Shastra Swadhyay-Gujarati (Devanagari transliteration). 2. navpadArthpuravk mokshmArg prapanch varNan; NiyamsAr; 1. jiv adhikAr; 2. ajiv adhikAr; 3. shuddhbhav adhikAr.

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ए रीत सत्-व्यय ने असत्-उत्पाद होय न जीवने;
सुरनरप्रमुख गतिनामनो हदयुक्त काळ ज होय छे. १९.
ज्ञानावरण इत्यादि भावो जीव सह अनुबद्ध छे;
तेनो करीने नाश, पामे जीव सिद्धि अपूर्वने. २०.
गुणपर्यये संयुक्त जीव संसरण करतो ए रीते
उद्भव, विलय, वळी भाव-विलय, अभाव-उद्भवने करे. २१.
जीवद्रव्य, पुद्गलकाय, नभ ने अस्तिकायो शेष बे
अणकृतक छे, अस्तित्वमय छे, लोककारणभूत छे. २२.
सत्तास्वभावी जीव ने पुद्गल तणा परिणमनथी
छे सिद्धि जेनी, काळ ते भाख्यो जिणंदे नियमथी. २३.
रसवर्णपंचक, स्पर्श-अष्टक, गंधयुगल विहीन छे,
छे मूर्तिहीन, अगुरुलघुक छे, काळ वर्तनलिंग छे. २४.
जे समय, निमिष, कळा, घडी, दिनरात, मास, ॠतु अने
जे अयन ने वर्षादि छे, ते काळ पर-आयत्त छे. २५.
‘चिर’ ‘शीघ्र’ नहि मात्रा विना, मात्रा नहीं पुद्गल विना,
ते कारणे पर-आश्रये उत्पन्न भाख्यो काळ आ. २६.
छे जीव, चेतयिता, प्रभु, उपयोगचिह्न, अमूर्त छे,
कर्ता अने भोक्ता, शरीरप्रमाण, कर्मे युक्त छे. २७.
सौ कर्ममळथी मुक्त आत्मा पामीने लोकाग्रने,
सर्वज्ञदर्शी ते अनंत अनिंद्रि सुखने अनुभवे. २८.
स्वयमेव चेतक सर्वज्ञानी-सर्वदर्शी थाय छे,
ने निज अमूर्त अनंत अव्याबाध सुखने अनुभवे. २९.

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जे चार प्राणे जीवतो पूर्वे, जीवे छे, जीवशे,
ते जीव छे; ने प्राण इन्द्रिय-आयु-बळ-उच्छ्वास छे. ३०.
जे अगुरुलघुक अनंत ते-रूप सर्व जीवो परिणमे;
सौना प्रदेश असंख्य; कतिपय लोकव्यापी होय छे; ३१.
अव्यापी छे कतिपय; वळी निर्दोष सिद्ध जीवो घणा;
मिथ्यात्व-योग-कषाययुत संसारी जीव बहु जाणवा. ३२.
ज्यम दूधमां स्थित पद्मरागमणि प्रकाशे दूधने,
त्यम देहमां स्थित देही देहप्रमाण व्यापकता लहे. ३३.
तन तन धरे जीव, तन महीं ऐक्यस्थ पण नहि एक छे,
जीव विविध अध्यवसाययुत, रजमळमलिन थईने भमे. ३४.
जीवत्व नहि ने सर्वथा तदभाव पण नहि जेमने,
ते सिद्ध छेजे देहविरहित वचनविषयातीत छे. ३५.
ऊपजे नहीं को कारणे ते सिद्ध तेथी न कार्य छे,
उपजावता नथी कांई पण तेथी न कारण पण ठरे. ३६.
सद्भाव जो नहि होय तो ध्रुव, नाश, भव्य, अभव्य ने
विज्ञान, अणविज्ञान, शून्य, अशून्यए कंई नव घटे. ३७.
त्रणविध चेतकभावथी को जीवराशि ‘कार्य’ने,
को जीवराशि ‘कर्मफळ’ने, कोई चेते ‘ज्ञान’ने. ३८.
वेदे करमफळ स्थावरो, त्रस कार्ययुत फळ अनुभवे,
प्राणित्वथी अतिक्रांत जे ते जीव वेदे ज्ञानने. ३९.
छे ज्ञान ने दर्शन सहित उपयोग युगल प्रकारनो;
जीवद्रव्यने ते सर्व काळ अनन्यरूपे जाणवो. ४०.

