Shastra Swadhyay-Gujarati (Devanagari transliteration). Ishtopdesh; YogsAr.

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रागादिक-कल्लोलथी मन-जळ लोल न थाय,
ते देखे चिद्तत्त्वने, अन्य जने न जणाय. ३५.
अविक्षिप्त मन तत्त्व निज, भ्रम छे मन विक्षिप्त;
अविक्षिप्त मनने धरो, धरो न मन विक्षिप्त. ३६.
अज्ञानज संस्कारथी मन विक्षेपित थाय;
ज्ञानज संस्कारे स्वतः तत्त्व विषे स्थिर थाय. ३७.
अपमानादिक तेहने, जस मनने विक्षेप;
अपमानादि न तेहने, जस मन नहि विक्षेप. ३८.
योगीजनने मोहथी रागद्वेष जो थाय;
स्वस्थ निजात्मा भाववो, क्षणभरमां शमी जाय. ३९.
तनमां मुनिने प्रेम जो, त्यांथी करी वियुक्त,
श्रेष्ठ तने जीव जोडवो, थशे प्रेमथी मुक्त. ४०.
आत्मभ्रमोद्भव दुःख तो आत्मज्ञानथी जाय;
तत्र यत्न विण, घोर तप तपतां पण न मुकाय. ४१.
देहातमधी अभिलषे दिव्य विषय, शुभ काय;
तत्त्वज्ञानी ते सर्वथी इच्छे मुक्ति सदाय. ४२.
परमां निजमति नियमथी स्वच्युत थई बंधाय;
निजमां निजमति ज्ञानीजन परच्युत थई मुकाय. ४३.
निज आत्मा त्रण लिंगमय माने जीव विमूढ;
स्वात्मा वचनातीत ने स्वसिद्ध माने बुध. ४४.
१. लोल = चंचळ.२. विक्षिप्त =आकुलित.
३. अज्ञानज = अज्ञानथी उत्पन्न थयेला.
४. आत्मभ्रमोद्भव = आत्माना भ्रमथी उत्पन्न.
५. अभिलषे = इच्छे.
६. च्युत = भ्रष्ट.

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यद्यपि आत्म जणाय ने भिन्नपणे वेदाय,
पूर्वभ्रान्ति-संस्कारथी पुनरपि विभ्रम थाय. ४५.
द्रश्यमान आ जड बधां, चेतन छे नहि द्रष्ट;
रोष करुं क्यां? तोष क्यां? धरुं भाव मध्यस्थ. ४६.
मूढ बर्हि त्यागे-ग्रहे, ज्ञानी अंतरमांय;
निष्ठितात्मने ग्रहण के त्याग न अंतर्बाह्य. ४७.
जोडे मन सह आत्मने, वच-तनथी करी मुक्त,
वच-तनकृत व्यवहारने छोडे मनथी सुज्ञ. ४८.
देहातमधी जगतमां करे रति विश्वास;
निजमां आतमद्रष्टिने क्यम रति? क्यम विश्वास? ४९.
आत्मज्ञान वण कार्य कंई मनमां चिर नहि होय;
कारणवश कंई पण करे त्यां बुध तत्पर नो’य. ५०.
इन्द्रिद्रश्य ते मुज नहीं, इन्द्रिय करी निरुद्ध,
अंतर जोतां सौख्यमय श्रेष्ठ ज्योति मुज रूप. ५१.
प्रारंभे सुख बाह्यमां, दुख भासे निजमांय;
भावितात्मने दुख बर्हि, सुख निजआतममांय. ५२.
तत्पर थई ते इच्छवुं, कथन-पृच्छना ए ज;
जेथी अविद्या नष्ट थई, प्रगटे विद्यातेज. ५३.
वच-काये जीव मानतो, वच-तनमां जे भ्रान्त;
तत्त्व पृथक् छे तेमनुंजाणे जीव निर्भ्रान्त. ५४.
१. निष्ठितात्मने = शुद्ध स्वरूपमां स्थित आत्माने.
२. बुध = ज्ञानी. ३. भावितात्मने = आत्मस्वरूपने यथार्थपणे जाणनारने.
४. पृथक् = भिन्न; जुदुं.

