Shastra Swadhyay-Gujarati (Devanagari transliteration). 9. sarvishuddhagyAn adhikAr; PravchansAr; 1. gyAntattva pragyApan.

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बंधन महीं जे बद्ध ते नर बंधछेदनथी छूटे,
त्यम जीव पण बंधो तणुं छेदन करी मुक्ति लहे. २९२.
बंधो तणो जाणी स्वभाव, स्वभाव जाणी आत्मनो,
जे बंध मांही विरक्त थाये, कर्ममोक्ष करे अहो! २९३.
जीव बंध बन्ने, नियत निज निज लक्षणे छेदाय छे,
प्रज्ञाछीणी थकी छेदतां बन्ने जुदा पडी जाय छे. २९४.
जीव बंध ज्यां छेदाय ए रीत नियत निज निज लक्षणे,
त्यां छोडवो ए बंधने, जीव ग्रहण करवो शुद्धने. २९५.
ए जीव केम ग्रहाय? जीव ग्रहाय छे प्रज्ञा वडे;
प्रज्ञाथी ज्यम जुदो कर्यो त्यम ग्रहण पण प्रज्ञा वडे. २९६.
प्रज्ञाथी ग्रहवोनिश्चये जे चेतनारो ते ज हुं,
बाकी बधा जे भाव ते सौ मुज थकी परजाणवुं. २९७.
प्रज्ञाथी ग्रहवोनिश्चये जे देखनारो ते ज हुं,
बाकी बधा जे भाव ते सौ मुज थकी परजाणवुं. २९८.
प्रज्ञाथी ग्रहवोनिश्चये जे जाणनारो ते ज हुं,
बाकी बधा जे भाव ते सौ मुज थकी परजाणवुं. २९९.
सौ भाव जे परकीय जाणे, शुद्ध जाणे आत्मने,
ते कोण ज्ञानी ‘मारुं आ’ एवुं वचन बोले खरे? ३००.
अपराध चौर्यादिक करे जे पुरुष ते शंकित फरे,
के लोकमां फरतां रखे को चोर जाणी बांधशे; ३०१.
अपराध जे करतो नथी, निःशंक लोक विषे फरे,
‘बंधाउं हुं’ एवी कदी चिंता न थाये तेहने. ३०२.

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त्यम आतमा अपराधी ‘हुं बंधाउं’ एम सशंक छे,
ने निरपराधी जीव ‘नहि बंधाउं’ एम निःशंक छे. ३०३.
संसिद्धि, सिद्धि, राध, आराधित, साधितएक छे,
ए राधथी जे रहित छे ते आतमा अपराध छे; ३०४.
वळी आतमा जे निरपराधी ते निःशंकित होय छे,
वर्ते सदा आराधनाथी जाणतो ‘हुं’ आत्मने. ३०५.
प्रतिक्रमण, ने प्रतिसरण, वळी परिहरण, निवृति, धारणा,
वळी शुद्धि, निंदा, गर्हणाए अष्टविध विषकुंभ छे. ३०६.
अणप्रतिक्रमण, अणप्रतिसरण, अणपरिहरण, अणधारणा,
अनिवृत्ति, अणगर्हा, अनिंद, अशुद्धिअमृतकुंभ छे. ३०७.
९. सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
जे द्रव्य ऊपजे जे गुणोथी तेथी जाण अनन्य ते,
ज्यम जगतमां कटकादि पर्यायोथी कनक अनन्य छे. ३०८.
जीवअजीवना परिणाम जे दर्शाविया सूत्रो महीं,
ते जीव अगर अजीव जाण अनन्य ते परिणामथी. ३०९.
ऊपजे न आत्मा कोईथी तेथी न आत्मा कार्य छे,
उपजावतो नथी कोईने तेथी न कारण पण ठरे. ३१०.
रे! कर्म-आश्रित होय कर्ता, कर्म पण कर्ता तणे
आश्रितपणे ऊपजे नियमथी, सिद्धि नव बीजी दीसे. ३११.

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पण जीव प्रकृतिना निमित्ते ऊपजे विणसे अरे!
ने प्रकृति पण जीवना निमित्त ऊपजे विणसे; ३१२.
अन्योन्यना निमित्त ए रीत बंध बेउ तणो बने
आत्मा अने प्रकृति तणो, संसार तेथी थाय छे. ३१३.
उत्पाद-व्यय प्रकृतिनिमित्ते ज्यां लगी नहि परितजे,
अज्ञानी, मिथ्यात्वी, असंयत त्यां लगी आ जीव रहे; ३१४.
आ आतमा ज्यारे करमनुं फळ अनंतुं परितजे,
ज्ञायक तथा दर्शक तथा मुनि तेह कर्मविमुक्त छे. ३१५.
अज्ञानी वेदे कर्मफळ प्रकृतिस्वभावे स्थित रही,
ने ज्ञानी तो जाणे उदयगत कर्मफळ, वेदे नहीं. ३१६.
सुरीते भणीने शास्त्र पण प्रकृति अभव्य नहीं तजे,
साकरसहित क्षीरपानथी पण सर्प नहि निर्विष बने. ३१७.
निर्वेदने पामेल ज्ञानी कर्मफळने जाणतो,
कडवा मधुर बहुविधने, तेथी अवेदक छे अहो! ३१८.
करतो नथी, नथी वेदतो ज्ञानी करम बहुविधने,
बस जाणतो ए बंध तेम ज कर्मफळ शुभ-अशुभने. ३१९.
ज्यम नेत्र, तेम ज ज्ञान नथी कारक, नथी वेदक अरे!
जाणे ज कर्मोदय, निरजरा, बंध तेम ज मोक्षने. ३२०.
ज्यम लोक माने ‘देव, नारक आदि जीव विष्णु करे’,
त्यम श्रमण पण माने कदी ‘आत्मा करे षट् कायने’, ३२१.
तो लोक-मुनि सिद्धांत एक ज, भेद तेमां नव दीसे,
विष्णु करे ज्यम लोकमतमां, श्रमणमत आत्मा करे; ३२२.

