Shastra Swadhyay-Gujarati (Devanagari transliteration). UpAdAn nimitt sanvAd; UpAdAn nimitt dohA (banArasidas); ChhadhAlA; Paheli dhAl; Biji dhAl; Triji dhAl; Chothi dhAl; Panchami dhAl.

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बंध-मोक्षना पक्षथी निश्चय तुं बंधाय;
सहज स्वरूपे जो रमे, तो शिवसुखरूप थाय. ८७.
सम्यग्द्रष्टि जीवने दुर्गति गमन न थाय;
कदी जाय तो दोष नहि, पूर्व कर्म क्षय थाय. ८८.
आत्म स्वरूपे जे रमे, तजी सकळ व्यवहार;
सम्यग्द्रष्टि जीव ते, शीघ्र करे भवपार. ८९.
जे सम्यक्त्व प्रधान बुध, ते ज त्रिलोक प्रधान;
पामे केवळज्ञान झट, शाश्वत सौख्यनिधान. ९०.
अजर अमर बहु गुणनिधि, निजरूपे स्थिर थाय;
कर्मबंध ते नव करे, पूर्वबद्ध क्षय थाय. ९१.
पंकज ज्यम पाणी थकी, कदापि नहि लेपाय;
लिप्त न थाये कर्मथी, जे लीन आत्मस्वभाव. ९२.
शम सुखमां लीन जे करे फरी फरी निज अभ्यास;
कर्मक्षय निश्चय करी, शीघ्र लहे शिववास. ९३.
पुरुषाकार पवित्र अति, देखो आतमराम;
निर्मळ तेजोमय अने अनंत गुणगणधाम. ९४.
जे जाणे शुद्धात्मने, अशुचि देहथी भिन्न;
ते ज्ञाता सौ शास्त्रनो, शाश्वत सुखमां लीन. ९५.
निज पररूपथी अज्ञ जन, जे न तजे परभाव;
जाणे कदी सौ शास्त्र पण, थाय न शिवपुर राव. ९६.
तजी कल्पनाजाळ सौ, परम समाधिलीन;
वेदे जे आनंदने, शिवसुख कहेता जिन. ९७.

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जे पिंडस्थ, पदस्थ ने रूपस्थ, रूपातीत;
जाणी ध्यान जिनोक्त ए, शीघ्र बनो सुपवित्र. ९८.
सर्व जीव छे ज्ञानमय, एवो जे समभाव;
ते सामायिक जाणवुं, भाखे जिनवरराव. ९९.
राग-द्वेष बे त्यागीने, धारे समताभाव;
ते सामायिक जाणवुं, भाखे जिनवरराव. १००.
हिंसादिकना त्यागथी, आत्मस्थितिकर जेह;
ते बीजुं चारित्र छे, पंचम गतिकर तेह. १०१.
मिथ्यात्वादिक परिहरण, सम्यग्दर्शन शुद्धि;
ते परिहारविशुद्धि छे, शीघ्र लहो शिवसिद्धि. १०२.
सूक्ष्म लोभना नाशथी, जे सूक्ष्म परिणाम;
जाणो सूक्ष्म-चरित्र ते, जे शाश्वत सुखधाम. १०३.
आत्मा ते अर्हंत छे, सिद्ध निश्चये ए ज;
आचारज, उवझाय ने साधु निश्चय ते ज. १०४.
ते शिव शंकर विष्णु ने, रुद्र बुद्ध पण ते ज;
ब्रह्मा इश्वर जिन ते, सिद्ध अनंत पण ते ज. १०५.
एवा लक्षणयुक्त जे, परम विदेही देव;
देहवासी आ जीवमां ने तेमां नथी फेर. १०६.
जे सिद्ध्या ने सिद्धशे, सिद्ध थता भगवान;
ते आतमदर्शन थकी, एम जाण निर्भ्रान्त. १०७.
संसारे भयभीत जे, योगीन्दु मुनिराज;
एकचित्त दोहा रचे, निजसंबोधन काज. १०८.

