Shastra Swadhyay-Gujarati (Devanagari transliteration). 2. gyeytattva pragyApan; 3. charaNanuyogsuchak chulikA; PanchAstikAysangrah; 1. shaddravya panchastikAy varNan.

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अर्थो तणुं अयथाग्रहण, करुणा मनुज-तिर्यंचमां,
विषयो तणो वळी संग,लिंगो जाणवां आ मोहनां. ८५.
शास्त्रो वडे प्रत्यक्षआदिथी जाणतो जे अर्थने,
तसु मोह पामे नाश निश्चय; शास्त्र समध्ययनीय छे. ८६.
द्रव्यो, गुणो ने पर्ययो सौ ‘अर्थ’ संज्ञाथी कह्यां;
गुण-पर्ययोनो आतमा छे द्रव्य जिन-उपदेशमां. ८७.
जे पामी जिन-उपदेश हणतो राग-द्वेष-विमोहने,
ते जीव पामे अल्प काळे सर्व दुःखविमोक्षने. ८८.
जे ज्ञानरूप निज आत्मने, परने वळी निश्चय वडे
द्रव्यत्वथी संबद्ध जाणे, मोहनो क्षय ते करे. ८९.
तेथी यदि जीव इच्छतो निर्मोहता निज आत्मने,
जिनमार्गथी द्रव्यो महीं जाणो स्व-परने गुण वडे. ९०.
श्रामण्यमां सत्तामयी सविशेष आ द्रव्यो तणी
श्रद्धा नहीं, ते श्रमण ना; तेमांथी धर्मोद्भव नहीं. ९१.
आगम विषे कौशल्य छे ने मोहद्रष्टि विनष्ट छे,
वीतराग-चरितारूढ छे, ते मुनि-महात्मा ‘धर्म’ छे. ९२.

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२. ज्ञेयतत्त्व-प्रज्ञापन
छे अर्थ द्रव्यस्वरूप, गुण-आत्मक कह्यां छे द्रव्यने,
वळी द्रव्य-गुणथी पर्ययो; पर्यायमूढ परसमय छे. ९३.
पर्यायमां रत जीव जे ते ‘परसमय’ निर्दिष्ट छे;
आत्मस्वभावे स्थित जे ते ‘स्वकसमय’ ज्ञातव्य छे. ९४.
छोड्या विना ज स्वभावने उत्पाद-व्यय-ध्रुवयुक्त छे,
वळी गुण ने पर्यय सहित जे, ‘द्रव्य’ भाख्युं तेहने. ९५.
उत्पाद-ध्रौव्य-विनाशथी, गुण ने विविध पर्यायथी
अस्तित्व द्रव्यनुं सर्वदा जे, तेह द्रव्यस्वभाव छे. ९६.
विधविधलक्षणीनुं सरव-गत ‘सत्त्व’ लक्षण एक छे,
ए धर्मने उपदेशता जिनवरवृषभ निर्दिष्ट छे. ९७.
द्रव्यो स्वभावे सिद्ध ने ‘सत्’तत्त्वतः श्री जिनो कहे;
ए सिद्ध छे आगम थकी, माने न ते परसमय छे. ९८.
द्रव्यो स्वभाव विषे अवस्थित, तेथी ‘सत्’ सौ द्रव्य छे;
उत्पाद-ध्रौव्य-विनाशयुत परिणाम द्रव्यस्वभाव छे. ९९.
उत्पाद भंग विना नहीं, संहार सर्ग विना नहीं;
उत्पाद तेम ज भंग, ध्रौव्य-पदार्थ विण वर्ते नहीं. १००.
उत्पाद तेम ज ध्रौव्य ने संहार वर्ते पर्यये,
ने पर्ययो द्रव्ये नियमथी, सर्व तेथी द्रव्य छे. १०१.
उत्पाद-ध्रौव्य-विनाशसंज्ञित अर्थ सह समवेत छे
एक ज समयमां द्रव्य निश्चय, तेथी ए त्रिक द्रव्य छे. १०२.

