Shastra Swadhyay-Gujarati (Devanagari transliteration). 3. chAritra prAbhrut; 4. bodh prAbhrut; 5. bhAv prAbhrut.

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बावीश परिषहने सहे छे, शक्तिशतसंयुक्त जे,
ते कर्मक्षय ने निर्जरामां निपुण मुनिओ वंद्य छे. १२.
अवशेष लिंगी जेह सम्यक् ज्ञान-दर्शनयुक्त छे
ने वस्त्र धारे जेह, ते छे योग्य इच्छाकारने. १३.
सूत्रस्थ सम्यग्द्रष्टियुत जे जीव छोडे कर्मने,
‘इच्छामि’योग्य पदस्थ ते परलोकगत सुखने लहे. १४.
पण आत्मने इच्छ्या विना धर्मो अशेष करे भले,
तोपण लहे नहि सिद्धिने, भवमां भमेआगम कहे. १५.
आ कारणे ते आत्मनी त्रिविधे तमे श्रद्धा करो,
ते आत्मने जाणो प्रयत्ने, मुक्तिने जेथी वरो. १६.
रे! होय नहि बालाग्रनी अणीमात्र परिग्रह साधुने;
करपात्रमां परदत्त भोजन एक स्थान विषे करे. १७.
जन्म्या प्रमाणे रूप, तलतुषमात्र करमां नव ग्रहे,
थोडुंघणुं पण जो ग्रहे तो प्राप्त थाय निगोदने. १८.
रे! होय बहु वा अल्प परिग्रह साधुने जेना मते,
ते निंद्य छे; जिनवचनमां मुनि निष्परिग्रह होय छे. १९.
त्रण गुप्ति, पंच महाव्रते जे युक्त, संयत तेह छे;
निर्ग्रंथ मुक्तिमार्ग छे ते; ते खरेखर वंद्य छे. २०.
१. शक्तिशत = सेंकडो शक्तिओ.
२. अवशेष = बाकीना (अर्थात् मुनि सिवायना).
३. सूत्रस्थ = शास्त्रोनो जाणनार अने यथाशक्ति तदनुसार वर्तनार.
४. ‘इच्छामि’योग्य = इच्छाकारने योग्य. ५.
पदस्थ = प्रतिमाधारी.
६. बालाग्र = वाळनी टोच. ७. तलतुषमात्र = तलना फोतरा जेटलुं पण.

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बीजु कह्युं छे लिंग उत्तम श्रावकोनुं शासने;
ते वाक्समिति वा मौनयुक्त सपात्र भिक्षाटन करे. २१.
छे लिंग एक स्त्रीओ तणुं, एकाशनी ते होय छे;
आर्याय एक धरे वसन, वस्त्रावृता भोजन करे. २२.
नहि वस्त्रधर सिद्धि लहे, ते होय तीर्थंकर भले;
बस नग्न मुक्तिमार्ग छे, बाकी बधा उन्मार्ग छे. २३.
स्त्रीने स्तनोनी पास, कक्षे, योनिमां, नाभि विषे,
बहु सूक्ष्म जीव कहेल छे; क्यम होय दीक्षा तेमने? २४.
जो होय दर्शनशुद्ध तो तेनेय मार्गयुता कही;
छो चरण घोर चरे छतां स्त्रीने नथी दीक्षा कही. २५.
मनशुद्धि पूरी न नारीने, परिणाम शिथिल स्वभावथी,
वळी होय मासिक धर्म, स्त्रीने ध्यान नहि निःशंकथी. २६.
पटशुद्धिमात्र समुद्रजलवत् ग्राह्य पण अल्प ज ग्रहे,
इच्छा निवर्ती जेमने, दुख सौ निवर्त्यां तेमने. २७.
१.वाक्समिति = वचनसमिति.
२.एकाशनी = एक वखत भोजन करनार.
३.वसन = वस्त्र.
४.मार्गयुता = मार्गथी संयुक्त.
५.पटशुद्धिमात्र = वस्त्र धोवा पूरतुं थोडुं ज.

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३. चारित्रप्राभृत
सर्वज्ञ छे, परमेष्ठी छे, निर्मोह ने वीतराग छे,
ते त्रिजगवंदित, भव्यपूजित अर्हतोने वंदीने; १.
भाखीश हुं चारित्रप्राभृत मोक्षने आराधवा,
जे हेतु छे सुज्ञान-द्रग-चारित्र केरी शुद्धिमां. २.
जे जाणतुं ते ज्ञान, देखे तेह दर्शन उक्त छे;
ने ज्ञान-दर्शनना समायोगे सुचारित होय छे. ३.
आ भाव त्रण आत्मा तणा अविनाश तेम अमेय छे;
ए भावत्रयनी शुद्धि अर्थे द्विविध चरण जिनोक्त छे. ४.
सम्यक्त्वचरणं छे प्रथम, जिनज्ञानदर्शनशुद्ध जे,
बीजुं चरित संयमचरण, जिनज्ञानभाषित तेय छे. ५.
ईम जाणीने छोडो त्रिविध योगे सकळ शंकादिने,
मिथ्यात्वमय दोषो तथा सम्यक्त्वमळ जिन-उक्तने. ६.
निःशंकता, निःकांक्ष, निर्विचिकित्स, अविमूढत्व ने
उपगूहन, थिति, वात्सल्यभाव, प्रभावनागुण अष्ट छे. ७.
ते अष्टगुणसुविशुद्ध जिनसम्यक्त्वनेशिवहेतुने
आचरवुं ज्ञान समेत, ते सम्यक्त्वचरण चरित्र छे. ८.
सम्यक्त्वचरणविशुद्ध ने निष्पन्नसंयमचरण जो,
निर्वाणने अचिरे वरे अविमूढद्रष्टि ज्ञानीओ. ९.
१. सुचारित्र = सम्यक्चारित्र.२.अमेय = अमाप.
३. अष्टगुणसुविशुद्ध = आठ गुणोथी निर्मळ.
४. शिवहेतु = मोक्षनुं कारण.

