श्री दिगंबर जैन स्वाध्यायमंदिर टस्ट, सोनगढ -
शुभ, अशुभ तेम ज शुद्ध — त्रणविध भाव जिनप्रज्ञप्त छे;
त्यां ‘अशुभ’ १आरत-रौद्र ने ‘शुभ’ धर्म्य छे — भाख्युं जिने. ७६.
आत्मा विशुद्धस्वभाव आत्म महीं रहे ते ‘शुद्ध’ छे;
— आ जिनवरे भाखेल छे; जे श्रेय, आचर तेहने. ७७.
छे २गलितमानकषाय, मोह विनष्ट थई ३समचित्त छे,
ते जीव ४त्रिभुवनसार बोधि लहे जिनेश्वरशासने. ७८.
विषये विरत मुनि सोळ उत्तम कारणोने भावीने,
बांधे ५अचिर काळे करम तीर्थंकरत्व-सुनामने. ७९.
तुं भाव बार-प्रकार तप ने तेर किरिया ६त्रणविधे;
वश राख ७मन-गज मत्तने मुनिप्रवर ! ज्ञानांकुश वडे. ८०.
८भूशयन, भिक्षा, द्विविध संयम, ९पंचविध-पटत्याग छे,
१०छे भाव भावितपूर्व, ते जिनलिंग निर्मळ शुद्ध छे. ८१.
१. आरत-रौद्र = आर्त अने रौद्र.
२. गलितमानकषाय = जेनो मानकषाय नष्ट थयो छे एवो.
३. समचित्त = जेनुं चित्त समभाववाळुं छे एवो.
४. त्रिभुवनसार = त्रण लोकमां सारभूत.
५. अचिर काळे = अल्प काळे.
६. त्रणविधे = त्रण प्रकारे अर्थात् मन-वचन-कायाथी.
७. मन-गज मत्तने = मनरूपी मदमाता हाथीने.
८. भूशयन = भूमि पर सूवुं ते.
९. पंचविध-पटत्याग = पांच प्रकारनां वस्त्रोनो त्याग.
१०. छे भाव भावितपूर्व = ज्यां भाव (शुद्ध भाव) पूर्वे भाववामां आव्यो
होय छे; ज्यां पहेलां यथोचित शुद्धभावरूप परिणमन थयुं होय छे.
अष्टप्राभृत-भावप्राभृत ]
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