी आववाना कारणे पण
वेदमां प्रमाणिकता आवी शकती नथी, कारण के तेना व्याख्याता
असर्वज्ञ अने रागद्वेषी होतां वंचनानो संभव आवे छे.
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अर्थ : — वर्ण उच्चारनो संप्रदाय (चोसठ मूळाक्षर) स्वयंसिद्ध
छे – अनादिनिधन छे.