Sattasvarup-Gujarati (Devanagari transliteration).

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सर्वज्ञ सत्तास्वरूप ][ ६५
तत्र नास्त्येव सर्वज्ञो ज्ञापकानुपलंभनात्
व्योमांभोजवर्दित्येतत्तमस्तोगविजृभितम् ।।।।
(प्रथम अध्यायपानुं११)
त्यां तेने अमे आ प्रमाणे पूछीए छीए केसर्वज्ञने
जाणवावाळुं प्रमाणज्ञान तमने नथी ज तेथी तमे सर्वज्ञनी
नास्ति कहो छो? के अन्यमां सर्वज्ञ नथी तेथी कहो छो? के
सर्व मतवाळाओमां सर्वज्ञ नथी तेथी कहो छो? त्यारे ते कहे
छे के
‘मने (तेनुं ज्ञान) नथी, कारण के में सर्वज्ञ दीठा नथी
तेथी नास्ति कहुं छुं’ त्यारे तेने उत्तर आपीए छीए केतमने
न देखवाथी सर्वज्ञनी नास्ति कहो छो, तो हवे जे जे वस्तु
तमने न भासे ते बधानी नास्ति कहो त्यारे तो तमारो हेतु
सिद्ध थाय त्यां समुद्रमां जळ केटला घडा प्रमाण छे?’ हवे ए
घडानी गणत्री तमारा ज्ञानमां तो आवी नथी, परंतु समुद्रमां
जळ तो संख्यानी मर्यादासहित अवश्य छे, तथा तमाराथी घणा
चतुर वा ज्ञानीना ज्ञानमां ए समुद्रना जळनी प्रमाणता आवी
ज हशे के ‘आमां आटला घडाप्रमाण जळ छे.’ हवे ए प्रकारे
तो तमारामां स्वसंबंधी ज्ञापकानुपलंभ नामनो हेतुव्यभिचार
आव्यो.
अर्थ :जेम आकाशना फूलनां अस्तित्वने जणावनारुं कोई
प्रमाण प्राप्त नहि होवाथी आकाशनुं फूल नथी. तेम सर्वज्ञना
अस्तित्त्वने जणावनारुं कोई प्रमाण प्राप्त नहि होवाथी सर्वज्ञ
पण नथी, आम मानवुं ते अंधकारना समूहनो फेलाव छे.