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इन्द्रियविषये जीवने कांई न क्षेमस्वरूप;
छतां अविद्याभावथी रमण करे त्यां मूढ. ५५.
मूढ कुयोनिमहीं सूता तमोग्रस्त चिरकाळ;
जागी तन-भार्यादिमां करे ‘हुं-मुज’ अध्यास. ५६.
आत्मतत्त्वमां स्थित थई नित्य देखवुं एम,
मुज तन ते मुज आत्म नहि, पर तननुं पण तेम. ५७.
मूढात्मा जाणे नहीं वणबोध्ये ज्यम तत्त्व,
बोध्ये पण जाणे नहीं, फोगट बोधन-कष्ट. ५८.
जे इच्छुं छुं बोधवा, ते तो नहि ‘हुं’तत्त्व;
‘हुं’ छे ग्राह्य न अन्यने, शुं बोधुं हुं व्यर्थ? ५९.
अंतर्ज्ञान न जेहने, मूढ बाह्यमां तुष्ट;
कौतुक जस नहि बाह्यमां, बुध अंतःसंतुष्ट. ६०.
तन सुख-दुख जाणे नहीं, तथापि ए तनमांय,
निग्रह ने अनुग्रह तणी बुद्धि अबुधने थाय. ६१.
ज्यां लगी मन-वच-कायने आतमरूप मनाय,
त्यां लगी छे संसार ने भेद थकी शिव थाय. ६२.
स्थूल वस्त्रथी जे रीते स्थूल गणे न शरीर,
पुष्ट देहथी ज्ञानीजन पुष्ट न माने जीव. ६३.
जीर्ण वस्त्रथी जे रीते जीर्ण गणे न शरीर,
जीर्ण देहथी ज्ञानीजन जीर्ण न माने जीव. ६४.
वस्त्रनाशथी जे रीते नष्ट गणे न शरीर,
देहनाशथी ज्ञानीजन नष्ट न माने जीव. ६५.
१. तमोग्रस्त = अज्ञानथी घेरायेला.२. अध्यास = मान्यता.
३. बोधवा = समजाववा.

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रक्त वस्त्रथी जे रीते रक्त गणे न शरीर,
रक्त देहथी ज्ञानीजन रक्त न माने जीव. ६६.
सक्रिय जग जेने दीसे जड अक्रिय अणभोग,
ते ज लहे छे प्रशमने, अन्ये नहि तद्योग. ६७.
तनकंचुकथी जेहनुं संवृत ज्ञानशरीर,
ते जाणे नहि आत्मने, भवमां भमे सुचिर. ६८.
अस्थिर अणुनो व्यूह छे सम-आकार शरीर,
स्थितिभ्रमथी मूरख जनो ते ज गणे छे जीव. ६९.
हुं गोरो कृश स्थूल ना, ए सौ छे तनभाव,
एम गणो, धारो सदा आत्मा ज्ञानस्वभाव. ७०.
जो निश्चळ धृति चित्तमां, मुक्ति नियमथी होय;
चित्ते नहि निश्चळ धृति, मुक्ति नियमथी नो’य. ७१.
जनसंगे वचसंग ने तेथी मननो स्पंद,
तेथी मन बहुविध भमे, योगी तजो जनसंग. ७२.
अनात्मदर्शी गाम वा वनमां करे निवास;
निश्चळ शुद्धात्मामहीं आत्मदर्शीनो वास. ७३.
देहे आतम-भावना देहान्तरगति-बीज;
आत्मामां निज-भावना देहमुक्तिनुं बीज. ७४.
जीव ज पोताने करे जन्म तथा निर्वाण;
तेथी निज गुरु निश्चये जीव ज, अन्य न जाण. ७५.
१. रक्त = लाल.२. कंचुक = कांचळी.३. संवृत =
ढंकायेलुं.
४. व्यूह = समूह.
५. धृति = धीरज; धैर्य; धारणा.
६. स्पन्द = व्यग्रता.७. अनात्मदर्शी = आत्मानो अनुभव जेने थयो

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देखी लय पोतातणो, वळी मित्रादिवियोग,
द्रढ देहातमबुद्धिने मरणभीति बहु होय. ७६.
निजमां निजधी आत्मथी माने तन-गति भिन्न,
अभय रहे, ज्यम वस्त्रने छोडी ग्रहे नवीन. ७७.
सूतो जे व्यवहारमां ते जागे निजमांय;
जागृत जे व्यवहारमां, सुषुप्त आत्मामांय. ७८.
अंदर देखी आत्मने, देहादिकने बाह्य,
भेदज्ञान-अभ्यासथी शिवपद-प्राप्ति थाय. ७९.
स्वात्मदर्शीने प्रथम तो जग उन्मत्त जणाय;
द्रढ अभ्यास पछी जगत् काष्ट-द्रषदवत् थाय. ८०.
बहु सुणे भाखे भले देहभिन्ननी वात;
पण तेने नहि अनुभवे त्यां लगी नहि शिवलाभ. ८१.
निजने तनथी वाळीने, अनुभववो निजमांय;
जेथी ते स्वप्नेय पण तनमां नहि जोडाय. ८२.
पुण्य व्रते, अघ अव्रते, मोक्ष उभयनो नाश;
अव्रत जेम व्रतो तणो करे शिवार्थी त्याग. ८३.
अव्रतने परित्यागीने व्रतमां रहे सुनिष्ठ,
व्रतने पण पछी परिहरे लही परम पद निज. ८४.
अंतर्जल्पे युक्त जे विकल्प केरी जाळ,
ते दुखमूळ, तस नाशथी इष्ट-परम-पद लाभ. ८५.
१ लय = नाश. २. सुषुप्त = सूतेला.३. द्रषद = पथ्थर;
पाषाण.
४. अघ = पाप. ५. उभयनो = बन्नेनो.