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मति, श्रुत, अवधि, मनः, केवळपांच भेदो ज्ञानना;
कुमति, कुश्रुत, विभंगत्रण पण ज्ञान साथे जोडवां. ४१.
दर्शन तणा चक्षु-अचक्षुरूप, अवधिरूप ने
निःसीमविषय अनिधन केवळरूप भेद कहेल छे. ४२.
छे ज्ञानथी नहि भिन्न ज्ञानी, ज्ञान तोय अनेक छे;
ते कारणे तो विश्वरूप कह्युं दरवने ज्ञानीए. ४३.
जो द्रव्य गुणथी अन्य ने गुण अन्य मानो द्रव्यथी,
तो थाय द्रव्य-अनंतता वा थाय नास्ति द्रव्यनी. ४४.
गुण-द्रव्यने अविभक्तरूप अनन्यता बुधमान्य छे;
पण त्यां विभक्त अनन्यता वा अन्यता नहि मान्य छे. ४५.
व्यपदेश ने संस्थान, संख्या, विषय बहु ये होय छे;
ते तेमना अन्यत्व तेम अनन्यतामां पण घटे. ४६.
धनथी ‘धनी’ ने ज्ञानथी ‘ज्ञानी’द्विधा व्यपदेश छे,
ते रीत तत्त्वज्ञो कहे एकत्व तेम पृथक्त्वने. ४७.
जो होय अर्थांतरपणुं अन्योन्य ज्ञानी-ज्ञानने,
बन्ने अचेतनता लहेजिनदेवने नहि मान्य जे. ४८.
रे! जीव ज्ञानविभिन्न नहि समवायथी ज्ञानी बने;
‘अज्ञानी’ एवुं वचन ते एकत्वनी सिद्धि करे. ४९.
समवर्तिता समवाय छे, अपृथक्त्व ते, अयुतत्व ते;
ते कारणे भाखी अयुतसिद्धि गुणो ने द्रव्यने. ५०.
परमाणुमां प्ररूपित वरण, रस, गंध, तेम ज स्पर्श जे,
अणुथी अभिन्न रही विशेष वडे प्रकाशे भेदने; ५१.

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त्यम ज्ञानदर्शन जीवनियत अनन्य रहीने जीवथी,
अन्यत्वना कर्ता बने व्यपदेशथीन स्वभावथी. ५२.
जीवो अनादि-अनंत, सांत, अनंत छे जीवभावथी,
सद्भावथी नहि अंत होय; प्रधानता गुण पांचथी. ५३.
ए रीत सत्-व्यय ने असत्-उत्पाद जीवने होय छे,
भाख्युं जिने, जे पूर्व-अपर विरुद्ध पण अविरुद्ध छे. ५४.
तिर्यंच-नारक-देव-मानव नामनी छे प्रकृति जे,
ते व्यय करे सत् भावनो, उत्पाद असत् तणो करे. ५५.
परिणाम, उदय, क्षयोपशम, उपशम, क्षये संयुक्त जे,
ते पांच जीवगुण जाणवा; बहु भेदमां विस्तीर्ण छे. ५६.
पुद्गलकरमने वेदतां आत्मा करे जे भावने,
ते भावनो ते जीव छे कर्ताकह्युं जिनशासने. ५७.
पुद्गलकरम विण जीवने उपशम, उदय, क्षायिक अने
क्षायोपशमिक न होय, तेथी कर्मकृत ए भाव छे. ५८.
जो भावकर्ता कर्म, तो शुं कर्मकर्ता जीव छे?
जीव तो कदी करतो नथी निज भाव विण कंई अन्यने. ५९.
रे! भाव कर्मनिमित्त छे ने कर्म भावनिमित्त छे,
अन्योन्य नहि कर्ता खरे; कर्ता विना नहि थाय छे. ६०.
निज भाव करतो आतमा कर्ता खरे निज भावनो,
कर्ता न पुद्गलकर्मनो;उपदेश जिननो जाणवो. ६१.
रे! कर्म आपस्वभावथी निज कर्मपर्ययने करे,
आत्माय कर्मस्वभावरूप निज भावथी निजने करे. ६२.

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जो कर्म कर्म करे अने आत्मा करे बस आत्मने,
क्यम कर्म फळ दे जीवने ? क्यम जीव ते फळ भोगवे? ६३.
अवगाढ गाढ भरेल छे सर्वत्र पुद्गलकायथी
आ लोक बादर-सूक्ष्मथी, विधविध अनंतानंतथी. ६४.
आत्मा करे निज भाव ज्यां, त्यां पुद्गलो निज भावथी
कर्मत्वरूपे परिणमे अन्योन्य-अवगाहित थई. ६५.
ज्यम स्कंधरचना बहुविधा देखाय छे पुद्गल तणी
परथी अकृत, ते रीत जाणो विविधता कर्मो तणी. ६६.
जीव-पुद्गलो अन्योन्यमां अवगाह ग्रहीने बद्ध छे;
काळे वियोग लहे तदा सुखदुःख आपेभोगवे. ६७.
तेथी करम, जीवभावथी संयुक्त, कर्ता जाणवुं;
भोक्तापणुं तो जीवने चेतकपणे तत्फळ तणुं. ६८.
कर्ता अने भोक्ता थतो ए रीत निज कर्मो वडे
जीव मोहथी आच्छन्न सांत अनंत संसारे भमे. ६९.
जिनवचनथी लही मार्ग जे, उपशांतक्षीणमोही बने,
ज्ञानानुमार्ग विषे चरे, ते धीर शिवपुरने वरे. ७०.
एक ज महात्मा ते द्विभेद अने त्रिलक्षण उक्त छे,
चउभ्रमणयुत, पंचाग्रगुणपरधान जीव कहेल छे; ७१.
उपयोगी षट-अपक्रमसहित छे, सप्तभंगीसत्त्व छे,
जीव अष्ट-आश्रय, नव-अरथ, दशस्थानगत भाखेल छे. ७२.
प्रकृति-स्थिति-परदेश-अनुभवबंधथी परिमुक्तने
गति होय ऊंचे; शेषने विदिशा तजी गति होय छे. ७३.

