Shastra Swadhyay-Gujarati (Devanagari transliteration). 7. ling prAbhrut; 8. shil prAbhrut; SamAdhitantra.

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निर्मळ स्फटिक परद्रव्यसंगे अन्यरूपे थाय छे,
त्यम जीव छे नीराग पण अन्यान्यरूपे परिणमे. ५१.
जे देव-गुरुना भक्त ने सहधर्मीमुनि-अनुरक्त छे,
सम्यक्त्वना वहनार योगी ध्यानमां रत होय छे. ५२.
तप उग्रथी अज्ञानी जे कर्मो खपावे बहु भवे,
ज्ञानी त्रिगुप्तिक ते करम अंतर्मुहूर्ते क्षय करे. ५३.
शुभ अन्य द्रव्ये रागथी मुनि जो करे रुचिभावने,
तो तेह छे अज्ञानी, ने विपरीत तेथी ज्ञानी छे. ५४.
आसरवहेतु भाव ते शिवहेतु छे तेना मते,
तेथी ज ते छे अज्ञ, आत्मस्वभावथी विपरीत छे. ५५.
कर्मजमतिक जे खंडदूषणकर स्वभाविकज्ञानमां,
ते जीवने अज्ञानी, १०जिनशासन तणा दूषक कह्या. ५६.
१. अनुरक्त = अनुरागवाळा; वात्सल्यवाळा.
२. सम्यक्त्वना वहनार = सम्यक्त्वने धारी राखनार; सम्यक्त्वपरिणतिए
परिणम्या करनार.
३. रत = रतिवाळा; प्रीतिवाळा; रुचिवाळा.
४. त्रिगुप्तिक = त्रण-गुप्तिवंत.
५. शुभ अन्य द्रव्ये = (शुभ भावना निमित्तभूत) प्रशस्त परद्रव्यो प्रत्ये.
६. रुचिभाव = ‘आ सारुं छे, हितकर छे’ एम एकाकारपणे प्रीतिभाव.
७. अज्ञ = अज्ञानी.
८. कर्मजमतिक = कर्मथी उत्पन्न थयेली बुद्धिवाळा; कर्मनिमित्तक वैभाविक
बुद्धिवाळा (जीव).
९. खंडदूषणकर स्वभाविकज्ञानमां = स्वभावज्ञानने खंडखंडरूप करीने दूषित
करनार (अर्थात् तेने खंडखंडरूप मानीने दूषण लगाडनार).
१०. जिनशासन तणा दूषक = जिनशासनने दूषित करनार अर्थात् दूषण
लगाडनार.

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ज्यां ज्ञान चरितविहीन छे, तपयुक्त पण द्रगहीन छे,
वळी अन्य कार्यो भावहीन, ते लिंगथी सुख शुं अरे? ५७.
छे अज्ञ, जेह अचेतने चेतक तणी श्रद्धा धरे;
जे चेतने चेतक तणी श्रद्धा धरे, ते ज्ञानी छे. ५८.
तपथी रहित जे ज्ञान, ज्ञानविहीन तप अकृतार्थ छे,
ते कारणे जीव ज्ञानतपसंयुक्त शिवपदने लहे. ५९.
ध्रुवसिद्धि श्री तीर्थेश ज्ञानचतुष्कयुत तपने करे,
ए जाणी निश्चित ज्ञानयुत जीवेय तप कर्तव्य छे. ६०.
जे बाह्यलिंगे युक्त, आंतरलिंगरहित क्रिया करे,
ते १०स्वकचरितथी भ्रष्ट, शिवमारगविनाशक श्रमण छे. ६१.
११सुखसंग १२भावित ज्ञान तो १३दुखकाळमां लय थाय छे,
तेथी १४यथाबळ १५दुःख सह भावो श्रमण निज आत्मने. ६२.
१. द्रगहीन = सम्यग्दर्शन रहित.
२. अन्य कार्यो = बीजी (आवश्यकादि) क्रियाओ.
३. भावहीन = शुद्धभाव रहित.
४. अज्ञ = अज्ञानी.
५. चेतक = चेतनार; चेतयिता; आत्मा.
६. अकृतार्थ = प्रयोजन सिद्ध न करे एवुं; असफळ.
७. ध्रुवसिद्धि = जेमनी सिद्धि (ते ज भवे) निश्चित छे एवा.
८. ज्ञानचतुष्कयुत = चार ज्ञान सहित.
९. निश्चित = नक्की; अवश्य.
१०. स्वकचरित = स्वचारित्र.
११. सुखसंग = सुख सहित; शाताना योगमां.
१२. भावित = भाववामां आवेलुं.
१३. दुखकाळमां = उपसर्गादि दुःख आवी पडतां.
१४. यथाबळ = शक्ति प्रमाणे.
१५. दुःख सह = कायक्लेशादि सहित.