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अव्रति-जन व्रतने ग्रहे, व्रती ज्ञानरत थाय;
परम-ज्ञानने पामीने स्वयं ‘परम’ थई जाय. ८६
तनने आश्रित लिंग छे, तन जीवनो संसार;
तेथी लिंगाग्रही तणो छूटे नहि संसार. ८७.
तनने आश्रित जाति छे, तन जीवनो संसार;
तेथी जात्याग्रही तणो छूटे नहि संसार. ८८.
जाति-लिंग-विकल्पथी आगम-आग्रह होय,
तेने पण पद परमनी संप्राप्ति नहि होय. ८९.
जे तजवा, जे पामवा, हठे भोगथी जीव;
त्यां प्रीति, त्यां द्वेषने मोही धरे फरीय. ९०.
अज्ञ पंगुनी द्रष्टिने माने अंधामांय;
अभेदज्ञ जीवद्रष्टिने माने छे तनमांय. ९१.
विज्ञ न माने पंगुनी द्रष्टि अंधामांय;
निजज्ञ त्यम माने नहीं जीवद्रष्टि तनमांय. ९२.
मात्र मत्त निद्रित दशा विभ्रम जाणे अज्ञ;
दोषितनी सर्वे दशा विभ्रम गणे निजज्ञ. ९३.
तनद्रष्टि सर्वागमी जागृत पण न मुकाय;
आत्मद्रष्टि उन्मत्त के निद्रित पण मुकाय. ९४.
जेमां मतिनी मग्नता, तेनी ज थाय प्रतीत;
थाय प्रतीति जेहनी, त्यां ज थाय मन लीन. ९५.
ज्यां नहि मतिनी मग्नता, तेनी न होय प्रतीत;
जेनी न होय प्रतीत त्यां केम थाय मन लीन? ९६.
१. जात्याग्रही = जातिनो आग्रही.२. पंगु = लंगडो.
३. निजज्ञ = आत्माने जाणनार. ४. सर्वागमी = सर्व शास्त्रोनो जाणनार.

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भिन्न परात्मा सेवीने तत्सम परम थवाय;
भिन्न दीपने सेवीने बत्ती दीपक थाय. ९७.
अथवा निजने सेवीने जीव परम थई जाय;
जेम वृक्ष निजने मथी पोते पावक थाय. ९८.
एम निरंतर भाववुं पद आ वचनातीत;
पमाय जे निजथी ज ने पुनरागमन रहित. ९९.
चेतन भूतज होय तो मुक्ति अयत्न ज होय,
नहि तो मुक्ति योगथी, योगीने दुख नो’य. १००.
स्वप्ने द्रष्ट विनष्ट हो पण जीवनो नहि नाश;
जागृतिमां पण तेम छे, भ्रम उभयत्र समान. १०१.
अदुःखभावित ज्ञान तो दुख आव्ये क्षय थाय;
दुःख सहित भावे स्वने यथाशक्ति मुनिराय. १०२.
इच्छादिज निज यत्नथी वायुनो संचार;
तेनाथी तनयंत्र सौ वर्ते निज व्यापार. १०३.
जड निजमां तनयंत्रने आरोपी दुखी थाय;
सुज्ञ तजी आरोपने लहे परमपद-लाभ. १०४.
जाणी समाधितंत्र आज्ञानानंद-उपाय,
जीव तजे ‘हुं’बुद्धिने देहादिक परमांय;
छोडी ए भवजननीने, थई परमातमलीन,
ज्योतिर्मय सुखने लहे, धरे न जन्म नवीन. १०५.
१. बत्ती = दिवेट. २. पावक = अग्नि.
३. भूतज = पृथ्वी, पाणी, तेज अने वायुरूप भूतोमांथी उत्पन्न थयेलुं.
४. उभयत्र = बन्ने बाजुए.