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ऊपजे दरवनो अन्य पर्यय, अन्य को विणसे वळी,
पण द्रव्य तो नथी नष्ट के उत्पन्न द्रव्य नथी तहीं. १०३.
अविशिष्टसत्त्व स्वयं दरव गुणथी गुणांतर परिणमे,
तेथी वळी द्रव्य ज कह्या छे सर्वगुणपर्यायने. १०४.
जो द्रव्य होय न सत्, ठरे ज असत्, बने क्यम द्रव्य ए?
वा भिन्न ठरतुं सत्त्वथी! तेथी स्वयं ते सत्त्व छे. १०५.
जिन वीरनो उपदेश एमपृथक्त्व भिन्नप्रदेशता,
अन्यत्व जाण अतत्पणुं; नहि ते-पणे ते एक क्यां? १०६.
‘सत् द्रव्य’, ‘सत् पर्याय’, ‘सत्गुण’सत्त्वनो विस्तार छे;
नथी ते-पणे अन्योन्य तेह अतत्पणुं ज्ञातव्य छे. १०७.
स्वरूपे नथी जे द्रव्य ते गुण, गुण ते नहि द्रव्य छे,
आने अतत्पणुं जाणवुं, न अभावने; भाख्युं जिने. १०८.
परिणाम द्रव्यस्वभाव जे, ते गुण ‘सत्’-अविशिष्ट छे;
‘द्रव्यो स्वभावे स्थित सत् छे’ए ज आ उपदेश छे. १०९.
पर्याय के गुण एवुं कोई न द्रव्य विण विश्वे दीसे;
द्रव्यत्व छे वळी भाव; तेथी द्रव्य पोते सत्त्व छे. ११०.
आवुं दरव द्रव्यार्थ-पर्यायार्थथी निजभावमां
सद्भाव-अणसद्भावयुत उत्पादने पामे सदा. १११.
जीव परिणमे तेथी नरादिक ए थशे; पण ते-रूपे
शुं छोडतो द्रव्यत्वने? नहि छोडतो क्यम अन्य ए? ११२.
मानव नथी सुर, सुर पण नहि मनुज के नहि सिद्ध छे;
ए रीत नहि होतो थको क्यम ते अनन्यपणुं धरे? ११३.

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द्रव्यार्थिके बधुं द्रव्य छे; ने ते ज पर्यायार्थिके
छे अन्य, जेथी ते समय तद्रूप होई अनन्य छे. ११४.
अस्ति, तथा छे नास्ति, तेम ज द्रव्य अणवक्तव्य छे,
वळी उभय को पर्यायथी, वा अन्यरूप कथाय छे. ११५.
नथी ‘आ ज’ एवो कोई, ज्यां किरिया स्वभाव-निपन्न छे;
किरिया नथी फळहीन, जो निष्फळ धरम उत्कृष्ट छे. ११६.
नामाख्य कर्म स्वभावथी निज जीवद्रव्य-स्वभावने
अभिभूत करी तिर्यंच, देव, मनुष्य वा नारक करे. ११७.
तिर्यंच-सुर-नर-नारकी जीव नामकर्म-निपन्न छे;
निज कर्मरूप परिणमनथी ज स्वभावलब्धि न तेमने. ११८.
नहि कोई ऊपजे विणसे क्षणभंगसंभवमय जगे,
कारण जनम ते नाश छे; वळी जन्म-नाश विभिन्न छे. ११९.
तेथी स्वभावे स्थिर एवुं न कोई छे संसारमां;
संसार तो संसरण करता द्रव्य केरी छे क्रिया. १२०.
कर्मे मलिन जीव कर्मसंयुत पामतो परिणामने,
तेथी करम बंधाय छे; परिणाम तेथी कर्म छे. १२१.
परिणाम पोते जीव छे, ने छे क्रिया ए जीवमयी;
किरिया गणी छे कर्म; तेथी कर्मनो कर्ता नथी. १२२.
जीव चेतनारूप परिणमे; वळी चेतना त्रिविधा गणी;
ते ज्ञानविषयक, कर्मविषयक, कर्मफळविषयक कही. १२३.
छे ‘ज्ञान’ अर्थविकल्प, ने जीवथी करातुं ‘कर्म’ छे,
ते छे अनेक प्रकारनुं, ‘फळ’ सौख्य अथवा दुःख छे. १२४.

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परिणाम-आत्मक जीव छे, परिणाम ज्ञानादिक बने;
तेथी करमफळ, कर्म तेम ज ज्ञान आत्मा जाणजे. १२५.
‘कर्ता, करम, फळ, करण जीव छे’ एम जो निश्चय करी
मुनि अन्यरूप नव परिणमे, प्राप्ति करे शुद्धात्मनी. १२६.
छे द्रव्य जीव, अजीव; चित-उपयोगमय ते जीव छे;
पुद्गलप्रमुख जे छे अचेतन द्रव्य, तेह अजीव छे. १२७.
आकाशमां जे भाग धर्म-अधर्म-काळ सहित छे,
जीव-पुद्गलोथी युक्त छे, ते सर्वकाळे लोक छे. १२८.
उत्पाद, व्यय ने ध्रुवता जीवपुद्गलात्मक लोकने
परिणाम द्वारा, भेद वा संघात द्वारा थाय छे. १२९.
जे लिंगथी द्रव्यो महीं ‘जीव’ ‘अजीव’ एम जणाय छे,
ते जाण मूर्त-अमूर्त गुण, अतत्पणाथी विशिष्ट जे. १३०.
गुण मूर्त इन्द्रियग्राह्य ते पुद्गलमयी बहुविध छे;
द्रव्यो अमूर्तिक जेह तेना गुण अमूर्तिक जाणजे. १३१.
छे वर्ण तेम ज गंध वळी रस-स्पर्श पुद्गलद्रव्यने,
अतिसूक्ष्मथी पृथ्वी सुधी; वळी शब्द पुद्गल, विविध जे. १३२.
अवगाह गुण आकाशनो, गतिहेतुता छे धर्मनो,
वळी स्थानकारणतारूपी गुण जाण द्रव्य अधर्मनो. १३३.
छे काळनो गुण वर्तना, उपयोग भाख्यो जीवमां,
ए रीत मूर्तिविहीनना गुण जाणवा संक्षेपमां. १३४.
जीवद्रव्य, पुद्गलकाय, धर्म, अधर्म वळी आकाशने
छे स्वप्रदेश अनेक, नहि वर्ते प्रदेशो काळने. १३५.

