Shastra Swadhyay-Gujarati (Devanagari transliteration). 6. moksha prAbhrut.

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तुं शुद्ध भावे भाव रे! सुविशुद्ध निर्मळ आत्मने,
जो शीघ्र चउगतिमुक्त थई इच्छे सुशाश्वत सौख्यने. ६०.
जे जीव जीवस्वभावने भावे, सुभावे परिणमे,
जर-मरणनो करी नाश ते निश्चय लहे निर्वाणने. ६१.
छे जीव ज्ञानस्वभाव ने चैतन्ययुतभाख्युं जिने;
ए जीव छे ज्ञातव्य, कर्मविनाशकरणनिमित्त जे. ६२.
‘सत्’ होय जीवस्वभाव ने न ‘असत्’ सरवथा जेमने,
ते देहविरहित वचनविषयातीत सिद्धपणुं लहे. ६३.
जीव चेतनागुण, अरसरूप, अगंधशब्द, अव्यक्त छे,
वळी लिंगग्रहणविहीन छे, संस्थान भाख्युं न तेहने. ६४.
तुं भाव झट अज्ञाननाशन ज्ञान पंचप्रकार रे!
ए भावनापरिणत स्वरग-शिवसौख्यनुं भाजन बने. ६५.
रे! पठन तेम ज श्रवण भावविहीनथी शुं सधाय छे?
सागार-अणगारत्वना कारणस्वरूपे भाव छे. ६६.
छे नग्न तो तिर्यंच-नारक सर्व जीवो द्रव्यथी;
परिणाम छे नहि शुद्ध ज्यां त्यां भावश्रमणपणुं नथी. ६७.
ते नग्न पामे दुःखने, ते नग्न चिर भवमां भमे,
ते नग्न बोधि लहे नहीं, जिनभावना नहि जेहने. ६८.
१. सुभाव = सारो भाव अर्थात् शुद्ध भाव.
२. जर = जरा.
३. कर्मविनाशकरणनिमित्त = कर्मनो क्षय करवानुं निमित्त.
४. स्वरग-शिवसौख्य = स्वर्ग अने मोक्षनां सुख.
५. सागार-अणगारत्व = श्रावकपणुं अने मुनिपणुं.

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शुं साध्य तारे अयशभाजन पापयुत नग्नत्वथी,
बहु हास्य-मत्सर-पिशुनता-मायाभर्या श्रमणत्वथी? ६९.
थई शुद्ध आंतर-भावमळविण, प्रगट कर जिनलिंगने;
जीव भावमळथी मलिन बाहिर-संगमां मलिनित बने. ७०.
नग्नत्वधर पण धर्ममां नहि वास, दोषावास छे,
ते इक्षुफू लसमान निष्फळ-निर्गुणी, नटश्रमण छे. ७१.
जे रागयुत जिनभावनाविरहित-दरवनिर्ग्रंथ छे,
पामे न बोधि-समाधिने ते विमळ जिनशासन विषे. ७२.
मिथ्यात्व-आदिक दोष छोडी नग्न भाव थकी बने,
पछी द्रव्यथी मुनिलिंग धारे जीव जिन-आज्ञा वडे. ७३.
छे भाव दिवशिवसौख्यभाजन; भाववर्जित श्रमण जे
पापी करममळमलिनमन, तिर्यंचगतिनुं पात्र छे. ७४.
नर-अमर-विद्याधर वडे संस्तुत करांजलिपंक्तिथी
१०चक्री-विशाळविभूति बोधि प्राप्त थाय ११सुभावथी. ७५.
१. आंतर-भावमळविण = अभ्यंतर भावमलिनता रहित.
२. मलिनित = मलिन.
३. दोषावास = दोषोनुं घर.
४. इक्षुफू ल = शेरडीनां फू ल.
५. दिवशिवसौख्यभाजन = स्वर्ग अने मोक्षनां सुखनुं भाजन.
६. करममळमलिनमन = कर्ममळथी मलिन मनवाळो.
७. अमर = देव.
८. संस्तुत = जेनी सारी रीते प्रशंसा करवामां आवे छे एवी.
९. करांजलिपंक्ति = हाथनी अंजलिनी (अर्थात् जोडेला बे हाथनी) हारमाळा.
१०. चक्री-विशाळविभूति = चक्रवर्तीनी घणी मोटी ॠद्धि.
११. सुभावथी = सारा भावथी.