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ए रीत लोकमुनि उभयनो मोक्ष कोई नहीं दीसे,
जे देव, मनुज, असुरना त्रण लोकने नित्ये करे. ३२३.
व्यवहारमूढ अतत्त्वविद् परद्रव्यने ‘मारुं’ कहे,
‘परमाणुमात्र न मारुं’ ज्ञानी जाणता निश्चय वडे. ३२४.
ज्यम पुरुष कोई कहे ‘अमारुं गाम, पुर ने देश छे’,
पण ते नथी तेनां, अरे! जीव मोहथी ‘मारां’ कहे; ३२५.
एवी ज रीत जे ज्ञानी पण ‘मुज’ जाणतो परद्रव्यने,
निजरूप करे परद्रव्यने, ते जरूर मिथ्यात्वी बने. ३२६.
तेथी ‘न मारुं’ जाणी जीव, परद्रव्यमां आ उभयनी
कर्तृत्वबुद्धि जाणतो, जाणे सुद्रष्टिरहितनी. ३२७.
जो प्रकृति मिथ्यात्वनी मिथ्यात्वी करती आत्मने,
तो तो अचेतन प्रकृति कारक बने तुज मत विषे! ३२८.
अथवा करे जो जीव पुद्गलद्रव्यना मिथ्यात्वने,
तो तो ठरे मिथ्यात्वी पुद्गलद्रव्य, आत्मा नव ठरे! ३२९.
जो जीव अने प्रकृति करे मिथ्यात्व पुद्गलद्रव्यने,
तो उभयकृत जे होय तेनुं फळ उभय पण भोगवे! ३३०.
जो नहि प्रकृति, नहि जीव करे मिथ्यात्व पुद्गलद्रव्यने,
पुद्गलदरव मिथ्यात्व वणकृत!ए शुं नहि मिथ्या खरे? ३३१.
‘‘कर्मो करे अज्ञानी तेम ज ज्ञानी पण कर्मो करे,
कर्मो सुवाडे तेम वळी कर्मो जगाडे जीवने; ३३२.
कर्मो करे सुखी तेम वळी कर्मो दुखी जीवने करे,
कर्मो करे मिथ्यात्वी तेम असंयमी कर्मो करे; ३३३.

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कर्मो भमावे ऊर्ध्व लोके, अधः ने तिर्यक् विषे,
जे कांई पण शुभ के अशुभ ते सर्वने कर्म ज करे. ३३४.
कर्म ज करे छे, कर्म ए आपे, हरे,सघळुं करे,
तेथी ठरे छे एम के आत्मा अकारक सर्व छे. ३३५.
वळी ‘पुरुषकर्म स्त्रीने अने स्त्रीकर्म इच्छे पुरुषने’
एवी श्रुति आचार्य केरी परंपरा ऊतरेल छे. ३३६.
ए रीत ‘कर्म ज कर्मने इच्छे’कह्युं छे श्रुतमां,
तेथी न को पण जीव अब्रह्मचारी अम उपदेशमां. ३३७.
वळी जे हणे परने, हणाये परथी, तेह प्रकृति छे,
ए अर्थमां परघात नामनुं नामकर्म कथाय छे. ३३८.
ए रीत ‘कर्म ज कर्मने हणतुं’कह्युं छे श्रुतमां,
तेथी न को पण जीव छे हणनार अम उपदेशमां.’’ ३३९.
एम सांख्यनो उपदेश आवो, जे श्रमण प्ररूपण करे,
तेना मते प्रकृति करे छे, जीव अकारक सर्व छे! ३४०.
अथवा तुं माने ‘आतमा मारो करे निज आत्मने’,
तो एवुं तुज मंतव्य पण मिथ्या स्वभाव ज तुज खरे. ३४१.
जीव नित्य तेम वळी असंख्यप्रदेशी दर्शित समयमां,
तेनाथी तेने हीन तेम अधिक करवो शक्य ना. ३४२.
विस्तारथीय जीवरूप जीवनुं लोकमात्र ज छे खरे,
शुं तेथी ते हीन-अधिक बनतो? केम करतो द्रव्यने? ३४३.
माने तुं‘ज्ञायक भाव तो ज्ञानस्वभावे स्थित रहे’,
तो एम पण आत्मा स्वयं निज आतमाने नहि करे. ३४४.