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लोके अलोके आभ, लोक अधर्म-धर्मथी व्याप्त छे,
छे शेष-आश्रित काळ, ने जीव-पुद्गलो ते शेष छे. १३६.
जे रीत आभ-प्रदेश, ते रीत शेषद्रव्य-प्रदेश छे;
अप्रदेश परमाणु वडे उद्भव प्रदेश तणो बने. १३७.
छे काळ तो अप्रदेश; एकप्रदेश परमाणु यदा
आकाशद्रव्य तणो प्रदेश अतिक्रमे, वर्ते तदा. १३८.
ते देशना अतिक्रमण सम छे ‘समय’, तत्पूर्वापरे
जे अर्थ छे ते काळ छे, उत्पन्नध्वंसी ‘समय’ छे. १३९.
आकाश जे अणुव्याप्य, ‘आभप्रदेश’ संज्ञा तेहने;
ते एक सौ परमाणुने अवकाशदानसमर्थ छे. १४०.
वर्ते प्रदेशो द्रव्यने, जे एक अथवा बे अने
बहु वा असंख्य, अनंत छे; वळी होय समयो काळने. १४१.
एक ज समयमां ध्वंस ने उत्पादनो सद्भाव छे
जो काळने, तो काळ तेह स्वभाव-समवस्थित छे. १४२.
प्रत्येक समये जन्म-ध्रौव्य-विनाश अर्थो काळने
वर्ते सरवदा; आ ज बस काळाणुनो सद्भाव छे. १४३.
जे अर्थने न बहु प्रदेश, न एक वा परमार्थथी,
ते अर्थ जाणो शून्य केवळअन्य जे अस्तित्वथी. १४४.
सप्रदेश अर्थोथी समाप्त समग्र लोक सुनित्य छे;
तसु जाणनारो जीव, प्राणचतुष्कथी संयुक्त जे. १४५.
इन्द्रियप्राण, तथा वळी बळप्राण, आयुप्राण ने
वळी प्राण श्वासोच्छ्वासए सौ, जीव केरा प्राण छे. १४६.

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जे चार प्राणे जीवतो पूर्वे, जीवे छे, जीवशे,
ते जीव छे; पण प्राण तो पुद्गलदरवनिष्पन्न छे. १४७.
मोहादिकर्मनिबंधथी संबंध पामी प्राणनो,
जीव कर्मफळ-उपभोग करतां, बंध पामे कर्मनो. १४८.
जीव मोह-द्वेष वडे करे बाधा जीवोना प्राणने,
तो बंध ज्ञानावरण-आदिक कर्मनो ते थाय छे. १४९.
कर्मे मलिन जीव त्यां लगी प्राणो धरे छे फरी फरी,
ममता शरीरप्रधान विषये ज्यां लगी छोडे नहीं. १५०.
करी इन्द्रियादिक-विजय, ध्यावे आत्मनेउपयोगने,
ते कर्मथी रंजित नहीं; क्यम प्राण तेने अनुसरे? १५१.
अस्तित्वनिश्चित अर्थनो को अन्य अर्थे ऊपजतो
जे अर्थ ते पर्याय छे, ज्यां भेद संस्थानादिनो. १५२.
तिर्यंच, नारक, देव, नरए नामकर्मोदय वडे
छे जीवना पर्याय, जेह विशिष्ट संस्थानादिके. १५३.
अस्तित्वथी निष्पन्न द्रव्यस्वभावने त्रिविकल्पने
जे जाणतो, ते आतमा नहि मोह परद्रव्ये लहे. १५४.
छे आतमा उपयोगरूप, उपयोग दर्शन-ज्ञान छे;
उपयोग ए आत्मा तणो शुभ वा अशुभरूप होय छे. १५५.
उपयोग जो शुभ होय, संचय थाय पुण्य तणो तहीं,
ने पापसंचय अशुभथी; ज्यां उभय नहि, संचय नहीं. १५६.
जाणे जिनोने जेह, श्रद्धे सिद्धने, अणगारने,
जे सानुकंप जीवो प्रति, उपयोग छे शुभ तेहने. १५७.