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शुभ, अशुभ तेम ज शुद्धत्रणविध भाव जिनप्रज्ञप्त छे;
त्यां ‘अशुभ’ आरत-रौद्र ने ‘शुभ’ धर्म्य छेभाख्युं जिने. ७६.
आत्मा विशुद्धस्वभाव आत्म महीं रहे ते ‘शुद्ध’ छे;
आ जिनवरे भाखेल छे; जे श्रेय, आचर तेहने. ७७.
छे गलितमानकषाय, मोह विनष्ट थई समचित्त छे,
ते जीव त्रिभुवनसार बोधि लहे जिनेश्वरशासने. ७८.
विषये विरत मुनि सोळ उत्तम कारणोने भावीने,
बांधे अचिर काळे करम तीर्थंकरत्व-सुनामने. ७९.
तुं भाव बार-प्रकार तप ने तेर किरिया त्रणविधे;
वश राख मन-गज मत्तने मुनिप्रवर ! ज्ञानांकुश वडे. ८०.
भूशयन, भिक्षा, द्विविध संयम, पंचविध-पटत्याग छे,
१०छे भाव भावितपूर्व, ते जिनलिंग निर्मळ शुद्ध छे. ८१.
१. आरत-रौद्र = आर्त अने रौद्र.
२. गलितमानकषाय = जेनो मानकषाय नष्ट थयो छे एवो.
३. समचित्त = जेनुं चित्त समभाववाळुं छे एवो.
४. त्रिभुवनसार = त्रण लोकमां सारभूत.
५. अचिर काळे = अल्प काळे.
६. त्रणविधे = त्रण प्रकारे अर्थात् मन-वचन-कायाथी.
७. मन-गज मत्तने = मनरूपी मदमाता हाथीने.
८. भूशयन = भूमि पर सूवुं ते.
९. पंचविध-पटत्याग = पांच प्रकारनां वस्त्रोनो त्याग.
१०. छे भाव भावितपूर्व = ज्यां भाव (शुद्ध भाव) पूर्वे भाववामां आव्यो
होय छे; ज्यां पहेलां यथोचित शुद्धभावरूप परिणमन थयुं होय छे.

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रत्नो विषे ज्यम श्रेष्ठ हीरक, तरुगणे गोशीर्ष छे,
जिनधर्म भाविभवमथन त्यम श्रेष्ठ छे धर्मो विषे. ८२.
पूजादिमां व्रतमां जिनोए पुण्य भाख्युं शासने;
छे धर्म भाख्यो मोहक्षोभविहीन निज परिणामने. ८३.
परतीत, रुचि, श्रद्धान ने स्पर्शन करे छे पुण्यनुं
ते भोग केरुं निमित्त छे, न निमित्त कर्मक्षय तणुं. ८४.
रागादि दोष समस्त छोडी आतमा निजरत रहे
भवतरणकारण धर्म छे तेएम जिनदेवो कहे. ८५.
पण आत्मने इच्छ्या विना पुण्यो अशेष करे भले,
तोपण लहे नहि सिद्धने, भवमां भमेआगम कहे. ८६.
आ कारणे ते आत्मनी त्रिविधे तमे श्रद्धा करो,
ते आत्मने जाणो प्रयत्ने, मुक्तिने जेथी वरो. ८७.
अविशुद्ध भावे मत्स्य तंदुल पण गयो महा नरकमां,
तेथी निजात्मा जाणी नित्य तुं भाव रे! जिनभावना. ८८.
रे! बाह्यपरिग्रहत्याग, पर्वत-कंदरादिनिवास ने
ज्ञानाध्ययन सघळुं निरर्थक भावविरहित श्रमणने. ८९.
तुं इन्द्रिसेना तोड, मनमर्कट तुं वश कर यत्नथी,
नहि कर तुं जनरंजनकरण बहिरंग-व्रतवेशी बनी. ९०.
१. हीरक = हीरो.
२. गोशीर्ष = बावनाचंदन.
३. भाविभवमथन = भावी भवोने हणनार.
४. भवतरणकारण = संसारने तरी जवाना कारणभूत.
५. मनमर्कट = मनरूपी मांकडुं; मनरूपी वांदरुं.

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मिथ्यात्व ने नव नोकषाय तुं छोड भावविशुद्धिथी;
कर भक्ति जिन-आज्ञानुसार तुं चैत्य-प्रवचन-गुरु तणी. ९१.
तीर्थेशभाषित-अर्थमय, गणधरसुविरचित जेह छे,
प्रतिदिन तुं भाव विशुद्धभावे ते अतुल श्रुतज्ञानने. ९२.
जीव ज्ञानजळ पी, तीव्रतृष्णादाहशोष थकी छूटी,
शिवधामवासी सिद्ध थायत्रिलोकना चूडामणि. ९३.
बावीश परिषह सर्वकाळ सहो मुने ! काया वडे,
अप्रमत्त रही, सूत्रानुसार, निवारी संयमघातने. ९४.
पथ्थर रह्यो चिर पाणीमां भेदाय नहि पाणी वडे,
त्यम साधु पण भेदाय नहि उपसर्ग ने परिषह वडे. ९५.
तुं भाव द्वादश भावना, वळी भावना पच्चीशने;
शुं छे प्रयोजन भावविरहित बाह्यलिंग थकी अरे! ९६.
पूरणविरत पण भाव तुं नव अर्थ, तत्त्वो सातने,
मुनि! भाव जीवसमासने, गुणस्थान भाव तुं चौदने. ९७.
अब्रह्म दशविध टाळी तुं प्रगटाव नवविध ब्रह्मने;
रे! मिथुनसंज्ञासक्त तें कर्युं भ्रमण भीम भवार्णवे. ९८.
भावे सहित मुनिवर लहे आराधना चतुरंगने;
भावे रहित तो हे श्रमण! चिर दीर्घसंसारे भमे. ९९.
रे ! भावमुनि कल्याणकोनी श्रेणियुत सौख्यो लहे;
ने द्रव्यमुनि तिर्यंच-मनुज-कुदेवमां दुःखो सहे. १००.
१. तीर्थेशभाषित = तीर्थंकरदेवे कहेल. २. पूरणविरत = पूर्णविरत; सर्वविरत.
३. मिथुनसंज्ञासक्त = मैथुनसंज्ञामां आसक्त.
४. भीम भवार्णव = भयंकर संसारसमुद्र.