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जडरूप पुद्गलकाय केरा चार भेदो जाणवा;
ते स्कंध, तेनो देश, स्कंधप्रदेश, परमाणु कह्या. ७४.
पूरण-सकळ ते ‘स्कंध’ छे ने अर्ध तेनुं ‘देश’ छे,
अर्धार्ध तेनुं ‘प्रदेश’ ने अविभाग ते ‘परमाणु’ छे. ७५.
सौ स्कंध बादर-सूक्ष्ममां ‘पुद्गल’ तणो व्यवहार छे;
छ विकल्प छे स्कंधो तणा, जेथी त्रिजग निष्पन्न छे. ७६.
जे अंश अंतिम स्कंधनो, परमाणु जाणो तेहने;
ते एक ने अविभाग, शाश्वत, मूर्तिप्रभव, अशब्द छे. ७७.
आदेशमात्रथी मूर्त, धातुचतुष्कनो छे हेतु जे,
ते जाणवो परमाणुजे परिणामी, आप अशब्द छे. ७८.
छे शब्द स्कंधोत्पन्न; स्कंधो अणुसमूहसंघात छे,
स्कंधाभिघाते शब्द ऊपजे, नियमथी उत्पाद्य छे. ७९.
नहि अनवकाश, न सावकाश प्रदेशथी, अणु शाश्वतो,
भेत्ता

रचयिता स्कंधनो, प्रविभागी संख्या-काळनो. ८०.
एक ज वरण-रस-गंध ने बेे स्पर्शयुत परमाणु छे,
ते शब्दहेतु, अशब्द छे, ने स्कंधमां पण द्रव्य छे. ८१.
इन्द्रिय वडे उपभोग्य, इन्द्रिय, काय, मन ने कर्म जे,
वळी अन्य जे कंई मूर्त ते सघळुंय पुद्गल जाणजे. ८२.
धर्मास्तिकाय अवर्णगंध, अशब्दरस, अस्पर्श छे;
लोकावगाही, अखंड छे, विस्तृत, असंख्यप्रदेश छे. ८३.
जे अगुरुलघुक अनंत ते-रूप सर्वदा ए परिणमे,
छे नित्य, आप अकार्य छे, गतिपरिणमितने हेतु छे. ८४.

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ज्यम जगतमां जळ मीनने अनुग्रह करे छे गमनमां,
त्यम धर्म पण अनुग्रह करे जीव-पुद्गलोने गमनमां. ८५.
ज्यम धर्मनामक द्रव्य तेम अधर्मनामक द्रव्य छे;
पण द्रव्य आ छे पृथ्वी माफक हेतु थितिपरिणमितने. ८६.
धर्माधरम होवाथी लोक-अलोक ने स्थितिगति बने;
ते उभय भिन्न-अभिन्न छे ने सकळलोकप्रमाण छे. ८७.
धर्मास्ति गमन करे नहीं, न करावतो परद्रव्यने;
जीव-पुद्गलोना गतिप्रसार तणो उदासीन हेतु छे. ८८.
रे! जेमने गति होय छे, तेओ ज वळी स्थिर थाय छे;
ते सर्व निज परिणामथी ज करे गतिस्थितिभावने. ८९.
जे लोकमां जीव-पुद्गलोने, शेष द्रव्य समस्तने
अवकाश दे छे पूर्ण, ते आकाशनामक द्रव्य छे. ९०.
जीव-पुद्गलादिक शेष द्रव्य अनन्य जाणो लोकथी;
नभ अंतशून्य अनन्य तेम ज अन्य छे ए लोकथी. ९१.
अवकाशदायक आभ गति-स्थितिहेतुता पण जो धरे,
तो ऊर्ध्वगतिपरधान सिद्धो केम तेमां स्थिति लहे? ९२.
भाखी जिनोए लोकना अग्रे स्थिति सिद्धो तणी,
ते कारणे जाणोगतिस्थिति आभमां होती नथी. ९३.
नभ होय जो गतिहेतु ने स्थितिहेतु पुद्गल-जीवने,
तो हानि थाय अलोकनी, लोकान्त पामे वृद्धिने. ९४.
तेथी गतिस्थितिहेतुओ धर्माधरम छे, नभ नहीं;
भाख्युं जिनोए आम लोकस्वभावना श्रोता प्रति. ९५.