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भैया भगवतीदासजी कृत
उपादान-निमित्त संवाद
(दोहा)
पाद प्रणमि जिनदेवके, एक उक्ति उपजाय;
उपादान अरु निमित्तको, कहुं संवाद बनाय. १.
पूछत है कोऊ तहां, उपादान किह नाम;
कहो निमित्त कहिये कहा, कबके हैं इह ठाम. २.
उपादान निजशक्ति है, जियको मूल स्वभाव;
है निमित्त परयोगतें, बन्यो अनादि बनाव. ३.
निमित्त कहै मोकों सबै, जानत हैं जगलोय;
तेरो नाँव न जानहीं, उपादान को होय. ४.
उपादान कहै रे निमित्त, तू कहा करे गुमान;
मोकों जानें जीव वे, जो हैं सम्यक्वान. ५.
कहैं जीव सब जगतके, जो निमित्त सोई होय;
उपादानकी बातको, पूछे नांहि कोय. ६.
उपादान बिन निमित्त तू, कर न सकै इक काज;
कहा भयौ जग ना लखै, जानत हैं जिनराज. ७.
देव जिनेश्वर, गुरु यती, अरु जिन-आगम सार;
इहि निमित्ततें जीव सब, पावत हैं भवपार. ८.

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यह निमित्त इह जीवको, मिल्यो अनंती बार;
उपादान पलट्यो नहीं, तौ भटक्यो संसार. ९.
कै केवलि कै साधुके, निकट भव्य जो होय;
सो क्षायक सम्यक् लहै, यह निमित्तबल जोय. १०.
केवलि अरु मुनिराजके, पास रहैं बहु लोय;
पै जाको सुलट्यो धनी, क्षायक ताको होय. ११.
हिंसादिक पापन किये, जीव नर्कमें जाहिं;
जो निमित्त नहिं कामको, तो इम काहे कहाहिं. १२.
हिंसामें उपयोग जिहं, रहै ब्रह्मके राच;
तेई नर्कमें जात हैं, मुनि नहिं जाहिं कदाच. १३.
दया दान पूजा किये, जीव सुखी जग होय;
जो निमित्त झूठो कहो, यह क्यों मानै लोय. १४.
दया दान पूजा भली, जगत मांहिं सुखकार;
जहँ अनुभवको आचरन, तहँ यह बंध विचार. १५.
यह तो बात प्रसिद्ध है, सोच देख उरमाहिं;
नरदेहीके निमित्त बिन, जिय क्यों मुक्ति न जाहिं. १६.
देह पींजरा जीवको, रोकै शिवपुर जात;
उपादानकी शक्तिसों, मुक्ति होत रे भ्रात! १७.
उपादान सब जीवपै, रोकनहारो कौन;
जाते क्यों नहिं मुक्तिमें, बिन निमित्तके हौन. १८.
उपादान सु अनादिको, उलट रह्यो जगमाहिं;
सुलटत ही सूधे चले, सिद्धलोकको जाहिं. १९.

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कहुं अनादि बिन निमित्त ही, उलट रह्यो उपयोग;
ऐसी बात न संभवै, उपादान तुम जोग. २०.
उपादान कहे रे निमित्त, हमपै कही न जाय;
ऐसे ही जिन केवली, देखै त्रिभुवनराय. २१.
जो देख्यो भगवानने, सो ही सांचो आहि;
हम तुम संग अनादिके, बली कहोगे काहि. २२.
उपादान कहे वह बली, जाको नाश न होय;
जो उपजत विनशत रहै, बली कहांतें सोय. २३.
उपादान तुम जोर हो, तो क्यों लेत अहार?
परनिमित्तके योगसों, जीवत सब संसार. २४.
जो अहारके जोगसों, जीवत हैं जगमाहिं;
तो वासी संसारके, मरते कोऊ नाहिं. २५.
सूर सोम मणि अग्निके, निमित लखैं ये नैन;
अंधकारमें कित गयो, उपादान द्रग दैन. २६.
सूर सोम मणि अग्नि जो, करैं अनेक प्रकाश;
नैनशक्ति बिन ना लखै, अंधकार सम भास. २७.
कहै निमित्त वे जीव को मो बिन जगके माहिं?
सबै हमारे वश परे, हम बिन मुक्ति न जाहिं. २८.
उपादान कहै रे निमित्त! ऐसे बोल न बोल;
तोको तज निज भजत हैं, तेही करैं किलोल. २९.
कहै निमित्त हमको तजे, ते कैसें शिव जात?
पंचमहाव्रत प्रगट हैं, और हु क्रिया विख्यात. ३०.