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अविशुद्ध भावे दोष छेंताळीस सह ग्रही अशनने,
तिर्यंचगति मध्ये तुं पाम्यो दुःख बहु परवशपणे. १०१.
तुं विचार रे!तें दुःख तीव्र लह्यां अनादि काळथी,
करी अशन-पान सचित्तनां अज्ञान-गृद्धि-दर्पथी. १०२.
कंई कंद-मूलो, पत्र-पुष्पो, बीज आदि सचित्तने
तुं मान-मदथी खाईने भटक्यो अनंत भवार्णवे. १०३.
रे! विनय पांच प्रकारनो तुं पाळ मन-वच-तन वडे;
नर होय जे अविनीत ते पामे न सुविहित मुक्तिने. १०४.
तुं हे महायश! भक्तिराग वडे स्वशक्तिप्रमाणमां
जिनभक्तिरत दशभेद वैयावृत्त्यने आचर सदा. १०५.
तें अशुभ भावे मन-वचन-तनथी कर्यो कंई दोष जे,
कर गर्हणा गुरुनी समीपे गर्व-माया छोडीने. १०६.
दुर्जन तणी निष्ठुर-कटुक वचनोरूपी थप्पड सहे
सत्पुरुष निर्ममभावयुत-मुनि कर्ममळलयहेतुए. १०७.
मुनिप्रवर परिमंडित क्षमाथी पाप निःशेषे दहे,
नर-अमर-विद्याधर तणा स्तुतिपात्र छे निश्चितपणे. १०८.
तेथी क्षमागुणधर! क्षमा कर जीव सौने त्रणविधे;
उत्तमक्षमाजळ सींच तुं चिरकाळना क्रोधाग्निने. १०९.
१. दर्प = ऊद्धताई; गर्व.
२. दशभेद = दशविध.
३. कर्ममळलयहेतुए = कर्ममळनो नाश करवा माटे.
४. परिमंडित क्षमाथी = क्षमाथी सर्वतः शोभित.
५. त्रणविधेे = त्रण प्रकारे अर्थात् मन-वचन-कायाथी.

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सुविशुद्धदर्शनधरपणे वरबोधि केरा हेतुए
चिंतव तुं दीक्षाकाळ-आदिक, जाणी सार-असारने. ११०.
करी प्राप्त आंतरलिंगशुद्धि सेव चउविध लिंगने;
छे बाह्यलिंग अकार्य भावविहीनने निश्चितपणे. १११.
आहार-भय-परिग्रह-मिथुनसंज्ञा थकी मोहितपणे
तुं परवशे भटक्यो अनादि काळथी भवकानने. ११२.
तरुमूल, आतापन, बहिःशयनादि उत्तरगुणने
तुं शुद्ध भावे पाळ, पूजालाभथी निःस्पृहपणे. ११३.
तुं भाव प्रथम, द्वितीय, त्रीजा, तुर्य, पंचम तत्त्वने,
आद्यंतरहित त्रिवर्गहर जीवने, त्रिकरणविशुद्धिए. ११४.
भावे न ज्यां लगी तत्त्व, ज्यां लगी १०चिंतनीय न चिंतवे,
जीव त्यां लगी पामे नहीं ११जर-मरणवर्जित स्थानने. ११५.
रे! पाप सघळुं, पुण्य सघळुं, थाय छे परिणामथी;
परिणामथी छे बंध तेम ज मोक्ष जिनशासन महीं. ११६.
१. वरबोधि केरा हेतुए = उत्तमबोधिनिमित्ते; उत्तम सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र
अर्थे.
२. आंतर = अभ्यंतर.३. भवकानने = संसाररूपी वनमां.
४. तरुमूल = वर्षाकाळे वृक्ष नीचे स्थिति करवी ते.
५. बहिःशयन = शीतकाळे बहार सूवुं ते.
६. तुर्य = चतुर्थ.
७. आद्यंतरहित = अनादि-
अनंत.
८. त्रिवर्गहर = धर्म-अर्थ-कामनो नाश करनार अर्थात् अपवर्गनेमोक्षने
उत्पन्न करनार.
९. त्रिकरणविशुद्धिए = त्रण करणनी शुद्धिपूर्वक; शुद्ध मन-वचन-कायाथी.
१०. चिंतनीय = चिंतववायोग्य.
११. जर = जरा.

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मिथ्या-कषाय-अविरति-योग अशुभलेश्यान्वित वडे
जिनवचपराङ्मुख आतमा बांधे अशुभरूप कर्मने. ११७.
विपरीत तेथी भावशुद्धिप्राप्त बांधे शुभने;
ए रीत बांधे अशुभ-शुभ; संक्षेपथी ज कहेल छे. ११८.
वेष्टित छुं हुं ज्ञानावरणकर्मादि कर्माष्टक वडे;
बाळी, हुं प्रगटावुं अमितज्ञानादिगुणवेदन हवे. ११९.
चोराशी लाख गुणो, अढार हजार भेदो शीलना,
सघळुंय प्रतिदिन भाव; बहु प्रलपन निरर्थथी शुं भला? १२०.
ध्या धर्म्य तेम ज शुक्लने, तजी आर्त तेम ज रौद्रने;
चिरकाळ ध्यायां आर्त तेम ज रौद्र ध्यानो आ जीवे. १२१.
द्रव्ये श्रमण इन्द्रियसुखाकुल होईने छेदे नहीं;
भववृक्ष छेदे भावश्रमणो ध्यानरूप कुठारथी. १२२.
ज्यम गर्भगृहमां पवननी बाधा रहित दीपक बळे,
ते रीत रागानिलविवर्जित ध्यानदीपक पण जळे. १२३.
ध्या पंच गुरुने, शरण-मंगल-लोकउत्तम जेह छे,
आराधनानायक, अमर-नर-खचरपूजित, वीर छे. १२४.
१. मिथ्या = मिथ्यात्व.
२. अशुभलेश्यान्वित = अशुभ लेश्यायुक्त; अशुभ लेश्यावाळा.
३. वेष्टित = घेरायेलो; आच्छादित; रुकावट पामेलो.
४. अमित = अनंत. ५. निरर्थ = निरर्थक; जेनाथी कोई अर्थ सरे नहि एवा.
६. कुठार = कुहाडो.
७. गर्भगृह = मकाननी अंदरनो भाग.
८. रागानिलविवर्जित = रागरूपी पवन रहित.
९. अमर-नर-खचरपूजित = देवो, मनुष्यो अने विद्याधरोथी पूजित.