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आसन-अशन-निद्रा तणो करी विजय, जिनवरमार्गथी
ध्यातव्य छे निज आतमा, जाणी श्रीगुरुपरसादथी. ६३.
छे आतमा संयुक्त दर्शन-ज्ञानथी, चारित्रथी;
नित्ये अहो! ध्यातव्य ते, जाणी श्रीगुरुपरसादथी. ६४.
जीव जाणवो दुष्कर प्रथम, पछी भावना दुष्कर अरे!
भावितनिजात्मस्वभावने दुष्कर विषयवैराग्य छे. ६५.
आत्मा जणाय न, ज्यां लगी विषये प्रवर्तन नर करे;
विषये विरक्तमनस्क योगी जाणता निज आत्मने. ६६.
नर कोई, आतम जाणी, आतमभावनाप्रच्युतपणे
चतुरंग संसारे भमे विषये विमोहित मूढ ए. ६७.
पण विषयमांही विरक्त, आतम जाणी भावनयुक्त जे,
निःशंक ते तपगुणसहित छोडे चतुर्गतिभ्रमणने. ६८.
परद्रव्यमां अणुमात्र पण रति होय जेने मोहथी,
ते मूढ छे, अज्ञानी छे, विपरीत आत्मस्वभावथी. ६९.
१. आसन-अशन-निद्रा तणो = आसननो, आहारनो अने ऊंघनो.
२. श्रीगुरुपरसादथी = गुरुप्रसादथी; गुरुकृपाथी.
३. भावना = आत्माने भाववो ते; आत्मस्वभावनुं भावन करवुं ते.
४. भावितनिजात्मस्वभावने = जेणे निजात्मभावने भाव्यो छे ते जीवने; जेणे
निज आत्मस्वभावनुं भावन प्राप्त कर्युं छे ते जीवने.
५. विषये विरक्तमनस्क = जेमनुं मन विषयोमां विरक्त छे एवा; विषयो प्रत्ये
विरक्त चित्तवाळा.
६. चतुरंग संसारे = चतुर्गति संसारमां.
७. भावनयुक्त = आत्मभावनाथी युक्त.
८. निःशंक = चोक्कस; खातरीथी.

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जे आत्मने ध्यावे, सुदर्शनशुद्ध, द्रढचारित्र छे,
विषये विरक्तमनस्क ते शिवपद लहे निश्चितपणे. ७०.
परद्रव्य प्रत्ये राग तो संसारकारण छे खरे;
तेथी श्रमण नित्ये करो निजभावना स्वात्मा विषे. ७१.
निंदा-प्रशंसाने विषे, दुःखो तथा सौख्यो विषे,
शत्रु तथा मित्रो विषे समताथी चारित होय छे. ७२.
आवृतचरण, व्रतसमितिवर्जित, शुद्धभावविहीन जे,
ते कोई नर जल्पे अरे!‘नहि ध्याननो आ काळ छे’. ७३.
सम्यक्त्वज्ञानविहीन, शिवपरिमुक्त जीव अभव्य जे,
ते सुरत भवसुखमां कहे‘नहि ध्याननो आ काळ छे’. ७४.
त्रण गुप्ति, पंच समिति, पंच महाव्रते जे मूढ छे,
ते मूढ अज्ञ कहे अरे!नहि ध्याननो आ काळ छे’. ७५.
भरते दुषमकाळेय धर्मध्यान मुनिने होय छे;
ते होय छे १०आत्मस्थने; माने न ते अज्ञानी छे. ७६.
१. सुदर्शनशुद्ध = सम्यग्दर्शनथी शुद्ध; दर्शनशुद्धिवाळा.
२. द्रढचारित्र = द्रढ चारित्रयुक्त.
३. समता = समभाव; साम्यपरिणाम.
४. आवृतचरण = जेमनुं चारित्र अवरायेलुं छे एवा.
५. जल्पे = बकवाद करे छे; बबडे छे; कहे छे.
६. शिवपरिमुक्त = मोक्षथी सर्वतः रहित.
७. सुरत भवसुखमां = संसारसुखमां सारी रीते रत (अर्थात् संसारसुखमां
अभिप्राय-अपेक्षाए प्रीतिवाळो जीव).
८. अज्ञ = अज्ञानी ९. दुषमकाळ = दुःषमकाळ अर्थात्
पंचम काळ.
१०. आत्मस्थ = स्वात्मामां स्थित; आत्मस्वभावमां स्थित.

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आजेय विमलत्रिरत्न, निजने ध्याई, इन्द्रपणुं लहे,
वा देव लौकांतिक बने, त्यांथी च्यवी सिद्धि वरे. ७७.
जे पापमोहितबुद्धिओ ग्रही जिनवरोना लिंगने
पापो करे छे, पापीओ ते मोक्षमार्गे त्यक्त छे. ७८.
जे पंचवस्त्रासक्त, परिग्रहधारी, याचनशील छे,
छे लीन आधाकर्ममां, ते मोक्षमार्गे त्यक्त छे. ७९.
निर्मोह, विजितकषाय, बावीश-परिषही, निर्ग्रंथ छे,
छे मुक्त पापारंभथी, ते मोक्षमार्गे गृहीत छे. ८०.
छुं एकलो हुं, कोई पण मारां नथी लोकत्रये,
ए भावनाथी योगीओ पामे सुशाश्वत सौख्यने. ८१.
जे देव-गुरुना भक्त छे, निर्वेदश्रेणी चिंतवे,
जे ध्यानरत, १०सुचरित्र छे, ते मोक्षमार्गे गृहित छे. ८२.
१. विमलत्रिरत्न = शुद्धरत्नत्रयवाळा; रत्नत्रय वडे शुद्ध एवा मुनिओ
२. पापमोहितबुद्धिओ = जेमनी बुद्धि पापमोहित छे एवा जीवो.
३. त्यक्त = तजायेला; अस्वीकृत; नहि स्वीकारायेला.
४. पंचवस्त्रासक्त = पंचविध वस्त्रोमां आसक्त (अर्थात् रेशमी; सुतराउ वगेरे
पांच प्रकारनां वस्त्रो धारण करनार).
५. याचनशील = याचनास्वभाववाळा (अर्थात् मागीनेमागणी करीने
आहारादि लेनारा)
६. लीन आधाकर्ममां = अधःकर्ममां रत (अर्थात् अधःकर्मरूप दोषवाळो
आहार लेनारा).
७. बावीश-परिषही = बावीश परिषहोने सहनारा.
८. गृहीत = ग्रहवामां आवेला; स्वीकारवामां आवेला; स्वीकृत; अंगीकृत.
९. निर्वेदश्रेणी = वैराग्यनी परंपरा; वैराग्यभावनाओनी हारमाळा.
१०. सुचरित्र = सारा चारित्रवाळा; सत्चारित्रयुक्त.