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धर्माधरम-नभने समानप्रमाणयुत अपृथक्त्वथी,
वळी भिन्नभिन्न विशेषथी, एकत्व ने अन्यत्व छे. ९६.
आत्मा अने आकाश, धर्म, अधर्म, काळ अमूर्त छे,
छे मूर्त पुद्गलद्रव्य; तेमां जीव छे चेतन खरे. ९७.
जीव-पुद्गलो सहभूत छे सक्रिय, निष्क्रिय शेष छे;
छे काळ पुद्गलने करण, पुद्गल करण छे जीवने. ९८.
छे जीवने जे विषय इन्द्रियग्राह्य, ते सौ मूर्त छे;
बाकी बधुंय अमूर्त छे; मन जाणतुं ते उभयने. ९९.
परिणामभव छे काळ, काळपदार्थभव परिणाम छे;
आ छे स्वभावो उभयना; क्षणभंगी ने ध्रुव काळ छे. १००.
छे ‘काळ’ संज्ञा सत्प्ररूपक तेथी काळ सुनित्य छे;
उत्पन्नध्वंसी अन्य जे ते दीर्घस्थायी पण ठरे. १०१.
आ जीव, पुद्गल, काळ, धर्म, अधर्म तेम ज नभ विषे
छे ‘द्रव्य’संज्ञा सर्वने, कायत्व छे नहि काळने. १०२.
ए रीत प्रवचनसाररूप ‘पंचास्तिसंग्रह’ जाणीने
जे जीव छोडे रागद्वेष, लहे सकळदुखमोक्षने. १०३.
आ अर्थ जाणी, अनुगमन-उद्यम करी, हणी मोहने,
प्रशमावी रागद्वेष, जीव उत्तर-पूरव विरहित बने. १०४.

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२. नवपदार्थपूर्वक मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
शिरसा नमी अपुनर्जनमना हेतु श्री महावीरने,
भाखुं पदार्थविकल्प तेम ज मोक्ष केरा मार्गने. १०५.
सम्यक्त्वज्ञान समेत चारित रागद्वेषविहीन जे,
ते होय छे निर्वाणमारग लब्धबुद्धि भव्यने. १०६.
‘भावो’ तणी श्रद्धा सुदर्शन, बोध तेनो ज्ञान छे,
वधु रूढ मार्ग थतां विषयमां साम्य ते चारित्र छे. १०७.
बे भावजीव अजीव, तद्गत पुण्य तेम ज पाप ने
आसरव, संवर, निर्जरा, वळी बंध, मोक्षपदार्थ छे. १०८.
जीवो द्विविधसंसारी, सिद्धो; चेतनात्मक उभय छे;
उपयोगलक्षण उभय; एक सदेह, एक अदेह छे. १०९.
भू-जल-अनल-वायु-वनस्पतिकाय जीवसहित छे;
बहु काय ते अतिमोहसंयुत स्पर्श आपे जीवने. ११०.
त्यां जीव त्रण स्थावरतनु, त्रस जीव अग्नि-समीरना;
ए सर्व मनपरिणामविरहित एक-इन्द्रिय जाणवा. १११.
आ पृथ्वीकायिक आदि जीवनिकाय पांच प्रकारना,
सघळाय मनपरिणामविरहित जीव एकेन्द्रिय कह्या. ११२.
जेवा जीवो अंडस्थ, मूर्छावस्थ वा गर्भस्थ छे;
तेवा बधा आ पंचविध एकेन्द्रि जीवो जाणजे. ११३.
शंबूक, छीपो, मातृवाहो, शंख, कृमि पग-वगरना
जे जाणता रसस्पर्शने, ते जीव द्वीन्द्रिय जाणवा. ११४.