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पंचमहाव्रत जोगत्रय, और सकल व्यवहार;
परको निमित्त खपायके, तब पहुंचें भवपार. ३१.
कहै निमित्त जग मैं बडो, मोतैं बडो न कोय;
तीन लोकके नाथ सब, मो प्रसादतैं होय. ३२.
उपादान कहै तू कहा, चहुंगतिमें ले जाय;
तो प्रसादतैं जीव सब, दुःखी होहिं रे भाय. ३३.
कहै निमित्त जो दुःख सहै, सो तुम हमहि लगाय;
सुखी कौनतैं होत है, ताको देहु बताय. ३४.
जा सुखको तू सुख कहै, सो सुख तो सुख नाहिं;
ये सुख, दुखके मूल हैं, सुख अविनाशी माहिं. ३५.
अविनाशी घट घट बसै, सुख क्यों विलसत नाहिं?
शुभनिमित्तके योग बिन, परे परे विललाहिं. ३६.
शुभनिमित्त इह जीवको, मिल्यो कई भवसार;
पै इक सम्यक् दर्श बिन, भटकत फिर्यो गंवार. ३७.
सम्यक् दर्श भये कहा त्वरित मुक्तिमें जाहिं;
आगे ध्यान निमित्त है, ते शिवको पहुंचाहिं. ३८.
छोर ध्यानकी धारना, मोर योगकी रीति;
तोर कर्मके जालको, जोर लई शिवप्रीति. ३९.
तब निमित्त हार्यो तहां, अब नहिं जोर बसाय;
उपादान शिवलोकमें, पहुंच्यो कर्म खपाय. ४०.
उपादान जीत्यो तहां, निज बल कर परकास;
सुख अनंत ध्रुव भोगवै, अंत न बरन्यो तास. ४१.

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उपादान अरु निमित्त ये, सब जीवनपै वीर;
जो निजशक्ति संभारहीं, सो पहुंचें भवतीर. ४२.
भैया महिमा ब्रह्मकी, कैसे बरनी जाय;
वचन-अगोचर वस्तु है, कहिवो वचन बनाय. ४३.
उपादान अरु निमित्तको, सरस बन्यो संवाद;
समद्रष्टिको सुगम है, मूरखको बकवाद. ४४.
जो जानै गुण ब्रह्मके, सो जानै यह भेद;
साख जिनागमसों मिले, तो मत कीज्यो खेद. ४५.
नगर आगरो अग्र है, जैनी जनको वास;
तिहं थानक रचना करी, ‘भैया’ स्वमतिप्रकास. ४६.
संवत विक्रम भूपको, सत्रहसै पंचास;
फाल्गुन पहिले पक्षमें, दशों दिशा परकाश. ४७.

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विद्वद्वर्य पंडित बनारसीदासजी कृत
उपादान-निमित्तना दोहा
गुरु-उपदेश निमित्त बिन, उपादान बलहीन;
ज्यों नर दूजे पांव बिन, चलवेको आधीन. १.
हौं जानै था एक ही, उपादानसों काज;
थकै सहाई पौन बिन, पानी मांहि जहाज. २.
ज्ञान नैन किरिया चरण, दोऊ शिवमग धार;
उपादान निहचै जहाँ, तहाँ निमित्त व्यवहार. ३.
उपादान निज गुण जहां, तहं निमित्त पर होय;
भेदज्ञान परमाण विधि, विरला बूझै कोय. ४.
उपादान बल जहँ तहाँ, नहिं निमित्तको दाव;
एक चक्रसों रथ चले, रविको यहै स्वभाव. ५.
सधै वस्तु असहाय जहँ, तहाँ निमित्त है कौन;
ज्यों जहाज परवाहमें, तिरै सहज बिन पौन. ६.
उपादानविधि निरवचन, है निमित्त-उपदेश;
बसै जु जैसे देशमें, धरै सु तैसे भेष. ७.

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श्री
छहढाळा
मंगलाचरण
(सोरठा छंद)
तीन भुवनमें सार, वीतराग-विज्ञानता;
शिवस्वरूप शिवकार, नमहुं त्रियोग सम्हारिकैं.
पहेली ढाळ
संसारके दुःखोंका वर्णन
(चौपाइ छन्द)
जे त्रिभुवनमें जीव अनन्त,
सुख चाहैं दुखतैं भयवन्त;
तातैं दुखहारी सुखकार,
कहैं सीख गुरु करुणा धार. १.
ताहि सुनो भवि मन थिर आन,
जो चाहो अपनो कल्यान;
मोह-महामद पियो अनादि,
भूल आपको भरमत वादि. २.