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कुविचार-संगति-श्रवणयुत, विषये कषाये मग्न जे,
जे उग्र ने उन्मार्गपर, उपयोग तेह अशुभ छे. १५८.
मध्यस्थ परद्रव्ये थतो, अशुभोपयोग रहित ने
शुभमां अयुक्त, हुं ध्याउं छुं निज आत्मने ज्ञानात्मने. १५९.
हुं देह नहि, वाणी न, मन नहि, तेमनुं कारण नहीं,
कर्ता न, कारयिता न, अनुमंता हुं कर्तानो नहीं. १६०.
मन, वाणी तेम ज देह पुद्गलद्रव्यरूप निर्दिष्ट छे;
ने तेह पुद्गलद्रव्य बहु परमाणुओनो पिंड छे. १६१.
हुं पौद्गलिक नथी, पुद्गलो में पिंडरूप कर्यां नथी;
तेथी नथी हुं देह वा ते देहनो कर्ता नथी. १६२.
परमाणु जे अप्रदेश, तेम प्रदेशमात्र, अशब्द छे,
ते स्निग्ध रूक्ष बनी प्रदेशद्वयादिवत्त्व अनुभवे. १६३.
एकांशथी आरंभी ज्यां अविभाग अंश अनंत छे,
स्निग्धत्व वा रूक्षत्व ए परिणामथी परमाणुने. १६४.
हो स्निग्ध अथवा रूक्ष अणु-परिणाम, सम वा विषम हो,
बंधाय जो गुणद्वय अधिक; नहीं बंध होय जघन्यनो. १६५.
चतुरंश को स्निग्धाणु सह द्वय-अंशमय स्निग्धाणुनो;
पंचांशी अणु सह बंध थाय त्रयांशमय रूक्षाणुनो. १६६.
स्कंधो प्रदेशद्वयादियुत, स्थूल-सूक्ष्म ने साकार जे,
ते पृथ्वी-वायु-तेज-जळ परिणामथी निज थाय छे. १६७.
अवगाढ गाढ भरेल छे सर्वत्र पुद्गलकायथी
आ लोक बादर-सूक्ष्मथी, कर्मत्वयोग्य-अयोग्यथी. १६८.

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स्कंधो करमने योग्य पामी जीवना परिणामने
कर्मत्वने पामे; नहीं जीव परिणमावे तेमने. १६९.
कर्मत्वपरिणत पुद्गलोना स्कंध ते ते फरी फरी
शरीरो बने छे जीवने, संक्रांति पामी देहनी. १७०.
जे देह औदारिक, ने वैक्रिय-तैजस देह छे,
कार्मण-अहारक देह जे, ते सर्व पुद्गलरूप छे. १७१.
छे चेतनागुण, गंध-रूप-रस-शब्द-व्यक्ति न जीवने,
वळी लिंगग्रहण नथी अने संस्थान भाख्युं न तेहने. १७२.
अन्योन्य स्पर्शथी बंध थाय रूपादिगुणयुत मूर्तने;
पण जीव मूर्तिरहित बांधे केम पुद्गलकर्मने? १७३.
जे रीत दर्शन-ज्ञान थाय रूपादिनुंगुण-द्रव्यनुं,
ते रीत बंधन जाण मूर्तिरहितने पण मूर्तनुं. १७४.
विधविध विषयो पामीने उपयोग-आत्मक जीव जे
प्रद्वेष-राग-विमोहभावे परिणमे, ते बंध छे. १७५.
जे भावथी देखे अने जाणे विषयगत अर्थने,
तेनाथी छे उपरक्तता; वळी कर्मबंधन ते वडे. १७६.
रागादि सह आत्मा तणो, ने स्पर्श सह पुद्गल तणो,
अन्योन्य जे अवगाह तेने बंध उभयात्मक कह्यो. १७७.
सप्रदेश छे ते जीव, जीवप्रदेशमां आवे अने
पुद्गलसमूह रहे यथोचित, जाय छे, बंधाय छे. १७८.
जीव रक्त बांधे कर्म, राग रहित जीव मुकाय छे;
आ जीव केरा बंधनो संक्षेप निश्चय जाणजे. १७९.

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परिणामथी छे बंध, राग-विमोह-द्वेषथी युक्त जे;
छे मोह-द्वेष अशुभ, राग अशुभ वा शुभ होय छे. १८०.
पर मांही शुभ परिणाम पुण्य, अशुभ परमां पाप छे;
निजद्रव्यगत परिणाम समये दुःखक्षयनो हेतु छे. १८१.
स्थावर अने त्रस पृथ्वीआदिक जीवकाय कहेल जे,
ते जीवथी छे अन्य तेम ज जीव तेथी अन्य छे. १८२.
परने स्वने नहि जाणतो ए रीत पामी स्वभावने,
ते ‘आ हुं, आ मुज’ एम अध्यवसान मोह थकी करे. १८३.
निज भाव करतो जीव छे कर्ता खरे निज भावनो;
पण ते नथी कर्ता सकल पुद्गलदरवमय भावनो. १८४.
जीव सर्व काळे पुद्गलोनी मध्यमां वर्ते भले,
पण नव ग्रहे, न तजे, करे नहि जीव पुद्गलकर्मने. १८५.
ते हाल द्रव्यजनित निज परिणामनो कर्ता बने,
तेथी ग्रहाय अने कदापि मुकाय छे कर्मो वडे. १८६.
जीव रागद्वेषथी युक्त ज्यारे परिणमे शुभ-अशुभमां,
ज्ञानावरणइत्यादिभावे कर्मधूलि प्रवेश त्यां. १८७.
सप्रदेश जीव समये कषायित मोहरागादि वडे,
संबंध पामी कर्मरजनो, बंधरूप कथाय छे. १८८.
आ जीव केरा बंधनो संक्षेप निश्चय भाखियो
अर्हंतदेवे योगीने; व्यवहार अन्य रीते कह्यो. १८९.
‘हुं आ अने आ मारुं’ ए ममता न देह-धने तजे,
ते छोडी जीव श्रामण्यने उन्मार्गनो आश्रय करे. १९०.