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सम्यक्त्वचरणविहीन छो संयमचरण जन आचरे,
तोपण लहे नहि मुक्तिने अज्ञानज्ञानविमूढ ए. १०.
वात्सल्य-विनय थकी, सुदाने दक्ष अनुकंपा थकी,
वळी मार्गगुणस्तवना थकी, उपगूहन ने स्थितिकरणथी; ११.
आ लक्षणोथी तेम आर्जवभावथी लक्षाय छे,
वणमोह जिनसम्यक्त्वने आराधनारो जीव जे. १२.
अज्ञानमोहपथे कुमतमां भावना, उत्साह ने
श्रद्धा, स्तवन, सेवा करे जे, ते तजे सम्यक्त्वने. १३.
सद्दर्शने उत्साह, श्रद्धा, भावना, सेवा अने
स्तुति ज्ञानमार्गथी जे करे, छोडे न जिनसम्यक्त्वने. १४.
अज्ञान ने मिथ्यात्व तज, लही ज्ञान, समकित शुद्धने;
वळी मोह तज सारंभ तुं, लहीने अहिंसाधर्मने. १५.
निःसंग लही दीक्षा, प्रवर्त सुसंयमे, सत्तप विषे;
निर्मोह वीतरागत्व होतां ध्यान निर्मळ होय छे. १६.
जे वर्तता अज्ञानमोहमले मलिन मिथ्यामते,
ते मूढजीव मिथ्यात्व ने मतिदोषथी बंधाय छे. १७.
देखे दरशथी, ज्ञानथी जाणे दरव-पर्यायने,
सम्यक्त्वथी श्रद्धा करे, चारित्रदोषो परिहरे. १८.
१. अज्ञानज्ञानविमूढ = अज्ञानतत्त्व अने ज्ञानतत्त्वनो भेद नहि जाणनार.
२. मार्गगुणस्तवना = निर्ग्रंथ मार्गना गुणनी प्रशंसा.
३. आर्जवभाव = सरळ परिणाम.
४ .लक्षाय = ओळखाय.
५. सारंभ = आरंभयुक्त.
६. अज्ञानमोहमले मलिन = अज्ञान अने मोहना दोषो वडे मलिन.

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रे! होय छे भावो त्रणे आ, मोहविरहित जीवने;
निज आत्मगुण आराधतो ते कर्मने अचिरे तजे. १९.
संसारसीमित निर्जरा अणसंख्य-संख्यगुणी करे,
सम्यक्त्व आचरनार धीरा दुःखना क्षयने करे. २०.
सागार अण-आगार एम द्विभेद संयमचरण छे;
सागार छे सगं्रथ, अण-आगार परिग्रहरहित छे. २१.
दर्शन, व्रतं, सामायिकं, प्रोषध, सचित, निशिभुक्ति ने
वळी ब्रह्म ने आरंभ आदिक देशविरतिस्थान छे. २२.
अणुव्रत कह्यां छे पांच ने त्रण गुणव्रतो निर्दिष्ट छे,
शिक्षाव्रतो छे चार;ए संयमचरण सागार छे. २३.
त्यां स्थूल त्रसहिंसा-असत्य-अदत्तना, परनारीना
परिहारने, आरंभपरिग्रहमानने अणुव्रत कह्यां. २४.
दिशविदिशगति-परिमाण होय, अनर्थदंड परित्यजे,
भोगोपभोग तणुं करे परिमाण,गुणव्रत त्रण्य छे. २५.
सामायिकं, व्रत प्रोषधं, अतिथि तणी पूजा अने
अंते करे सल्लेखनाशिक्षाव्रतो ए चार छे. २६.
श्रावकधरमरूप देशसंयमचरण भाख्युं ए रीते;
यतिधर्म-आत्मक पूर्णसंयमचरण शुद्ध कहुं हवे. २७.
पंचेन्द्रिसंवर, पांच व्रत पच्चीशक्रियासंबद्ध जे,
वळी पांच समिति, त्रिगुप्तिअण-आगार संयमचरण छे. २८.
सुमनोज्ञ ने अमनोज्ञ जीव-अजीवद्रव्योने विषे
करवा न रागविरोध ते पंचेन्द्रिसंवर उक्त छे. २९.
१. अचिरे = अल्प काळमां.२.निशिभुक्ति = रात्रिभोजनत्याग.
३. रागविरोध = रागद्वेष.

