Shastra Swadhyay-Gujarati (Devanagari transliteration). Chhaththi dhAl; SUVARNAPURI -SONGADH (DIST : BHAVNAGAR).

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इन चिन्तत समसुख जागै, जिमि ज्वलन पवनके लागै;
जब ही जिय आतम जानै, तबही जिय शिवसुख ठानै. २.
जोबन गृह गो धन नारी, हय गय जन आज्ञाकारी;
इन्द्रिय-भोग छिन थाई, सुरधनु चपला चपलाई. ३.
सुर असुर खगाधिप जेते, मृग ज्यों हरि, काल दले ते;
मणि मंत्र तंत्र बहु होई, मरते न बचावै कोई. ४.
चहुंगति दुख जीव भरै है, परिवर्तन पंच करै है;
सबविधि संसार असारा, यामें सुख नाहिं लगारा. ५.
शुभअशुभ करमफल जेते, भोगै जिय एकहि तेते;
सुत-दारा होय न सीरी, सब स्वारथके हैं भीरी. ६.
जल-पय ज्यों जिय-तन मेला, पै भिन्न भिन्न नहिं भेला;
तो प्रगट जुदे धन-धामा, क्यों ह्वै इक मिलि सुत-रामा. ७.
पल रुधिर राध मल थैली, कीकस वसादितैं मैली;
नव द्वार बहैं घिनकारी, अस देह करै किम यारी? ८.
जो योगनकी चपलाई, तातै ह्वै आस्रव भाई;
आस्रव दुखकार घनेरे, बुधिवंत तिन्है निरवेरे. ९.
जिन पुण्य-पाप नहिं कीना, आतम-अनुभव चित दीना;
तिनही विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके. १०.
निज काल पाय विधि झरना, तासों निज काज न सरना;
तप करि जो कर्म खिपावै, सोई शिवसुख दरसावै. ११.
किनहू न करौ, न धरै को, षड्द्रव्यमयी न हरै को;
सो लोकमांहि बिन समता, दुख सहै जीव नित भ्रमता. १२.

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अंतिम ग्रीवकलौंकी हद, पायो अनंत विरियां पद;
पर सम्यग्ज्ञान न लाधौ; दुर्लभ निजमें मुनि साधौ. १३.
जो भाव मोहतै न्यारे, द्रग - ज्ञान - व्रतादिक सारे;
सो धर्म जबै जिय धारै, तब ही सुख अचल निहारै. १४.
सो धर्म मुनिनकरि धरिये, तिनकी करतूति उचरिये;
ताकों सुनिये भवि प्रानी, अपनी अनुभूति पिछानी. १५.
छठ्ठी ढाळ
मुनि और अरहन्त-सिद्धका स्वरूप तथा
शीघ्र आत्महित करनेका उपदेश
(हरिगीत छन्द)
षट्काय जीव न हननतैं, सबविध दरवहिंसा टरी,
रागादि भाव निवारतैं, हिंसा न भावित अवतरी;
जिनके न लेश मृषा न जल मृण हू विना दीयो गहैं,
अठदशसहसविध शीलधर, चिद्ब्रह्ममें नित रमि रहैं. १.
अंतर चतुर्दस भेद बाहिर संग दसधातैं टलैं,
परमाद तजि चौकर मही लखि समिति इर्यातैं चलैं;
जग-सुहितकर सब अहितहर, श्रुति सुखद सब संशय हरैं;
भ्रमरोग-हर जिनके वचन, मुखचन्द्रतैं अमृत झरैं. २.
छ्यालीस दोष विना सुकुल, श्रावकतनें घर अशनको,
लैं तप बढावन हेतु, नहिं तन पोषते तजि रसनको;
शुचि ज्ञान-संयम उपकरण, लखिकैं गहैं, लखिकैं धरैं,
निर्जंतु थान विलोकि तन-मल मूत्र श्लेषम परिहरैं. ३.