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निश्चयनयेज्यां आतमा आत्मार्थ आत्मामां रमे,
ते योगी छे सुचरित्रसंयुत; ते लहे निर्वाणने. ८३.
छे योगी, पुरुषाकार, जीव वरज्ञानदर्शनपूर्ण छे;
ध्यानार योगी पापनाशक द्वंद्वविरहित होय छे. ८४.
श्रमणार्थ जिन-उपदेश भाख्यो, श्रावकार्थ सुणो हवे,
संसारनुं हरनार शिव-करनार कारण परम ए. ८५.
ग्रही मेरुपर्वत-सम अकंप सुनिर्मळा सम्यक्त्वने,
हे श्रावको! दुखनाश अर्थे ध्यानमां ध्यातव्य ते. ८६.
सम्यक्त्वने जे जीव ध्यावे ते सुद्रष्टि होय छे,
सम्यक्त्वपरिणत वर्ततो दुष्टाष्टकर्मो क्षय करे. ८७.
बहु कथनथी शुं? नरवरो गत काळ जे सिद्ध्या अहो!
जे सिद्धशे भव्यो हवे, सम्यक्त्वमहिमा जाणवो. ८८.
नर धन्य ते, १०सुकृतार्थ ते, पंडित अने शूरवीर ते,
स्वप्नेय मलिन कर्युं न जेणे ११सिद्धिकर सम्यक्त्वने. ८९.
१. आत्मार्थ = आत्मा अर्थे; आत्मा माटे.
२. पुरुषाकार = पुरुषना आकारे.
३. वरज्ञानदर्शनपूर्ण = (स्वभावे) उत्तम ज्ञानदर्शनथी परिपूर्ण.
४. ध्यानार = एवा जीवने
आत्मानेजे ध्यावे छे ते.
५. द्वंद्वविरहित = निर्द्वंद्व; (रागद्वेषादि) द्वंद्वथी रहित.
६. शिव करनार = मोक्षनुं करनारुं; सिद्धिकर.
७. नरवरो = उत्तम पुरुषो.
८. गत काळ = भूतकाळमां; पूर्वे.
९. सिद्ध्या = सिद्ध थया; मोक्ष पाम्या.
१०. सुकृतार्थ = जेमणे प्रयोजनने सारी रीते सिद्ध कर्युं छे एवा; सुकृतकृत्य.
११. सिद्धिकर = सिद्धि करनार; मोक्ष करनार.

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हिंसासुविरहित धर्म, दोष अढार वर्जित देवनुं,
निर्ग्रंथ प्रवचन केरुं जे श्रद्धान ते समकित कह्युं. ९०.
सम्यक्त्व तेने, जेह माने लिंग परनिरपेक्षने,
रूपे यथाजातक, सुसंयत, सर्वसंगविमुक्तने. ९१.
जे देव कुत्सित, धर्म कुत्सित, लिंग कुत्सित वंदता,
भय, शरम वा गारव थकी, ते जीव छे मिथ्यात्वमां. ९२.
वंदन असंयत, रक्त देवो, लिंग सपरापेक्षने,
ए मान्य होय कुद्रष्टिने, नहि शुद्ध सम्यग्द्रष्टिने. ९३.
सम्यक्त्वयुत श्रावक करे जिनदेवदेशित धर्मने;
विपरीत तेथी जे करे, कुद्रष्टि ते ज्ञातव्य छे. ९४.
कुद्रष्टि जे, ते सुखविहीन परिभ्रमे संसारमां,
जर-जन्म-मरणप्रचुरता, दुखगणसहस्र भर्या जिहां. ९५.
‘सम्यक्त्व गुण, मिथ्यात्व दोष’ तुं एम मन सुविचारीने,
कर ते तने जे मन रुचे; बहु कथन शुं करवुं अरे? ९६.
१. हिंसा सुविरहित = हिंसारहित.
२. लिंग परनिरपेक्षने = परथी निरपेक्ष एवा (अंतर्बाह्य) लिंगने; परने नहि
अवलंबनारा एवा लिंगने.
३. रूपे यथाजातक = (आंतरलिंग-अपेक्षाए) यथानिष्पन्नसहजस्वाभाविक
निरुपाधिक रूपवाळा; (बाह्यलिंग-अपेक्षाए) जन्म्या प्रमाणेना रूपवाळा.
४. सुसंयत = सारी रीते संयत; सुसंयमयुक्त.
५. कुत्सित = निंदित; खराब; अधम.
६. रक्त = रागी.
७. सपरापेक्ष = परनी अपेक्षावाळा.