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श्री
इष्टोपदेश
(पद्यानुवाद)
(दोहरा)
सकल कर्मनो क्षय करी, पाम्या स्वयं स्वभाव,
सर्वज्ञानी परमात्मने, नमुं करी बहु भाव. १.
योग्य उपादाने करी पथ्थर सोनुं थाय;
तेम सुद्रव्यादि करी, जीव शुद्ध थई जाय. २.
छाया आतप स्थित जो, जन पामे सुख दुःख;
तेम देवपद व्रत थकी, अव्रते नारक दुःख. ३.
आत्मभावथी मोक्ष ज्यां, त्यां स्वर्ग शुं दूर?
भार वहे जे कोश बे, अर्ध कोश शुं दूर? ४.
इन्द्रियजन्य निरामयी, दीर्घकाल तक भोग्य;
भोगे सुरगण स्वर्गमां सौख्य सुरोने योग्य. ५.
सुख-दुःख संसारीनां, वासनाजन्य तुं मान,
आपदमां दुखकार ते, भोगो रोग समान. ६.
मोहे आवृत ज्ञान जे, पामे नहीं निजरूप;
कोद्रवथी जे मत्त जन, जाणे न वस्तुस्वरूप. ७.
तन, धन, घर, स्त्री, मित्र-अरि, पुत्रादि सहु अन्य,
परभावोमां मूढ जन, माने तेह अनन्य. ८.

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दिशा-देशथी आवीने, पक्षी वृक्ष वसन्त,
प्रात थतां निज कार्यवश, विधविध देश उडन्त. ९.
अपराधी जन कां करे हन्ता जन पर क्रोध?
पगथी त्र्यंगुल पाडतां, दंडे पडे अबोध. १०.
दीर्घ दोर बे खेंचतां भमे दंड बहु वार;
राग-द्वेष अज्ञानथी, जीव भमे संसार. ११.
एक विपदने टाळतां, अन्य विपद बहु आय;
पदिका ज्यम घटियंत्रमां एक जाय बहु आय. १२.
ज्वर-पीडित ज्यम घी वडे, माने निजने चेन;
कष्ट-साध्य धन आदिथी, माने मूढ सुख तेम. १३.
देखे विपत्ति अन्यनी, निजनी देखे नाहि;
बळतां पशुओ वन विषे, देखे तरु पर जाई. १४.
आयु-क्षय धनवृद्धिनुं कारण काळ ज जाण,
प्राणोथी पण लक्ष्मीने, इच्छे धनी अधिकान. १५.
दान-हेतु उद्यम करे, निर्धन धन संचेय;
देहे कादव लेपीने, माने ‘स्नान करेय’. १६.
भोगार्जन दुःखद महा, पाम्ये तृष्णा अमाप,
त्याग-समय अति कष्ट ज्यां, को सेवे धीमान? १७.
शुचि पदार्थ जस संगथी, महा अशुचि थई जाय,
विघ्नरूप तस काय हित, इच्छा व्यर्थ जणाय. १८
जे आत्माने हित करे, ते तनने अपकार;
करे हित जे देहने, ते जीवने अपकार. १९.
छे चिंतामणि दिव्य ज्यां, त्यां छे खोळ असार;
पामे बेउ ध्यानथी, चतुर करे क्यां विचार? २०.

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निज अनुभवथी प्रगट जे, नित्य शरीर-प्रमाण,
लोकालोक विलोकतो, आत्मा अतिसुखवान. २१.
इन्द्रिय-विषयो निग्रही, मन एकाग्र लगाय,
आत्मामां स्थित आत्मने, ज्ञानी निजथी ध्याय. २२.
अज्ञ-भक्ति अज्ञानने, ज्ञान-भक्ति दे ज्ञान;
लोकोक्ति‘जे जे धरे, करे ते तेनुं दान’. २३.
आत्मध्यानना योगथी, परीषहो न वेदाय,
शीघ्र ससंवर निर्जरा, आस्रव-रोधन थाय. २४.
‘चटाईनो करनार हुं’, ए बेनो संयोग;
स्वयं ध्यान ने ध्येय ज्यां, केवो त्यां संयोग? २५.
मोही बांधे कर्मने, निर्मम जीव मुकाय;
तेथी सघळा यत्नथी, निर्मम भाव जगाय. २६.
निर्मम एक विशुद्ध हुं, ज्ञानी योगी-गम्य;
संयोगी भावो बधा, मुजथी बाह्य अरम्य. २७.
देहीने संयोगथी, दुःख-समूहनो भोग;
तेथी मन-वच-कायथी, छोडुं सहु संयोग. २८.
क्यां भीति ज्यां अमर हुं, क्यां पीडा वण रोग?
बाल, युवा, नहि वृद्ध हुं, ए सहु पुद्गल जोग. २९.
मोहे भोगवी पुद्गलो, कर्यो सर्वनो त्याग;
मुज ज्ञानीने क्यां हवे, ए एंठोमां राग? ३०.
कर्म कर्मनुं हित चहे, जीव जीवनो स्वार्थ;
स्व प्रभावनी वृद्धिमां, कोण न चाहे स्वार्थ? ३१.