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ज्ञानात्म निर्मळ नीर शीतळ प्राप्त करीने, भावथी
भवि थाय छे जर-मरण-व्याधिदाहवर्जित, शिवमयी. १२५.
ज्यम बीज होतां दग्ध, अंकुर भूतळे ऊगे नहीं,
त्यम कर्मबीज बळ्ये भवांकुर भावश्रमणोने नहीं. १२६.
रे! भावश्रमण सुखो लहे ने द्रव्यमुनि दुःखो लहे;
तुं भावथी संयुक्त था, गुणदोष जाणी ए रीते. १२७.
तीर्थेश-गणनाथादिगत अभ्युदययुत सौख्यो तणी
प्राप्ति करे छे भावमुनि;भाख्युं जिने संक्षेपथी. १२८.
ते छे सुधन्य, त्रिधा सदैव नमस्करण हो तेमने,
जे भावयुत, द्रगज्ञानचरणविशुद्ध, मायामुक्त छे. १२९.
खेचर-सुरादिक विक्रियाथी ॠद्धि अतुल करे भले,
जिनभावनापरिणत सुधीर लहे न त्यां पण मोहने. १३०.
तो देव-नरनां तुच्छ सुख प्रत्ये लहे शुं मोहने
मुनिप्रवर जे जाणे, जुए ने चिंतवे छे मोक्षने? १३१.
१. भावथी = शुद्ध भावथी.
२. भवि = भव्य जीवो.
३. जर-मरण-व्याधिदाहवर्जित = जरा-मरण-रोगसंबंधी बळतराथी मुक्त.
४. शिवमयी = आत्यंतिक सौख्यमय अर्थात् सिद्ध.
५. तीर्थेश-गणनाथादिगत = तीर्थंकर-गणधरादिसंबंधी.
६. त्रिधा = त्रण प्रकारे अर्थात् मन-वचन-कायाथी.
७ . भावयुत = शुद्ध भाव सहित.
८. खेचर-सुरादिक = विद्याधर, देव वगेरे.
९. जुए = देखे, श्रद्धे.

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रे! आक्रमे न जरा, गदाग्नि दहे न तनकुटि ज्यां लगी,
बळ इन्द्रियोनुं नव घटे, करी ले तुं निजहित त्यां लगी. १३२.
छ अनायतन तज, कर दया षट्जीवनी त्रिविधे सदा,
महासत्त्वने तुं भाव रे! अपूरवपणे हे मुनिवरा! १३३.
भमतां अमित भवसागरे, तें भोगसुखना हेतुए
सहुजीव-दशविधप्राणनो आहार कीधो त्रणविधे. १३४.
प्राणीवधोथी हे महायश! योनि लख चोराशीमां
उत्पत्तिनां ने मरणनां दुःखो निरंतर तें लह्यां. १३५.
तुं भूत-प्राणी-सत्त्व-जीवने त्रिविध शुद्धि वडे मुनि!
दे अभय, जे कल्याणसौख्यनिमित्त पारंपर्यथी. १३६.
शत-एंशी किरियावादीना, चोराशी १०तेथी विपक्षना,
बत्रीश सडसठ भेद छे वैनयिक ने अज्ञानीना. १३७.
सुरीते सुणी जिनधर्म पण प्रकृति अभव्य नहीं तजे,
साकरसहित क्षीरपानथी पण सर्प नहि निर्विष बने. १३८.
११दुर्बुद्धि-दुर्मतदोषथी १२मिथ्यात्वआवृतद्रग रहे,
आत्मा अभव्य जिनेंद्रज्ञापित धर्मनी रुचि नव करे. १३९.
१. आक्रमे = आक्रमण करे; हल्लो करे; घेरी वळे; पकडे.
२. गदाग्नि = रोगरूपी अग्नि.
३. तनकुटि = कायारूपी झूंपडी.
४. त्रिविधे = मन-वचन-काययोगथी.५. अपूरवपणे = अपूर्वपणे.
६. अमित = अनंत.७. अभय = अभयदान.
८. कल्याण = तीर्थंकरदेवनां कल्याणक.९. पारंपर्यथी = परंपराए.
१०. तेथी विपक्षना = अक्रियावादीना.
११. दुर्बुद्धि-दुर्मतदोषथी = दुर्बुद्धिने लीधे तथा कुमत-अनुरूप दोषोने लीधे.
१२. मिथ्यात्वआवृतद्रग = मिथ्यात्वथी आच्छादित द्रष्टिवाळो.