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निर्ग्रंथ, बाह्य असंग, पण नहि त्यक्त मिथ्याभाव ज्यां,
जाणे न ते समभाव निज; शु स्थान-मौन करे तिहां? ९७.
जे मूळगुणने छेदीने मुनि बाह्यकर्मो आचरे,
पामे न शिवसुख निश्चये जिनकथित-लिंग-विराधने. ९८.
बहिरंग कर्मो शुं करे? उपवास बहुविध शुं करे?
रे! शुं करे आतापना?आत्मस्वभावविरुद्ध जे. ९९.
पुष्कळ भणे श्रुतने भले, चारित्र बहुविध आचरे,
छे बाळश्रुत ने बाळचारित, आत्मथी विपरीत जे. १००.
छे साधु जे वैराग्यपर ने विमुख परद्रव्यो विषे,
भवसुखविरक्त, स्वकीय शुद्ध सुखो विषे अनुरक्त जे. १०१.
आदेयहेय-सुनिश्चयी, गुणगणविभूषित-अंग जे,
ध्यानाध्ययनरत जेह, ते मुनि स्थान उत्तमने लहे. १०२.
प्रणमे प्रणत जन, ध्यात जन ध्यावे निरंतर जेहने,
तुं जाण तत्त्व तनस्थ ते, जे स्तवनप्राप्त जनो स्तवे. १०३.
अर्हंत-सिद्धाचार्य-अध्यापक-श्रमणपरमेष्ठी जे,
पांचेय छे आत्मा महीं; आत्मा शरण मारुं खरे. १०४.
१. स्थान = निश्चळपणे ऊभा रहेवुं ते; ऊभां ऊभां कार्योत्सर्गस्थित रहेवुं ते;
एक आसने निश्चळ रहेवुं ते.२. निश्चये = नक्की.
३. जिनकथित-लिंग-विराधने = जिनकथित लिंगनी विराधना करतो होवाथी.
४. आदेयहेय-सुनिश्चयी = उपादेय अने हेयनो जेमणे निश्चय करेलो छे एवा.
५. गुणगण विभूषित-अंग = गुणोना समूहथी सुशोभित अंगवाळा.
६. प्रणत जन = बीजाओ वडे जेमने प्रणमवामां आवे छे ते जनो.
७. ध्यात जन = बीजाओ वडे जेमने ध्यावामां आवे छे ते जनो.
८. तनस्थ = देहस्थ; शरीरमां रहेल.
९. स्तवनप्राप्त जनो = बीजाओ वडे जेमने स्तववामां आवे छे ते जनो.

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सम्यक्त्व, सम्यग्ज्ञान, सत्चारित्र, सत्तपचरण जे,
चारेय छे आत्मा महीं; आत्मा शरण मारुं खरे. १०५.
आ जिननिरूपित मोक्षप्राभृत-शास्त्रने सद्भक्तिए
जे पठन-श्रवण करे अने भावे, लहे सुख नित्यने. १०६.
७. लिंगप्राभृत
करीने नमन भगवंत श्री अर्हंतने, श्री सिद्धने,
भाखीश हुं संक्षेपथी मुनिलिंगप्राभृतशास्त्रने. १.
होये धरमथी लिंग, धर्म न लिंगमात्रथी होय छे;
रे! भावधर्म तुं जाण, तारे लिंगथी शुं कार्य छे? २.
जे पापमोहितबुद्धि, जिनवरलिंग धरी, लिंगित्वने;
उपहसित करतो, ते विघाते लिंगीओना लिंगने. ३.
जे लिंग धारी नृत्य, गायन, वाद्यवादनने करे,
ते पापमोहितबुद्धि छे तिर्यंचयोनि, न श्रमण छे. ४.
जे संग्रहे, रक्षे बहुश्रमपूर्व, ध्यावे आर्तने,
ते पापमोहितबुद्धि छे तिर्यंचयोनि, न श्रमण छे. ५.
द्यूत जे रमे, बहुमान-गर्वित वाद-कलह सदा करे,
लिंगीरूपे करतो थको पापी नरकगामी बने. ६.
१. पापमोहितबुद्धि = जेनी बुद्धि पापमोहित छे एवो पुरुष.
२. लिंगित्वने उपहसित करतो = लिंगीपणानो उपहास करे छे; लिंगीभावनी
मश्करी करे छे; मुनिपणानी मजाक करे छे.
३. विघाते = घात करे छे; नष्ट करे छे; हानि पहोंचाडे छे.
४. लिंगीओ = मुनिओ; साधुओ; श्रमणो.
५. बहुश्रमपूर्व = बहु श्रमपूर्वक; घणा प्रयत्नथी.
६.
आर्त = आर्तध्यान.
७. द्यूत = जुगार.