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जू, कुं भी, माकड, कीडी, तेम ज वृश्चिकादिक जंतु जे
रस, गंध तेम ज स्पर्श जाणे, जीव त्रीन्द्रिय तेह छे. ११५.
मधमाख, भ्रमर, पतंग, माखी, डांस, मच्छर आदि जे,
ते जीव जाणे स्पर्शने, रस, गंध तेम ज रूपने. ११६.
स्पर्शादिपंचक जाणतां तिर्यंच-नारक-सुर-नरो
जळचर, भूचर के खेचरोबळवान पंचेन्द्रिय जीवो. ११७.
नर कर्मभूमिज भोगभूमिज, देव चार प्रकारना,
तिर्यंच बहुविध, नारकोना पृथ्वीगत भेदो कह्या. ११८.
गतिनाम ने आयुष्य पूर्वनिबद्ध ज्यां क्षय थाय छे,
त्यां अन्य गति-आयुष्य पामे जीव निजलेश्यावशे. ११९.
आ उक्त जीवनिकाय सर्वे देहसहित कहेल छे,
ने देहविरहित सिद्ध छे; संसारी भव्य-अभव्य छे. १२०.
रे! इन्द्रियो नहि जीव, षड्विध काय पण नहि जीव छे;
छे तेमनामां ज्ञान जे बस ते ज जीव निर्दिष्ट छे. १२१.
जाणे अने देखे बधुं, सुख अभिलषे, दुखथी डरे,
हित-अहित जीव करे अने हित-अहितनुं फळ भोगवे. १२२.
बीजाय बहु पर्यायथी ए रीत जाणी जीवने,
जाणो अजीवपदार्थ ज्ञानविभिन्न जड लिंगो वडे. १२३.
छे जीवगुण नहि आभ-धर्म-अधर्म-पुद्गल-काळमां;
तेमां अचेतनता कही, चेतनपणुं कह्युं जीवमां. १२४.
सुखदुःखसंचेतन, अहितनी भीति, उद्यम हित विषे
जेने कदी होतां नथी, तेने अजीव श्रमणो कहे. १२५.

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संस्थान-संघातो, वरण-रस-गंध-शब्द-स्पर्श जे,
ते बहु गुणो ने पर्ययो पुद्गलदरवनिष्पन्न छे. १२६.
जे चेतनागुण, अरसरूप, अगंधशब्द, अव्यक्त छे,
निर्दिष्ट नहि संस्थान, इन्द्रियग्राह्य नहि, ते जीव छे. १२७.
संसारगत जे जीव छे परिणाम तेने थाय छे,
परिणामथी कर्मो, करमथी गमन गतिमां थाय छे. १२८.
गति प्राप्तने तन थाय, तनथी इन्द्रियो वळी थाय छे,
एनाथी विषय ग्रहाय, रागद्वेष तेथी थाय छे. १२९.
ए रीत भाव अनादिनिधन अनादिसांत थया करे
संसारचक्र विषे जीवोनेएम जिनदेवो कहे. १३०.
छे राग, द्वेष, विमोह, चित्तप्रसादपरिणति जेहने,
ते जीवने शुभ वा अशुभ परिणामनो सद्भाव छे. १३१.
शुभ भाव जीवना पुण्य छे ने अशुभ भावो पाप छे;
तेना निमित्ते पौद्गलिक परिणाम कर्मपणुं लहे. १३२.
छे कर्मनुं फळ विषय, तेने नियमथी अक्षो वडे
जीव भोगवे दुःखे-सुखे, तेथी करम ते मूर्त छे. १३३.
मूरत मूरत स्पर्शे अने मूरत मूरत बंधन लहे;
आत्मा अमूरत ने करम अन्योन्य अवगाहन लहे. १३४.
छे रागभाव प्रशस्त, अनुकंपासहित परिणाम छे,
मनमां नहीं कालुष्य छे, त्यां पुण्य-आस्रव होय छे. १३५.
अर्हंत-साधु-सिद्ध प्रत्ये भक्ति, चेष्टा धर्ममां,
गुरुओ तणुं अनुगमनए परिणाम राग प्रशस्तना. १३६.

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दुःखित, तृषित वा क्षुधित देखी दुःख पामी मन विषे
करुणाथी वर्ते जेह, अनुकंपा सहित ते जीव छे. १३७.
मद-क्रोध अथवा लोभ-माया चित्त-आश्रय पामीने
जीवने करे जे क्षोभ, तेने कलुषता ज्ञानी कहे. १३८.
चर्या प्रमादभरी, कलुषता, लुब्धता विषयो विषे,
परिताप ने अपवाद परना, पाप-आस्रवने करे. १३९.
संज्ञा, त्रिलेश्या, इन्द्रिवशता, आर्तरौद्र ध्यान बे,
वळी मोह ने दुर्युक्त ज्ञान प्रदान पाप तणुं करे. १४०.
मार्गे रही संज्ञा-कषायो-इन्द्रिनो निग्रह करे,
पापासरवनुं छिद्र तेने तेटलुं रूंधाय छे. १४१.
सौ द्रव्यमां नहि राग-द्वेष-विमोह वर्ते जेहने,
शुभ-अशुभ कर्म न आस्रवे समदुःखसुख ते भिक्षुने. १४२.
ज्यारे न योगे पुण्य तेम ज पाप वर्ते विरतने,
त्यारे शुभाशुभकृत करमनो थाय संवर तेहने. १४३.
जे योग-संवरयुक्त जीव बहुविध तपो सह परिणमे,
तेने नियमथी निर्जरा बहु कर्म केरी थाय छे. १४४.
संवर सहित, आत्मप्रयोजननो प्रसाधक आत्मने
जाणी, सुनिश्चळ ज्ञान ध्यावे, ते करमरज निर्जरे. १४५.
नहि रागद्वेषविमोह ने नहि योगसेवन जेहने,
प्रगटे शुभाशुभ बाळनारो ध्यान-अग्नि तेहने. १४६.
जो आतमा उपरक्त करतो अशुभ वा शुभ भावने,
तो ते वडे ए विविध पुद्गलकर्मथी बंधाय छे. १४७.