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हिंसाविराम, असत्य तेम अदत्तथी विरमण अने
अब्रह्मविरमण, संगविरमणछे महाव्रत पांच ए. ३०.
मोटा पुरुष साधे, पूरव मोटा जनोए आचर्यां,
स्वयमेव वळी मोटां ज छे, तेथी महाव्रत ते ठर्यां. ३१.
मन-वचनगुप्ति, गमनसमिति, सुदाननिक्षेपण अने
अवलोकीने भोजनअहिंसाभावना ए पांच छे. ३२.
जे क्रोध, भय ने हास्य तेम ज लोभ-मोहकुभाव छे,
तेना विपर्ययभाव ते छे भावना बीजा व्रते. ३३.
सूना अगर तो त्यक्त स्थाने वास, पर-उपरोध ना,
आहार एषणशुद्धियुत, साधर्मी सह विखवाद ना. ३४.
महिलानिरीक्षण-पूर्वरतिस्मृति-निकटवास, त्रियाकथा,
पौष्टिक रसोथी विरतिते व्रत तुर्यनी छे भावना. ३५.
मनहर-अमनहर स्पर्श-रस-रूप-गंध तेम ज शब्दमां
करवा न रागविरोध, व्रत पंचम तणी ए भावना. ३६.
इर्या, सुभाषा, एषणा, आदान ने निक्षेपए,
संयम तणी शुद्धि निमित्ते समिति पांच जिनो कहे. ३७.
रे! भव्यजनबोधार्थ जिनमार्गे कह्युं जिन जे रीते,
ते रीत जाणो ज्ञान ने ज्ञानात्म आत्माने तमे. ३८.
जे जाणतो जीव-अजीवना सुविभागने, सद्ज्ञानी ते
रागादिविरहित थाय छेजिनशासने शिवमार्ग जे. ३९.
१. विपर्ययभाव = विपरीत भाव.
२. पर-उपरोध ना = बीजाने नडतर थाय एम न रहेवुं ते.
३. त्रियाकथा = स्त्रीकथा.
४. तुर्य = चतुर्थ.
५. भव्यजनबोधार्थ = भव्यजनोने बोधवा माटे. ६. ज्ञानात्म = ज्ञानस्वरूप.

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द्रग, ज्ञान ने चारित्रत्रण जाणो परम श्रद्धा वडे,
जे जाणीने योगीजनो निर्वाणने अचिरे वरे. ४०.
जे ज्ञानजळ पीने लहे सुविशुद्ध निर्मळ परिणति,
शिवधामवासी सिद्ध थायत्रिलोकना चूडामणि. ४१.
जे ज्ञानगुणथी रहित, ते पामे न लाभ सु-इष्टने;
गुणदोष जाणी ए रीते, सद्ज्ञानने जाणो तमे. ४२.
ज्ञानी चरित्रारूढ थई निज आत्ममां पर नव चहे,
अचिरे लहे शिवसौख्य अनुपम एम जाणो निश्चये. ४३.
वीतरागदेवे ज्ञानथी सम्यक्त्व-संयम-आश्रये
जे चरण भाख्युं, ते कह्युं संक्षेपथी अहीं आ रीते. ४४.
भावो विमळ भावे चरणप्राभृत सुविरचित स्पष्ट जे,
छोडी चतुर्गति शीघ्र पामो मोक्ष शाश्वतने तमे. ४५.
४. बोधप्राभृत
शास्त्रार्थ बहु जाणे, सुद्रगसंयमविमळ तप आचरे,
वर्जितकषाय, विशुद्ध छे, ते सूरिगणने वंदीने; १.
षट्कायसुखकर कथन करुं संक्षेपथी, सुणजो तमे,
जे सर्वजनबोधार्थ जिनमार्गे कह्युं छे जिनवरे. २.
१.सुद्रगसंयमविमळ तप = सम्यग्दर्शन ने संयमथी शुद्ध एवुं तप.
२.वर्जितकषाय = कषायरहित.
३.सूरिगण = आचार्योनो समूह.

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जे आयतन ने चैत्यगृह, प्रतिमा तथा दर्शन अने
वीतराग जिननुं बिंब, जिनमुद्रा, स्वहेतुक ज्ञान जे, ३.
अर्हंतदेशित देव, तेम ज तीर्थ, वळी अर्हंत ने
गुणशुद्ध प्रव्रज्या यथाक्रमशः अहीं ज्ञातव्य छे. ४.
आयत्त छे मन-वचन-काया इन्द्रिविषयो जेहने,
ते संयमीनुं रूप भाख्युं आयतन जिनशासने. ५.
आयत्त जस मद-क्रोध-लोभ विमोह-राग-विरोध छे,
ॠषिवर्य पंचमहाव्रती ते आयतन निर्दिष्ट छे. ६.
सुविशुद्धध्यानी, ज्ञानयुत, जेने सुसिद्ध सदर्थ छे,
मुनिवरवृषभ ते मळरहित सिद्धायतन विदितार्थ छे. ७.
स्वात्मा-परात्मा-अन्यने जे जाणतां ज्ञान ज रहे,
छे चैत्यगृह, ते ज्ञानमूर्ति, शुद्ध पंचमहाव्रते. ८.
चेतन स्वयं, सुख-दुःख-बंधन-मोक्ष जेने अल्प छे,
षट्कायहितकर तेह भाख्युं चैत्यगृह जिनशासने. ९.
द्रग-ज्ञान-निर्मळचरणधरनी भिन्न जंगम काय जे,
निर्ग्रंथ ने वीतराग, ते प्रतिमा कही जिनशासने. १०.
जाणे-जुए निर्मळ सुद्रग सह, चरण निर्मळ आचरे,
ते वंदनीय निर्ग्रंथ-संयतरूप प्रतिमा जाणजे. ११.
१.अर्हंतदेशित = अर्हंतभगवाने कहेल.
२.गुणशुद्ध प्रव्रज्या = गुणथी शुद्ध एवी दीक्षा.
३.आयत्त = आधीन; वशीभूत.४. सदर्थ = सत् अर्थ.
५.विदितार्थ = जे समस्त पदार्थोने जाणे छे एवुं
६.अल्प = गौण.७. सुद्रग = सम्यग्दर्शन.