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सम्यक् प्रकार निरोध मन-वच-काय, आतम ध्यावते,
तिन सुथिर मुद्रा देखि मृगगण उपल खाज खुजावते;
रस रूप गंध तथा फरस अरु शब्द शुभ असुहावने,
तिनमें न राग-विरोध पंचेन्द्रिय-जयन पद पावने. ४.
समता सम्हारैं, थुति उचारैं, वंदना जिनदेवको,
नित करैं श्रुतिरति करैं प्रतिक्रम, तजैं तन अहमेवको;
जिनके न न्हौन, न दंतधोवन, लेश अंबर-आवरन,
भूमाहिं पिछली रयनिमें कछु शयन एकासन करन. ५.
इक बार दिनमें लैं अहार, खडे अलप निज-पानमें,
कचलोंच करत, न डरत परिषहसों, लगे निज ध्यानमें;
अरि मित्र, महल मसान, कंचन कांच, निंदन थुतिकरन,
अर्घावतारन असि-प्रहारनमें सदा समताधरन. ६.
तप तपैं द्वादश, धरैं वृष दश, रतनत्रय सेवै सदा,
मुनि साथमें वा एक विचरै, चहै नहिं भवसुख कदा;
यों है सकलसंयम-चरित, सुनिये स्वरूपाचरन अब,
जिस होत प्रगटै आपनी निधि, मिटै परकी प्रवृत्ति सब. ७.
जिन परम पैनी सुबुधि छैनी, डारि अंतर भेदिया,
वरणादि अरु रागादितैं निज भावको न्यारा किया;
निजमाहिं निजके हेतु निजकर, आपको आपै गह्यो;
गुण-गुणी ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय, मंझार कछु भेद न रह्यो. ८.
जहँ ध्यान-ध्याता-ध्येयकौ न विकल्प, वच-भेद न जहाँ,
चिद्भाव कर्म, चिदेश करता, चेतना किरिया तहाँ;
तीनों अभिन्न अखिन्न शुध उपयोगकी निश्चल दशा,
प्रगटी जहाँ द्रग-ज्ञान-व्रत ये, तीनधा एकै लसा. ९.

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परमाण-नय-निक्षेपकौ, न उद्योत अनुभवमें दिखै,
द्रग-ज्ञान-सुख-बलमय सदा, नहिं आन भाव जु मो विखै;
मैं साध्य साधक मैं अबाधक, कर्म अरु तसु फलनितैं,
चित्-पिंड चंड अखंड सुगुणकरंड च्युत पुनि कलनितैं. १०.
यों चिन्त्य निजमें थिर भये, तिन अकथ जो आनंद लह्यो,
सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा अहमिन्द्रके नाहीं कह्यो;
तब ही शुक्ल ध्यानाग्नि करि, चउघाति विधि कानन दह्यो,
सब लख्यो केवलज्ञान करि, भविलोकको शिवमग कह्यो. ११.
पुनि घाति शेष अघाति विधि, छिनमाहिं अष्टम भू वसैं,
वसु कर्म विनसैं सुगुण वसु, सम्यक्त्व आदिक सब लसैं;
संसार खार अपार पारावार तरि तिरहिं गये,
अविकार अकल अरूप शुचि, चिद्रूप अविनाशी भये. १२.
निजमाहिं लोक-अलोक गुण-परजाय प्रतिबिम्बित थये,
रहि हैं अनंतानंत काल, यथा तथा शिव परिणये;
धनि धन्य हैं जे जीव, नरभव पाय यह कारज किया,
तिनही अनादि भ्रमण पंचप्रकार तजि, वर सुख लिया. १३.
मुख्योपचार दु भेद यों बडभागि रत्नत्रय धरैं,
अरु धरेंगे ते शिव लहैं, तिन सुयश-जल जग-मल हरैं;
इमि जानि, आलस हानि, साहस ठानि, यह सिख आदरौ,
जबलौं न रोग जरा गहै, तबलौं झटिति निज हित करौ. १४.
यह राग-आग दहै सदा, तातैं समामृत सेईये;
चिर भजे विषय-कषाय अब तो त्याग निजपद बेईये.
कहा रच्यो पर पदमें, न तेरो पद यहै, क्यों दुख सहै;
अब ‘दौल’! होउ सुखी स्वपद रचि, दाव मत चूकौ यहै. १५.
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[ग्रन्थ-रचनाका काल और आधार]
इक नव वसु इक वर्षकी, तीज शुक्ल वैशाख,
कर्यो तत्त्व-उपदेश यह, लखि बुधजनकी भाख.
लघु-धी तथा प्रमादतैं, शब्द-अर्थकी भूल,
सुधी सुधार पढो सदा, जो पावो भव-कूल.