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पर्याय कंईकथी विणसे जीव, कंईक नहि विणसे,
तेथी करे छे ते ज के बीजोनहीं एकांत छे. ३४५.
पर्याय कंईकथी विणसे जीव, कंईकथी नहि विणसे,
जीव तेथी वेदे ते ज के बीजोनहीं एकांत छे. ३४६.
जीव जे करे ते भोगवे नहि जेहनो सिद्धांत ए,
ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे, अर्हंतना मतनो नथी. ३४७.
जीव अन्य करतो, अन्य वेदेजेहनो सिद्धांत ए,
ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे, अर्हंतना मतनो नथी. ३४८.
ज्यम शिल्पी कर्म करे परंतु ते नहीं तन्मय बने,
त्यम जीव पण कर्मो करे पण ते नहीं तन्मय बने. ३४९.
ज्यम शिल्पी करण वडे करे पण ते नहीं तन्मय बने,
त्यम जीव करण वडे करे पण ते नहीं तन्मय बने. ३५०.
ज्यम शिल्पी करण ग्रहे परंतु ते नहीं तन्मय बने,
त्यम जीव पण करणो ग्रहे पण ते नहीं तन्मय बने. ३५१.
शिल्पी करमफळ भोगवे पण ते नहीं तन्मय बने,
त्यम जीव करमफळ भोगवे पण ते नहीं तन्मय बने. ३५२.
ए रीत मत व्यवहारनो संक्षेपथी वक्तव्य छे;
सांभळ वचन निश्चय तणुं परिणामविषयक जेह छे. ३५३.
शिल्पी करे चेष्टा अने तेनाथी तेह अनन्य छे,
त्यम जीव कर्म करे अने तेनाथी तेह अनन्य छे. ३५४.
चेष्टा करंतो शिल्पी जेम दुखित थाय निरंतरे,
ने दुखथी तेह अनन्य, त्यम जीव चेष्टमान दुखी बने. ३५५.

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ज्यम सेटिका नथी पर तणी, छे सेटिका बस सेटिका,
ज्ञायक नथी त्यम पर तणो, ज्ञायक खरे ज्ञायक तथा; ३५६.
ज्यम सेटिका नथी पर तणी, छे सेटिका बस सेटिका,
दर्शक नथी त्यम पर तणो, दर्शक खरे दर्शक तथा; ३५७.
ज्यम सेटिका नथी पर तणी, छे सेटिका बस सेटिका,
संयत नथी त्यम पर तणो, संयत खरे संयत तथा; ३५८.
ज्यम सेटिका नथी पर तणी, छे सेटिका बस सेटिका,
दर्शन नथी त्यम पर तणुं, दर्शन खरे दर्शन तथा. ३५९.
एम ज्ञान-दर्शन-चरितविषयक कथन निश्चयनय तणुं;
सांभळ कथन संक्षेपथी एना विषे व्यवहारनुं. ३६०.
ज्यम निज स्वभावथी सेटिका परद्रव्यने धोळुं करे,
ज्ञाताय ए रीत जाणतो निज भावथी परद्रव्यने; ३६१.
ज्यम निज स्वभावथी सेटिका परद्रव्यने धोळुं करे,
आत्माय ए रीत देखतो निज भावथी परद्रव्यने; ३६२.
ज्यम निज स्वभावथी सेटिका परद्रव्यने धोळुं करे,
ज्ञाताय ए रीत त्यागतो निज भावथी परद्रव्यने; ३६३.
ज्यम निज स्वभावथी सेटिका परद्रव्यने धोळुं करे,
सुद्रष्टि ए रीत श्रद्धतो निज भावथी परद्रव्यने. ३६४.
एम ज्ञान-दर्शन-चरितमां निर्णय कह्यो व्यवहारनो,
ने अन्य पर्यायो विषे पण ए ज रीते जाणवो. ३६५.
चारित्र-दर्शन-ज्ञान जरीये नहि अचेतन विषयमां,
ते कारणे आ आतमा शुं हणी शके ते विषयमां? ३६६.