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निःसीम दर्शन-ज्ञान ने सुख-वीर्य वर्ते जेमने,
शाश्वतसुखी, अशरीर ने कर्माष्टबंधविमुक्त जे, १२.
अक्षोभ-निरुपम-अचल-ध्रुव, उत्पन्न जंगम रूपथी,
ते सिद्ध सिद्धिस्थानस्थित, व्युत्सर्गप्रतिमा जाणवी. १३.
दर्शावतुं संयम-सुद्रग-सद्धर्मरूप, निर्ग्रंथ ने
ज्ञानात्म मुक्तिमार्ग, ते दर्शन कह्युं जिनशासने. १४.
ज्यम फू ल होय सुगंधमय ने दूध घृतमय होय छे,
रूपस्थ दर्शन होय सम्यग्ज्ञानमय एवी रीते. १५.
जिनबिंब छे, जे ज्ञानमय, वीतराग, संयमशुद्ध छे,
दीक्षा तथा शिक्षा करमक्षयहेतु आपे शुद्ध जे. १६.
तेनी करो पूजा, विनय-वात्सल्य-प्रणमन तेहने,
जेने सुनिश्चित ज्ञान, दर्शन, चेतनापरिणाम छे. १७.
तपव्रतगुणोथी शुद्ध, निर्मळ सुद्रग सह जाणे-जुए,
दीक्षा-सुशिक्षादायिनी अर्हंतमुद्रा तेह छे. १८.
इन्द्रिय-कषायनिरोधमय मुद्रा सुद्रढसंयममयी,
आ उक्त मुद्रा ज्ञानथी निष्पन्न, जिनमुद्रा कही. १९.
संयमसहित सद्ध्यानयोग्य विमुक्तिपथना लक्ष्यने,
पामी शके छे ज्ञानथी जीव, तेथी ते ज्ञातव्य छे. २०.
शर-अज्ञ वेध्य-अजाण जेम करे न प्राप्त निशानने,
अज्ञानी तेम करे न लक्षित मोक्षपथना लक्ष्यने. २१.
१. निःसीम = अनंत२. व्युत्सर्गप्रतिमा = कायोत्सर्गमय प्रतिमा.
३. ज्ञानात्म = ज्ञानमय. ४. शर-अज्ञ = बाणविद्यानो अजाण.
५. वेध्य-अजाण = निशानसंबंधी अजाण.

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रे! ज्ञान नरने थाय छे; ते सुजन तेम विनीतने;
ते ज्ञानथी, करी लक्ष, पामे मोक्षपथना लक्ष्यने. २२.
मति चाप थिर, श्रुत दोरी, जेने रत्नत्रय शुभ बाण छे,
परमार्थ जेनुं लक्ष्य छे, ते मोक्षमार्गे नव चूके. २३.
ते देव, जे सुरीते धरम ने अर्थ, काम, सुज्ञान दे;
ते वस्तु दे छे ते ज, जेने धर्म-दीक्षा-अर्थ छे. २४.
ते धर्म जेह दयाविमळ, दीक्षा परिग्रहमुक्त जे,
ते देव जे निर्मोह छे ने उदय भव्य तणो करे. २५.
व्रत-सुद्रगनिर्मळ, इन्द्रिसंयमयुक्त ने निरपेक्ष जे,
ते तीर्थमां दीक्षा-सुशिक्षारूप स्नान करो, मुने! २६.
निर्मळ सुदर्शन-तपचरण-सद्धर्म-संयम-ज्ञानने,
जो शान्तभावे युक्त तो, तीरथ कह्युं जिनशासने. २७.
अभिधान-स्थापन-द्रव्य-भावे, स्वीय गुणपर्यायथी,
अर्हंत जाणी शकाय छे आगति-च्यवन-संपत्तिथी. २८.
निःसीम दर्शन-ज्ञान छे, वसुबंधलयथी मोक्ष छे,
निरुपम गुणे आरूढ छे, अर्हंत आवा होय छे. २९.
जे पुण्य-पाप, जरा-जनम-व्याधि-मरण, गतिभ्रमण ने
वळी दोषकर्म हणी थया ज्ञानात्म, ते अर्हंत छे. ३०.
छे स्थापना अर्हंतनी कर्तव्य पांच प्रकारथी,
‘गुण’, मार्गणा, पर्याप्ति तेम ज प्राण ने जीवस्थानथी. ३१.
१.चाप = धनुष्य.२. शुभ = सारुं.
३.निरपेक्ष = अभिलाषारहित. ४. अभिधान = नाम.
५.स्वीय = पोताना. ६. वसु = आठ ७. ‘गुण’ = गुणस्थान.

