सर्वज्ञ सत्तास्वरूप ][ ९३
प्रमाणे रागद्वेषना आश्रये दोष आव्यो. हवे जेने बंनेमां
सामान्य – विशेषता होय तेनामां पण साचुं वक्तापणुं आववुं
दुर्लभ छे, तो जेनामां अज्ञान – रागादिदोष प्रबल होय तेनामां
साचुं वक्तापणुं केवी रीते आवे? माटे अज्ञानी अने रागीद्वेषी
वक्ता सर्वथा होय नहि.
वळी, तमे जो हठग्राहीपणुं करी वा मतपक्ष करी
दोषवान व्याख्यातामां पण प्रमाणिकपणुं मानशो तो तमारा
मतमां अदुष्टकारणजन्यपणाने प्रमाणनुं स्वरूप शा माटे कह्युं
छे? तमारामां आवुं वाक्य छे ज के —
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‘दुष्टकारणजन्यत्वं प्रमाणस्याप्रमाणत्वम्’ ।
ज्यारे द्वेषी ठरे त्यारे तेनी कहेली आम्नाय प्रमाणरूप
केवी रीते होय? कारण तेनी कहेली आम्नायने तो
दुष्टकारणजन्यपणुं आव्युं! जेम आ काळमां कपटीओनां शास्त्रो
दुष्ट – द्वेषीवक्ताजन्य छे तेम आम्नायनां शास्त्रो पण थयां. ए
प्रमाणे अकृत्रिमआम्नाय मानवामां वा अज्ञानी – रागीद्वेषी
वक्ताने मानवामां अनेक बाधाओ आवे छे; तेनो विशेष निर्णय
महाभाष्य, अष्टसहस्री अने श्लोकवार्तिक आदि न्यायना
ग्रंथोमां हेतु – युक्तिपूर्वक कर्यो छे तेने जाणी पोतानां
कल्पितवचन प्रमाणभूत नथी, एम मानवुं योग्य छे.
✽अर्थ : — द्वेषने कारणे प्रमाणने पण अप्रमाणपणुं उत्पन्न
थाय छे.