श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
हे जीव! १कुमरणमरणथी तुं मर्यो अनेक भवो विषे;
तुं भाव सुमरणमरणने २जर-मरणना हरनारने. ३२.
त्रण लोकमां परमाणु सरखुं स्थान कोई रह्युं नथी,
ज्यां द्रव्यश्रमण थयेल जीव मर्यो नथी, जन्म्यो नथी. ३३.
जीव ३जनि-जरा-मृततप्त काळ अनंत पाम्यो दुःखने,
जिनलिंगने पण धारी ४पारंपर्यभावविहीनने. ३४.
प्रतिदेश-पुद्गल-काळ-आयुष-नाम-परिणामस्थ तें
५बहुशः शरीर ग्रह्यां-तज्यां निःसीम भवसागर विषे. ३५.
त्रणशत-अधिक चाळीस-त्रण रज्जुप्रमित आ लोकमां
तजी आठ कोई प्रदेश ना, परिभ्रमित नहि आ जीव ज्यां. ३६.
प्रत्येक अंगुल छन्नुं जाणो रोग मानवदेहमां;
तो केटला रोगो, कहो, आ अखिल देह विषे, भला! ३७.
ए रोग पण सघळा सह्या तें पूर्वभवमां परवशे;
तुं सही रह्यो छे आम, यशधर! अधिक शुं कहीए तने? ३८.
मळ-मूत्र-६शोणित-पित्त, ७करम, बरोळ, ८यकृत, ९आंत्र ज्यां,
त्यां मास नव-दश तुं वस्यो बहु वार जननी-उदरमां. ३९.
जननी तणुं चावेल ने खाधेल एठुं खाईने,
तुं जननी केरा जठरमां वमनादिमध्य वस्यो अरे! ४०.
१. कुमरणमरण = कुमरणरूप मरण.२. जर = जरा.
३. जनि-जरा-मृततप्त = जन्म, जरा अने मरणथी पीडित वर्ततो थको.
४. पारंपर्यभावविहीन = परंपरागत भावलिंगथी रहित; आचार्योनी परंपराथी
चाल्या आवता भावलिंग रहित.५. बहुशः = अनेक वार.
६. शोणित = लोही. ७. करम = कृमि. ८. यकृत = कलेजुं.
९. आंत्र = आंतरडां.
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