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छे योगहेतुक ग्रहण, मनवचकाय-आश्रित योग छे;
छे भावहेतुक बंध, ने मोहादिसंयुत भाव छे. १४८.
हेतु चतुर्विध अष्टविध कर्मो तणां कारण कह्यां,
तेनांय छे रागादि, ज्यां रागादि नहि त्यां बंध ना. १४९.
हेतु-अभावे नियमथी आस्रवनिरोधन ज्ञानीने,
आसरवभाव-अभावमां कर्मो तणुं रोधन बने. १५०.
कर्मो-अभावे सर्वज्ञानी सर्वदर्शी थाय छे,
ने अक्षरहित, अनंत, अव्याबाध सुखने ते लहे. १५१.
द्रगज्ञानथी परिपूर्ण ने परद्रव्यविरहित ध्यान जे,
ते निर्जरानो हेतु थाय स्वभावपरिणत साधुने. १५२.
संवरसहित ते जीव पूर्व समस्त कर्मो निर्जरे
ने आयुवेद्यविहीन थई भवने तजे; ते मोक्ष छे. १५३.
आत्मस्वभाव अनन्यमय निर्विघ्न दर्शन ज्ञान छे;
द्रग्ज्ञाननियत अनिंद्य जे अस्तित्व ते चारित्र छे. १५४.
निजभावनियत अनियतगुणपर्ययपणे परसमय छे;
ते जो करे स्वकसमयने तो कर्मबंधनथी छूटे. १५५.
जे रागथी परद्रव्यमां करतो शुभाशुभ भावने,
ते स्वकचरित्रथी भ्रष्ट, परचारित्र आचरनार छे. १५६.
रे! पुण्य अथवा पाप जीवने आस्रवे जे भावथी,
तेना वडे ते ‘परचरित’ निर्दिष्ट छे जिनदेवथी. १५७.
सौ-संगमुक्त अनन्यचित्त स्वभावथी निज आत्मने
जाणे अने देखे नियत रही, ते स्वचरितप्रवृत्त छे. १५८.

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ते छे स्वचरितप्रवृत्त, जे परद्रव्यथी विरहितपणे
निज ज्ञानदर्शनभेदने जीवथी अभिन्न ज आचरे. १५९.
धर्मादिनी श्रद्धा सुद्रग, पूर्वांगबोध सुबोध छे,
तपमांही चेष्टा चरणए व्यवहारमुक्तिमार्ग छे. १६०.
जे जीव दर्शनज्ञानचरण वडे समाहित होईने,
छोडे ग्रहे नहि अन्य कंई पण, निश्चये शिवमार्ग छे. १६१.
जाणे, जुए ने आचरे निज आत्मने आत्मा वडे,
ते जीव दर्शन, ज्ञान ने चारित्र छे निश्चितपणे. १६२.
जाणे-जुए छे सर्व तेथी सौख्य-अनुभव मुक्तने;
आ भाव जाणे भव्य जीव, अभव्य नहि श्रद्धा लहे. १६३.
द्रग, ज्ञान ने चारित्र छे शिवमार्ग तेथी सेववां
संते कह्युं, पण हेतु छे ए बंधना वा मोक्षना. १६४.
जिनवरप्रमुखनी भक्ति द्वारा मोक्षनी आशा धरे
अज्ञानथी जो ज्ञानी जीव, तो परसमयरत तेह छे. १६५.
जिन-सिद्ध-प्रवचन-चैत्य-मुनिगण-ज्ञाननी भक्ति करे,
ते पुण्यबंध लहे घणो, पण कर्मनो क्षय नव करे. १६६.
अणुमात्र जेने हृदयमां परद्रव्य प्रत्ये राग छे,
हो सर्वआगमधर भले, जाणे नहीं स्वक-समयने. १६७.
मनना भ्रमणथी रहित जे राखी शके नहि आत्मने,
शुभ वा अशुभ कर्मो तणो नहि रोध छे ते जीवने. १६८.
ते कारणे मोक्षेच्छु जीव असंग ने निर्मम बनी
सिद्धो तणी भक्ति करे, उपलब्धि जेथी मोक्षनी. १६९.

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संयम तथा तपयुक्तने पण दूरतर निर्वाण छे,
सूत्रो, पदार्थो, जिनवरो प्रति चित्तमां रुचि जो रहे. १७०.
जिन-सिद्ध-प्रवचन-चैत्य प्रत्ये भक्ति धारी मन विषे,
संयम परम सह तप करे, ते जीव पामे स्वर्गने. १७१.
तेथी न करवो राग जरीये क्यांय पण मोक्षेच्छुए;
वीतराग थईने ए रीते ते भव्य भवसागर तरे. १७२.
में मार्ग-उद्योतार्थ, प्रवचनभक्तिथी प्रेराईने,
कह्युं सर्वप्रवचन-सारभूत ‘पंचास्तिसंग्रह’ सूत्रने. १७३.