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कुत्सितधरम-रत, भक्ति जे पाखंडी कुत्सितनी करे,
कुत्सित करे तप, तेह कुत्सित गति तणुं भाजन बने. १४०.
हे धीर! चिंतवजीव आ मोहित कुनय-दुःशास्त्रथी
मिथ्यात्वघर संसारमां रखड्यो अनादि काळथी. १४१.
उन्मार्गने छोडी त्रिशत-तेसठप्रमित पाखंडीना,
जिनमार्गमां मन रोक; बहु प्रलपन निरर्थथी शुं भला? १४२.
जीवमुक्त शब कहेवाय, ‘चल शब’ जाण दर्शनमुक्तने;
शब लोक मांही अपूज्य, चल शब होय लोकोत्तर विषे. १४३.
ज्यम चंद्र तारागण विषे, मृगराज सौ मृगकुल विषे,
त्यम अधिक छे सम्यक्त्व ॠषिश्रावकद्विविध धर्मो विषे. १४४.
नागेंद्र शोभे फे णमणिमाणिक्यकिरणे चमकतो,
ते रीत शोभे शासने जिनभक्त दर्शननिर्मळो. १४५.
शशिबिंब तारकवृंद सह निर्मळ नभे शोभे घणुं,
त्यम शोभतुं तपव्रतविमळ जिनलिंग दर्शननिर्मळुं. १४६.
ईम जाणीने गुणदोष धारो भावथी द्रगरत्नने,
जे सार गुणरत्नो विषे ने प्रथम शिवसोपान छे. १४७.
१. पाखंडी कुत्सितनी = कुत्सित (निंदित, धिक्कारवा योग्य, खराब, अधर्म)
एवा पाखंडीओनी.
२. मिथ्यात्वघर = (१) मिथ्यात्वनुं घर एवा, अथवा (२) मिथ्यात्व जेनुं घर छे
एवा.
३. निरर्थ = निर्रथक; व्यर्थ.
४. चल शब = हालतुं-चालतुं मडदुं.
५. मृगराज = सिंह.
६. मृगकुल = पशुसमूह.

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कर्ता तथा भोक्ता, अनादि-अनंत, देहप्रमाण ने
वणमूर्ति, द्रगज्ञानोपयोगी जीव भाख्यो जिनवरे. १४८.
द्रगज्ञानआवृति, मोह तेम ज अंतरायक कर्मने
सम्यक्पणे जिनभावनाथी भव्य आत्मा क्षय करे. १४९.
चउघातिनाशे ज्ञान-दर्शन-सौख्य-बळ चारे गुणो
प्राकट्य पामे जीवने, परकाश लोकालोकनो. १५०.
ते ज्ञानी, शिव, परमेष्ठी छे, विष्णु, चतुर्मुख, बुद्ध छे,
आत्मा तथा परमातमा, सर्वज्ञ, कर्मविमुक्त छे. १५१.
चउघातिकर्मविमुक्त, दोष अढार रहित, सदेह ए
त्रिभुवनभवनना दीप जिनवर बोधि दो उत्तम मने. १५२.
जे परमभक्तिरागथी जिनवरपदांबुजने नमे,
ते जन्मवेलीमूळने वर भावशस्त्र वडे खणे. १५३.
ज्यम कमलिनीना पत्रने नहि सलिललेप स्वभावथी,
त्यम सत्पुरुषने लेप विषयकषायनो नहि भावथी. १५४.
कहुं ते ज मुनि जे शीलसंयमगुणसमस्त कळाधरे;
जे मलिनमन बहुदोषघर, ते तो न श्रावकतुल्य छे. १५५.
१. वणमूर्ति = अमूर्त; अरूपी.
२. द्रगज्ञानआवृति = दर्शनावरण ने ज्ञानावरण.
३. प्राकट्य = प्रगटपणुं.
४. त्रिभुवनभवनना दीप = त्रण लोकरूपी घरना दीपक अर्थात् दीवारूप.
५. वर = उत्तम.
६. खणे = खोदे छे.
७. सलिल = पाणी.
८. मलिनमन = मलिन चित्तवाळो.

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ते धीरवीर नरो, क्षमादम-तीक्ष्णखड्गे जेमणे
जीत्या सुदुर्जय-उग्रबळ-मदमत्त-सुभटकषायने. १५६.
छे धन्य ते भगवंत, दर्शनज्ञान-उत्तमकर वडे
जे पार करता विषयमकराकरपतित भवि जीवने. १५७.
मुनि ज्ञानशस्त्रे छेदता संपूर्ण मायावेलने,
बहु विषय-विषपुष्पे खीली, आरूढ मोहमहाद्रुमे. १५८.
मद-मोह-गारवमुक्त ने जे युक्त करुणाभावथी,
सघळा दुरितरूप थंभनेे घाते चरण-तरवारथी. १५९.
तारावली सह जे रीते पूर्णेन्दु शोभे आभमां,
गुणवृंदमणिमाळा सहित मुनिचंद्र जिनमतगगनमां. १६०.
चक्रेश-केशव-राम-जिन-गणी-सुरवरादिक-सौख्यने,
चारणमुनींद्रसुॠद्धिने, १०सुविशुद्धभाव नरो लहे. १६१.
जिनभावनापरिणत जीवो वरसिद्धिसुख अनुपम लहे,
शिव, अतुल, उत्तम, परम निर्मळ, अजर-अमरस्वरूप जे. १६२.
भगवंत सिद्धोत्रिजगपूजित, नित्य, शुद्ध, निरंजना
वर भावशुद्धि दो मने द्रग, ज्ञान ने चारित्रमां. १६३.
१. क्षमादम-तीक्ष्णखड्गे = क्षमा (प्रशम) अने जितेंद्रियतारूपी तीक्ष्ण तरवारथी.
२. सुभट = योद्धा.
३. दर्शनज्ञान-उत्तमकर = दर्शन अने ज्ञानरूप (बे) उत्तम हाथ.
४. विषयमकराकर = विषयोरूपी समुद्र (मगरोनुं स्थान).
५. भवि = भव्य.
६. आरूढ मोहमहाद्रुमे = मोहरूपी महावृक्ष पर
चडेली.
७. दुरित = दुष्कर्म; पाप.८. घाते = नाश करे.
९. चक्रेश-केशव-राम-जिन-गणी-सुरवरादिक-सौख्यने = चक्रवर्ती, नारायण,
बलभद्र, तीर्थंकर, गणधर, देवेन्द्र वगेरेनां सुखने.
१०. सुविशुद्धभाव = शुद्ध भाववाळा.