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अर्हत् सयोगीकेवळीजिन तेरमे गुणस्थान छे;
चोत्रीश अतिशययुक्त ने वसु प्रातिहार्यसमेत छे. ३२.
गति-इन्द्रि-काये, योग-वेद-कषाय-संयम-ज्ञानमां,
द्रग-भव्य-लेश्या-संज्ञी-समकित-आ’रमां ए स्थापवा. ३३.
आहार, काया, इन्द्रि, श्वासोच्छ्वास, भाषा, मन तणी,
अर्हंत उत्तम देव छे समृद्ध षट् पर्याप्तिथी. ३४.
इन्द्रियप्राणो पांच, त्रण बळप्राण मन-वच-कायना,
बे आयु-श्वासोच्छ्वासप्राणो,प्राण ए दस होय त्यां. ३५.
मानवभवे पंचेन्द्रि तेथी चौदमे जीवस्थान छे;
पूर्वोक्त गुणगणयुक्त, ‘गुण’-आरूढ श्री अर्हंत छे. ३६.
वणव्याधि-दुःख-जरा, अहार-निहारवर्जित, विमळ छे,
अजुगुप्सिता, वणनासिकामळ-श्लेष्म-स्वेद, अदोष छे; ३७.
दस प्राण, षट् पर्याप्ति, अष्ट-सहस्र लक्षण युक्त छे,
सर्वांग गोक्षीर-शंखतुल्य सुधवल मांस-रुधिर छे; ३८.
आवा गुणे सर्वांग अतिशयवंत, परिमलम्हेकती,
औदारिकी काया अहो ! अर्हत्पुरुषनी जाणवी. ३९.
मदरागद्वेषविहीन, त्यक्तकषायमळ सुविशुद्ध छे,
मनपरिणमनपरिमुक्त, केवळभावस्थित अर्हंत छे. ४०.
१.अजुगुप्सिता = जेना प्रत्ये जुगुप्सा न थाय एवी.
२.वणनासिकामळ-श्लेष्म-स्वेद = नाकना मेलथी, कफथी ने परसेवाथी
रहित.
३.
सुधवल = धोळुं.४. परिमल = सुगंध.
५.त्यक्तकषायमळ = कषायमळ रहित.
६.केवळ = एकलो; निर्भेळ; शुद्ध.

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देखे दरशथी, ज्ञानथी जाणे दरव-पर्यायने,
सम्यक्त्वगुणसुविशुद्ध छे,अर्हंतनो आ भाव छे. ४१.
मुनि शून्यगृह, तरुतल वसे, उद्यान वा समशानमां,
गिरिकंदरे, गिरिशिखर पर, विकराळ वन वा वसतिमां. ४२.
निजवश श्रमणना वास, तीरथ, शास्त्रचैत्यालय अने
जिनभवन मुनिनां लक्ष्य छेजिनवर कहे जिनशासने. ४३.
पंचेन्द्रिसंयमवंत, पंचमहाव्रती, निरपेक्ष ने
स्वाध्याय-ध्याने युक्त मुनिवरवृषभ इच्छे तेमने. ४४.
गृह-ग्रंथ-मोहविमुक्त छे, परिषहजयी, अकषाय छे,
छे मुक्त पापारंभथी,दीक्षा कही आवी जिने. ४५.
धन-धान्य-पट, कंचन-रजत, आसन-शयन, छत्रादिनां
सर्वे कुदान विहीन छे,दीक्षा कही आवी जिने. ४६.
निंदा-प्रशंसा, शत्रु-मित्र, अलब्धि ने लब्धि विषे,
तृण-कंचने समभाव छे,दीक्षा कही आवी जिने. ४७.
निर्धन-सधन ने उच्च-मध्यम सदन अनपेक्षितपणे
सर्वत्र पिंड ग्रहाय छे,दीक्षा कही आवी जिने. ४८.
निर्ग्रंथ ने निःसंग निर्मानाश, निरहंकार छे,
निर्मम, अराग, अद्वेष छे,दीक्षा कही आवी जिने. ४९.
निःस्नेह, निर्भय, निर्विकार, अकलुष ने निर्मोह छे,
आशारहित, निर्लोभ छे,दीक्षा कही आवी जिने. ५०.
१. उद्यान = बगीचो.२. गिरिकंदर = पर्वतनी गुफा.
३. पट = वस्त्र.४. कंचन-रजत = सोनुं-रूपुं.
५. लब्धि = लाभ.६. सदन = घर. ७. पिंड = आहार.
८. निर्मानाश = मान ने आशा रहित.