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श्री
नियमसार
(पद्यानुवाद)
१. जीव अधिकार
(हरिगीत)
नमीने अनंतोत्कृष्ट दर्शनज्ञानमय जिन वीरने,
कहुं नियमसार हुं केवळीश्रुतकेवळीपरिकथितने. १.
छे मार्गनुं ने मार्गफळनुं कथन जिनवरशासने;
त्यां मार्ग मोक्षोपाय छे ने मार्गफळ निर्वाण छे. २.
जे नियमथी कर्तव्य एवां रत्नत्रय ते नियम छे;
विपरीतना परिहार अर्थे ‘सार’ पद योजेल छे. ३.
छे नियम मोक्षोपाय, तेनुं फळ परम निर्वाण छे;
वळी आ त्रणेनुं भेदपूर्वक भिन्न निरूपण होय छे. ४.
रे! आप्त-आगम-तत्त्वनी श्रद्धाथी समकित होय छे;
निःशेषदोषविहीन जे गुणसकळमय ते आप्त छे. ५.
भय, रोष, राग, क्षुधा, तृषा, मद, मोह, चिंता, जन्म ने
रति, रोग, निद्रा, स्वेद, खेद, जरादि दोष अढार छे. ६.
सौ दोष रहित, अनंतज्ञानद्रगादि वैभवयुक्त जे,
परमात्म ते कहेवाय, तद्दविपरीत नहि परमात्म छे. ७.

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परमात्मवाणी शुद्ध ने पूर्वापरे निर्दोष जे,
ते वाणीने आगम कही; तेणे कह्या तत्त्वार्थने. ८.
जीवद्रव्य, पुद्गल, काळ तेम ज आभ, धर्म, अधर्म
भाख्या जिने तत्त्वार्थ, गुणपर्याय विधविध युक्त जे. ९.
उपयोगमय छे जीव ने उपयोग दर्शन-ज्ञान छे;
ज्ञानोपयोग स्वभाव तेम विभावरूप द्विविध छे. १०.
असहाय, इन्द्रिविहीन, केवळ, ते स्वभाविक ज्ञान छे;
सुज्ञान ने अज्ञानएम विभावज्ञान द्विविध छे. ११.
मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्ययभेद छे सुज्ञानना;
कुमति, कुअवधि, कुश्रुतए त्रण भेद छे अज्ञानना. १२.
उपयोग दर्शननो स्वभाव-विभावरूप द्विविध छे;
असहाय, इन्द्रिविहीन, केवळ, ते स्वभाव कहेल छे. १३.
चक्षु, अचक्षु, अवधित्रण दर्शन विभाविक छे कह्यां;
निरपेक्ष, स्वपरापेक्षए बे भेद छे पर्यायना. १४.
तिर्यंच-नारक-देव-नर पर्याय वैभाविक कह्या,
पर्याय कर्मोपाधिवर्जित ते स्वभाविक भाखिया. १५.
छे कर्मभूमिज भोगभूमिजभेद बे मनुजो तणा,
ने पृथ्वीभेदे सप्त भेदो जाणवा नारक तणा. १६.
तिर्यंचना छे चौद भेदो, चार भेदो देवना;
आ सर्वनो विस्तार छे निर्दिष्ट लोकविभागमां. १७.
आत्मा करे, वळी भोगवे पुद्गलकरम व्यवहारथी;
ने कर्मजनित विभावनो कर्तादि छे निश्चय थकी. १८.

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पूर्वोक्त पर्यायोथी छे व्यतिरिक्त जीव द्रव्यार्थिके;
ने उक्त पर्यायोथी छे संयुक्त पर्यायार्थिके. १९.
२. अजीव अधिकार
परमाणु तेम ज स्कंध ए बे भेद पुद्गलद्रव्यना;
छ विकल्प छे स्कंधो तणा ने भेद बे परमाणुना. २०.
अतिथूलथूल, थूल, थूलसूक्षम, सूक्ष्मथूल, वळी सूक्ष्म ने
अतिसूक्ष्मएम धरादि पुद्गलस्कंधना छ विकल्प छे. २१.
भूपर्वतादिक स्कंधने अतिथूलथूल जिने कह्या,
घी-तेल-जळ इत्यादिने वळी थूल स्कंधो जाणवा; २२.
आतप अने छायादिने थूलसूक्ष्म स्कंधो जाणजे,
चतुरिंद्रियना जे विषय तेने सूक्ष्मथूल कह्या जिने; २३.
वळी कर्मवर्गणयोग्य स्कंधो सूक्ष्म स्कंधो जाणवा,
तेनाथी विपरीत स्कंधने अतिसूक्ष्म स्कंधो वर्णव्या. २४.
जे हेतु धातुचतुष्कनो ते कारणाणु जाणवो;
स्कंधो तणा अवसानने वळी कार्यपरमाणु कह्यो. २५.
जे आदि-मध्ये अंतमां पोते ज छे, अविभागी छे,
जे इन्द्रिथी नहि ग्राह्य छे, परमाणु जाणो तेहने. २६.
बे स्पर्श, रस-रूप-गंध एक, स्वभावगुणमय तेह छे;
जिनसमयमांही विभावगुण सर्वाक्षप्रगट कहेल छे. २७.
परिणाम परनिरपेक्ष तेह स्वभावपर्यय जाणवो;
परिणाम स्कंधस्वरूप तेह विभावपर्यय जाणवो. २८.