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जे पाप-उपहतभाव सेवे लिंगमां अब्रह्मने,
ते पापमोहितबुद्धिने परिभ्रमण संसृतिकानने. ७.
ज्यां लिंगरूपे ज्ञानदर्शनचरणनुं धारण नहीं,
ने ध्यान ध्यावे आर्त, तेह अनंतसंसारी मुनि. ८.
जोडे विवाह, करे कृषि-व्यापार-जीवविघात जे,
लिंगीरूपे करतो थको पापी नरकगामी बने. ९.
चोरो-लबाडोने लडावे, तीव्र परिणामो करे,
चोपाट-आदिक जे रमे, लिंगी नरकगामी बने. १०.
द्रगज्ञानचरणे, नित्यकर्मे, तपनियमसंयम विषे
जे वर्ततो पीडा करे, लिंगी नरकगामी बने. ११.
जे भोजने रसगृद्धि करतो वर्ततो कामादिके,
मायावी लिंगविनाशी ते तिर्यंचयोनि, न श्रमण छे. १२.
पिंडार्थ जे दोडे अने करी कलह भोजन जे करे,
इर्षा करे जे अन्यनी, जिनमार्गनो नहि श्रमण ते. १३.
अणदत्तनुं ज्यां ग्रहण, जे असमक्ष परनिंदा करे,
जिनलिंगधारक हो छतां ते श्रमण चोर समान छे. १४.
लिंगात्म इर्यासमितिनो धारक छतां कूदे, पडे,
दोडे, उखाडे भोंय, ते तिर्यंचयोनि, न श्रमण छे. १५.
१. पाप-उपहतभाव = पापथी जेनो भाव हणायेलो छे एवो पुरुष.
२. संसृतिकानने = संसाररूपी वनमां.
३. पिंडार्थ = आहार अर्थे; भोजनप्राप्ति माटे.
४. अणदत्त = अदत्त; अणदीधेल; नहि देवामां आवेल.
५. असमक्ष = परोक्षपणे; अप्रत्यक्षपणे; असमीपपणे; छानी रीते.
६. लिंगात्म = लिंगरूप; मुनिलिंगस्वरूप.

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जे अवगणीने बंध, खांडे धान्य, खोदे पृथ्वीने,
बहु वृक्ष छेदे जेह, ते तिर्यंचयोनि, न श्रमण छे. १६.
स्त्रीवर्ग पर नित राग करतो, दोष दे छे अन्यने,
द्रगज्ञानथी जे शून्य, ते तिर्यंचयोनि, न श्रमण छे. १७.
दीक्षाविहीन गृहस्थ ने शिष्ये धरे बहु स्नेह जे,
आचार-विनयविहीन, ते तिर्यंचयोनि, न श्रमण छे. १८.
इम वर्तनारो संयतोनी मध्य नित्य रहे भले,
ने होय बहुश्रुत, तोय भावविनष्ट छे, नहि श्रमण छे. १९.
स्त्रीवर्गमां विश्वस्त दे छे ज्ञान-दर्शन-चरण जे,
पार्श्वस्थथी पण हीन भावविनष्ट छे, नहि श्रमण छे. २०.
असतीगृहे भोजन, करे स्तुति नित्य, पोषे पिंड जे,
अज्ञानभावे युक्त भावविनष्ट छे, नहि श्रमण छे. २१.
ए रीत सर्वज्ञे कथित आ लिंगप्राभृत जाणीने,
जे धर्म पाळे कष्ट सह, ते स्थान उत्तमने लहे. २२.
१. बहुश्रुत = बहु शास्त्रोनो जाणनार; विद्वान.
२. भावविनष्ट = भावभ्रष्ट; भावशून्य; शुद्धभावथी (दर्शनज्ञानचारित्रथी)
रहित.
३. विश्वस्त = (१) विश्वासुपणे अर्थात् (स्त्रीवर्गनो) विश्वास करीने;
निर्भयपणे; (२) विश्वसनीयपणे अर्थात् (स्त्रीवर्गमां) विश्वास उपजावीने.
४. असतीगृहे = व्यभिचारिणी स्त्रीना घरे.
५. करे स्तुति नित्य = हंमेशा तेनी प्रशंसा करे छे.
६. पिंड = शरीर.
७. कष्ट सह = कष्ट सहित; प्रयत्नपूर्वक.

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८. शीलप्राभृत
विस्तीर्णलोचन, रक्तकजकोमल-सुपद श्री वीरने
त्रिविधे करीने वंदना, हुं वर्णवुं शीलगुणने. १.
न विरोध भाख्यो ज्ञानीओए शीलने ने ज्ञानने;
विषयो करे छे नष्ट केवळ शीलविरहित ज्ञानने. २.
दुष्कर जणावुं ज्ञाननुं, पछी भावना दुष्कर अरे!
वळी भावनायुत जीवने दुष्कर विषयवैराग्य छे. ३.
जाणे न आत्मा ज्ञानने, वर्ते विषयवश ज्यां लगी;
नहि क्षपण पूरवकर्मनुं केवळ विषयवैराग्यथी. ४.
जे ज्ञान चरणविहीन, धारण लिंगनुं द्रगहीन जे,
तपचरण जे संयमसुविरहित, ते बधुंय निरर्थ छे. ५.
जे ज्ञान चरणविशुद्ध, धारण लिंगनुं द्रगशुद्ध जे,
तप जे ससंयम, ते भले थोडुं, महाफळयुक्त छे. ६.
नर कोई, जाणी ज्ञानने, आसक्त रही विषयादिके,
भटके चतुर्गतिमां अरे! विषये विमोहित मूढ ए. ७.
पण विषयमांहि विरक्त, जाणी ज्ञान, भावनयुक्त जे,
निःशंक ते तपगुणसहित छेदे चतुर्गतिभ्रमणने. ८.
१. विस्तीर्णलोचन = (१) विशाळ नेत्रवाळा; (२) विस्तृत दर्शनज्ञानवाळा.
२. रक्तकजकोमल-सुपद = लाल कमळ जेवां कोमळ जेमनां सुपद (सुंदर चरणो
अथवा रागद्वेषरहित वचनो) छे एवा.
३. क्षपण = क्षय करवो ते; नाश करवो ते.
४.
निरर्थ = निरर्थक; निष्फळ.
५.द्रगशुद्ध = सम्यग्दर्शन वडे शुद्ध.६. ससंयम = संयम सहित.