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हुं पर तणो नहि, पर न मारां, ज्ञान केवळ एक हुं
जे एम ध्यावे, ध्यानकाळे तेह शुद्धात्मा बने. १९१.
ए रीत दर्शन-ज्ञान छे, इन्द्रिय-अतीत महार्थ छे,
मानुं हुंआलंबन रहित, जीव शुद्ध, निश्चळ ध्रुव छे. १९२.
लक्ष्मी, शरीर, सुखदुःख अथवा शत्रुमित्र जनो अरे!
जीवने नथी कंई ध्रुव, ध्रुव उपयोग-आत्मक जीव छे. १९३.
आ जाणी, शुद्धात्मा बनी, ध्यावे परम निज आत्मने,
साकार अण-आकार हो, ते मोहग्रंथि क्षय करे. १९४.
हणी मोहग्रंथि, क्षय करी रागादि, समसुखदुःख जे
जीव परिणमे श्रामण्यमां, ते सौख्य अक्षयने लहे. १९५.
जे मोहमळ करी नष्ट, विषयविरक्त थई, मन रोकीने,
आत्मस्वभावे स्थित छे, ते आत्मने ध्यानार छे. १९६.
शा अर्थने ध्यावे श्रमण, जे नष्टघातिकर्म छे,
प्रत्यक्षसर्वपदार्थ ने ज्ञेयान्तप्राप्त, निःशंक छे? १९७.
बाधा रहित, सकलात्ममां संपूर्णसुखज्ञानाढ्य जे,
इन्द्रिय-अतीत अनिन्द्रि ते ध्यावे परम आनंदने. १९८.
श्रमणो, जिनो, तीर्थंकरो आ रीत सेवी मार्गने
सिद्धि वर्या; नमुं तेमने, निर्वाणना ते मार्गने. १९९.
ए रीत तेथी आत्मने ज्ञायकस्वभावी जाणीने,
निर्ममपणे रही स्थित आ परिवर्जुं छुं हुं ममत्वने. २००.

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३. चरणानुयोगसूचक चूलिका
ए रीत प्रणमी सिद्ध, जिनवरवृषभ, मुनिने फरी फरी,
श्रामण्य अंगीकृत करो, अभिलाष जो दुखमुक्तिनी. २०१.
बंधुजनोनी विदाय लइ, स्त्री-पुत्र-वडीलोथी छूटी,
द्रग-ज्ञान-तप-चारित्र-वीर्याचार अंगीकृत करी. २०२.
‘मुजने ग्रहो’ कही, प्रणत थई, अनुगृहीत थाय गणी वडे,
वयरूपकुलविशिष्ट, योगी, गुणाढ्य ने मुनि-इष्ट जे. २०३.
परनो न हुं, पर छे न मुज, मारुं नथी कंई पण जगे,
ए रीत निश्चित ने जितेन्द्रिय साहजिकरूपधर बने. २०४.
जन्म्या प्रमाणे रूप, लुंचन केशनुं, शुद्धत्व ने
हिंसादिथी शून्यत्व, देह-असंस्करणए लिंग छे. २०५.
आरंभ मूर्छा शून्यता, उपयोगयोग विशुद्धता,
निरपेक्षता परथी,जिनोदित मोक्षकारण लिंग आ. २०६.
ग्रही परमगुरु-दीधेल लिंग, नमस्करण करी तेमने,
व्रत ने क्रिया सुणी, थई उपस्थित, थाय छे मुनिराज ए. २०७.
व्रत, समिति, लुंचन, आवश्यक, अणचेल, इन्द्रियरोधनं,
नहि स्नान-दातण, एक भोजन, भूशयन, स्थितिभोजनं, २०८.
आ मूळगुण श्रमणो तणा जिनदेवथी प्रज्ञप्त छे,
तेमां प्रमत्त थतां श्रमण छेदोपस्थापक थाय छे. २०९.
जे लिंगग्रहणे साधुपद देनार ते गुरु जाणवा;
छेदद्वये स्थापन करे ते शेष मुनि निर्यापका. २१०.