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परमाणुने ‘पुद्गलदरव’ व्यपदेश छे निश्चय थकी;
ने स्कंधने ‘पुद्गलदरव’ व्यपदेश छे व्यवहारथी. २९.
जीव-पुद्गलोने गमन-स्थाननिमित्त धर्म-अधर्म छे;
जीवादि सर्व पदार्थने अवगाहहेतु आभ छे. ३०.
आवलि-समयना भेदथी बे भेद वा त्रण भेद छे;
संस्थानथी संख्यातगुण आवलिप्रमाण अतीत छे. ३१.
जीवोथी ने पुद्गलथी पण समयो अनंतगुणा कह्या;
ते काळ छे परमार्थ, जे छे स्थित लोकाकाशमां. ३२.
जीवपुद्गलादि पदार्थने परिणमनकारण काळ छे;
धर्मादि चार स्वभावगुणपर्यायवंत पदार्थ छे. ३३.
जिनसमयमांही काळ छोडी शेष पांच पदार्थ जे,
ते अस्तिकाय कह्या; अनेकप्रदेशयुत ते काय छे. ३४.
अणसंख्य, संख्य, अनंत होय प्रदेश मूर्तिक द्रव्यने,
अणसंख्य जाण प्रदेश धर्म, अधर्म तेम ज जीवने; ३५.
अणसंख्य लोकाकाशमांही, अनंत जाण अलोकने,
छे काळ एकप्रदेशी, तेथी न काळने कायत्व छे. ३६.
छे मूर्त पुद्गलद्रव्य, शेष पदार्थ मूर्तिविहीन छे;
चैतन्ययुत छे जीव ने चैतन्यवर्जित शेष छे. ३७.
३. शुद्धभाव अधिकार
छे बाह्यतत्त्व जीवादि सर्वे हेय, आत्मा ग्राह्य छे,
जे कर्मथी उत्पन्न गुणपर्यायथी व्यतिरिक्त छे. ३८.

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जीवने न स्थान स्वभावनां, मानापमान तणां नहीं,
जीवने न स्थानो हर्षनां, स्थानो अहर्ष तणां नहीं. ३९.
स्थितिबंधस्थानो, प्रकृतिस्थान, प्रदेशनां स्थानो नहीं,
अनुभागनां नहि स्थान जीवने, उदयनां स्थानो नहीं. ४०.
स्थानो न क्षायिकभावनां, क्षायोपशमिक तणां नहीं,
स्थानो न उपशमभावनां के उदयभाव तणां नहीं. ४१.
चउगतिभ्रमण नहि, जन्म-मरण न, रोग

शोक

जरा नहीं,
कुळ, योनि के जीवस्थान, मार्गणस्थान जीवने छे नहीं. ४२.
निर्दंड ने निर्द्वंद्व, निर्मम, निःशरीर, नीराग छे,
निर्दोष, निर्भय, निरवलंबन, आतमा निर्मूढ छे. ४३.
निर्गं्रथ छे, निष्काम छे, निःक्रोध, जीव निर्मान छे,
निःशल्य तेम नीराग, निर्मद, सर्वदोषविमुक्त छे. ४४.
स्त्री-पुरुष आदिक पर्ययो, रसवर्णगंधस्पर्श ने
संस्थान तेम ज संहनन सौ छे नहीं जीवद्रव्यने. ४५.
जीव चेतनागुण, अरसरूप, अगंधशब्द, अव्यक्त छे,
वळी लिंगग्रहणविहीन छे, संस्थान भाख्युं न तेहने. ४६.
जेवा जीवो छे सिद्धिगत तेवा जीवो संसारी छे,
जेथी जनममरणादिहीन ने अष्टगुणसंयुक्त छे. ४७.
अशरीर ने अविनाश छे, निर्मळ, अतीन्द्रिय, शुद्ध छे,
ज्यम लोक-अग्रे सिद्ध, ते रीत जाण सौ संसारीने. ४८.
आ सर्व भाव कहेल छे व्यवहारनयना आश्रये;
संसारी जीव समस्त सिद्धस्वभावी शुद्धनयाश्रये. ४९.