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चारित्र-दर्शन-ज्ञान जरीये नहि अचेतन कर्ममां,
ते कारणे आ आतमा शुं हणी शके ते कर्ममां? ३६७.
चारित्र-दर्शन-ज्ञान जरीये नहि अचेतन कायमां,
ते कारणे आ आतमा शुं हणी शके ते कायमां? ३६८.
छे ज्ञाननो, दर्शन तणो, उपघात भाख्यो चरितनो,
त्यां कांई पण भाख्यो नथी उपघात पुद्गलद्रव्यनो. ३६९.
जे गुण जीव तणा, खरे ते कोई नहि परद्रव्यमां,
ते कारणे विषयो प्रति सुद्रष्टि जीवने राग ना. ३७०.
वळी राग, द्वेष, विमोह तो जीवना अनन्य परिणाम छे,
ते कारणे शब्दादि विषयोमां नहीं रागादि छे. ३७१.
को द्रव्य बीजा द्रव्यने उत्पाद नहि गुणनो करे,
तेथी बधांये द्रव्य निज स्वभावथी ऊपजे खरे. ३७२.
रे! पुद्गलो बहुविध निंदा-स्तुतिवचनरूप परिणमे,
तेने सुणी, ‘मुजने कह्युं’ गणी, रोष तोष जीवो करे. ३७३.
पुद्गलदरव शब्दत्वपरिणत, तेहनो गुण अन्य छे,
तो नव कह्युं कंई पण तने, हे अबुध! रोष तुं क्यम करे? ३७४.
शुभ के अशुभ जे शब्द ते ‘तुं सुण मने’ न तने कहे,
ने जीव पण ग्रहवा न जाये कर्णगोचर शब्दने; ३७५.
शुभ के अशुभ जे रूप ते ‘तुं जो मने’ न तने कहे,
ने जीव पण ग्रहवा न जाये चक्षुगोचर रूपने; ३७६.
शुभ के अशुभ जे गंध ते ‘तुं सूंघ मुजने’ नव कहे,
ने जीव पण ग्रहवा न जाये घ्राणगोचर गंधने; ३७७.

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शुभ के अशुभ रस जेह ते ‘तुं चाख मुजने’ नव कहे,
ने जीव पण ग्रहवा न जाये रसनगोचर रस अरे! ३७८.
शुभ के अशुभ जे स्पर्श ते ‘तुं स्पर्श मुजने’ नव कहे,
ने जीव पण ग्रहवा न जाये कायगोचर स्पर्शने; ३७९.
शुभ के अशुभ जे गुण ते ‘तुं जाण मुजने’ नव कहे,
ने जीव पण ग्रहवा न जाये बुद्धिगोचर गुणने; ३८०.
शुभ के अशुभ जे द्रव्य ते ‘तुं जाण मुजने’ नव कहे,
ने जीव पण ग्रहवा न जाये बुद्धिगोचर द्रव्यने. ३८१.
आ जाणीने पण मूढ जीव पामे नहीं उपशम अरे!
शिव बुद्धिने पामेल नहि ए पर ग्रहण करवा चहे. ३८२.
शुभ ने अशुभ अनेकविध पूर्वे करेलुं कर्म जे,
तेथी निवर्ते आत्मने, ते आतमा प्रतिक्रमण छे; ३८३.
शुभ ने अशुभ भावी करम जे भावमां बंधाय छे,
तेथी निवर्तन जे करे, ते आतमा पचखाण छे; ३८४.
शुभ ने अशुभ अनेकविध छे वर्तमाने उदित जे,
ते दोषने जे चेततो, ते जीव आलोचन खरे. ३८५.
पचखाण नित्य करे अने प्रतिक्रमण जे नित्ये करे,
नित्ये करे आलोचना, ते आतमा चारित्र छे. ३८६.
जे कर्मफळने वेदतो निजरूप करमफळने करे,
ते फरीय बांधे अष्टविधना कर्मनेदुखबीजने; ३८७.
जे कर्मफळने वेदतो जाणे ‘करमफळ में कर्युं’,
ते फरीय बांधे अष्टविधना कर्मनेदुखबीजने; ३८८.

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जे कर्मफळने वेदतो आत्मा सुखी-दुखी थाय छे,
ते फरीय बांधे अष्टविधना कर्मनेदुखबीजने. ३८९.
रे! शास्त्र ते नथी ज्ञान, जेथी शास्त्र कंई जाणे नहीं,
ते कारणे छे ज्ञान जुदुं, शास्त्र जुदुंजिन कहे; ३९०.
रे! शब्द ते नथी ज्ञान, जेथी शब्द कंई जाणे नहीं,
ते कारणे छे ज्ञान जुदुं, शब्द जुदोजिन कहे; ३९१.
रे! रूप ते नथी ज्ञान, जेथी रूप कंई जाणे नहीं,
ते कारणे छे ज्ञान जुदुं, रूप जुदुंजिन कहे; ३९२.
रे! वर्ण ते नथी ज्ञान, जेथी वर्ण कंई जाणे नहीं,
ते कारणे छे ज्ञान जुदुं, वर्ण जुदोजिन कहे; ३९३.
रे! गंध ते नथी ज्ञान, जेथी गंध कंई जाणे नहीं,
ते कारणे छे ज्ञान जुदुं, गंध जुदीजिन कहे; ३९४.
रे! रस नथी कंई ज्ञान, जेथी रस कंई जाणे नहीं,
ते कारणे छे ज्ञान जुदुं, रस जुदोजिनवर कहे; ३९५.
रे! स्पर्श ते नथी ज्ञान, जेथी स्पर्श कंई जाणे नहीं,
ते कारणे छे ज्ञान जुदुं, स्पर्श जुदोजिन कहे; ३९६.
रे! कर्म ते नथी ज्ञान, जेथी कर्म कंई जाणे नहीं,
ते कारणे छे ज्ञान जुदुं, कर्म जुदुंजिन कहे; ३९७.
रे! धर्म ते नथी ज्ञान, जेथी धर्म कंई जाणे नहीं,
ते कारणे छे ज्ञान जुदुं, धर्म जुदोजिन कहे; ३९८.
अधर्म ते नथी ज्ञान, जेथी अधर्म कंई जाणे नहीं,
ते कारणे छे ज्ञान जुदुं, अधर्म जुदोजिन कहे; ३९९.

