श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
देखे दरशथी, ज्ञानथी जाणे दरव-पर्यायने,
सम्यक्त्वगुणसुविशुद्ध छे, — अर्हंतनो आ भाव छे. ४१.
मुनि शून्यगृह, तरुतल वसे, १उद्यान वा समशानमां,
२गिरिकंदरे, गिरिशिखर पर, विकराळ वन वा वसतिमां. ४२.
निजवश श्रमणना वास, तीरथ, शास्त्रचैत्यालय अने
जिनभवन मुनिनां लक्ष्य छे — जिनवर कहे जिनशासने. ४३.
पंचेन्द्रिसंयमवंत, पंचमहाव्रती, निरपेक्ष ने
स्वाध्याय-ध्याने युक्त मुनिवरवृषभ इच्छे तेमने. ४४.
गृह-ग्रंथ-मोहविमुक्त छे, परिषहजयी, अकषाय छे,
छे मुक्त पापारंभथी, — दीक्षा कही आवी जिने. ४५.
धन-धान्य-३पट, ४कंचन-रजत, आसन-शयन, छत्रादिनां
सर्वे कुदान विहीन छे, — दीक्षा कही आवी जिने. ४६.
निंदा-प्रशंसा, शत्रु-मित्र, अलब्धि ने ५लब्धि विषे,
तृण-कंचने समभाव छे, — दीक्षा कही आवी जिने. ४७.
निर्धन-सधन ने उच्च-मध्यम ६सदन अनपेक्षितपणे
सर्वत्र ७पिंड ग्रहाय छे, — दीक्षा कही आवी जिने. ४८.
निर्ग्रंथ ने निःसंग ८निर्मानाश, निरहंकार छे,
निर्मम, अराग, अद्वेष छे, — दीक्षा कही आवी जिने. ४९.
निःस्नेह, निर्भय, निर्विकार, अकलुष ने निर्मोह छे,
आशारहित, निर्लोभ छे, — दीक्षा कही आवी जिने. ५०.
१. उद्यान = बगीचो.२. गिरिकंदर = पर्वतनी गुफा.
३. पट = वस्त्र.४. कंचन-रजत = सोनुं-रूपुं.
५. लब्धि = लाभ.६. सदन = घर. ७. पिंड = आहार.
८. निर्मानाश = मान ने आशा रहित.
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