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जो छेद थाय प्रयत्न सह कृत कायनी चेष्टा विषे,
आलोचनापूर्वक क्रिया कर्तव्य छे ते साधुने. २११.
छेदोपयुक्त मुनि, श्रमण व्यवहारविज्ञ कने जई,
निज दोष आलोचन करी, श्रमणोपदिष्ट करे विधि. २१२.
प्रतिबंध परित्यागी सदा अधिवास अगर विवासमां,
मुनिराज विहरो सर्वदा थई छेदहीन श्रामण्यमां. २१३.
जे श्रमण ज्ञान-द्रगादिके प्रतिबद्ध विचरे सर्वदा,
ने प्रयत मूळगुणो विषे, श्रामण्य छे परिपूर्ण त्यां. २१४.
मुनि क्षपण मांही, निवासस्थान, विहार वा भोजन महीं,
उपधि-श्रमण-विकथा महीं प्रतिबंधने इच्छे नहीं. २१५.
आसन-शयन-गमनादिके चर्या प्रयत्नविहीन जे,
ते जाणवी हिंसा सदा संतानवाहिनी श्रमणने. २१६.
जीवो-मरो जीव, यत्नहीन आचार त्यां हिंसा नक्की;
समिति-प्रयत्नसहितने नहि बंध हिंसामात्रथी. २१७.
मुनि यत्नहीन आचारवंत छ कायनो हिंसक कह्यो;
जलकमलवत् निर्लेप भाख्यो, नित्य यत्नसहित जो. २१८.
दैहिक क्रिया थकी जीव मरतां बंध थायन थाय छे,
परिग्रह थकी ध्रुव बंध, तेथी समस्त छोड्यो योगीए. २१९.
निरपेक्ष त्याग न होय तो नहि भावशुद्धि भिक्षुने,
ने भावमां अविशुद्धने क्षय कर्मनो कई रीत बने? २२०.
आरंभ, अणसंयम अने मूर्छा न त्यांए क्यम बने?
परद्रव्यरत जे होय ते कई रीत साधे आत्मने? २२१.

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ग्रहणे विसर्गे सेवतां नहि छेद जेथी थाय छे,
ते उपधि सह वर्तो भले मुनि काळक्षेत्र विजाणीने. २२२.
उपधि अनिंदितने, असंयत जन थकी अणप्रार्थ्यने,
मूर्छादिजननरहितने ज ग्रहो श्रमण, थोडो भले. २२३.
क्यम अन्य परिग्रह होय ज्यां कही देहने परिग्रह अहो!
मोक्षेच्छुने देहेय निष्प्रतिकर्म उपदेशे जिनो ? २२४.
जन्म्या प्रमाणे रूप भाख्युं उपकरण जिनमार्गमां,
गुरुवचन ने सूत्राध्ययन, वळी विनय पण उपकरणमां. २२५.
आ लोकमां निरपेक्ष ने परलोक-अणप्रतिबद्ध छे
साधु कषायरहित, तेथी युक्त आ’र-विहारी छे. २२६.
आत्मा अनेषक ते य तप, तत्सिद्धिमां उद्यत रही
वण-एषणा भिक्षा वळी, तेथी अनाहारी मुनि. २२७.
केवलशरीर मुनि त्यांय ‘मारुं न’ जाणी वण-प्रतिकर्म छे,
निज शक्तिना गोपन विना तप साथ तन योजेल छे. २२८.
आहार ते एक ज, ऊणोदर ने यथा-उपलब्ध छे,
भिक्षा वडे, दिवसे, रसेच्छाहीन, वण-मधुमांस छे. २२९.
वृद्धत्व, बाळपणा विषे, ग्लानत्व, श्रांत दशा विषे,
चर्या चरो निजयोग्य, जे रीत मूळछेद न थाय छे. २३०.
जो देश-काळ तथा क्षमा-श्रम-उपधिने मुनि जाणीने
वर्ते अहारविहारमां, तो अल्पलेपी श्रमण ते. २३१.
श्रामण्य ज्यां ऐकाग्र्य, ने ऐकाग्र्य वस्तुनिश्चये,
निश्चय बने आगम वडे, आगमप्रवर्तन मुख्य छे. २३२.

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आगमरहित जे श्रमण ते जाणे न परने, आत्मने;
भिक्षु पदार्थ-अजाण ते क्षय कर्मनो कइ रीत करे? २३३.
मुनिराज आगमचक्षु ने सौ भूत इन्द्रियचक्षु छे,
छे देव अवधिचक्षु ने सर्वत्रचक्षु सिद्ध छे. २३४.
सौ चित्र गुणपर्याययुक्त पदार्थ आगमसिद्ध छे;
ते सर्वने जाणे श्रमण ए देखीने आगम वडे. २३५.
द्रष्टि न आगमपूर्विका ते जीवने संयम नहीं
ए सूत्र केरुं छे वचन; मुनि केम होय असंयमी? २३६.
सिद्धि नहीं आगम थकी, श्रद्धा न जो अर्थो तणी;
निर्वाण नहि अर्थो तणी श्रद्धाथी, जो संयम नहीं. २३७.
अज्ञानी जे कर्मो खपावे लक्ष कोटि भवो वडे,
ते कर्म ज्ञानी त्रिगुप्त बस उच्छ्वासमात्रथी क्षय करे. २३८.
अणुमात्र पण मूर्छा तणो सद्भाव जो देहादिके,
तो सर्वआगमधर भले पण नव लहे सिद्धत्वने. २३९.
जे पंचसमित, त्रिगुप्त, इन्द्रिनिरोधी, विजयी कषायनो,
परिपूर्ण दर्शनज्ञानथी, ते श्रमणने संयत कह्यो. २४०.
निंदा-प्रशंसा, दुःख-सुख, अरि-बंधुमां ज्यां साम्य छे,
वळी लोष्ट-कनके, जीवित-मरणे साम्य छे, ते श्रमण छे. २४१.
द्रग, ज्ञान ने चारित्र त्रणमां युगपदे आरूढ जे,
तेने कह्यो ऐकाग्र्यगत, श्रामण्य त्यां परिपूर्ण छे. २४२.
परद्रव्यने आश्रय श्रमण अज्ञानी पामे मोहने
वा रागने वा द्वेषने, तो विविध बांधे कर्मने. २४३.