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रे! काळ ते नथी ज्ञान, जेथी काळ कंई जाणे नहीं,
ते कारणे छे ज्ञान जुदुं, काळ जुदोजिन कहे; ४००.
आकाश ते नथी ज्ञान, ए आकाश कंई जाणे नहीं,
ते कारणे आकाश जुदुं, ज्ञान जुदुंजिन कहे; ४०१.
नहि ज्ञान अध्यवसान छे, जेथी अचेतन तेह छे,
ते कारणे छे ज्ञान जुदुं, जुदुं अध्यवसान छे. ४०२.
रे! सर्वदा जाणे ज तेथी जीव ज्ञायक ज्ञानी छे,
ने ज्ञान छे ज्ञायकथी अव्यतिरिक्त ईम ज्ञातव्य छे. ४०३.
सम्यक्त्व, ने संयम, तथा पूर्वांगगत सूत्रो, अने
धर्माधरम, दीक्षा वळी, बुध पुरुष माने ज्ञानने. ४०४.
एम आतमा जेनो अमूर्तिक ते नथी आ’रक खरे,
पुद्गलमयी छे आ’र तेथी आ’र तो मूर्तिक खरे. ४०५.
जे द्रव्य छे पर तेहने न ग्रही, न छोडी शकाय छे,
एवो ज तेनो गुण को प्रायोगी ने वैस्रसिक छे. ४०६.
तेथी खरे जे शुद्ध आत्मा ते नहीं कंई पण ग्रहे,
छोडे नहीं वळी कांई पण जीव ने अजीव द्रव्यो विषे. ४०७.
बहुविधनां मुनिलिंगने अथवा गृहस्थीलिंगने
ग्रहीने कहे छे मूढजन ‘आ लिंग मुक्तिमार्ग छे’. ४०८.
पण लिंग मुक्तिमार्ग नहि, अर्हंत निर्मम देहमां
बस लिंग छोडी ज्ञान ने चारित्र, दर्शन सेवता. ४०९.
मुनिलिंग ने गृहीलिंगए लिंगो न मुक्तिमार्ग छे;
चारित्र-दर्शन-ज्ञानने बस मोक्षमार्ग जिनो कहे. ४१०.

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तेथी तजी सागार के अणगार-धारित लिंगने,
चारित्र-दर्शन-ज्ञानमां तुं जोड रे! निज आत्मने. ४११.
तुं स्थाप निजने मोक्षपंथे, ध्या, अनुभव तेहने,
तेमां ज नित्य विहार कर, नहि विहर परद्रव्यो विषे. ४१२.
बहुविधनां मुनिलिंगमां अथवा गृहीलिंगो विषे
ममता करे, तेणे नथी जाण्यो ‘समयना सार’ने. ४१३.
व्यवहारनय ए उभय लिंगो मोक्षपंथ विषे कहे,
निश्चय नहीं माने कदी को लिंग मुक्तिपथ विषे. ४१४.
आ समयप्राभृत पठन करीने, अर्थ-तत्त्वथी जाणीने,
ठरशे अरथमां आतमा जे, सौख्य उत्तम ते थशे. ४१५.

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श्री
प्रवचनसार
(पद्यानुवाद)
१. ज्ञानतत्त्व-प्रज्ञापन
(हरिगीत)
सुर-असुर-नरपतिवंद्यने, प्रविनष्टघातिकर्मने,
प्रणमन करुं हुं धर्मकर्ता तीर्थ श्री महावीरने; १.
वळी शेष तीर्थंकर अने सौ सिद्ध शुद्धास्तित्वने,
मुनि ज्ञान-द्रग-चारित्र-तप-वीर्याचरणसंयुक्तने. २.
ते सर्वने साथे तथा प्रत्येकने प्रत्येकने,
वंदुं वळी हुं मनुष्यक्षेत्रे वर्तता अर्हंतने. ३.
अर्हंतने, श्री सिद्धनेय नमस्करण करी ए रीते,
गणधर अने अध्यापकोने, सर्वसाधुसमूहने; ४.
तसु शुद्धदर्शनज्ञानमुख्य पवित्र आश्रम पामीने,
प्राप्ति करुं हुं साम्यनी, जेनाथी शिवप्राप्ति बने. ५.
सुर-असुर-मनुजेन्द्रो तणा विभवो सहित निर्वाणनी
प्राप्ति करे चारित्रथी जीव ज्ञानदर्शनमुख्यथी. ६.
चारित्र छे ते धर्म छे, जे धर्म छे ते साम्य छे;
ने साम्य जीवनो मोहक्षोभविहीन निज परिणाम छे. ७.