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द्रश्यमान देहादिनो, मूढ करे उपकार;
त्यागी पर-उपकारने, कर निजनो उपकार. ३२.
गुरु-उपदेश, अभ्यास ने संवेदनथी जेह,
जाणे निज-पर भेदने, वेदे शिव-सुख तेह. ३३.
निज हित अभिलाषी स्वयं, निज हित नेता आत्म,
निज हित प्रेरक छे स्वयं, आत्मानो गुरु आत्म. ३४.
मूर्ख न ज्ञानी थई शके, ज्ञानी मूर्ख न थाय;
निमित्तमात्र सौ अन्य तो, धर्मद्रव्यवत् थाय. ३५.
क्षोभरहित एकान्तमां स्वरूपस्थिर थई खास,
योगी तजी परमादने करे तुं तत्त्वाभ्यास. ३६.
ज्यम ज्यम संवेदन विषे आवे उत्तम तत्त्व,
सुलभ मळे विषयो छतां, जरीये करे न ममत्व. ३७.
जेम जेम विषयो सुलभ, पण नहि रुचिमां आय,
त्यम त्यम आतमतत्त्वमां, अनुभव वधतो जाय. ३८.
इंद्रजाल सम देख जग, आतमहित चित्त लाय,
अन्यत्र चित्त जाय जो, मनमां ते पस्ताय. ३९.
चाहे गुप्त निवासने, निर्जन वनमां जाय,
कार्यवश जो कंई कहे, तुर्त ज भूली जाय. ४०.
देखे पण नहीं देखता, बोले छतां अबोल,
चाले छतां न चालता, तत्त्वस्थित अडोल. ४१.
कोनुं, केवुं, क्यां कहीं,आदि विकल्प विहीन,
जाणे नहि निज देहने, योगी आतम-लीन. ४२.

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जे ज्यां वास करी रहे, त्यां तेनी रुचि थाय,
जे ज्यां रमण करी रहे, त्यांथी बीजे न जाय. ४३.
विशेषोथी अज्ञात रही, निज रूपमां लीन थाय,
सर्व विकल्पातीत ते, छूटे नहि बंधाय. ४४.
पर तो पर छे दुःखरूप, आत्माथी सुख थाय;
महापुरुषो उद्यम करे, आत्मार्थे मन लाय. ४५.
अभिनंदे अज्ञानी जे, पुद्गलने निज जाण,
चौगतिमां निज संगने तजे न पुद्गल, मान. ४६.
विरमी पर व्यवहारथी, जे आतमरस लीन,
पामे योगीश्री अहो! परमानंद नवीन. ४७.
करतो अति आनंदथी, कर्म-काष्ठ प्रक्षीण,
बाह्य दुखोमां जड समो, योगी खेद विहीन. ४८.
ज्ञानमयी ज्योतिर्महा, विभ्रमनाशक जेह,
पूछे, चाहे, अनुभवे, आत्मार्थी जन तेह. ४९
जीव-पुद्गल बे भिन्न छे, ए ज तत्त्वनो सार;
अन्य कांई व्याख्यान जे, ते तेनो विस्तार. ५०.
(वसंततिलका)
इष्टोपदेश मतिमान भणी सुरीते,
मानापमान सुसहे निज साम्यभावे;
छोडी मताग्रह वसे स्वजने वने वा,
मुक्तिवधू निरुपमा ज सुभव्य पामे. ५१.
✽ ✽ ✽