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धमतां लवण-खडीलेपपूर्वक कनक निर्मळ थाय छे,
त्यम जीव पण सुविशुद्ध ज्ञानसलिलथी निर्मळ बने. ९.
जे ज्ञानथी गर्वित बनी विषयो महीं राचे जनो,
ते ज्ञाननो नहि दोष, दोष कुपुरुष मंदमति तणो. ०.
सम्यक्त्वसंयुत ज्ञान, दर्शन, तप अने चारित्रथी
चारित्रशुद्ध जीवो करे उपलब्धि परिनिर्वाणनी. ११.
जे शीलने रक्षे, सुदर्शनशुद्ध, द्रढचारित्र जे,
जे विषयमांही विरक्तमन, निश्चित लहे निर्वाणने. १२.
छे इष्टदर्शी मार्गमां, हो विषयमां मोहित भले;
उन्मार्गदर्शी जीवनुं जे ज्ञान तेय निरर्थ छे. १३.
दुर्मत-कुशास्त्रप्रशंसको जाणे विविध शास्त्रो भले,
व्रत-शील-ज्ञानविहीन छे तेथी न आराधक खरे. १४.
हो रूपश्रीगर्वित, भले लावण्ययौवनकान्ति हो,
मानवजनम छे निष्प्रयोजन शीलगुणवर्जित तणो. १५.
व्याकरण, छंदो, न्याय, वैशेषिक, व्यवहारादिनां
शास्त्रो तणुं हो ज्ञान तोपण शील उत्तम सर्वमां. १६.
रे! शीलगुणमंडित भविकना देव वल्लभ होय छे;
लोके कुशील जनो, भले श्रुतपारगत हो, तुच्छ छे. १७.
१. ज्ञानसलिल = ज्ञानजळ; ज्ञानरूपी नीर.
२. परिनिर्वाण = मोक्ष.
३. विरक्तमन = विरक्त मनवाळा.
४. इष्टदर्शी = इष्टने देखनार; हितने श्रद्धनार; सन्मार्गनी श्रद्धावाळा.
५. दुर्मत = कुमत.

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सौथी भले हो हीन, रूपविरूप, यौवनभ्रष्ट हो,
मानुष्य तेनुं छे सुजीवित, शील जेनुं सुशील हो. १८.
प्राणीदया, दम, सत्य, ब्रह्म, अचौर्य ने संतुष्टता,
सम्यक्त्व, ज्ञान, तपश्चरण छे शीलना परिवारमां. १९.
छे शील ते तप शुद्ध, ते द्रगशुद्धि, ज्ञानविशुद्धि छे,
छे शील अरि विषयो तणो ने शील शिवसोपान छे. २०.
विष घोर जंगम-स्थावरोनुं नष्ट करतुं सर्वने,
पण विषयलुब्ध तणुं विघातक विषयविष अतिरौद्र छे. २१.
विषवेदनाहत जीव एक ज वार पामे मरणने,
पण विषयविषहत जीव तो संसारकांतारे भमे. २२.
बहु वेदना नरको विषे, दुःखो मनुज-तिर्यंचमां,
देवेय दुर्भगता लहे विषयावलंबी आतमा. २३.
१०तुष दूर करतां जे रीते कं ११द्रव्य नरनुं न जाय छे,
तपशीलवंत १२सुकुशल, १३खळ माफक, विषयविषने तजे. २४.
१. हीन = हीणा (अर्थात् कुलादि बाह्य संपत्ति अपेक्षाए हलका).
२. रूपविरूप = रूपे विरूप; रूप-अपेक्षाए कुरूप.
३. मानुष्य = मनुष्यपणुं (अर्थात् मनुष्यजीवन).
४. सुजीवित = सारी रीते जिवायेलुं; प्रशंसनीयपणे
सफळपणे जीववामां
आवेलुं.५. अरि = वेरी; शत्रु.
६. शिवसोपान = मोक्षनुं पगथियुं.
७. विषयलुब्ध तणुं विघातक = विषयलुब्ध जीवोनो घात करनारुं (अर्थात् तेमनुं
अत्यंत बूरुं करनारुं). ८. संसारकांतारे = संसाररूपी मोटा भयंकर वनमां.
९. दुर्भगता = दुर्भाग्य. १०. तुष दूर करतां = धान्यमांथी फोतरां वगेरे कचरो
काढी नाखतां.११. द्रव्य = वस्तु (अर्थात् धान्य).
१२. सुकुशल = कुशळ अर्थात् प्रवीण पुरुष. १३. खळ = वस्तुनो रसकस
विनानो नकामो भागकचरो; सत्त्व काढी लेतां बाकी रहेता कूचा.