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जन्म्या प्रमाणे रूप, लंबितभुज, निरायुध, शांत छे,
परकृत निलयमां वास छे,दीक्षा कही आवी जिने. ५१.
उपशम-क्षमा-दमयुक्त, तनसंस्कारवर्जित रूक्ष छे,
मद-राग-द्वेषविहीन छे,दीक्षा कही आवी जिने. ५२.
ज्यां मूढता-मिथ्यात्व नहि, ज्यां कर्म अष्ट विनष्ट छे,
सम्यक्त्वगुणथी शुद्ध छे,दीक्षा कही आवी जिने. ५३.
निर्ग्रंथ दीक्षा छे कही षट् संहननमां जिनवरे;
भवि पुरुष भावे तेहने; ते कर्मक्षयनो हेतु छे. ५४.
तलतुषप्रमाण न बाह्य परिग्रह, राग तत्सम छे नहीं;
आवी प्रव्रज्या होय छे सर्वज्ञजिनदेवे कही. ५५.
उपसर्ग-परिषह मुनि सहे, निर्जन स्थळे नित्ये रहे,
सर्वत्र काष्ठ, शिला अने भूतल उपर स्थिति ते करे. ५६.
स्त्री-षंढ-पशु-दुःशीलनो नहि संग, नहि विकथा करे,
स्वाध्याय-ध्याने युक्त छे,दीक्षा कही आवी जिने. ५७.
तपव्रतगुणोथी शुद्ध, संयम-सुद्रगगुणसुविशुद्ध छे,
छे गुणविशुद्ध,सुनिर्मळा दीक्षा कही आवी जिने. ५८.
संक्षेपमां आयतनथी दीक्षांत भाव अहीं कह्या,
ज्यम शुद्धसम्यग्दरशयुत निर्ग्रंथ जिनपथ वर्णव्या. ५९.
१. लंबितभुज = नीचे लटकता हाथवाळी. २. निरायुध = शस्त्ररहित.
३. निलय = रहेठाण.
४.दम = इन्द्रियनिग्रह.
५. रूक्ष = तेलमर्दन रहित.६.षंढ = नपुंसक.
७. दुःशील = कुशील जनो.
८. दीक्षांत = प्रव्रज्या सुधीना.

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रूपस्थ सुविशुद्धार्थ वर्णन जिनपथे ज्यम जिन कर्युं,
त्यम भव्यजनबोधन-अरथ षट्कायहितकर अहीं कह्युं. ६०.
जिनकथन भाषासूत्रमय शाब्दिक-विकाररूपे थयुं;
ते जाण्युं शिष्ये भद्रबाहु तणा अने एम ज कह्युं. ६१.
जस बोध द्वादश अंगनो, चउदशपूरव-विस्तारनो,
जय हो श्रुतंधर भद्रबाहु गमकगुरु भगवाननो. ६२.
५. भावप्राभृत
सुर-असुर-नरपतिवंद्य जिनवर-इन्द्रने, श्री सिद्धने,
मुनि शेषने शिरसा नमी कहुं भावप्राभृत-शास्त्रने. १.
छे भाव परथम लिंग, द्रवमय लिंग नहि परमार्थ छे;
गुणदोषनुं कारण कह्यो छे भावने श्री जिनवरे. २.
रे! भावशुद्धिनिमित्त बाहिर-ग्रंथ त्याग कराय छे;
छे विफळ बाहिर-त्याग आंतर-ग्रंथथी संयुक्तने. ३.
छो कोटिकोटि भवो विषे निर्वस्त्र लंबितकर रही
पुष्कळ करे तप, तोय भावविहीनने सिद्धि नहीं. ४.
परिणाम होय अशुद्ध ने जो बाह्य ग्रंथ परित्यजे,
तो शुं करे ए बाह्यनो परित्याग भावविहीनने? ५.
१. सुविशुद्धार्थ = जेमां शुद्ध स्वरूप कहेलुं छे एवुं; तात्त्विक.
२. जस = जेमने.
३. चउदश = चौद.४.
श्रुतंधर = श्रुतज्ञानी.
५. विफळ = निष्फळ.६. आंतर-ग्रंथ = अभ्यंतर परिग्रह.
७. लंबितकर = नीचे लटकावेला हाथवाळा.

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छे भाव परथम, भावविरहित लिंगथी शुं कार्य छे?
हे पथिक! शिवनगरी तणो पथ यत्नप्राप्य कह्यो जिने. ६.
सत्पुरुष! काळ अनादिथी निःसीम आ संसारमां
बहु वार भाव विना बहिर्निर्ग्रंथ रूप ग्रह्यां-तज्यां. ७.
भीषण नरक, तिर्यंच तेम कुदेव-मानवजन्ममां,
तें जीव! तीव्र दुखो सह्यां; तुं भाव रे! जिनभावना. ८.
भीषण सुतीव्र असह्य दुःखो सप्त नरकावासमां
बहु दीर्घ काळप्रमाण तें वेद्यां, अछिन्नपणे सह्यां. ९.
रे ! खनन-उत्तापन-प्रजालन-वीजन-छेद-निरोधनां
चिरकाळ पाम्यो दुःख भावविहीन तुं तिर्यंचमां. १०.
तें सहज, कायिक, मानसिक, आगंतुचार प्रकारनां
दुःखो लह्यां निःसीम काळ मनुष्य केरा जन्ममां. ११.
सुर-अप्सराना विरहकाळे हे महायश ! स्वर्गमां
१०शुभभावनाविरहितपणे तें तीव्र ११मानस दुख सह्यां. १२.
तुं स्वर्गलोके हीन देव थयो, दरवलिंगीपणे
कांदर्पी-आदिक पांच बूरी भावनाने भावीने. १३.
१. यत्न = प्रयत्न; (शुद्धभावरूप) उद्यम.
२. अछिन्न = सतत; निरंतर.
३. खनन = खोदवानी क्रिया.
४. उत्तापन = तपाववानी क्रिया.५. प्रजालन = प्रजाळवानी क्रिया.
६. वीजन = पंखाथी पवन नाखवानी क्रिया.
७. छेद = कापवानी क्रिया. ८. निरोध = बंधनमां राखवानी क्रिया.
९. आगंतु = आगंतुक; बहारथी आवी पडेल.
१०.
शुभभावना = सारी भावना अर्थात् शुद्ध परिणति.
११.मानस = मानसिक.