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जे भावमां प्रणमे दरव, ते काळ तन्मय ते कह्युं;
जीवद्रव्य तेथी धर्ममां प्रणमेल धर्म ज जाणवुं. ८.
शुभ के अशुभमां प्रणमतां शुभ के अशुभ आत्मा बने,
शुद्धे प्रणमतां शुद्ध, परिणामस्वभावी होईने. ९.
परिणाम विण न पदार्थ, ने न पदार्थ विण परिणाम छे;
गुण-द्रव्य-पर्ययस्थित ने अस्तित्वसिद्ध पदार्थ छे. १०.
जो धर्मपरिणतस्वरूप जीव शुद्धोपयोगी होय तो
ते पामतो निर्वाणसुख, ने स्वर्गसुख शुभयुक्त जो. ११.
अशुभोदये आत्मा कुनर, तिर्यंच ने नारकपणे
नित्ये सहस्र दुःखे पीडित, संसारमां अति अति भमे. १२.
अत्यंत, आत्मोत्पन्न, विषयातीत, अनुप, अनंत ने
विच्छेदहीन छे सुख अहो! शुद्धोपयोगप्रसिद्धने. १३.
सुविदितसूत्रपदार्थ, संयमतप सहित, वीतराग ने
सुखदुःखमां सम श्रमणने शुद्धोपयोग जिनो कहे. १४.
जे उपयोगविशुद्ध ते मोहादिघातिरज थकी
स्वयमेव रहित थयो थको ज्ञेयान्तने पामे सही. १५.
सर्वज्ञ, लब्धस्वभाव ने त्रिजगेन्द्रपूजित ए रीते
स्वयमेव जीव थयो थको तेने स्वयंभू जिनो कहे. १६.
व्ययहीन छे उत्पाद ने उत्पादहीन विनाश छे,
तेने ज वळी उत्पादध्रौव्यविनाशनो समवाय छे. १७.
उत्पाद तेम विनाश छे सौ कोई वस्तुमात्रने,
वळी कोई पर्ययथी दरेक पदार्थ छे सद्भूत खरे. १८.

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प्रक्षीणघातिकर्म, अनहदवीर्य, अधिकप्रकाश ने
इन्द्रिय-अतीत थयेल आत्मा ज्ञानसौख्ये परिणमे. १९.
कंई देहगत नथी सुख के नथी दुःख केवळज्ञानीने,
जेथी अतीन्द्रियता थई ते कारणे ए जाणजे. २०.
प्रत्यक्ष छे सौ द्रव्यपर्यय ज्ञान-परिणमनारने;
जाणे नहीं ते तेमने अवग्रह-ईहादि क्रिया वडे. २१.
न परोक्ष कंई पण सर्वतः सर्वाक्षगुणसमृद्धने,
इन्द्रिय-अतीत सदैव ने स्वयमेव ज्ञान थयेलने. २२.
जीवद्रव्य ज्ञानप्रमाण भाख्युं, ज्ञान ज्ञेयप्रमाण छे;
ने ज्ञेय लोकालोक तेथी सर्वगत ए ज्ञान छे. २३.
जीवद्रव्य ज्ञानप्रमाण नहिए मान्यता छे जेहने,
तेना मते जीव ज्ञानथी हीन के अधिक अवश्य छे. २४.
जो हीन आत्मा होय, नव जाणे अचेतन ज्ञान ए,
ने अधिक ज्ञानथी होय तो वण ज्ञान क्यम जाणे अरे? २५.
छे सर्वगत जिनवर अने सौ अर्थ जिनवरप्राप्त छे,
जिन ज्ञानमय ने सर्व अर्थो विषय जिनना होईने. २६.
छे ज्ञान आत्मा जिनमते; आत्मा विना नहि ज्ञान छे,
ते कारणे छे ज्ञान जीव, जीव ज्ञान छे वा अन्य छे. २७.
छे ‘ज्ञानी’ ज्ञानस्वभाव, अर्थो ज्ञेयरूप छे ‘ज्ञानी’ना,
ज्यम रूप छे नेत्रो तणां, नहि वर्तता अन्योन्यमां. २८.
ज्ञेये प्रविष्ट न, अणप्रविष्ट न, जाणतो जग सर्वने
नित्ये अतीन्द्रिय आतमा, ज्यम नेत्र जाणे रूपने. २९.

