Shastra Swadhyay-Gujarati (Devanagari transliteration).

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श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
अर्हत् सयोगीकेवळीजिन तेरमे गुणस्थान छे;
चोत्रीश अतिशययुक्त ने वसु प्रातिहार्यसमेत छे. ३२.
गति-इन्द्रि-काये, योग-वेद-कषाय-संयम-ज्ञानमां,
द्रग-भव्य-लेश्या-संज्ञी-समकित-आ’रमां ए स्थापवा. ३३.
आहार, काया, इन्द्रि, श्वासोच्छ्वास, भाषा, मन तणी,
अर्हंत उत्तम देव छे समृद्ध षट् पर्याप्तिथी. ३४.
इन्द्रियप्राणो पांच, त्रण बळप्राण मन-वच-कायना,
बे आयु-श्वासोच्छ्वासप्राणो,प्राण ए दस होय त्यां. ३५.
मानवभवे पंचेन्द्रि तेथी चौदमे जीवस्थान छे;
पूर्वोक्त गुणगणयुक्त, ‘गुण’-आरूढ श्री अर्हंत छे. ३६.
वणव्याधि-दुःख-जरा, अहार-निहारवर्जित, विमळ छे,
अजुगुप्सिता, वणनासिकामळ-श्लेष्म-स्वेद, अदोष छे; ३७.
दस प्राण, षट् पर्याप्ति, अष्ट-सहस्र लक्षण युक्त छे,
सर्वांग गोक्षीर-शंखतुल्य सुधवल मांस-रुधिर छे; ३८.
आवा गुणे सर्वांग अतिशयवंत, परिमलम्हेकती,
औदारिकी काया अहो ! अर्हत्पुरुषनी जाणवी. ३९.
मदरागद्वेषविहीन, त्यक्तकषायमळ सुविशुद्ध छे,
मनपरिणमनपरिमुक्त, केवळभावस्थित अर्हंत छे. ४०.
१.अजुगुप्सिता = जेना प्रत्ये जुगुप्सा न थाय एवी.
२.वणनासिकामळ-श्लेष्म-स्वेद = नाकना मेलथी, कफथी ने परसेवाथी
रहित.
३.
सुधवल = धोळुं.४. परिमल = सुगंध.
५.त्यक्तकषायमळ = कषायमळ रहित.
६.केवळ = एकलो; निर्भेळ; शुद्ध.
अष्टप्राभृत-बोधप्राभृत ]
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