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बहु वार काळ अनादिथी पार्श्वस्थ-आदिक भावना
तें भावीने दुर्भावनात्मक बीजथी दुःखो लह्यां. १४.
रे! हीन देव थई तुं पाम्यो तीव्र मानस दुःखने,
देवो तणा गुणविभव, ॠद्धि, महात्म्य बहुविध देखीने. १५.
मदमत्त ने आसक्त चार प्रकारनी विकथा महीं,
बहुशः कुदेवपणुं लह्युं तें, अशुभ भावे परिणमी. १६.
हे मुनिप्रवर! तुं चिर वस्यो बहु जननीना गर्भोपणे
निकृष्टमळभरपूर, अशुचि, बीभत्स गर्भाशय विषे. १७.
जन्मो अनंत विषे अरे! जननी अनेरी अनेरीनुं
स्तनदूध तें पीधुं महायश! उदधिजळथी अति घणुं. १८.
तुज मरणथी दुःखार्त बहु जननी अनेरी अनेरीनां
नयनो थकी जळ जे वह्यां ते उदधिजळथी अति घणां. १९.
निःसीम भवमां त्यक्त तुज नख-नाळ-अस्थि-केशने
सुर कोई एकत्रित करे तो गिरिअधिक राशि बने. २०.
जल-थल-अनल-पवने, नदी-गिरि-आभ-वन-वृक्षादिमां
वण आत्मवशता चिर वस्यो सर्वत्र तुं त्रण भुवनमां. २१.
भक्षण कर्यां तें लोकवर्ती पुद्गलोने सर्वने,
फरी फरी कर्यां भक्षण छतां पाम्यो नहीं तुं तृप्तिने. २२.
पीडित तृषाथी तें पीधां छे सर्व त्रिभुवननीरने,
तोपण तृषा छेदाई ना; चिंतव अरे! भवछेदने. २३.
१. बहुशः = अनेक वार.२. उदधिजळ = समुद्रनुं पाणी.
३. गिरिअधिक राशि = पर्वतथी पण वधु मोटो ढगलो.
४. त्रिभुवननीर = त्रण लोकनुं बधुं पाणी.
५. भवछेद = भवनो नाश.

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हे धीर! हे मुनिवर! ग्रह्यां-छोड्यां शरीर अनेक तें,
तेनुं नथी परिमाण कंई निःसीम भवसागर विषे. २४.
विष-वेदनाथी, रक्तक्षय-भय-शस्त्रथी, संक्लेशथी,
आयुष्यनो क्षय थाय छे आहार-श्वासनिरोधथी; २५.
हिम-अग्नि-जळथी, उच्च-पर्वतवृक्षरोहणपतनथी,
अन्याय-रसविज्ञान-योगप्रधारणादि प्रसंगथी. २६.
हे मित्र! ए रीत जन्मीने चिर काळ नर-तिर्यंचमां,
बहु वार तुं पाम्यो महादुख आकरां अपमृत्युनां. २७.
छासठ हजार त्रिशत अधिक छत्रीश तें मरणो कर्यां
अंतर्मुहूर्तप्रमाण काळ विषे निगोदनिवासमां. २८.
रे! जाण एंशी साठ चाळीश क्षुद्रभव विकलेंद्रिना,
अंतर्मुहूर्ते क्षुद्रभव चोवीश पंचेन्द्रिय तणा. २९.
वण रत्नत्रयप्राप्ति तुं ए रीत दीर्घ संसारे भम्यो,
भाख्युं जिनोए आम; तेथी रत्नत्रयने आचरो. ३०.
निज आत्ममां रत जीव जे ते प्रगट सम्यग्द्रष्टि छे,
तद्बोध छे सुज्ञान, त्यां चरवुं चरण छे;मार्ग ए. ३१.
१. विष-वेदनाथी = झेर खावाथी तथा पीडाथी.
२. आहार-श्वासनिरोध = आहारनो ने श्वासनो निरोध.
३. उच्च-पर्वतवृक्षरोहणपतनथी = ऊंचा पर्वत ने वृक्ष पर चडतां पडी
जवाथी.
४. तद्बोध = तेनुं ज्ञान; निज आत्माने जाणवुं ते.
५. चरण = चारित्र; सम्यक्चारित्र.