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बहु कथन शुं करवुं? अरे! धर्मार्थकामविमोक्ष ने
बीजाय बहु व्यापार, ते सौ भाव मांही रहेल छे. १६४.
ए रीत सर्वज्ञे कथित आ भावप्राभृत-शास्त्रनां
सुपठन-सुश्रवण-सुभावनाथी वास अविचळ धाममां. १६५.
६. मोक्षप्राभृत
करीने क्षपण कर्मो तणुं, परद्रव्य परिहरी जेमणे
ज्ञानात्म आत्मा प्राप्त कीधो, नमुं नमुं ते देवने. १.
ते देवने नमीअमित-वर-द्रगज्ञानधरने शुद्धने,
कहुं परमपदपरमातमाप्रकरण परमयोगीन्द्रने. २.
जे जाणीने, योगस्थ योगी, सतत देखी जेहने,
उपमाविहीन अनंत अव्याबाध शिवपदने लहे. ३.
ते आतमा छे परम-अंतर-बहिर त्रणधा देहीमां;
अंतर-उपाये परमने ध्याओ, तजो बहिरातमा. ४.
छे अक्षधी बहिरात्म, आतमबुद्धि अंतर-आतमा,
जे मुक्त कर्मकलंकथी ते देव छे परमातमा. ५.
१. अविचळ धाम = सिद्धपद; मोक्ष.२. क्षपण = क्षय.
३. अमित-वर = अनंत अने प्रधान.
४. परम-अंतर-बहिर त्रणधा = परमात्मा, अंतरात्मा अने बहिरात्मा
एम
त्रण प्रकारे.
५. अंतर-उपाये = अंतरात्मारूप साधनथी; अंतरात्मारूप जे परिणाम ते
परिणामरूप साधनथी.६. परमने = परमात्माने.
७. अक्षधी = इंद्रियबुद्धि; ‘इंद्रियो ते ज आत्मा छे’ एवी बुद्धिवाळो.

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ते छे विशुद्धात्मा, अनिंद्रिय, मळरहित, तनमुक्त छे,
परमेष्ठी, केवळ, परमजिन, शाश्वत, शिवंकर, सिद्ध छे. ६.
थई अंतरात्मारूढ, बहिरात्मा तजीने त्रणविधे,
ध्यातव्य छे परमातमाजिनवरवृषभ-उपदेश छे. ७.
बाह्यार्थ प्रत्ये स्फु रितमन, स्वभ्रष्ट इन्द्रियद्वारथी,
निजदेह अध्यवसित करे आत्मापणे जीव मूढधी. ८.
निजदेह सम परदेह देखी मूढ त्यां उद्यम करे,
ते छे अचेतन तोय माने तेहने १०आत्मापणे. ९.
वस्तुस्वरूप जाण्या विना ११देहे स्व-अध्यवसायथी
अज्ञानी जनने मोह फाले पुत्रदारादिक महीं. १०.
रही लीन मिथ्याज्ञानमां, मिथ्यात्वभावे परिणमी,
ते देह माने ‘हुं’पणे १२फरीनेय मोहोदय थकी. ११.
निर्द्वंद्व, निर्मम, देहमां निरपेक्ष, १३मुक्तारंभ जे,
जे लीन आत्मस्वभावमां, ते योगी पामे मोक्षने. १२.
१. शिवंकर = सुखकर; कल्याणकर.
२. अंतरात्मारूढ = अंतरात्मामां आरूढ; अंतरात्मारूपे परिणत.
३. ध्यातव्य = ध्यावायोग्य; ध्यान करवा योग्य.
४. बाह्यार्थ = बहारना पदार्थो.
५. स्फु रितमन = स्फु रायमान (तत्पर) मनवाळो.
६. स्वभ्रष्ट इन्द्रियद्वारथी = इन्द्रियो द्वारा आत्मस्वरूपथी च्युत.
७. अध्यवसित करे = माने.
८. जीव मूढधी = मूढ बुद्धिवाळो जीव; मूढबुद्धि (अर्थात् बहिरात्मा) जीव.
९. ते = परनो देह.
१०.आत्मापणे = परना आत्मा तरीके.
११. देहे स्व-अध्यवसायथी = ‘देह ते ज आत्मा छे’ एवा मिथ्या अभिप्रायथी.
१२. फरीनेय = आगामी भवमां पण.
१३. मुक्तारंभ = निरारंभ; आरंभ रहित.