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छे भद्र, गोळ, विशाळ ने खंडात्म अंग शरीरमां,
ते सर्व होय सुप्राप्त तोपण शील उत्तम सर्वमां. २५.
दुर्मतविमोहित विषयलुब्ध जनो इतरजन साथमां
अरघट्टिकाना चक्र जेम परिभ्रमे संसारमां. २६.
जे कर्मग्रंथि विषयरागे बद्ध छे आत्मा विषे,
तपचरण-संयम-शीलथी सुकृतार्थ छेदे तेहने. २७.
तप-दान-शील-सुविनयरत्नसमूह सह, जलधि समो,
सोहंत जीव सशील पामे श्रेष्ठ शिवपदने अहो! २८.
देखाय छे शुं मोक्ष स्त्री-पशु-गाय-गर्दभ-श्वाननो?
जे तुर्यने साधे, लहे छे मोक्ष;देखो सौ जनो. २९.
जो मोक्ष साधित होत विषयविलुब्ध ज्ञानधरो वडे,
दशपूर्वधर पण सात्यकिसुत केम पामत नरकने? ३०.
जो शील विण बस ज्ञानथी कही होय शुद्धि ज्ञानीए,
दशपूर्वधरनो भाव केम थयो नहीं निर्मळ अरे? ३१.
विषये विरक्त करे सुसह अति-उग्र नारकवेदना
ने पामता अर्हंतपद;वीरे कह्युं जिनमार्गमां. ३२.
अत्यक्ष-शिवपदप्राप्ति आम घणा प्रकारे शीलथी
प्रत्यक्षदर्शनज्ञानधर लोकज्ञ जिनदेवे कही. ३३.
१. अरघट्टिका = रेंट.२. सोहंत = सोहतो; शोभतो.
३. जीव सशील = शीलसहित जीव; शीलवान जीव.
४. तुर्यने = चतुर्थने (अर्थात् मोक्षरूप चोथा पुरुषार्थने).
५. विषयविलुब्ध = विषयलुब्ध; विषयोना लोलुप.
६. विषये विरक्त = विषयविरक्त जीवो.
७. सुसह = सहेलाईथी सहन थाय एवी (अर्थात् हळवी).
८. अत्यक्ष = अतींद्रिय; इंद्रियातीत.

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सम्यक्त्व-दर्शन-ज्ञान-तप-वीर्याचरण आत्मा विषे,
पवने सहित पावक समान, दहे पुरातन कर्मने. ३४.
विजितेन्द्रि विषयविरक्त थई, धरीने विनय-तप-शीलने,
धीरा दही वसु कर्म, शिवगतिप्राप्त सिद्धप्रभु बने. ३५.
जे श्रमण केरुं जन्मतरु लावण्य-शीलसमृद्ध छे,
ते शीलधर छे, छे महात्मा, लोकमां गुण विस्तरे. ३६.
द्रगशुद्धि, ज्ञान, समाधि, ध्यान स्वशक्ति-आश्रित होय छे,
सम्यक्त्वथी जीवो लहे छे बोधिने जिनशासने. ३७.
जिनवचननो ग्रही सार, विषयविरक्त धीर तपोधनो,
करी स्नान शीलसलिलथी, सुख सिद्धिनुं पामे अहो! ३८.
आराधनापरिणत सरव गुणथी करे १०कृश कर्मने,
सुखदुखरहित ११मनशुद्ध ते क्षेपे करमरूप धूळने. ३९.
अर्हंतमां शुभ भक्ति श्रद्धाशुद्धियुत सम्यक्त्व छे,
ने शील विषयविरागता छे; ज्ञान बीजुं कयुं हवे? ४०.
१. पावक = अग्नि.२. दहे = बाळे.
३. पुरातन = जूनां.४. विजितेन्द्रि = जितेन्द्रिय.
५. धीरा = धीर पुरुषो.६. दही वसु कर्म = आठ कर्मने बाळीने.
७. बोधि = रत्नत्रयपरिणति.
८. शीलसलिल = शीलरूपी जळ.
९. आराधनापरिणत = आराधनारूपे परिणमेला पुरुषो.
१०. कृश = नबळां; पातळां; क्षीण.
११. मनशुद्ध = शुद्ध मनवाळा (अर्थात् शुद्ध परिणतिवाळा).

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श्री
समाधिातंत्र
(पद्यानुवाद)
(दोहरा)
नमुं सिद्ध परमात्मने, अक्षय बोधस्वरूप;
जेणे आत्मा आत्मरूप, पर जाण्युं पररूप. १.
बोल्या विण पण भारती-ॠद्धि ज्यां जयवंत,
इच्छा विण पण जेह छे तीर्थंकर भगवंत,
वंदुं ते सकलात्मने श्री तीर्थेश जिनेश,
सुगत तथा जे विष्णु छे, ब्रह्मा तेम महेश. २.
आगमथी ने लिंगथी, आत्मशक्ति अनुरूप,
हृदय तणा ऐकाग््रयथी सम्यक् वेदी स्वरूप,
मुक्तिसुख-अभिलाषीने कहीश आतमरूप,
परथी, कर्मकलंकथी, जेह विविक्तस्वरूप. ३.
आत्म त्रिधा सौ देहीमांबाह्यांतर-परमात्म;
मध्योपाये परमने ग्रहो, तजो बहिरात्म. ४.
आत्मभ्रान्ति देहादिमां करे तेह ‘बहिरात्म’;
‘आन्तर’ विभ्रमरहित छे, अतिनिर्मळ ‘परमात्म’. ५.
१. भारती-ॠद्धि = वाणीनी विभूति.२. लिंग = अनुमान अने हेतु.
३. विविक्त = भिन्न. ४. त्रिधा = त्रण प्रकारे.