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ज्यम दूधमां स्थित इन्द्रनीलमणि स्वकीय प्रभा वडे
दूधने विषे व्यापी रहे, त्यम ज्ञान पण अर्थो विषे. ३०.
नव होय अर्थो ज्ञानमां, तो ज्ञान सौ-गत पण नहीं,
ने सर्वगत छे ज्ञान तो क्यम ज्ञानस्थित अर्थो नहीं? ३१.
प्रभुकेवळी न ग्रहे, न छोडे, पररूपे नव परिणमे;
देखे अने जाणे निःशेषे सर्वतः ते सर्वने. ३२.
श्रुतज्ञानथी जाणे खरे ज्ञायकस्वभावी आत्मने,
ॠषिओ प्रकाशक लोकना श्रुतकेवळी तेने कहे. ३३.
पुद्गलस्वरूप वचनोथी जिन-उपदिष्ट जे ते सूत्र छे,
छे ज्ञप्ति तेनी ज्ञान, तेने सूत्रनी ज्ञप्ति कहे. ३४.
जे जाणतो ते ज्ञान, नहि जीव ज्ञानथी ज्ञायक बने;
पोते प्रणमतो ज्ञानरूप, ने ज्ञानस्थित सौ अर्थ छे. ३५.
छे ज्ञान तेथी जीव, ज्ञेय त्रिधा कहेलुं द्रव्य छे;
ए द्रव्य पर ने आतमा, परिणामसंयुत जेह छे. ३६.
ते द्रव्यना सद्भूतअसद्भूत पर्ययो सौ वर्तता,
तत्काळना पर्याय जेम, विशेषपूर्वक ज्ञानमां. ३७.
जे पर्ययो अणजात छे, वळी जन्मीने प्रविनष्ट जे,
ते सौ असद्भूत पर्ययो पण ज्ञानमां प्रत्यक्ष छे. ३८.
ज्ञाने अजात-विनष्ट पर्यायो तणी प्रत्यक्षता
नव होय जो, तो ज्ञानने ए ‘दिव्य’ कोण कहे भला? ३९.
ईहादिपूर्वक जाणता जे अक्षपतित पदार्थने,
तेने परोक्ष पदार्थ जाणवुं शक्य नाजिनजी कहे. ४०.

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जे जाणतुं अप्रदेशने, सप्रदेश, मूर्त, अमूर्तने,
पर्याय नष्ट-अजातने, भाख्युं अतीन्द्रिय ज्ञान ते. ४१.
जो ज्ञेय अर्थे परिणमे ज्ञाता, न क्षायिक ज्ञान छे;
ते कर्मने ज अनुभवे छे एम जिनदेवो कहे. ४२.
भाख्यां जिने कर्मो उदयगत नियमथी संसारीने,
ते कर्म होतां मोही-रागी-द्वेषी बंध अनुभवे. ४३.
धर्मोपदेश, विहार, आसन, स्थान श्री अर्हंतने
वर्ते सहज ते काळमां, मायाचरण ज्यम नारीने. ४४.
छे पुण्यफळ अर्हंत, ने अर्हंतकिरिया उदयिकी;
मोहादिथी विरहित तेथी ते क्रिया क्षायिक गणी. ४५.
आत्मा स्वयं निज भावथी जो शुभ-अशुभ बने नहीं,
तो सर्व जीवनिकायने संसार पण वर्ते नहीं! ४६.
सौ वर्तमान-अवर्तमान, विचित्र, विषम पदार्थने
युगपद् सरवतः जाणतुं, ते ज्ञान क्षायिक जिन कहे. ४७.
जाणे नहीं युगपद् त्रिकाळिक त्रिभुवनस्थ पदार्थने,
तेने सपर्यय एक पण नहि द्रव्य जाणवुं शक्य छे. ४८.
जो एक द्रव्य अनंतपर्यय तेम द्रव्य अनंतने
युगपद् न जाणे जीव, तो ते केम जाणे सर्वने? ४९.
जो ज्ञान ‘ज्ञानी’नुं ऊपजे क्रमशः अरथ अवलंबीने,
तो नित्य नहि, क्षायिक नहीं ने सर्वगत नहि ज्ञान ए. ५०.
नित्ये विषम, विधविध, सकळ पदार्थगण सर्वत्रनो
जिनज्ञान जाणे युगपदे, महिमा अहो ए ज्ञाननो! ५१.

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ते अर्थरूप न परिणमे जीव, नव ग्रहे, नव ऊपजे,
सौ अर्थने जाणे छतां, तेथी अबंधक जिन कहे. ५२.
अर्थोनुं ज्ञान अमूर्त, मूर्त, अतीन्द्रि ने ऐन्द्रिय छे,
छे सुख पण एवुं ज, त्यां परधान जे ते ग्राह्य छे. ५३.
देखे अमूर्तिक, मूर्तमांय अतीन्द्रिने, प्रच्छन्नने,
ते सर्वनेपर के स्वकीयने, ज्ञान ते प्रत्यक्ष छे. ५४.
पोते अमूर्तिक जीव मूर्तशरीरगत ए मूर्तथी
कदी योग्य मूर्त अवग्रही जाणे, कदीक जाणे नहीं. ५५.
रस, गंध, स्पर्श वळी वरण ने शब्द जे पौद्गलिक ते
छे इन्द्रिविषयो, तेमनेय न इन्द्रियो युगपद ग्रहे. ५६.
ते इन्द्रियो परद्रव्य, जीवस्वभाव भाखी न तेमने;
तेनाथी जे उपलब्ध ते प्रत्यक्ष कई रीत जीवने? ५७.
अर्थो तणुं जे ज्ञान परतः थाय तेह परोक्ष छे;
जीवमात्रथी ज जणाय जो, तो ज्ञान ते प्रत्यक्ष छे. ५८.
स्वयमेव जात, समंत, अर्थ अनंतमां विस्तृत ने
अवग्रह-ईहादि रहित, निर्मळ ज्ञान सुख एकांत छे. ५९.
जे ज्ञान ‘केवळ’ ते ज सुख, परिणाम पण वळी ते ज छे;
भाख्यो न तेमां खेद जेथी घातिकर्म विनष्ट छे. ६०.
अर्थान्तगत छे ज्ञान, लोकालोकविस्तृत द्रष्टि छे;
छे नष्ट सर्व अनिष्ट ने जे इष्ट ते सौ प्राप्त छे. ६१.
सुणी ‘घातिकर्मविहीननुं सुख सौ सुखे उत्कृष्ट छे’,
श्रद्धे न तेह अभव्य छे, ने भव्य ते संमत करे. ६२.