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परद्रव्यरत बंधाय, विरत मुकाय विधविध कर्मथी;
आ, बंधमोक्ष विषे जिनेश्वरदेशना संक्षेपथी. १३.
रे! नियमथी निजद्रव्यरत साधु सुद्रष्टि होय छे,
सम्यक्त्वपरिणत वर्ततो दुष्टाष्ट कर्मो क्षय करे. १४.
परद्रव्यमां रत साधु तो मिथ्यादरशयुत होय छे,
मिथ्यात्वपरिणत वर्ततो बांधे करम दुष्टाष्टने. १५.
परद्रव्यथी दुर्गति, खरे सुगति स्वद्रव्यथी थाय छे;
ए जाणी, निजद्रव्ये रमो, परद्रव्यथी विरमो तमे. १६.
आत्मस्वभावेतर सचित्त, अचित्त, तेम ज मिश्र जे,
ते जाणवुं परद्रव्यसर्वज्ञे कह्युं अवितथपणे. १७.
दुष्टाष्टकर्मविहीन, अनुपम, ज्ञानविग्रह, नित्य ने
जे शुद्ध भाख्यो जिनवरे, ते आतमा स्वद्रव्य छे. १८.
परविमुख थई निजद्रव्य जे ध्यावे सुचारित्रीपणे,
जिनदेवना मारग महीं संलग्न ते शिवपद लहे. १९.
जिनदेवमत-अनुसार ध्यावे योगी निजशुद्धात्मने,
जेथी लहे निर्वाण, तो शुं नव लहे सुरलोकने? २०.
१. विरत = परद्रव्यथी विरमेल; परद्रव्यथी विराम पामेल.
२. दुष्टाष्ट कर्मो = दुष्ट आठ कर्मोने; खराब एवां आठ कर्मोने.
३. आत्मस्वभावेतर = आत्मस्वभावथी अन्य.
४. अवितथपणे = सत्यपणे; यथार्थपणे.
५. ज्ञानविग्रह = ज्ञानरूप शरीरवाळो.
६. संलग्न = लागेल; वळगेल; जोडायेल.
७. सुरलोक = देवलोक; स्वर्ग.

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बहु भार लई दिन एकमां जे गमन सो योजन करे,
ते व्यक्तिथी क्रोशार्ध पण नव जई शकाय शुं भूतळे? २१.
जे सुभट होय अजेय कोटि नरोथीसैनिक सर्वथी,
ते वीर सुभट जिताय शुं संग्राममां नर एकथी? २२.
तपथी लहे सुरलोक सौ, पण ध्यानयोगे जे लहे
ते आतमा परलोकमां पामे सुशाश्वत सौख्यने. २३.
ज्यम शुद्धता पामे सुवर्ण
अतीव शोभन योगथी,
आत्मा बने परमातमा त्यम काळ-आदिक लब्धिथी. २४.
दिव ठीक व्रततपथी, न हो दुख इतरथी नरकादिके;
छांये अने तडके प्रतीक्षाकरणमां बहु भेद छे. २५.
संसार-अर्णव रुद्रथी निःसरण इच्छे जीव जे,
ध्यावे करम-इन्धन तणा दहनार निज शुद्धात्मने. २६.
सघळा कषायो, १०मोहरागविरोध-मद-गारव तजी,
ध्यानस्थ ध्यावे आत्मने, व्यवहार लौकिकथी छूटी. २७.
१. कोशार्ध = अर्ध कोस; अर्धो गाउ.
२. अजेय = न जीती शकाय एवो.
३. अतीव शोभन = अति
सारा.
४. दिव ठीक व्रततपथी = (अव्रत अने अतपथी नरकादि दुःख प्राप्त थाय तेना
करतां) व्रततपथी स्वर्ग प्राप्त थाय ते मुकाबले सारुं छे.
५. इतरथी = बीजाथी (अर्थात् अव्रत अने अतपथी).
६. प्रतीक्षाकरणमां = राह जोवामां.
७. संसार-अर्णव रुद्रथी = भयंकर संसारसमुद्रथी.
८. निःसरण = बहार नीकळवुं ते.
९. करम-इन्धन तणा दहनार = कर्मरूपी इंधणांने बाळी नाखनार.
१०. मोहरागविरोध = मोहरागद्वेष.