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नहि मोह, ने नहि राग, द्वेष करे नहीं अर्थो विषे,
तो नियमथी मुनिराज ए विधविध कर्मो क्षय करे. २४४.
शुद्धोपयोगी श्रमण छे, शुभयुक्त पण शास्त्रे कह्या;
शुद्धोपयोगी छे निरास्रव, शेष सास्रव जाणवा. २४५.
वात्सल्य प्रवचनरत विषे ने भक्ति अर्हंतादिके
ए होय जो श्रामण्यमां, तो चरण ते शुभयुक्त छे. २४६.
श्रमणो प्रति वंदन, नमन, अनुगमन, अभ्युत्थान ने
वळी श्रमनिवारण छे न निंदित रागयुत चर्या विषे. २४७.
उपदेश दर्शनज्ञाननो, पोषण-ग्रहण शिष्यो तणुं,
उपदेश जिनपूजा तणोवर्तन तुं जाण सरागनुं. २४८.
वण जीवकायविराधना उपकार जे नित्ये करे
चउविध साधुसंघने, ते श्रमण रागप्रधान छे. २४९.
वैयावृते उद्यत श्रमण षट् कायने पीडा करे
तो श्रमण नहि, पण छे गृही; ते श्रावकोनो धर्म छे. २५०.
छे अल्प लेप छतांय दर्शनज्ञानपरिणत जैनने
निरपेक्षतापूर्वक करो उपकार अनुकंपा वडे. २५१.
आक्रांत देखी श्रमणने श्रम, रोग वा भूख, प्यासथी,
साधु करो सेवा स्वशक्तिप्रमाण ए मुनिराजनी. २५२.
सेवानिमित्ते रोगी-बाळक-वृद्ध-गुरु श्रमणो तणी,
लौकिक जनो सह वात शुभ-उपयोगयुत निंदित नथी. २५३.
आ शुभ चर्या श्रमणने, वळी मुख्य होय गृहस्थने;
तेना वडे ज गृहस्थ पामे मोक्षसुख उत्कृष्टने. २५४.

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फळ होय छे विपरीत वस्तुविशेषथी शुभ रागने,
निष्पत्ति विपरीत होय भूमिविशेषथी ज्यम बीजने. २५५.
छद्मस्थ-अभिहित ध्यानदाने व्रतनियमपठनादिके
रत जीव मोक्ष लहे नहीं, बस भाव शातात्मक लहे. २५६.
परमार्थथी अनभिज्ञ, विषयकषायअधिक जनो परे
उपकार-सेवा-दान सर्व कुदेवमनुजपणे फळे. २५७.
‘विषयो कषायो पाप छे’ जो एम निरूपण शास्त्रमां,
तो केम तत्प्रतिबद्ध पुरुषो होय रे निस्तारका? २५८.
ते पुरुष जाण सुमार्गशाळी, पाप-उपरम जेहने,
समभाव ज्यां सौ धार्मिके, गुणसमूहसेवन जेहने. २५९.
अशुभोपयोगरहित श्रमणोशुद्ध वा शुभयुक्त जे,
ते लोकने तारे; अने तद्भक्त पामे पुण्यने. २६०.
प्रकृत वस्तु देखी अभ्युत्थान आदि क्रिया थकी
वर्तो श्रमण, पछी वर्तनीय गुणानुसार विशेषथी. २६१.
गुणथी अधिक श्रमणो प्रति सत्कार, अभ्युत्थान ने
अंजलिकरण, पोषण, ग्रहण, सेवन अहीं उपदिष्ट छे. २६२.
मुनि सूत्र-अर्थप्रवीण संयमज्ञानतपसमृद्धने
प्रणिपात, अभ्युत्थान, सेवा साधुए कर्तव्य छे. २६३.
शास्त्रे कह्युंतपसूत्रसंयमयुक्त पण साधु नहीं,
जिन-उक्त आत्मप्रधान सर्व पदार्थ जो श्रद्धे नहीं. २६४.
मुनि शासने स्थित देखीने जे द्वेषथी निंदा करे,
अनुमत नहीं किरिया विषे, ते नाश चरण तणो करे. २६५.

