श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
जन्म्या प्रमाणे रूप, १लंबितभुज, २निरायुध, शांत छे,
परकृत ३निलयमां वास छे, — दीक्षा कही आवी जिने. ५१.
उपशम-क्षमा-४दमयुक्त, तनसंस्कारवर्जित ५रूक्ष छे,
मद-राग-द्वेषविहीन छे, — दीक्षा कही आवी जिने. ५२.
ज्यां मूढता-मिथ्यात्व नहि, ज्यां कर्म अष्ट विनष्ट छे,
सम्यक्त्वगुणथी शुद्ध छे, — दीक्षा कही आवी जिने. ५३.
निर्ग्रंथ दीक्षा छे कही षट् संहननमां जिनवरे;
भवि पुरुष भावे तेहने; ते कर्मक्षयनो हेतु छे. ५४.
तलतुषप्रमाण न बाह्य परिग्रह, राग तत्सम छे नहीं;
— आवी प्रव्रज्या होय छे सर्वज्ञजिनदेवे कही. ५५.
उपसर्ग-परिषह मुनि सहे, निर्जन स्थळे नित्ये रहे,
सर्वत्र काष्ठ, शिला अने भूतल उपर स्थिति ते करे. ५६.
स्त्री-६षंढ-पशु-७दुःशीलनो नहि संग, नहि विकथा करे,
स्वाध्याय-ध्याने युक्त छे, — दीक्षा कही आवी जिने. ५७.
तपव्रतगुणोथी शुद्ध, संयम-सुद्रगगुणसुविशुद्ध छे,
छे गुणविशुद्ध, — सुनिर्मळा दीक्षा कही आवी जिने. ५८.
संक्षेपमां आयतनथी ८दीक्षांत भाव अहीं कह्या,
ज्यम शुद्धसम्यग्दरशयुत निर्ग्रंथ जिनपथ वर्णव्या. ५९.
१. लंबितभुज = नीचे लटकता हाथवाळी. २. निरायुध = शस्त्ररहित.
३. निलय = रहेठाण.४.दम = इन्द्रियनिग्रह.
५. रूक्ष = तेलमर्दन रहित.६.षंढ = नपुंसक.
७. दुःशील = कुशील जनो.
८. दीक्षांत = प्रव्रज्या सुधीना.
अष्टप्राभृत-बोधप्राभृत ]
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