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त्रिविधे तजी मिथ्यात्वने, अज्ञानने, अघ-पुण्यने,
योगस्थ योगी मौनव्रतसंपन्न ध्यावे आत्मने. २८.
देखाय मुजने रूप जे ते जाणतुं नहि सर्वथा,
ने जाणनार न द्रश्यमान; हुं बोलुं कोनी साथमां? २९.
आस्रव समस्त निरोधीने क्षय पूर्वकर्म तणो करे,
ज्ञाता ज बस रही जाय छे योगस्थ योगी;जिन कहे. ३०.
योगी सूता व्यवहारमां ते जागता निजकार्यमां;
जे जागता व्यवहारमां ते सुप्त आतमकार्यमां. ३१.
इम जाणी योगी सर्वथा छोडे सकळ व्यवहारने,
परमात्मने ध्यावे यथा उपदिष्ट जिनदेवो वडे. ३२.
तुं पंचसमित, त्रिगुप्त ने संयुक्त पंचमहाव्रते,
रत्नत्रयीसंयुतपणे कर नित्य ध्यानाध्ययनने. ३३.
रत्नत्रयी आराधनारो जीव आराधक कह्यो;
आराधनानुं विधान केवलज्ञानफळदायक अहो! ३४.
छे सिद्ध, आत्मा शुद्ध छे ने सर्वज्ञानीदर्शी छे,
तुं जाण रे!जिनवरकथित आ जीव केवळ ज्ञान छे. ३५.
जे योगी आराधे रतनत्रय प्रगट जिनवरमार्गथी,
ते आत्मने ध्यावे अने पर परिहरे;शंका नथी. ३६.
१. अघ-पुण्यने = पापने तथा पुण्यने. २. न द्रश्यमान = देखातो
नथी.
३. पंचसमित = पांच समितिथी युक्त (वर्ततो थको).
४.
त्रिगुप्त = त्रण गुप्ति सहित (वर्ततो थको).
५.रत्नत्रयीसंयुतपणे = रत्नत्रयसंयुक्तपणे.
६.ध्यानाध्ययन = ध्यान तथा अध्ययन; ध्यान तथा शास्त्राभ्यास.

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जे जाणतुं ते ज्ञान, देखे तेह दर्शन जाणवुं,
जे पाप तेम ज पुण्यनो परिहार ते चारित कह्युं. ३७.
छे तत्त्वरुचि सम्यक्त्व, तत्त्व तणुं ग्रहण सद्ज्ञान छे,
परिहार ते चारित्र छे;जिनवरवृषभनिर्दिष्ट छे. ३८.
द्रगशुद्ध आत्मा शुद्ध छे, द्रगशुद्ध ते मुक्ति लहे,
दर्शनरहित जे पुरुष ते पामे न इच्छित लाभने. ३९.
जरमरणहर आ सारभूत उपदेश श्रद्धे स्पष्ट जे,
सम्यक्त्व भाख्युं तेहने, हो श्रमण के श्रावक भले. ४०.
जीव-अजीव केरो भेद जाणे योगी जिनवरमार्गथी,
सर्वज्ञदेवे तेहने सद्ज्ञान भाख्युं तथ्यथी. ४१.
ते जाणी योगी परिहरे छे पाप तेम ज पुण्यने,
चारित्र ते अविकल्प भाख्युं कर्मरहित जिनेश्वरे. ४२.
रत्नत्रयीयुत संयमी निजशक्तितः तपने करे,
शुद्धात्मने ध्यातो थको उत्कृष्ट पदने ते वरे. ४३.
१. ग्रहण = समजण; जाणवुं ते; ज्ञान.
२. सद्ज्ञान = सम्यग्ज्ञान.
३. द्रगशुद्ध = दर्शनशुद्ध; सम्यग्दर्शनथी शुद्ध.
४. जरमरणहर = जरा अने मरणनो नाशक.
५. तथ्यथी = सत्यपणे; अवितथपणे.
६. अविकल्प = निर्विकल्प; विकल्प रहित.
७. निजशक्तितः = पोतानी शक्ति प्रमाणे.
८. उत्कृष्ट पद = परम पद (अर्थात् मुक्ति).

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त्रणथी धरी त्रण, नित्य त्रिकविरहितपणे, त्रिकयुतपणे,
रही दोषयुगलविमुक्त ध्यावे योगी निज परमात्मने. ४४.
जे जीव माया-क्रोध-मद परिवर्जीने, तजी लोभने,
निर्मळ स्वभावे परिणमे, ते सौख्य उत्तमने लहे. ४५.
परमात्मभावनहीन, रुद्र, कषायविषये युक्त जे,
ते जीव जिनमुद्राविमुख पामे नहीं शिवसौख्यने. ४६.
जिनवरवृषभ-उपदिष्ट जिनमुद्रा ज शिवसुख नियमथी;
ते नव रुचे स्वप्नेय जेने, ते रहे भववन महीं. ४७.
परमात्मने ध्यातां श्रमण मळजनक लोभ थकी छूटे,
नूतन करम नहि आस्रवेजिनदेवथी निर्दिष्ट छे. ४८.
परिणत सुद्रढ-सम्यक्त्वरूप, लही सुद्रढ-चारित्रने,
निज आत्मने ध्यातां थकां योगी परम पदने लहे. ४९.
चारित्र ते निज धर्म छे ने धर्म निज समभाव छे,
ते जीवना १०वणरागरोष अनन्यमय परिणाम छे. ५०.
१. त्रणथी = त्रण वडे (अर्थात् मन-वचन-कायाथी).
२. धरी त्रण = त्रणने धारण करीने (अर्थात् वर्षाकाळयोग, शीतकाळयोग तथा
ग्रीष्मकाळयोगने धारण करीने).
३. त्रिकविरहितपणे = त्रणथी (अर्थात् शल्यत्रयथी) रहितपणे.
४. त्रिकयुतपणे = त्रणथी संयुक्तपणे (अर्थात् रत्नत्रयथी सहितपणे).
५. दोषयुगलविमुक्त = बे दोषोथी रहित (अर्थात् राग-द्वेषथी रहित).
६. परमात्मभावनहीन = परमात्मभावना रहित; निज परमात्मतत्त्वनी
भावनाथी रहित.७. रुद्र = रौद्र परिणामवाळो.
८. जिनमुद्राविमुख = जिनसद्रश यथाजात मुनिरूपथी पराङ्मुख.
९. ते = निज समभाव.
१०. वणरागरोष = रागद्वेषरहित.