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सम्यक् प्रकार निरोध मन-वच-काय, आतम ध्यावते,
तिन सुथिर मुद्रा देखि मृगगण उपल खाज खुजावते;
रस रूप गंध तथा फरस अरु शब्द शुभ असुहावने,
तिनमें न राग-विरोध पंचेन्द्रिय-जयन पद पावने. ४.
समता सम्हारैं, थुति उचारैं, वंदना जिनदेवको,
नित करैं श्रुतिरति करैं प्रतिक्रम, तजैं तन अहमेवको;
जिनके न न्हौन, न दंतधोवन, लेश अंबर-आवरन,
भूमाहिं पिछली रयनिमें कछु शयन एकासन करन. ५.
इक बार दिनमें लैं अहार, खडे अलप निज-पानमें,
कचलोंच करत, न डरत परिषहसों, लगे निज ध्यानमें;
अरि मित्र, महल मसान, कंचन कांच, निंदन थुतिकरन,
अर्घावतारन असि-प्रहारनमें सदा समताधरन. ६.
तप तपैं द्वादश, धरैं वृष दश, रतनत्रय सेवै सदा,
मुनि साथमें वा एक विचरै, चहै नहिं भवसुख कदा;
यों है सकलसंयम-चरित, सुनिये स्वरूपाचरन अब,
जिस होत प्रगटै आपनी निधि, मिटै परकी प्रवृत्ति सब. ७.
जिन परम पैनी सुबुधि छैनी, डारि अंतर भेदिया,
वरणादि अरु रागादितैं निज भावको न्यारा किया;
निजमाहिं निजके हेतु निजकर, आपको आपै गह्यो;
गुण-गुणी ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय, मंझार कछु भेद न रह्यो. ८.
जहँ ध्यान-ध्याता-ध्येयकौ न विकल्प, वच-भेद न जहाँ,
चिद्भाव कर्म, चिदेश करता, चेतना किरिया तहाँ;
तीनों अभिन्न अखिन्न शुध उपयोगकी निश्चल दशा,
प्रगटी जहाँ द्रग-ज्ञान-व्रत ये, तीनधा एकै लसा. ९.