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जे हीनगुण होवा छतां ‘हुं पण श्रमण छुं’ मद करे,
इच्छे विनय गुण-अधिक पास, अनंतसंसारी बने. २६६.
मुनि अधिकगुण हीनगुण प्रति वर्ते यदि विनयादिमां,
तो भ्रष्ट थाय चरित्रथी उपयुक्त मिथ्या भावमां. २६७.
सूत्रार्थपदनिश्चय, कषायप्रशांति, तप-अधिकत्व छे,
ते पण असंयत थाय, जो छोडे न लौकिक-संगने. २६८.
निर्ग्रंथरूप दीक्षा वडे संयमतपे संयुक्त जे,
लौकिक कह्यो तेने य, जो छोडे न ऐहिक कर्मने. २६९.
तेथी श्रमणने होय जो दुखमुक्ति केरी भावना,
तो नित्य वसवुं समान अगर विशेष गुणीना संगमां. २७०.
समयस्थ हो पण सेवी भ्रम अयथा ग्रहे जे अर्थने,
अत्यंतफळसमृद्ध भावी काळमां जीव ते भमे. २७१.
अयथाचरणहीन, सूत्र-अर्थसुनिश्चयी उपशांत जे,
ते पूर्ण साधु अफळ आ संसारमां चिर नहि रहे. २७२.
जाणी यथार्थ पदार्थने, तजी संग अंतर्बाह्यने,
आसक्त नहि विषयो विषे जे, ‘शुद्ध’ भाख्या तेमने. २७३.
रे ! शुद्धने श्रामण्य भाख्युं, ज्ञान दर्शन शुद्धने,
छे शुद्धने निर्वाण, शुद्ध ज सिद्ध, प्रणमुं तेहने. २७४.
साकार अण-आकार चर्यायुक्त आ उपदेशने
जे जाणतो, ते अल्प काळे सार प्रवचननो लहे. २७५.

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श्री
पंचास्तिकायसंग्रह
(पद्यानुवाद)
१. षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
(हरिगीत)
शत-इन्द्रवंदित, त्रिजगहित-निर्मळ-मधुर वदनारने,
निःसीम गुण धरनारने, जितभव नमुं जिनराजने. १.
आ समयने शिरनमनपूर्वक भाखुं छुं, सुणजो तमे;
जिनवदननिर्गत-अर्थमय, चउगतिहरण, शिवहेतु छे. २.
समवाद वा समवाय पांच तणो समयभाख्युं जिने;
ते लोक छे, आगळ अमाप अलोक आभस्वरूप छे. ३.
जीवद्रव्य, पुद्गलकाय, धर्म, अधर्म ने आकाश ए
अस्तित्वनियत, अनन्यमय ने अणुमहान पदार्थ छे. ४.
विधविध गुणो ने पर्ययो सह जे अनन्यपणुं धरे
ते अस्तिकायो जाणवा, त्रैलोक्यरचना जे वडे. ५.
ते अस्तिकाय त्रिकाळभावे परिणमे छे, नित्य छे;
ए पांच तेम ज काळ वर्तनलिंग सर्वे द्रव्य छे. ६.
अन्योन्य थाय प्रवेश, ए अन्योन्य दे अवकाशने,
अन्योन्य मिलन, छतां कदी छोडे न आपस्वभावने. ७.

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सर्वार्थप्राप्त, सविश्वरूप, अनंतपर्ययवंत छे,
सत्ता जनम-लय-ध्रौव्यमय छे, एक छे, सविपक्ष छे. ८.
ते ते विविध सद्भावपर्ययने द्रवेव्यापेलहे
तेने कहे छे द्रव्य, जे सत्ता थकी नहि अन्य छे. ९.
छे सत्त्व लक्षण जेहनुं, उत्पादव्ययध्रुवयुक्त जे,
गुणपर्ययाश्रय जेह, तेने द्रव्य सर्वज्ञो कहे. १०.
नहि द्रव्यनो उत्पाद अथवा नाश नहि, सद्भाव छे;
तेना ज जे पर्याय ते उत्पाद-लय-ध्रुवता करे. ११.
पर्यायविरहित द्रव्य नहि, नहि द्रव्यहीन पर्याय छे,
पर्याय तेम ज द्रव्य केरी अनन्यता श्रमणो कहे. १२.
नहि द्रव्य विण गुण होय, गुण विण द्रव्य पण नहि होय छे;
तेथी गुणो ने द्रव्य केरी अभिन्नता निर्दिष्ट छे. १३.
छे अस्ति, नास्ति, उभय तेम अवाच्य आदिक भंग जे,
आदेशवश ते सात भंगे युक्त सर्वे द्रव्य छे. १४.
नहि ‘भाव’ केरो नाश होय, ‘अभाव’नो उत्पाद ना;
‘भावो’ करे छे नाश ने उत्पाद गुणपर्यायमां. १५.
जीवादि सौ छे ‘भाव’, जीवगुण चेतना उपयोग छे;
जीवपर्ययो तिर्यंच-नारक-देव-मनुज अनेक छे. १६.
मनुजत्वथी व्यय पामीने देवादि देही थाय छे;
त्यां जीवभाव न नाश पामे, अन्य नहि उद्भव लहे. १७.
जन्मे मरे छे ते ज, तोपण नाश-उद्भव नव लहे;
सुर-मानवादिक पर्ययो उत्पन्न ने लय थाय छे. १८.