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हे जीव! कुमरणमरणथी तुं मर्यो अनेक भवो विषे;
तुं भाव सुमरणमरणने जर-मरणना हरनारने. ३२.
त्रण लोकमां परमाणु सरखुं स्थान कोई रह्युं नथी,
ज्यां द्रव्यश्रमण थयेल जीव मर्यो नथी, जन्म्यो नथी. ३३.
जीव जनि-जरा-मृततप्त काळ अनंत पाम्यो दुःखने,
जिनलिंगने पण धारी पारंपर्यभावविहीनने. ३४.
प्रतिदेश-पुद्गल-काळ-आयुष-नाम-परिणामस्थ तें
बहुशः शरीर ग्रह्यां-तज्यां निःसीम भवसागर विषे. ३५.
त्रणशत-अधिक चाळीस-त्रण रज्जुप्रमित आ लोकमां
तजी आठ कोई प्रदेश ना, परिभ्रमित नहि आ जीव ज्यां. ३६.
प्रत्येक अंगुल छन्नुं जाणो रोग मानवदेहमां;
तो केटला रोगो, कहो, आ अखिल देह विषे, भला! ३७.
ए रोग पण सघळा सह्या तें पूर्वभवमां परवशे;
तुं सही रह्यो छे आम, यशधर! अधिक शुं कहीए तने? ३८.
मळ-मूत्र-शोणित-पित्त, करम, बरोळ, यकृत, आंत्र ज्यां,
त्यां मास नव-दश तुं वस्यो बहु वार जननी-उदरमां. ३९.
जननी तणुं चावेल ने खाधेल एठुं खाईने,
तुं जननी केरा जठरमां वमनादिमध्य वस्यो अरे! ४०.
१. कुमरणमरण = कुमरणरूप मरण.२. जर = जरा.
३. जनि-जरा-मृततप्त = जन्म, जरा अने मरणथी पीडित वर्ततो थको.
४. पारंपर्यभावविहीन = परंपरागत भावलिंगथी रहित; आचार्योनी परंपराथी
चाल्या आवता भावलिंग रहित.५. बहुशः = अनेक वार.
६. शोणित = लोही. ७. करम = कृमि. ८. यकृत = कलेजुं.
९. आंत्र = आंतरडां.

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तुं अशुचिमां लोट्यो घणुं शिशुकाळमां अणसमजमां,
मुनिवर! अशुचि आरोगी छे बहु वार तें बालत्वमां. ४१.
पल-पित्त-शोणित-आंत्रथी दुर्गंध शब सम ज्यां स्रवे,
चिंतव तुं पीप-वसादि-अशुचिभरेल कायाकुं भने. ४२.
रे! भावमुक्त विमुक्त छे, स्वजनादिमुक्त न मुक्त छे,
ईम भावीने हे धीर! तुं परित्याग आंतर ग्रंथने. ४३.
देहादिसंग तज्यो अहो! पण मलिन मानकषायथी
आतापना करता रह्या बाहुबली मुनि क्यां लगी? ४४.
तन-भोजनादिप्रवृत्तिना तजनार मुनि मधुपिंगले,
हे भव्यनूत! निदानथी ज लह्युं नहीं श्रमणत्वने. ४५.
बीजाय साधु वसिष्ठ पाम्या दुःखने निदानथी;
एवुं नथी को स्थान के जे स्थान जीव भम्यो नथी. ४६.
एवो न कोई प्रदेश लख चोराशी योनिनिवासमां,
रे! भावविरहित श्रमण पण परिभ्रमणने पाम्यो न ज्यां. ४७.
छे भावथी लिंगी, न लिंगी द्रव्यलिंगथी होय छे;
तेथी धरो रे! भावने, द्रवलिंगथी शुं साध्य छे? ४८.
दंडकनगर करी दग्ध सघळुं दोष अभ्यंतर वडे,
जिनलिंगथी पण बाहु ए ऊपज्या नरक रौरव विषे. ४९.
वळी ए रीते बीजा दरवसाधु द्वीपायन नामना
वरज्ञानदर्शनचरणभ्रष्ट, अनंतसंसारी थया. ५०.
१. पल = मांस.२. पीप-वसादि = परु, चरबी वगेरे.
३. आंतर = अभ्यंतर.
४. भव्यनूत = भव्यजीवो जेनी प्रशंसा करे छे एवा; भव्य जीवो वडे जेने
नमवामां आवे छे एवा.५. श्रमणत्वने = भावमुनिपणाने.

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बहुयुवतिजनवेष्टित छतां पण धीर शुद्धमति अहा!
ए भावसाधु शिवकुमार परीतसंसारी थया. ५१.
जिनवरकथित एकादशांगमयी सकल श्रुतज्ञानने
भणवा छतांय अभव्यसेन न प्राप्त भावमुनित्वने. ५२.
शिवभूतिनामक भावशुद्ध महानुभाव मुनिवरा
‘तुषमाष’ पदने गोखता पाम्या प्रगट सर्वज्ञता. ५३.
नग्नत्व तो छे भावथी; शुं नग्न बाहिर-लिंगथी?
रे! नाश कर्मसमूह केरो होय भावथी द्रव्यथी. ५४.
नग्नत्व भावविहीन भाख्युं अकार्य देव जिनेश्वरे,
ईम जाणीने हे धीर! नित्ये भाव तुं निज आत्मने. ५५.
देहादिसंगविहीन छे, वर्ज्या सकळ मानादि छे,
आत्मा विषे रत आत्म छे, ते भावलिंगी श्रमण छे. ५६.
परिवर्जुं छुं हुं ममत्व, निर्मम भावमां स्थित हुं रहुं;
अवलंबुं छुं मुज आत्मने, अवशेष सर्व हुं परिहरुं. ५७.
मुज ज्ञानमां आत्मा खरे, दर्शन-चरितमां आतमा,
पचखाणमां आत्मा ज, संवर-योगमां पण आतमा. ५८.
मारो सुशाश्वत एक दर्शनज्ञानलक्षण जीव छे;
बाकी बधा संयोगलक्षण भाव मुजथी बाह्य छे. ५९.
१.वेष्टित = विंटळायेला.
२.परीतसंसारी = परिमित संसारवाळा; अल्पसंसारी.
३.एकादशांग = अगियार अंग.
४.तुषमाष = फोतरां अने अडद.
५.बाहिर = बाह्य.