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सुर-असुर-नरपति पीडित वर्ते सहज इन्द्रियो वडे,
नव सही शके ते दुःख तेथी रम्य विषयोमां रमे. ६३.
विषयो विषे रति जेमने, दुख छे स्वभाविक तेमने;
जो ते न होय स्वभाव तो व्यापार नहि विषयो विषे. ६४.
इन्द्रियसमाश्रित इष्ट विषयो पामीने, निज भावथी
जीव प्रणमतो स्वयमेव सुखरूप थाय, देह थतो नथी. ६५.
एकांतथी स्वर्गेय देह करे नहि सुख देहीने,
पण विषयवश स्वयमेव आत्मा सुख वा दुख थाय छे. ६६.
जो द्रष्टि प्राणीनी तिमिरहर, तो कार्य छे नहि दीपथी;
ज्यां जीव स्वयं सुख परिणमे, विषयो करे छे शुं तहीं? ६७.
ज्यम आभमां स्वयमेव भास्कर उष्ण, देव, प्रकाश छे,
स्वयमेव लोके सिद्ध पण त्यम ज्ञान, सुख ने देव छे. ६८.
गुरु-देव-यतिपूजा विषे, वळी दान ने सुशीलो विषे,
जीव रक्त उपवासादिके, शुभ-उपयोगस्वरूप छे. ६९.
शुभयुक्त आत्मा देव वा तिर्यंच वा मानव बने;
ते पर्यये तावत्समय इन्द्रियसुख विधविध लहे. ७०.
सुरनेय सौख्य स्वभावसिद्ध नसिद्ध छे आगम विषे;
ते देहवेदनथी पीडित रमणीय विषयोमां रमे. ७१.
तिर्यंच-नारक-सुर-नरो जो देहगत दुख अनुभवे,
तो जीवनो उपयोग ए शुभ ने अशुभ कई रीत छे? ७२.
चक्री अने देवेन्द्र शुभ-उपयोगमूलक भोगथी
पुष्टि करे देहादिनी, सुखी सम दीसे अभिरत रही. ७३.

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परिणामजन्य अनेकविध जो पुण्यनुं अस्तित्व छे,
तो पुण्य ए देवान्त जीवने विषयतृष्णोद्भव करे. ७४.
ते उदिततृष्ण जीवो, दुखित तृष्णाथी, विषयिक सुखने
इच्छे अने आमरण दुखसंतप्त तेने भोगवे. ७५.
परयुक्त, बाधासहित, खंडित, बंधकारण, विषम छे;
जे इन्द्रियोथी लब्ध ते सुख ए रीते दुःख ज खरे. ७६.
नहि मानतोए रीत पुण्ये पापमां न विशेष छे
ते मोहथी आच्छन्न घोर अपार संसारे भमे. ७७.
विदितार्थ ए रीत, रागद्वेष लहे न जे द्रव्यो विषे,
शुद्धोपयोगी जीव ते क्षय देहगत दुःखनो करे. ७८.
जीव छोडी पापारंभने शुभ चरितमां उद्यत भले,
जो नव तजे मोहादिने तो नव लहे शुद्धात्मने. ७९.
जे जाणतो अर्हंतने गुण, द्रव्य ने पर्ययपणे,
ते जीव जाणे आत्मने, तसु मोह पामे लय खरे. ८०.
जीव मोहने करी दूर, आत्मस्वरूप सम्यक् पामीने,
जो रागद्वेष परिहरे तो पामतो शुद्धात्मने. ८१.
अर्हंत सौ कर्मो तणो करी नाश ए ज विधि वडे,
उपदेश पण एम ज करी, निर्वृत थया; नमुं तेमने. ८२.
द्रव्यादिके मूढ भाव वर्ते जीवने, ते मोह छे;
ते मोहथी आच्छन्न रागी-द्वेषी थई क्षोभित बने. ८३.
रे! मोहरूप वा रागरूप वा द्वेषपरिणत जीवने
विधविध थाये बंध, तेथी सर्व ते क्षययोग्य छे. ८४.