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तास भ्रमनकी है बहु कथा,
पै कछु कहूं कही मुनि यथा;
काल अनन्त निगोद मंझार,
बीत्यो एकेन्द्री तन धार. ३.
एक श्वासमें अठदस बार,
जन्म्यो मर्यो, भर्यो दुखभार;
निकसि भूमि जल पावक भयो,
पवन प्रत्येक वनस्पति थयो. ४.
दुर्लभ लहि ज्यों चिन्तामणी,
त्यों पर्याय लही त्रसतणी;
लट पिपील अलि आदि शरीर,
धर धर मर्यो सही बहु पीर. ५.
कबहूं पंचेन्द्रिय पशु भयो,
मन बिन निपट अज्ञानी थयो;
सिंहादिक सैनी ह्वै क्रूर,
निबल पशु हति खाये भूर. ६.
कबहूं आप भयो बलहीन,
सबलनि करि खायो अतिदीन;
छेदन भेदन भूख पियास,
भार-वहन हिम आतप त्रास. ७.
वध बंधन आदिक दुख घने,
कोटि जीभतैं जात न भने;
अति संक्लेश भावतैं मर्यो,
घोर श्वभ्रसागरमें पर्यो. ८.

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तहां भूमि परसत दुख इसो,
बीच्छू सहस डसे नहिं तिसो;
तहां राध-श्रोणितवाहिनी,
कृमिकुलकलित देहदाहिनी. ९.
सेमर तरु दलजुत असिपत्र,
असि ज्यों देह विदारैं तत्र;
मेरु समान लोह गलि जाय,
ऐसी शीत उष्णता थाय. १०.
तिल तिल करैं देहके खंड,
असुर भिडावैं दुष्ट प्रचण्ड;
सिन्धुनीरतैं प्यास न जाय,
तोपण एक न बूंद लहाय. ११.
तीन लोक को नाज जु खाय,
मिटै न भूख कणा न लहाय,
ये दुख बहु सागर लौं सहै,
करम जोगतैं नरगति लहै. १२.
जननी-उदर वस्यो नव मास,
अंग सकुचतैं पायो त्रास;
निकसत जे दुख पाये घोर,
तिनको कहत न आवे ओर. १३.
बालपनेमें ज्ञान न लह्यो,
तरुण समय तरुणी-रत रह्यो;
अर्द्धमृतकसम बूढापनो,
कैसे रूप लखै आपनो. १४.

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कभी अकामनिर्जरा करै,
भवनत्रिकमें सुर तन धरै;
विषय-चाह-दावानल दह्यो,
मरत विलाप करत दुख सह्यो. १५.
जो विमानवासी हू थाय,
सम्यग्दर्शन बिन दुख पाय;
तँहतें चय थावर तन धरैं,
यों परिवर्तन पूरे करैं. १६.
बीजी ढाळ
संसार(चर्तुगति)में भ्रमणके कारण
(पद्धरी छंद)
ऐसे मिथ्या द्रग-ज्ञान-चर्ण,
-वश भ्रमत भरत दुख जन्म-मर्ण;
तातैं इनको तजिये सुजान
सुन तिन संक्षेप कहूं बखान. १.
जीवादि प्रयोजनभूत तत्त्व,
सरधैं तिनमांहि विपर्ययत्व;
चेतनको है उपयोग रूप,
बिनमूरत चिन्मूरत अनूप. २.
पुद्गल नभ धर्म अधर्म काल,
इनतैं न्यारी है जीव चाल;
ताकों न जान विपरीत मान,
करि करै देहमें निज पिछान. ३.