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श्री
योगसार
(पद्यानुवाद)
(दोहरा)
निर्मळ ध्यानारूढ थई, कर्मकलंक खपाय;
थया सिद्ध परमातमा, वंदु ते जिनराय. १.
चार घातिया क्षय करी, लह्यां अनंतचतुष्ट;
ते जिनेश्वर चरणे नमी, कहुं काव्य सुइष्ट. २.
इच्छे छे निज मुक्तता, भवभयथी डरी चित्त;
ते भवी जीव संबोधवा, दोहा रच्या एक चित्त. ३.
जीव, काळ, संसार आ, कह्या अनादि अनंत;
मिथ्यामति मोहे दुखी, कदी न सुख लहंत. ४.
चार गति दुःखथी डरे, तो तज सौ परभाव;
शुद्धातम चिंतन करी, ले शिवसुखनो लाभ. ५.
त्रिविध आत्मा जाणीने, तज बहिरातम रूप;
थई तुं अंतर आतमा, ध्या परमात्म स्वरूप. ६.
मिथ्यामतिथी मोही जन, जाणे नहि परमात्मा;
ते बहिरातम जिन कहे, ते भमतो संसार. ७.
परमात्माने जाणीने, त्याग करे परभाव;
ते आत्मा पंडित खरो, प्रगट लहे भवपार. ८.

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निर्मळ, निष्कल, जिनेन्द्र, शिव, सिद्ध, विष्णु, बुद्ध, शांत;
ते परमात्मा जिन कहे, जाणो थई निर्भ्रान्त. ९.
देहादिक जे पर कह्यां, ते माने निजरूप;
ते बहिरातम जिन कहे, भमतो बहु भवकूप. १०.
देहादिक जे पर कह्यां, ते निजरूप न थाय;
एम जाणीने जीव तुं, निजरूपने निज जाण. ११.
निजने जाणे निजरूप, तो पोते शिव थाय;
पररूप माने आत्माने, तो भवभ्रमण न जाय. १२.
विण इच्छा शुचि तप करे, जाणे निजरूप आप;
सत्वर पामे परमपद, तपे न फरी भवताप. १३.
बंध मोक्ष परिणामथी, कर जिनवचन प्रमाण;
नियम खरो ए जाणीने, यथार्थ भावे जाण. १४.
निजरूप जो नथी जाणतो, करे पुण्य बस पुण्य;
भमे तो य संसारमां, शिवसुख कदी न थाय. १५.
निज दर्शन बस श्रेष्ठ छे, अन्य न किंचित् मान;
हे योगी! शिव हेतु ए, निश्चयथी तुं जाण. १६.
गुणस्थानक ने मार्गणा, कहे द्रष्टि व्यवहार;
निश्चय आत्मज्ञान ते, परमेष्ठी पदकार. १७.
गृहकाम करतां छतां, हेयाहेयनुं ज्ञान;
ध्यावे सदा जिनेशपद, शीघ्र लहे निर्वाण. १८.
जिन समरो, जिन चिंतवो, जिन ध्यावो मन शुद्ध;
ते ध्यातां क्षण एकमां, लहो परमपद शुद्ध. १९.

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जिनवर ने शुद्धात्ममां, किंचित् भेद न जाण;
मोक्षार्थे हे योगीजन! निश्चयथी ए मान. २०.
जिनवर ते आतम लखो, ए सिद्धान्तिक सार;
एम जाणी योगीजनो, त्यागो मायाचार. २१.
जे परमात्मा ते ज हुं, जे हुं ते परमात्मा;
एम जाणी हे योगीजन! करो न कांई विकल्प. २२.
शुद्ध प्रदेशी पूर्ण छे, लोकाकाशप्रमाण;
ते आतम जाणो सदा, शीघ्र लहो निर्वाण. २३.
निश्चय लोकप्रमाण छे, तनुप्रमाण व्यवहार;
एवो आतम अनुभवो, शीघ्र लहो भवपार. २४.
लक्ष चोराशी योनिमां, भमियो काळ अनंत;
पण समकित तें नव लह्युं, ए जाणो निर्भ्रान्त. २५.
शुद्ध सचेतन बुद्ध जिन, केवळज्ञानस्वभाव;
ए आतम जाणो सदा, जो चाहो शिवलाभ. २६.
ज्यां लगी शुद्धस्वरूपनो, अनुभव करे न जीव;
त्यां लगी मोक्ष न पामतो, ज्यां रुचे त्यां जाव. २७.
ध्यानयोग्य त्रिलोकना, जिन ते आतम जाण;
निश्चयथी एम ज कह्युं, तेमां भ्रान्ति न आण. २८.
ज्यां लगी एक न जाणियो, परम पुनित शुद्ध भाव;
मूढ तणां व्रत-तप सहु, शिवहेतु न कहाय. २९.
जे शुद्धात्म अनुभवे, व्रत-संयमसंयुक्त;
जिनवर भाखे जीव ते, शीघ्र लहे शिवसुख. ३०.

