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[ सर्वज्ञ सत्तास्वरूप
जेम कोई पुरुष (मकाननी) अंदर बेसीने वीणा
बजावतो हतो त्यां कोई बीजा पुरुषे तो तेने साक्षात् देख्यो
नथी, परंतु वीणानो नाद यथार्थरूप सांभळी तेणे एवो निश्चय
कर्यो के — अहीं कोई चतुर, वाजींत्र वगाडवावाळो छे; ते ज
प्रमाणे अहीं पण सर्वज्ञने साक्षात् – प्रत्यक्ष तो दीठा नथी, परंतु
आ साचा उपदेशरूप साधनथी सर्वज्ञनी समानरूप सत्ता सिद्ध
करी. तथा एवा सर्वज्ञने निमित्त जोईए तो निर्णयस्थान निश्चय
(प्रकरण)मां लखीशुं. अहीं कोई प्रश्न करे के – अनादिनिधनश्रुत
छे ते ज छे, तेने तो वांचे – सांभळे तेने ज्ञान थई जाय एनाथी
सर्वज्ञवक्ता केवी रीते सिद्ध कर्या? तेनो उत्तरः —
जो पदार्थ पण अनादिनिधन छे तथा वस्तुओमां
नामादिक कहेवां पण अनादिनिधन छे, तेथी कर्ता तो तेनो कोई
सर्वथा छे ज नहि, परंतु प्रथम तो न्यायशास्त्रोमां
वचनसामान्यने पण पौरुषेयपणुं सिद्ध कर्युं छे अने
अपौरुषेयाम्नायनो निषेध कर्यो छे. कारण के – आ उपदेशरूप
वाक्य कोई पुरुषना आश्रयविना प्रवर्ते नहि; शब्द पुद्गलनी
पर्याय छे, ते जीवना आश्रय विना ज प्रवर्ते छे. श्लोकवार्तिकमां
पण कह्युं छे केः —
✽अर्थ : — सूक्ष्मादि पदार्थोनो उपदेश ते पदार्थोने साक्षात्
(प्रत्यक्ष) जाणनार द्वारा ज होई शके. कारण के ते (सूक्ष्मादि
पदार्थोनुं ज्ञान) परोपदेश, लिंग अने इंद्रियोथी निरपेक्ष छे अने
सत्य छे.