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मैं सुखी दुखी, मैं रंक राव,
मेरे धन गृह गोधन प्रभाव;
मेरे सुत तिय, मैं सबल दीन,
बेरूप सुभग मूरख प्रवीन. ४.
तन उपजत अपनी उपज जान,
तन नशत आपको नाश मान;
रागादि प्रगट ये दुःख दैन,
तिनहीको सेवत गिनत चैन. ५.
शुभ-अशुभ बंधके फल मंझार,
रति-अरति करै निजपद विसार;
आतमहितहेतु विराग-ज्ञान,
ते लखैं आपकूं कष्टदान. ६.
रोके न चाह निजशक्ति खोय,
शिवरूप निराकुलता न जोय;
याही प्रतीतिजुत कछुक ज्ञान,
सो दुःखदायक अज्ञान जान. ७.
इन जुत विषयनिमें जो प्रवृत्त,
ताको जानो मिथ्याचरित्त;
यों मिथ्यात्वादि निसर्ग जेह,
अब जे गृहीत सुनिये सु तेह. ८.
जो कुगुरु कुदेव कुधर्म सेव,
पोषै चिर दर्शनमोह एव;
अंतर रागादिक धरैं जेह,
बाहर धन-अंबरतैं सनेह. ९.

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धारैं कुलिंग लहि महतभाव,
ते कुगुरु जन्मजल उपलनाव;
जो रागद्वेष मलकरि मलीन,
वनिता गदादिजुत चिह्न चीन. १०.
ते हैं कुदेव तिनकी जु सेव,
शठ करत न तिन भवभ्रमण छे व;
रागादि भावहिंसा समेत,
दर्वित त्रस थावर मरण खेत. ११.
जे क्रिया तिन्हैं जानहु कुधर्म,
तिन सरधै जीव लहै अशर्म;
याकूं गृहीत मिथ्यात्व जान,
अब सुन गृहीत जो है अज्ञान. १२.
एकान्तवाद-दूषित समस्त,
विषयादिकपोषक अप्रशस्त;
कपिलादि-रचित श्रुतको अभ्यास,
सो है कुबोध बहु देन त्रास. १३.
जो ख्याति लाभ पूजादि चाह,
धरि करन विविध विध देहदाह;
आतम-अनात्मके ज्ञानहीन,
जे जे करनी तन करन छीन. १४.
ते सब मिथ्याचारित्र त्याग,
अब आतम के हितपंथ लाग;
जगजाल-भ्रमणको देहु त्याग,
अब दौलत ! निज आतम सुपाग. १५.

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त्रीजी ढाळ
सच्चा सुख दो प्रकारका, मोक्षमार्ग कथन,
सम्यक्दर्शनकी महिमा
(नरेन्द्र छन्दः जोगीरासा)
आतमको हित है सुख, सो सुख आकुलता बिन कहिये,
आकुलता शिवमांहि न तातैं, शिवमग लाग्यो चहिये;
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरण शिव-मग, सो द्विविध विचारो,
जो सत्यारथरूप सो निश्चय, कारण सो व्यवहारो. १.
परद्रव्यनतैं भिन्न आपमें रुचि, सम्यक्त्व भला है,
आपरूपको जानपनों सो, सम्यग्ज्ञान कला है;
आपरूपमें लीन रहे थिर, सम्यक्चारित सोई,
अब व्यवहार मोखमग सुनिये, हेतु नियतको होई. २.
जीव अजीव तत्त्व अरु आस्रव, बंध रु संवर जानो,
निर्जर मोक्ष कहे जिन तिनको, ज्यों का त्यों सरधानो;
है सोई समकित व्यवहारी, अब इन रूप बखानो,
तिनको सुन सामान्यविशेषैं, दिढ प्रतीत उर आनो. ३.
बहिरातम, अंतर-आतम, परमातम जीव त्रिधा है,
देह-जीवको एक गिने बहिरातम तत्त्वमुधा है;
उत्तम मध्यम जघन त्रिविधके अन्तर-आतम ज्ञानी,
द्विविध संग बिन शुध-उपयोगी मुनि उत्तम निजध्यानी. ४.
मध्यम अन्तर-आतम हैं जे, देशव्रती, अनगारी,
जघन कहे अविरत समद्रष्टि, तीनों शिवमगचारी;
सकल निकल परमातम द्वैविध, तिनमें घातिनिवारी,
श्री अरिहन्त सकल परमातम, लोकालोक निहारी. ५.