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ज्यां लगी एक न जाणियो, परम पुनित शुद्ध भाव;
व्रत-तप-संयम-शील सहु, फोगट जाणो साव. ३१.
पुण्ये पामे स्वर्ग जीव, पापे नरकनिवास;
बे तजी जाणे आत्माने, ते पामे शिववास. ३२.
व्रत-तप-संयम-शील जे, ते सघळां व्यवहार;
शिवकारण जीव एक छे, त्रिलोकनो जे सार. ३३.
आत्मभावथी आत्मने, जाणे तजी परभाव;
जिनवर भाखे जीव ते, अविचळ शिवपुर जाय. ३४.
षड् द्रव्यो जिन-उक्त जे, पदार्थ नव जे तत्त्व;
भाख्यां ते व्यवहारथी, जाणो करी प्रयत्न. ३५.
शेष अचेतन सर्व छे, जीव सचेतन सार;
जाणी जेने मुनिवरो, शीघ्र लहे भवपार. ३६.
जो शुद्धातम अनुभवो, तजी सकल व्यवहार;
जिनप्रभुजी एम ज भणे, शीघ्र थशो भवपार. ३७.
जीव-अजीवना भेदनुं ज्ञान ते ज छे ज्ञान;
कहे योगीजन योगी हे! मोक्षहेतु ए जाण. ३८.
योगी कहे रे जीव तुं, जो चाहे शिवलाभ;
केवळज्ञानस्वभावी आ आत्मतत्त्वने जाण. ३९.
कोण कोनी समता करे, सेवे, पूजे कोण;
कोनी स्पर्शास्पर्शता, ठगे कोईने कोण?
कोण कोनी मैत्री करे, कोनी साथे क्लेश;
ज्यां देखुं त्यां सर्व जीव, शुद्ध बुद्ध ज्ञानेश. ४०.

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सद्गुरु-वचन-प्रसादथी, जाणे न आतमदेव;
भमे कुतीर्थे त्यां सुधी, करे कपटना खेल. ४१.
तीर्थ-मंदिरे देवनहिए श्रुतकेवळीवाण;
तनमंदिरमां देव जिन, ते निश्चयथी जाण. ४२.
तन-मंदिरमां देव जिन, जन देरे देखंत;
हास्य मने देखाय आ, प्रभु भिक्षार्थे भमंत. ४३.
नथी देव मंदिर विषे, देव न मूर्ति चित्र;
तन-मंदिरमां देव जिन, समज थई समचित्त. ४४.
तीर्थ-मंदिरे देव जिन, लोक कथे सहु एम;
विरला ज्ञानी जाणता, तन-मंदिरमां देव. ४५.
जरा-मरण भयभीत जो, धर्म तुं कर गुणवान;
अजरामर पद पामवा, कर धर्मौषधि पान. ४६.
शास्त्र भणे, मठमां रहे, शिरना लुंचे केश;
राखे वेश मुनितणो, धर्म न थाये लेश. ४७.
रागद्वेष बे त्यागीने, निजमां करे निवास;
जिनवर भाषित धर्म ते, पंचम गति लई जाय. ४८.
मन न घटे, आयु घटे, घटे न इच्छा-मोह;
आतमहित स्फुरे नहि, एम भमे संसार. ४९.
ज्यम रमतुं मन विषयमां, तेम जो आत्मे लीन;
शीघ्र मळे निर्वाणपद, धरे न देह नवीन. ५०.
नर्कवास सम जर्जरित जाणो मलिन शरीर;
करी शुद्धातम-भावना, शीघ्र लहो भवतीर. ५१.

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व्यवहारिक धंधे फस्या, करे न आतमज्ञान;
ते कारण जगजीव ते, पामे नहि निर्वाण. ५२.
शास्त्रपाठी पण मूर्ख छे, जे निजतत्त्व अजाण;
ते कारण ए जीव खरे, पामे नहि निर्वाण. ५३.
मन-इन्द्रियथी दूर था, शी बहु पूछे वात?
रागप्रसार निवारतां, सहज स्वरूप उत्पाद. ५४.
जीव-पुद्गल बे भिन्न छे, भिन्न सकळ व्यवहार;
तज पुद्गल ग्रह जीव तो, शीघ्र लहे भवपार. ५५.
स्पष्ट न माने जीवने, जे नहि जाणे जीव;
छूटे नहि संसारथी, भाखे छे प्रभु जिन. ५६.
रत्न दीप रवि दूध दहीं, घी पथ्थर ने हेम;
स्फटिक रजत ने अग्नि नव, जीव जाणवो तेम. ५७.
देहादिकने पर गणे, जेम शून्य आकाश;
तो पामे परब्रह्म झट, केवळ करे प्रकाश. ५८.
जेम शुद्ध आकाश छे, तेम शुद्ध छे जीव;
जडरूप जाणो व्योमने, चैतन्यलक्षण जीव. ५९.
ध्यान वडे अभ्यंतरे, देखे जे अशरीर;
शरमजनक जन्मो टळे, पीए न जननीक्षीर. ६०.
तनविरहित चैतन्यतन, पुद्गल-तन जड जाण;
मिथ्या मोह दूरे करी, तन पण मारुं न मान. ६१.
निजने निजथी जाणतां, शुं फळ प्राप्त न थाय?
प्रगटे केवळज्ञान ने शाश्वत सुख पमाय. ६२.