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निर्मळ, केवळ, शुद्ध, जिन, प्रभु, विविक्त, परात्म,
इश्वर, परमेष्ठी अने अव्यय ते परमात्म. ६.
इन्द्रिय द्वारा विषयमां बहार भमे बहिरात्म;
आतमज्ञानविमुख ते माने देह निजात्म. ७.
नरदेहे स्थित आत्मने नर माने छे मूढ,
पशुदेहे स्थितने पशु, सुरदेहे स्थित सुर; ८.
नरक-तने नारक गणे, परमार्थे नथी एम,
अनंत धी-शक्तिमयी, अचळरूप, निजवेद्य. ९.
निज शरीर सम देखीने परजीवयुक्त शरीर,
माने तेने आतमा, बहिरातम मूढ जीव. १०.
विभ्रम पुत्र-रमादिगत आत्म-अज्ञने थाय.
देहोमां छे जेहने आतम-अध्यवसाय. ११.
आ भ्रमथी अज्ञानमय द्रढ जामे संस्कार;
अन्य भवे पण देहने आत्मा गणे गमार. १२.
देहबुद्धि जन आत्मने करे देहसंयुक्त,
आत्मबुद्धि जन आत्मने तनथी करे विमुक्त. १३.
देहे आतमबुद्धिथी सुत-दारा कल्पाय;
ते सौ निज संपत गणी, हा! आ जगत हणाय. १४.
१. अव्यय = अविनाशी; पोताना शुद्धस्वरूपथी भ्रष्ट नहि थयेला
२. सुर = देव.
३. तन = शरीर.४. धी = बुद्धि;
ज्ञान.
५. रमा = स्त्री. ६. आत्म-अज्ञ = आत्माने नहि जाणनार.
७. आतम-अध्यवसाय = आत्मानी मान्यता. ८. दारा = स्त्री.

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भवदुःखोनुं मूळ छे देहातमधी जेह;
छोडी, रुद्धेन्द्रिय बनी, अंतरमांही प्रवेश. १५.
अनादिच्युत निजरूपथी, रह्यो हुं विषयासक्त,
इन्द्रियविषयो अनुसरी, जाण्युं नहि ‘हुं’ तत्त्व. १६.
बहिर्वचनने छोडीने, अंतर्वच सौ छोड;
संक्षेपे परमात्मनो द्योतक छे आ योग. १७.
रूप मने देखाय जे, समजे नहि कंई वात;
समजे ते देखाय नहि, बोलुं कोनी साथ? १८.
बीजा उपदेशे मने, हुं उपदेशुं अन्य;
ए सौ मुज उन्मत्तता, हुं तो छुं अविकल्प. १९.
ग्रहे नहीं अग्राह्यने, छोडे नहीं ग्रहेल,
जाणे सौने सर्वथा, ते हुं छुं निजवेद्य. २०.
स्थाणु विषे नरभ्रान्तिथी थाय विचेष्टा जेम;
आत्मभ्रमे देहादिमां वर्तन हतुं मुज तेम. २१.
स्थाणु विषे विभ्रम जतां थाय सुचेष्टा जेम;
भ्रान्ति जतां देहादिमां थयुं प्रवर्तन तेम. २२.
जे रूपे हुं अनुभवुं निज निजथी निजमांही,
ते हुं, नर-स्त्री-इतर नहि, एक-बहु-द्विक नाहि. २३.
नहि पाम्ये निद्रित हतो, पाम्ये निद्रामुक्त,
ते निजवेद्य, अतीन्द्रि ने अवाच्य छे मुज रूप. २४.
१. रुद्धेन्द्रिय = रोकेली इन्द्रियोवाळो. २. द्योतक = प्रकाश करनार.
३. उन्मत्तता = उन्मादपणुं.
४. निजवेद्य = पोताथी
अनुभववा योग्य.
५. स्थाणु = झाडनुं ठूंठुं.
६. अवाच्य = न कही शकाय तेवुं.

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ज्ञानात्मक मुज आत्म ज्यां परमार्थे वेदाय,
त्यां रागादिविनाशथी नहि अरि-मित्र जणाय. २५.
देखे नहि मुजने जनो, तो नहि मुज अरि-मित्र;
देखे जो मुजने जनो, तो नहि मुज अरि-मित्र. २६.
एम तजी बहिरात्मने, थई मध्यात्मस्वरूप;
सौ संकल्पविमुक्त थई, भावो परमस्वरूप. २७.
ते भाव्ये ‘सोहम्’ तणा जामे छे संस्कार;
तद्गत द्रढ संस्कारथी आत्मनिमग्न थवाय. २८.
मूढ जहीं विश्वस्त छे, तत्सम नहि भयस्थान;
जेथी डरे तेना समुं कोई न निर्भय धाम. २९.
इन्द्रिय सर्व निरोधीने, मन करीने स्थिररूप,
क्षणभर जोतां जे दीसे, ते परमात्मस्वरूप. ३०.
जे परमात्मा ते ज हुं, जे हुं ते परमात्म;
हुं ज सेव्य मारा वडे, अन्य सेव्य नहि जाण. ३१.
विषयमुक्त थई मुज थकी ज्ञानात्मक मुजस्थित,
मुजने हुं अवलंबुं छुं परमानंदरचित. ३२.
एम न जाणे देहथी भिन्न जीव अविनाश;
ते तपतां तप घोर पण, पामे नहि शिववास. ३३.
आतम-देहविभागथी ऊपज्यो ज्यां आह्लाद,
तपथी दुष्कृत घोरने वेदे पण नहि ताप. ३४.
१. अरि = शत्रु.२. तद्गत = ते संबंधी.
३. निमग्न = लीन.४. तत्सम = तेना जेवुं.
५. शिव = मोक्ष.