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ज्ञानशरीरी त्रिविध कर्ममल, वर्जित सिद्ध महंता,
ते हैं निकल अमल परमातम, भोगैं शर्म अनंता;
बहिरातमता हेय जानि तजि, अन्तर-आतम हूजै,
परमातमको ध्याय निरंतर, जो नित आनंद पूजै. ६.
चेतनता बिन सो अजीव है, पंच भेद ताके हैं,
पुद्गल पंच वरन-रस, गंध दो, फरस वसु जाके हैं;
जिय-पुद्गलको चलन-सहाई, धर्मद्रव्य अनुरूपी,
तिष्ठत होय अधर्म सहाई, जिन बिन-मूर्ति निरूपी. ७.
सकल द्रव्यको वास जासमें, सो आकाश पिछानो,
नियत वर्तना निशि-दिन सो, व्यवहारकाल परिमानो;
यों अजीव, अब आस्रव सुनिये, मन-वच-काय त्रियोगा,
मिथ्या अविरत अरु कषाय, परमाद सहित उपयोगा. ८.
ये ही आतमको दुख कारण, तातैं इनको तजिये,
जीव प्रदेश बंधै विधिसों सो, बंधन कबहुं न सजिये;
शम-दमतैं जो कर्म न आवै; सो संवर आदरिये,
तप-बलतैं विधि-झरन निरजरा, ताहि सदा आचरिये. ९.
सकल कर्मतैं रहित अवस्था, सो शिव, थिर सुखकारी,
इहिविध जो सरधा तत्त्वनकी, सो समकित व्यवहारी;
देव जिनेन्द्र, गुरु परिग्रह बिन, धर्म दयाजुत सारो,
येहु मान समकितको कारण, अष्ट-अंग-जुत धारो. १०.
वसु मद टारि, निवारि त्रिशठता, षट् अनायतन त्यागो,
शंकादिक वसु दोष विना, संवेगादिक चित पागो;
अष्ट अंग अरु दोष पचीसों, तिन संक्षेपै कहिये,
बिन जानेतैं दोषगुनन को, कैसे तजिये गहिये. ११.

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जिनवचमें शंका न धार वृषभवसुख-वांछा भानै,
मुनि-तन मलिन न देख घिनावै, तत्त्व - कुतत्त्व पिछानै;
निज गुण अरु पर औगुण ढांके, वा निजधर्म बढावै,
कामादिक कर वृषतैं चिगते, निज-परको सु दिढावै. १२.
धर्मीसों गौ-वच्छ-प्रीति सम, कर, जिनधर्म दिपावै,
इन गुणतैं विपरीत दोष वसु, तिनकों सतत खिपावै;
पिता भूप वा मातुल नृप जो, होय न तो मद ठानै,
मद न रूपकौ, मद न ज्ञानकौ, धन-बलकौ मद भानै. १३.
तपकौ मद न, मद जु प्रभुताकौ करै न, सो निज जानै,
मद धारै तो यही दोष वसु, समकितकौ मल ठानै;
कुगुरु-कुदेव-कुवृषसेवककी, नहिं प्रशंस उचरै है,
जिनमुनि जिनश्रुत विन कुगुरादिक, तिन्हैं न नमन करे हैं. 14.
दोषरहित गुणसहित सुधी जे, सम्यग्दरश सजै हैं,
चरितमोहवश लेश न संजम, पै सुरनाथ जजै हैं;
गेही पै गृहमें न रचैं, ज्यों जलतैं भिन्न कमल है,
नगरनारिको प्यार यथा, कादेमें हेम अमल है. १५.
प्रथम नरक विन षट् भू ज्योतिष वान भवन षंढ नारी,
थावर विकलत्रय पशुमें नहि, उपजत सम्यक्धारी;
तीनलोक तिहुंकाल माहिं नहिं, दर्शनसो सुखकारी,
सकल धरमको मूल यही, इस बिन करनी दुखकारी. १६.
मोक्षमहलकी परथम सीढी, या विन ज्ञान-चरित्रा,
सम्यक्ता न लहै, सो दर्शन धारो भव्य पवित्रा;
‘दौल’ समझ सुन चेत सयाने, काल वृथा मत खोवै,
यह नरभव फिर मिलन कठिन है, जो सम्यक् नहिं होवै. 17.