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जो परभाव तजी मुनि, जाणे आपथी आप;
केवळज्ञानस्वरूप लही, नाश करे भवताप. ६३.
धन्य अहो भगवंत बुध, जे त्यागे परभाव;
लोकालोकप्रकाशकर, जाणे विमळ स्वभाव. ६४.
मुनिजन के कोई गृही, जे रहे आतमलीन;
शीघ्र सिद्धिसुख ते लहे, एम कहे प्रभु जिन. ६५.
विरला जाणे तत्त्वने, वळी सांभळे कोई;
विरला ध्यावे तत्त्वने, विरला धारे कोई. ६६.
आ परिवार न मुज तणो, छे सुख-दुःखनी खाण;
ज्ञानीजन एम चिंतवी, शीघ्र करे भवहाण. ६७.
इन्द्र, फणीन्द्र, नरेन्द्र पण नहीं शरण दातार;
शरण न जाणी मुनिवरो, निजरूप वेदे आप. ६८.
जन्म-मरण एक ज करे, सुख-दुःख वेदे एक;
नर्कगमन पण एकलो, मोक्ष जाय जीव एक. ६९.
जो जीव तुं छे एकलो, तो तज सौ परभाव;
आत्मा ध्यावो ज्ञानमय, शीघ्र मोक्षसुख थाय. ७०.
पापरूपने पाप तो जाणे जग सहु कोई;
पुण्यतत्त्व पण पाप छे, कहे अनुभवी बुध कोई. ७१.
लोहबेडी बंधन करे, सोनानी पण तेम;
जाणी शुभाशुभ दूर करे, ते ज ज्ञानीनो मर्म. ७२.
जो तुज मन निर्ग्रंथ छे, तो तुं छे निर्ग्रंथ;
ज्यां पामे निर्ग्रंथता, त्यां पामे शिवपंथ. ७३.
जेम बीजमां वड प्रगट, वडमां बीज जणाय;
तेम देहमां देव छे, जे त्रिलोकप्रधान. ७४.

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जे जिन ते हुं, ते ज हुं, कर अनुभव निर्भ्रान्त;
हे योगी! शिवहेतु ए, अन्य न मंत्र, न तंत्र. ७५.
बे, त्रण, चार, ने पांच, छ, सात, पांच ने चार;
नव गुणयुत परमातमा, कर तुं ए निर्धार. ७६.
बे त्यागी, बे गुण सहित, जे आतमरस लीन;
शीघ्र लहे निर्वाणपद, एम कहे प्रभु जिन. ७७.
त्रण रहित, त्रण गुण सहित, निजमां करे निवास;
शाश्वत सुखना पात्र ते, जिनवर करे प्रकाश. ७८.
कषाय संज्ञा चार विण, जे गुण चार सहित;
हे जीव! निजरूप जाण ए, थईश तुं परम पवित्र. ७९.
दश विरहित, दशथी सहित, दश गुणथी संयुक्त;
निश्चयथी जीव जाणवो, एम कहे जिनभूप. ८०.
आत्मा दर्शनज्ञान छे, आत्मा चारित्र जाण;
आत्मा संयमशीलतप, आत्मा प्रत्याख्यान. ८१.
जे जाणे निज आत्मने, पर त्यागे निर्भ्रान्त;
ते ज खरो संन्यास छे, भाखे श्री जिननाथ. ८२.
रत्नत्रययुत जीव जे, उत्तम तीर्थ पवित्र;
हे योगी! शिवहेतु ए, अन्य न तंत्र, न मंत्र. ८३.
दर्शन जे निज देखवुं, ज्ञान जे विमळ महान;
फरी फरी आतमभावना, ते चारित्र प्रमाण. ८४.
ज्यां चेतन त्यां सकळ गुण, केवळी एम वदंत;
तेथी योगी निश्चये, शुद्धात्मा जाणंत. ८५.
एकाकी, इन्द्रियरहित, करी योगत्रय शुद्ध;
निज आत्माने जाणीने, शीघ्र लहो शिवसुख. ८६.