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चोथी ढाळ
सम्यग्ज्ञान-चारित्रके भेद, श्रावकके व्रत,
धर्मकी दुर्लभता
(दोहा)
सम्यक् श्रद्धा धारि पुनि, सेवहु सम्यग्ज्ञान;
स्व-पर अर्थ बहुधर्मजुत, जो प्रगटावन भान. १.
(रोला छंद)
सम्यक् साथै ज्ञान होय, पै भिन्न अराधौ,
लक्षण श्रद्धा जान, दुहूमें भेद अबाधौ;
सम्यक् कारण जान, ज्ञान कारज है सोई,
युगपत् होते हू, प्रकाश दीपकतैं होई. २.
तास भेद दो हैं, परोक्ष परतछ तिन माहीं,
मति श्रुत दोय परोक्ष, अक्ष-मनतैं उपजाहीं;
अवधिज्ञान मनपर्जय दो हैं देश-प्रतच्छा,
द्रव्य-क्षेत्र-परिमाण लिये जानै जिय स्वच्छा. ३.
सकल द्रव्यके गुन अनंत, परजाय अनंता,
जानै एकै काल, प्रगट केवलि भगवन्ता;
ज्ञान समान न आन जगतमें सुखको कारन,
इहि परमामृत जन्मजरामृतिरोग-निवारन. ४.
कोटि जन्म तप तपैं, ज्ञान विन कर्म झरैं जे,
ज्ञानीके छिनमें, त्रिगुप्तितैं सहज टरैं ते;
मुनिव्रत धार अनंत बार ग्रीवक उपजायौ,
पै निज आतमज्ञान विना, सुख लेश न पायौ. ५.

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तातैं जिनवर-कथित तत्त्व अभ्यास करीजे,
संशय-विभ्रम-मोह त्याग, आपो लख लीजे;
यह मानुषपर्याय सुकुल, सुनिवौ जिनवानी,
इहविधि गये न मिले, सुमणि ज्यों उदधि समानी. ६.
धन समाज गज बाज, राज तो काज न आवै,
ज्ञान आपको रूप भये, फिर अचल रहावै;
तास ज्ञानको कारन, स्व-पर विवेक बखानौ,
कोटि उपाय बनाय भव्य, ताको उर आनौ. ७.
जे पूरव शिव गये, जाहिं, अरु आगे जैहैं,
सो सब महिमा ज्ञान-तनी, मुनिनाथ कहैं हैं;
विषय-चाह दव-दाह, जगत-जन-अरनि दझावै,
तास उपाय न आन, ज्ञान-घनघान बुझावै. ८.
पुण्यपाप फलमाहिं, हरख-विलखौ मत भाई,
यह पुद्गल-परजाय, उपजि विनसै फिर थाई;
लाख बातकी बात यही, निश्चय उर लाओ,
तोरि सकल जगदंद-फंद, नित आतम ध्याओ. ९.
सम्यग्ज्ञानी होय, बहुरि दिढ चारित लीजै,
एकदेश अरु सकलदेश, तसु भेद कहीजै;
त्रसहिंसाको त्याग, वृथा थावर न सँहारै,
पर-वधकार कठोर निंद्य नहिं वयन उचारै. १०.
जल-मृतिका विन और नाहिं कछु गहै अदत्ता,
निज वनिता विन सकल नारिसों रहै विरत्ता;
अपनी शक्ति विचार, परिग्रह थोरो राखै,
दश दिश गमन प्रमाण ठान, तसु सीम न नाखै. ११.

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ताहूमें फिर ग्राम गली गृह बाग बजारा,
गमनागमन प्रमाण ठान, अन सकल निवारा;
काहूकी धनहानि, किसी जयहार न चिन्तै,
देय न सो उपदेश, होय अघ वनज-कृषीतैं. १२.
कर प्रमाद जल भूमि वृक्ष पावक न विराधै,
असि धनु हल हिंसोपकरण नहिं दे यश लाधै,
रागद्वेष-करतार, कथा कबहूं न सुनीजै,
और हु अनरथदंड, हेतु अघ तिन्हैं न कीजै. १३.
धर उर समताभाव, सदा सामायिक करिये,
परव चतुष्टयमाहिं, पाप तज प्रोषध धरिये;
भोग और उपभोग, नियमकरि ममत निवारै,
मुनिको भोजन देय फेर निज करहि अहारै. १४.
बारह व्रत के अतीचार, पन पन न लगावै,
मरण-समै संन्यास धारि, तसु दोष नशावै;
यों श्रावकव्रत पाल, स्वर्ग सोलम उपजावै;
तहँतै चय नरजन्म पाय, मुनि ह्वै शिव जावै. १५.
पांचमी ढाळ
बारह भावना
(चाल छन्द)
मुनि सकलव्रती बडभागी, भव-भोगनतैं वैरागी;
वैराग्य उपावन माई, चिंतै अनुप्रेक्षा भाई. १.